Thursday, December 20, 2012

बारात आगे चलकर मनुवादी हो गई

अल्ला-अल्ला खैर सल्ला। आपकी दुआ है कि बारात के तम्बू और पूरी रात बजने वाले कानफोड़ू बाजों के बावजूद मैं हूं और यह मेरा वजूद है कि सब कुछ सहने को मजबूर है। अभी पिछले हफ्ते शहर की भरी पूरी सड़क से गुज़र रहा था बीच सड़क पर तम्बू लगा हुआ था, कुर्सिया थीं, मेजों पर सफेदी की चमकार वाली चादरें थीं, मेरे ड्राइवर ने जीप रोक दी, आगे सड़क बंद है।
    पी.डब्ल्यू.डी. भी पुल बगैरह बनाने के लिए सड़क बंद करती है, तो बगल से कामचलाऊ बाई पास बनाती है और चमकता हुआ बोर्ड लगवाती है। सड़क बंद है, कृपया दायें से जाएं मगर यहां कोई बाईपास नहीं। बोर्ड की जगह बिजली के बल्बों से चमकता बोर्ड सोनू वेड्स पिंकी। मैं उतर पड़ा, गनर को उतरता देखकर दो-तीन लोग आगे बढ़े मेरी ओर मुखातिब हुए ‘‘आइए-आइए, हम लोग अभी आपकी ही बात कर रहे थे कि सोनू के फूफा आएंगे जरूर।’’
    मैंने कहा, ‘‘मगर मैं तो आगे जा रहा था।’’
    ‘‘कोई बात नहीं भैय्ये, राह भूल ही जाती है, आज कई ठो बाराती राह भूल गए, बाद में लौट आए।’’
    हमारे गनर ने समझाने की कोशिश की ‘‘साहब हैं, हम लोग उन्नाव.....’’
    ‘‘अरे उन्नाव जाना हो या आमा, दीवान जी जब निजी मोटर है तौ बगैर खाए पिए...........’’
    मैंने हाथ जोड़ लिए, मेरा मन गुस्से से अमरीशपुरी हो रहा था मगर मैं राखी की तरह रूआ सा होकर बोल, ‘‘मैं  आपके यहां निमंत्रण में नहीं आया हूं। यह तम्बू राह में लगा है, इसीलिए रास्ता पता लगाने के लिए शैडो उतरा है।’’
    शादी पिंकी की हो या सक्सेना बाबू के चिरंजीव पुक्कू की। तम्बू रास्ते को बंद करके ही लगाया जाता है। लड़की के घर का माल लड़के के बाप का होता ही है, मुझसे क्या लेना-देना? मगर सड़क रोकना कहां का ‘शगुन’ है।
    रास्ता था नहीं, मैंने कार रूकवा दी थी। नचनिहा लड़के कार की ओर लपके, ‘अबे साले अगवानी में कार पेल रहे हो। ‘मैंने कार के भीतर से हाथ जोड़े, चूंकि बारात सम्भ्रात लोगों की थी, और क्योंकि बारात में अच्छे भले घरों के लड़के शामिल थे और चूंकि सब सुशिक्षित थे इसलिए उन लड़कों ने मेरे ड्राइवर को पीटना शुरू कर दिया। जब मैंने व मेरे साथ अंगरक्षक ने असलहे निकाले तब लड़के भागे और उपस्थित नसेड़ी सम्भ्रातों ने मुझे नसीहत दी ‘‘लड़के हंै, अब आपको ऐसा शोभा नहीं देता। तो मुझे नाराज होना चाहिए, मगर चूंकि वे लड़के हैं और सम्भ्रांत हैं और दारू पिए हैं इसलिए उनका संस्कृति-सिद्ध अधिकार है कि राह रोकें और मारपीट करें।
    लखनऊ राजधानी के एक थानेे में थानाध्यक्ष हैं, मेरे एक परिचित। उनके भाई की बारात। वे भाई उन्नाव में
थानाध्यक्ष है। रास्ते में बारात चली। थोड़ी दूर तक कोई 15-20 कदम तक तो बारात गांधीवादी रही। शांत। अभद्रता रहित। आगे चलकर मनुवादी हो गई। राजधानी वाले थानाध्यक्ष नाचने लगे। कोई बात नहीं। भाई की शादी है। सिपाही भी नाचने लगे। होमगार्डों ने भी सुलगती बीड़ी के साथ नाचना शुरू कर दिया। राह ठप्प। नेशनल हाईवे जाम। दोनों और ट्रैफिक रूक गया। मैंने नेतागीरी की कोशिश की। यार दरोगा को समझाने का उपक्रम किया, जैसा की जरूरी है कि बारात में सुशिक्षित और हनक वालों को लाया जाता है और प्रतिष्ठा की खातिर दारू पीनी ही पड़ती है, सो वे भी पिए हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा ‘‘गुरूजी नाचो’’।
    गुरू घबड़ाया। दरोगा लोगों को थाने में मुर्गा बनाते, गाना सुनते और थाने आए हुए लोगों से अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते सुन रखा था। नाचने का हुक्म सुना। मैं रिरिया, गया। ‘‘गुरू को नाचना होगा’’ उन्होंने दोनों हाथ पकड़े। इधर-उधर धुमाया। मैंने द्रोपदी होकर कृष्ण को पुकारा। गिरधारी बचाओं लाज। एक डिप्टी एस.पी. गा रहे थे, ‘‘समधिन तेरी घोड़ी चने के खेत में।’’ मैं, विवाह एक संस्कार है, पवित्र बंधन है और बारात गधा पच्चीसी है, रास्ता रोको बदतमीजी है या पूर्व जन्म का कोई पाप है? आदि सोच-सोचकर खुन्नस में था। मैं उधेड़बुन में हूं, क्योंकि ‘‘फुर्सत में’’ हूं। सोचता हूं एक बारात के स्वागत में रास्ता रोकना क्यों जरूरी है? दारू पीकर नाचना किस संस्कार का हिस्सा है? रास्ते में तम्बू लगाकर आवागमन ठप्प करने से क्या वर-कन्या का विवाह बंधन ज्यादा मजबूत रहता है? आदि प्रश्न मुझे काट रहे हैं। मगर मैं कर क्या सकता हूंँ?
    अठारह साले पहले ‘प्रियंका’ के जून, 1994 अंक में छपा व्यंग्या फिर से पाठकों के लिए छापा जा रहा है।

3 करोड़ की चिकनी चमेली!


नये साल के जश्न पर बाॅलीवुड की नायिकाओं की जेबों में करोड़ों की कमाई आने वाली है। हर वर्ष इस मौके पर आयोजित होने वाले समारोहों में आजकल बाॅलीवुड की नायिकाओं को नाचने के लिए बुलाया जाता है और उन्हें उन्हीं की फिल्मों के गीतों पर थिरकने के लिए मशहूर पांच सितारा होटलों द्वारा करोड़ों का भुगतान किया जाता है। इस मौके को कोई भी भारतीय फिल्म अभिनेत्री छोड़ना पसंद नहीं करती है। इन दिनों इस मौके के लिए नायिकाओं के पास प्रस्तावों को ढेर लगा रहा है। इनमें सबसे ज्यादा डिमांड कैटरीना कैफ की है जिन्हें अग्निपथ के गीत चिकली चमेली को प्रस्तुत करने के लिए तीन करोड़ की भारी भरकम राशि दी जा रही है। हालांकि कैटरीना ने अभी इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है। वहीं दूसरी ओर बंगाली वाला विपाशु बसु को 1 करोड़ और कंगना रणावत को 1.5 करोड़ का आॅफर मिला है। हालांकि कंगना ने यह आॅफर ठुकरा दिया है। उनका कहना है कि उनके पास अपनी फिल्मों से वक्त नहीं है। इसलिए वे इन कार्यक्रमों में शिरकत नहीं कर सकती, लेकिन अब कहा जा रहा है कि कंगना ने इन प्रस्तावों को इसलिए ठुकराया शायद उन्हें इससे ज्यादा कि उम्मीद है। वहीं प्रियंका चोपड़ा और करीना कपूर ने परफोर्मेस के बारे में कन्फर्म नहीं किया है। जबकि करीना ने छत्तीसगढ़ महोत्सव में पिछले दिनों 8 मिनट की पारफारमेंस के लिए 1.46 करोड़ वसूले है। उधर नयी नवेली दुल्हन करीना का सैफ के साथ हनीमून का प्लान है। ऐसे में उनके लिए परफाॅर्म करना मुश्किल भरा हो सकता है। इनके अलावा पोर्न स्टार सनी लियोन को 1 करोड़ का आॅफर मिला है। जरीन खान, वीना मलिक, ईशा शरवानी और तनु श्रीदत्ता समेत कई हीरोइनो को लाखों के आॅफर मिल रहे हैं। वहीं समीरा रेड्डी को लखनऊ में 50 लाख, प्राची देसाई को 51 लाख, श्वेता तिवारी 50 लाख, परणीता चोपड़ा को दस लाख के आॅफर हैं।
    यहां बताते चलें कि फिल्मी सितारे अमीरों की शादियों में नाचने और पंडाल की रौनक बढ़ाने की मोटी रकम लेते हैं। लोगों से मिलने के लिए अलग से 20 से 50 लाख रूपये के बीच फीस वसूलते हैं। इस साल इन सितारों ने अपनी फीस दोगुनी कर दी है। खबरों के मुताबिक गुजरी शादियों के मौसम में इनकी कीमत कुछ इस तरह बताई गई।
कैटरीना - 3 करोड़ रुपये (पिछले साल 1.5 करोड़ थी कीमत)
शाहरूख - 3 करोड़ (पिछले 2-2.5 करोड़ थी कीमत)
अक्षय कुमार - 2.5 करोड़ (1.5 करोड़ रूपये थी पिछले साल कीमत)
सलमान खान - 2.5 करोड़ रूपय
प्रियंका चोपड़ा - 1.2 करोड़ रूपये
मलाइका अरोड़ा - 60-75 लाख रूपये
बिपाशा बसु - 40 लाख रूपये
अनुष्का शर्मा - 50 लाख रूपये
मल्लिका शेरावत - 25-30 लाख रूपये
सोफी चैधरी - 20-25 लाख रूपये

सेक्स मार्केट में सिनेमाई लड़कियां

मुंबई/लखनऊ। हैप्पी न्यू इयर... हैप्पी क्रिसमस की तैयारियों के बीच शहर के पांच तारा होटलों से लेकर इकोनाॅमी होटलों, रेस्टोरेन्टों और खास जगहों पर पोशीदा पार्टियों के इंतजामात अंजाम दिये जा रहे हैं। इनमें शिरकत करनेवालों ने अभी से अपनी बुकिंग करा ली है। इसके लिए तमाम ‘इवेंट एजेंसियां’ सक्रिय हैं। इनके प्रबन्धक ‘सेलीब्रेट-13’, ‘वेलकम-13’ या ‘न्यू इयर नाइट’ के जश्न में शामिल होने वालों से सम्पर्क कर रहे हैं। यहीं ‘इवेन्ट मैनेजर्स’ रात्रि जश्न के लिए इच्छित साथी (पार्टनर) की भी व्यवस्था करा दे रहे हैं। पिछले कुछ सालों से मुंबई के पांचतारा होटलों में बाॅलीवुड की मशहूर सिनेतारिकाएं नाचकर नये साल के इस्तकबाल में सजी महफिल रंगीन करती हैं, तो इनकी हमशक्ल (जो इनके डबल का रोल करती हैं) अपने साथी (ग्राहक) का बिस्तर गरम करती हैं।
    इन दिनों देह व्यापार के धंधे में माॅडल्स फिल्म, टीवी अभिनेत्रियों की हमशक्ल, असफल तारिकाओं, विदेशी लड़कियों और झारखंड, बिहार, उप्र की खांटी देसी लड़कियों की काफी मांग है। इसका खुलासा पिछले साल जुहू के नोवाटेल होटल की पुलिस छापेमारी के दौरान पकड़े गये दलालों व लड़कियों से हुआ। इसके अलावा लखनऊ के चारबाग व गोमतीनगर इलाकों में पुलिस कार्यवाई में पकड़ी गई लड़कियों ने भी पुलिस को इसकी जानकारी दी थी। गौरतलब है पिछले साल ही दिल्ली, मुंबई, पुणे, हैदराबाद में कई सिनेतारिकाएं व उनकी हमशक्ल सेक्स रैकेट में लिप्त पुलिस की गिरफ्त में आई थीं। आंध्र प्रदेश की नाकाम अभिनेत्री तारा चैधरी को हैदराबाद की बंजारा हिल्स पुलिस ने सेक्स रैक्ट चलाते पिछले साल मार्च में पकड़ा था।
    इन नाकाम अभिनेत्रियों व हमशक्लों का नेटवर्क सम्भालने वाले दलाल ‘इवेंट मैनेजर’ या माॅडल कोआर्डिनेटर’ के चमकदार नामों से पहचाने जाते हैं। कई बड़े रैकेट के सरगना काॅरपोरेट आॅफिस की तरह अपना सेक्स कारोबार इंटरनेट से लेकर इंटरनेशनल मंडियों तक फैलाए हैं। ये लोग हर तरह की लड़की व उसके साथ की सभी आवश्यकताओं की आपूर्ति करते हैं। दलाली की एवज में ग्राहक से ‘सर्विस टैक्स’ वसूल करते हैं। इन जगमगाती लड़कियों की एक घंटे की कीमत 25 हजार से लेकर पांच लाख तक होती है। इन्हें अरब देशों से आने वाले ग्राहक बतौर फिल्म/टीवी स्टार अद्दिक पसन्द करते हैं। उन्हें यह भी नहीं मालूम होता है कि जो लड़की उनके बिस्तर पर है वह असली हिरोइन है या डुप्लीकेट। अधिकतर ग्राहक बाॅलीवुड सुन्दरियों के दीवाने होते हैं। इन हसीनाओं के लटके-झटके बिल्कुल असल अभिनेत्रियों जैसे ही होते हैं। ये सुरक्षागार्डाें से घिरी, महंगे जेवरातों, कपड़ों के अलावा सुपर ब्रांडेड परफ्यूम्स से महकती चहकती दिखती हैं। जूहू और बांद्रा इलाके के काॅफी शाॅपस् पर इन लड़कियों का जमघट शाम सात बजे से लगा रहता है। इनमें तमाम तो छोटे शहरों से आईं और फिल्मों/टी.वी. में एक्स्ट्रा के तौर पर काम कर रही होती हंै। इन्हें इनके दलाल ग्राहकों से अधिक न घुलने-मिलने की सलाह बराबर देते रहते हैं। यदि कहीं भी लड़की और ग्राहक के बीच सम्बन्ध प्रगढ़ होने लगते हैं तो इवेंट मैनेजर/कोआर्डिनेटर लड़की को प्रताडि़त करने के तमाम हथकंडे अपनाते हैं। उनमें एक पुलिस के फंदे में पहुंचाने का आसान तरीका सबसे पहले अपनाया जाता है। इसके बाद तो इन हसीनाओं की हिम्मत ही नहीं होती कि वो किसी से रोमांस करने की सोंचे।
    विदेशों से आने वाले अमीर, एनआरआई, बिल्डर्स, व्यापारी, नौकरशाह जो अक्सर भारतयात्रा पर आते रहते हैं, वे इन ‘स्टार्स’ लड़कियों की मांग घंटों के हिसाब से करते हैं। वे पूरी कीमत अदा करने के साथ इन लड़कियों को महंगे-महंगे उपहार भी देते हैं। अक्सर वे इन ‘हिरोइनों’ को अपने साथ विदेश भी ले जाते हैं। अधिकतर दुबई, शारजाह जाने वाली उड़ान में गुरूवार को इन तितलियों को देखा जा सकता है और रविवार को वापसी की उड़ानों में महंगे उपहारों से लदी फंदी दिख जाएंगी। मंुबई, पुणे, लवासा के पांचतारा होटलों के अलावा लखनऊ के तीन पांचतारा होटलों को इनका मुख्य कार्यक्षेत्र माना जाता है। क्योंकि इन्हीं होटलों में असली अभिनेत्रियां आती रहती हैं। इससे भी अधिक चैंकानेवाली खबर लखनऊ के एक ट्रेवेल एजेंट के जरिए निकलकर आई है। कई व्यापारी, नौकरशाह, बिल्डर्स आदि लम्बी दूरी की रेलगाडि़यों के प्रथम श्रेणी एसी के कूपे में माॅडल्स जैसी छात्राओं के साथ रंगरेलियां मनाने के लिए सफर करते हैं। इन यात्राओं में किसी प्रकार का कोई खतरा भी नहीं होता।
    नये साल के स्वागत में शराब, शबाब और कबाब की महफिलों के गुलजार होने के किस्से गोवा, मुंबई के अलावा दिल्ली-लखनऊ से भी सुने जा रहे हैं। कई दूतावासों में भी नाचरंग, सुरा-सुन्दरी की महफिलें सजती हैं। इसके अलावा देह व्यापार के बाजार ने महत्वाकांक्षी और रोमांच में जीने की तमन्नाई छात्राओं को भी अपने धंधे में समेट लिया है। लखनऊ के तमाम एकेडमी/काॅलेजों में पढ़नेवाली छात्राओं ने बेहद पोशीदा ढंग से ‘सेक्स मार्केट’ में अपने जलवे बिखेर रखे हैं। नेट पर तो इनमें से तमामों को नंगा देखा जा सकता है। इनमें अधिकांश छोटे शहरों/कस्बों से आई हैं। गौर से देखा जाए तो इनके ग्रुप के टूर प्रोग्राम से पूरी जानकारी मिल जाएगी। इनके साथ तमाम युवा शिक्षिकाएं भी जुड़ी हैं। जुड़ने को तो इनसे शहर के हिजड़े भी जुड़े हैं।

सत्य से साक्षात्कार है ‘नचिकेता’

राम प्रकाश वरमा
राम का नाम सत्य है, मृत्यु के समय इकट्ठा होने वाली भीड़ का जयकारा है। और जन्म ‘मातृरूपेण संस्थिता’ का सच। इसी सत्य के संघर्ष का नाम जीवन है। उसे -‘नचिकेता’ का स्वरूप देकर केरल जैसी पावन माटी में जन्में पत्रकार/कवि पी. रविकुमार ने तमाम धार्मिंक ग्रंथों का सारांश चंद पन्नों में समेटने का साहस दिखाया है। ‘नचिकेता’ मूलतः मलयालम भाषा में है, उसका हिन्दी अनुवाद प्रो0 डी0 तंकप्पन नायर ने किया है। अनुवाद पढ़कर सीधे श्री नायर से जुड़ने का आनंद और रविकुमार के दर्शन भरे काव्य की भावगंगा के आचमन की अनुभूति को मैं अपने गुरूवार आचार्य पं0 दुलारे लाल भार्गव के दोहे में व्यक्त करते हुए ‘नचिकेता’ के सत्य से साक्षात्कार कराना चाहुंगा।
राधा गगनांगन मिलै धारापति सौं धाय;
पलटि आपुनों पंथ पुनि धारा ही ह्नै जाय।
    कवि रविकुमार ने लिखा है ‘आत्मविलासम्’ पढ़ने के बाद ‘नचिकेता’ लिखने की प्रेरणां मिली। दरअसल श्रीकृष्ण का यह कहना ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ के बाद कई जगह कर्म के अनुसार फल का भी जिक्र श्रीमदभगवदगीता में हैं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के आनंद भय का हमारे तमाम धर्मग्रन्थों में जिक्र हैं। उसी को काव्य रूप से इतने कम पन्नों में समेट कर पठनीय बनाया गया है। तो भी जन्म के बाद मृत्यु के सत्य को सभी जानते हैं, स्वीकारते हैं, लेकिन मैं, मेरा से मोहग्रस्त रहते हैं। कोई भी यमराज की अगवानी के लिए दो गज कफन खरीद कर पहले से नहीं रखता। ऐसे में सत्य से साक्षात्कार कराता है काव्य ‘नचिकेता’।
    शुक्ल शोणित संघात होकर/द्रवरूप में से लेकर जन्मांतर के पालने में नचिकेता नेत्र खोलता है से आगे काल कहीं नहीं जाता/ पीछे मुड़कर अंतिम बार देखा तो/दो काले भैंसे/ प्रिय पुत्र! तू हमारा सब कुछ था/ महारौरव नामक नरक में गिरता है। मैं ईश्वर से एकात्म हो जाता हूं, तक मनुष्य की वेदना का संघर्ष प्रतिष्ठापित है। जिंदगी की अनसुलझी पहेली और उसकी उत्तेजना में किये गये कर्म एवं उसके अनुरूप दण्ड के भय को उद्घाटित करते हुए ईश्वर के समक्ष खड़े हो जाने का शानदार समापन काव्यमय किया गया है। ‘नचिकेता’ काव्य को पढ़ने के बाद श्री के.जी. बालकृष्ण पिल्लै को द्दन्यवाद दंूगा। वे केरल हिन्दी प्रचार सभा के
अध्यक्ष रहे हैं। ‘प्रियंका’ कार्यालय आये भी हैं, उनका स्नेह बराबर बना रहा। इतनी उम्र होने पर भी उन्होंने प्रो0 नायर और रविकुमार को प्रेरित किया कि जन्म, मरण और अस्तित्व के संघर्ष के सत्य का लयबद्ध आनंद ‘प्रियंका’ के पाठक भी ले सकंे।
    और अन्त में इतना ही, ‘नचिकेता’ आदमी की आत्मा को झिंझोड़ने में सक्षम है। ‘मैं’ को ठोकर मारकर मानव को जगाने का नाम है ‘नचिकेता’। मोटे-मोटे ग्रन्थ सभी नहीं पढ़ सकते, परन्तु इस काव्य की पंक्तियां ग्रन्थों की तरह ही प्रेरणा देंगी।

यदि आज अंगरेज भारत छोड़ दें?

अंगरेज नेता और समाचार-पत्र बहुधा यह धमकी दिखाया करते हैं कि यदि अंगरेज आज भारत को छोड़कर चले जाएं, तो कल ही यहां पर चीन की तरह क्रांति मच जाय और अफगानिस्तान -सरीखा कोई विदेशी आक्रमण कर इस देश पर अपना अधिकार जमा ले; रूस अपना षड्यंत्र अवश्य फैलावेगा और उस समय भारत की सांपत्तिक और नैतिक अवस्था कहीं गिर जायगी। इससे अच्छा तो यही है कि अंगरेज सर्वदा भारत में रहकर भारत की रक्षा करें, और
धीरे-धीरे उसको स्वराज्य की ओर ले चलें (?)
    इधर बड़ी व्यवस्थापिका सभा में इस प्रश्न पर पंडित मोतीलाल नेहरू ने काफी प्रकाश डाला है। गवर्नमेंट की सेना-नीति की कड़ी आलोचना करते हुए आपने रूस का हाल, जैसा स्वयं उन्हांने देखा है, बयान किया। आपका कहना है कि ‘‘रूस स्वयं ब्रिटिश-नीति से डरता रहता है, और सर्वदा आत्मरक्षा में तत्पर रहता है। उसमें इतना साहस कहां, जो भारत पर आक्रमण करें।’’ रही अफगानिस्तान की बात, सेा वह भी अमीर अमानुल्लाह के इधर के व्याख्यानों से ही प्रकट है। अमीर स्वयं अपने देश की उन्नति में ही रत हैं। थोड़ी देर के लिये यह भी मान लिया जाय कि अफगान आक्रमण करेंगे, तो क्या यह विचार में आ सकता है कि भारतवासी उनसे लोहा न ले सकेंगे? जब जर्मनी के छक्के भारतवासियों ने छुड़ा दिए, तो अफगान कौन चीज है।
    खैर, इसको भी जाने दीजिए। क्या भारत छोड़ने से अंगरेजों का कोई नुकसान न होगा? इधर डाॅक्टर तारकनाथ दास ने अमेरिका में व्याख्यान देते हुए सारबोन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एलबर्ट डेमाज्योर की स्पीच उद्धत की है। पाठकों के लिये वह यहाँ पर दी जाती है -
    ‘‘भारत चूसा जाने के लिये अच्छा देश है। बहुत बड़ा धनी और घना बसा हुआ होने के कारण वह अपने स्वामी को धन और आत्म-रक्षा-साधन प्रदान करता है। भारत ही के द्वारा इंगलैंड अपना भाग्य-निर्णय करता हैं। सुदूर पूर्व (चीन, जापान आदि) में ब्रिटिश व्यापार के लिये भारत केंद्र है। वह ब्रिटिश-जहाजी बेड़े को शरण देता है। सेना में सहासी योद्धा भरती करता है; भारतीय सेनाएं इंगलैंड के लिये चीन और दक्षिण अफ्रिका में लड़ती हैं, यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भारत ने मेसोपोटामिया को जीता और टर्की को हराया। भारत इंगलिस्तान के लिये एक बृहत् मंडी है..... भारत इंगलैंड को सूद के रूप में 13,500 लाख पौंड से ज्यादा वार्षिक धन अर्पण करता है। भारतीय सेना में तमाम ब्रिटिश अफसर और सिपाही अपना पेट भरते हैं, और उनकी बचत ग्रेट-ब्रिटेन को जाती है। वह ब्रिटिश खजाने में अफसरों की पेंशन, इंडिया आफिस के खर्च और सूद के रूप में न जाने कितना धन डालता चला जाता है। 300 लाख पौंड से कहीं ज्यादा रूपया भारत अंगरेज महाजनों को देता है। इसका अंदाज लगाना असंभव है कि और कितना अधिक वह अंगरेज व्यापारियों को और जहाजों के स्वामियों को प्रदान करता है।’’
    ये शब्द एक नामी फ्रेंच प्रोफ्रेसर के हैं। पर इनमें कोई नई बात नहीं है। स्वयं र्लाउ बर्केनाहेड के शब्द उन्हीं के मुखारविंद् से सुन लीजिए-
‘‘भारत इंगलैंड के लिये अमूल्य है। इंगलैंड की व्यापारिक सफलता और संपन्नता भारत ही से है। भारत से नाता टूटना इंगलैंड के लिये एक भयानक अर्नथ होगा।’’ 
    .............‘‘यदि हम भारत छोड़ दंे, तो हमरे साम्राज्य का सत्यानाश प्रारंभ हो जाय; क्योंकि पूर्वी देशों पर भारत ही के कारण हमारा आद्दिपत्य हैं। वे सब हाथ से अवश्य निकल जायंगे।’’
    एक तरफ तो अंगरेजों के ऐसे विचार हैं, दूसरी तरफ वे डरे भी हैं। भारत छोड़ देने पर उनका नाश अवश्यंभावी हैं फिर इतनी मूर्खता क्यों? लेकिन दुःखी और बेडि़यों में जकड़े हुए भारत की अपेक्षा स्वतंत्र और सुखी भारत इंगलैंड को कहीं अधिक लाभ पहुंचा सकता है।

पिटती पुलिस


लखनऊ। पुलिस का खौफ अपराधियों में पहले ही नहीं रह गया, अब जन सामान्य में भी उसका इकबाल घट रहा है। पिछले दस महीनों में प्रदेश के छः जिलों में सात पुलिसवालों पर सरेआम हमले हुए जिसमें चार की मृत्यु हो गई। मेरठ में 7 दिसम्बर को छात्रों के दो गुट्टों में हुए झगड़े को सुलटाने के दौरान पुलिस उपनिरीक्षक आनन्द पाल सिंह को इंजीनियरिंग के छात्र पंकज शर्मा ने गोली मार दी। इससे पहले 15 मई को मेरठ में दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबिल संजीव और उसके साथी को सरेआम सड़क पर गोली मार दी गई थी, जिसमें संजीव ने मौके पर ही दम तोड़ दिया था।
    लखनऊ में नवम्बर महीने में मुख्यमंत्री की सुरक्षा में तैनात पुलिस उपाधीक्षक की पिटाई सरेआम हो गई थी। लखीमपुर में 29 अक्टूबर को कांस्टेबिल उमेश कुमार को गोलीमार कर हत्या कर दी गई। 24 अक्टूबर को इलाहाबाद के दुबावल गांव में मध्य प्रदेश वायरलेस पुलिस में कार्यरत एक सब इंस्पेक्टर की जमीनी विवाद में गोली मारकर हत्या कर दी गई। बदायूं के नदौलिया गांव में स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को उस समय गोली मार दी गई जब वह अपराद्दियों का पीछा कर रहा था। 30 मार्च को कानपुर के नौबस्ता थाने के एसओ देवेन्द्र सिंह की पुलिस स्टेशन के भीतर गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसी तरह यातायात सिपाही भी आए दिन पिट रहे है। (देखें बाॅक्स)
    पुलिस पिट रही है लेकिन एडीजी कानून-व्यवस्था अरूण कुमार कहते हैं, ये घटनाएं अपराधियों द्वारा नहीं अंजाम दी जा रहीं, बल्कि अचानक घट रही हैं, इन्हें हादसों की तरह देखा जाना चाहिए। फिर भी पुलिस का इकबाल कम हो रहा हैं, सवाल जस का तस है।
पिछले दो महीने में हुए ट्रैफिक पुलिस पर हमले
ऽ    14 दिसम्बर को चैक में कन्वेंशन सेंटर तिराहे पर लाल बत्ती पार करते हुए बाइक सवार विजय कुमार को रोकने पर उसने ट्रैफिक सिपाही पर रिवाल्वर तान दी।
ऽ    11 दिसम्बर को टेढ़ी पुलिया चैराहे पर तैनात दरोगा अम्बिका प्रसाद यादव पर एक इंडिका सवार युवक ने अपनी कार चढ़ाने का प्रयास किया।
ऽ    16 नवम्बर को डालीगंज पुल पर टैªफिक सिपाही राजेश यादव से मंत्री के करीबी दो युवकों ने हाथापाई की थी।
ऽ    9 नवम्बर को शराब तस्कर परमजीत सिंह ने आलमबाग में चेकिंग के दौरान सिपाही को कुचलने की कोशिश की थी।
ऽ    06 नवम्बर को साउथ सिटी पुलिस चेक पोस्ट के पास दो युवकों ने सिपाही राजू निगम पर हमला कर दिया था।
ऽ    02 नवम्बर को निशातगंज पुलिस चैकी के पास ट्रैफिक हेड कांस्टेबिल एचसी कुशवाहा को तीन छात्रों ने पीटा।
ऽ    02 नवम्बर को ही आलमबाग के पास सिटी बस में दो छात्रों ने एटीएस के सिपाही संजय यादव को पीटा।
ऽ    01 नवम्बर को हजरतगंज में रायल होटल चैराहे के पास दो युवकों ने सिग्नल तोड़ने का विरोध कर रहे ट्रैफिक सिपाही दशरथ प्रसाद की पिटाई की थी।

आज सडे है, लखनऊ गंदा रहेगा

लखनऊ। राजधानी में सफाई अभियान के साथ कूड़ा उठवाने और आवारा जानवरों को पकड़ने में नगर निगम ने पिछले दिनों खासी दिलचस्पी ली। हालांकि इसी बीच पुराने लखनऊ के तोप दरवाजे पर आवारा सांड़ ने एक युवक को बुरी तरह घायल कर दिया। पूरे शहर में दसियों लोग इन साड़ों की दबंगई का शिकार हो रहे हैं। नगर विकास  मंत्री भी बार-बार गंदगी देख नाराज होते हैं। वहीं सफाईकर्मी शहर को गंदा रखने की कसम खाकर आन्दोलन और धरने का सहारा ले मजे कर रहे हैं। 30 लाख की आबादी वाला शहर लखनऊ रविवार और सार्वजनिक अवकाशों को बेहद सुस्त हो जाता है। सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है। कई प्रमुख बाजार बन्द रहते हैं। सड़कों पर यातायात का दबाव बेहद कम होता है। ऐसे में सफाईकर्मी भी छुट्टी मना लेते हैं। सफाईकर्मियों की छुट्टी का नतीजा शहर के लिए गंदगी का तोहफा हो जाता है। गलियों, सड़कों पर कूड़ा फैला रहता है, तो नालियाँ भरी हुई बजबजा रही होती हैं। आमतौर पर सफाईकर्मी कूड़ा आधा-अधूरा उठाते हैं, नालियों की सिल्ट खाली ही नहीं करते, इसी कारण महज 24 घंटे में शहर कूड़े से पट जाता है। इसमें आवारा जानवर और समझदार नागरिक भारी इजाफा करने में बढ़-चढ़कर कर हिस्सा लेते हैं। ये सभ्य लोग अपने को राजधानी का वाशिन्दा नहीं मानते या सरकारी कर्मचारी आसमान से आएंगे सोंचते हैं? इसी तरह की सोंच के लोग एक बार सरकारी सेवा में आने के बाद काम न करने का जेहाद जारी रखते हैं। पिछले दिनों स्मारकों पर तैनात सफाई कर्मचारियों ने नगर निगम के सफाई अभियान मंे काम करने से न केवल इन्कार किया बल्कि जिस काम के लिए तैनात हैं वह भी बंद करके धरना प्रदर्शन करते रहे, अधिकारियों के खिलाफ नारेबाजी करते रहे। उनका तर्क है कि उन्हें केवल स्मारक व कैम्पस में साफ-सफाई के लिए नियुक्ति किया गया है। यह तर्क उचित नहीं है। इस तरह चुनावों के दौरान चुनावों में काम करने वाले शिक्षक, राज्य कर्मचारी, न्यायिक अधिकारी तर्क दें, तो क्या चुनाव संपन्न हो सकेंगे? स्मारकों में तैनात कर्मियों का काम न करने का एलान अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए? इन पर बाकायदा कार्रवाई की जानी चाहिए? यदि राज्य सरकार दण्डात्मक कदम नहीं उठाती तो उच्च न्यायालय को स्वतः इस प्रकरण को संज्ञान में लेकर इन सफाईकर्मियों पर चेतावनी स्वरूप कार्रवाई करनी चाहिए? यूं भी उच्च न्यायालय समय-समय पर स्वतः संज्ञान लेकर राज्य सरकार को शहर में सफाई करने, अतिक्रमण हटाने के आदेश देता आया हैं। इन सवालों को उठाने का मतलब है, अधिकार और कर्तव्य की परिभाषा कौन समझाएगा, कैसे समझाएगा या हम कैसे समझेंगे?
    गौरतलब है कि पिछले बरस पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने सफाई और पीने के पानी की व्यवस्था करने में उप्र को फिसड्डी घोषित किया था। ये ऐसे ही नहीं घोषित किया गया बाकायदा प्रदर्शन के आधार पर रैकिंग दी गई थी। लखनऊ तो गंदगी के मामले में काफी लम्बे समय से अव्वल रहा है। इसके पीछे जरूरत से आद्दे सफाईकर्मियों की तैनाती और उसमें भी आधे काम करने आते ही नहीं। इसके अलावा दलित राजनीति ने इन कर्मियों को ‘वोट’ में तब्दील कर दिया है। कमोबेश हर बालिग नागरिक ‘वोट’ में बदलकर मुट्ठियां भींचे हाथ हवा में लहराते हुए इंकलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद किये हैं। तो फिर कौन करेगा अपने-अपने कत्र्तव्य?

बंदर भी हैं शोहदे!

लखनऊ। बंदरों की शोहदई और गुण्डई के लगातार बढ़ने से सूबे के लोग बेहद भयभीत हैं। वाराणसी, इलाहाबाद,
अयोध्या, कानपुर, आगरा, मथुरा, गाजियाबाद, विध्यांचल, बलरामपुर, चित्रकूट और नैमिष्यशारण व गोला गोकर्णनाथ आदि जगहों से बंदरों के आतंकी हमलों की भयावह खबरें आ रही हैं। यहाँ आपको बताते चलें कि पिछले दिनों दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की अंत्येष्टि से लौट रहे भारत के राष्ट्रप्रति प्रणव मुखर्जी को बंदरों के उत्पात के चलते लगे जाम के कारण अपना रास्ता बदलना पड़ा। बंदरों की शोहदई का हाल यह है कि खुलेआम युवतियों से छेड़छाड़ और उनके कोमलांगों में काटकर उन्हें घायल कर रहे हैं। गुण्डई का आलम यह कि छतों पर लगी पानी की टंकियों का पानी प्रदूषित करने के साथ पाइपलाइन तोड़ रहे हैं। बच्चों का काॅलर पकड़ने से लेकर लोगों की हत्याएं तक कर रहे हैं। अपने झुंड में वर्चस्व की खूंखार जंग में अपने ही साथियों की हत्या कर उनके शव यहां-वहां फंेक देते हैं। खुलेआम छतों पर, छज्जों पर मैथुनक्रियारत बन्दर ‘पोर्न स्टारांे’ जैसी हरकतें अंजाम दे रहे हैं, तो युवा पीढ़ी उनके एमएमएस बनाने का खतरा उठाकर रोमांच जीने की ललक में घायल हो रही है।
    लखनऊ के नगराम में गांव केवली के कृष्णपाल बंदरों के दौड़ाने पर छत से गिरकर मर गये। गोसांईगंज के अमेठी में बंदरों ने 65 साल की बानों के घर की कच्ची दीवार गिरा दी जिसके नीचे दबकर वृद्धा बानों की मौत हो गई। मोतीनगर से सटे नेहरूनगर इलाके में बंदरों के झुंड में भयानक जंग देखकर लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंदकर लिये। घंटों बाद जब शान्ति हुई तो लोगों ने घर की छतों पर दो बंदरों के क्षत-विक्षत शव और तमाम खून के छींटे देखे। चारबाग रेलवेस्टेशन पर तो और बुरा हाल है, यात्रियों से खाने पीने का सामान छीन लेना विरोध करने पर काट लेना आम हैं। प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार करने वाले यात्रियों में महिलाओं की बड़ी सांसत है। उन्होंने खाने-पीने का सामान खोला नहीं कि बन्दर हाथ से छीनकर भाग जाते हैं। इसी तरह मंदिरों और घरों की छतों पर छीना-झपटी के साथ शोहदई जारी हैं। गणेशगंज में एक मकान की छत पर बच्चे खेल रहे थे, अचानक बंदरों का झुंड आ गया, बच्चे डरकर भागे, एक बच्चा पीछे रह गया। एक मोटे से बन्दर ने लपक कर उसका काॅलर पकड़ लिया। बच्चा बेहद डर गया, बमुश्किल वह छुटकारा पा सका। ऐसे ही ऐशबाग में छत पर कपड़े सुखाने आई एक युवती को बन्दरों के झुंड ने घेर लिया, वह डरकर बेहोश हो गई। होश आने पर उसने अपने कपड़े कई जगह से फटे व अपने शरीर पर काटे जाने के घाव पाये। यही हाल आगरा के कलेक्ट्रेट परिसर में है, जहां वकील, पैरोकार से लेकर दुकानदार तक हलकान हैं। इनकी हरकतों को कैमरे में कैदकर स्थानीय अखबारों ने छापा भी है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नवीन छात्रावास परिसर में घुसकर बंदरों का शरारती झुंड छात्राओं को काफी समय से परेशान कर रहा है। उन्हें दौड़ा कर काटने, उनके कपड़े फाड़ने जैसी हरकतें करते हैं। छात्राएं अपने कमरों को बन्द रखती हैं, फिर भी ये शोहदे लगातार उन्हें डराते रहते हैं।
    युवतियों को परेशन करने, उन्हें काटने की घटनाओं के बीच हैरतनाक खबरें भी हैं कि यदि कोई युवती उन्हें खाने-पीने का सामान देती है तो उसे चुपचाप लेकर ये चलते बनते हैं। कई बार बंदर इन युवतियों को दुलराते हुए भी देखे गए हैं। हाल ही में स्विट्जरलैण्ड में नयूचाटेल विश्वविद्यालय की बायोलाॅजिकल टीम ने दक्षिण अफ्रीका के लोस्कोप बांध नेचर रिजर्व में जंगली वेर्वेट प्रजाति के बंदरों के छह समूहों के अध्ययन के दौरान पाया कि ये बंदर महिलाओं के प्रति आकर्षित होते हैं। यदि कोई महिला इन बंदरों को किसी काम के लिए प्रेरित करे तो उसे ये बेहतर ढंग से समझते हैं। यह निष्कर्ष पत्रिका कार्यवाही की रायल सोसायटी बी में वर्णित है।
    युवतियों को शोहदों से बचाने के लिए ‘उप्र सरकार ने ‘वूमन पाॅवर लाइन’ तो उच्चतम न्यायालय ने गाइडलाइन तय की है, लेकिन इन बंदरों की शोहदई, गुण्डई से निजात दिलाने के लिए कौन फैसला लेगा?

सेल! सेल!! सेल!!! सेल!!!! बोलो बच्चा खरीदोगे

नई दिल्ली। कोख से लेकर कब्र तक बाजार में खुले आम बिक रही है। मुर्दा बिक रहा है, जिन्दा बिक रहा है। बीबी बिक रही है। मियां बिक रहा है। बच्चा बिक रहा है। खरीदने वालांे की भीड़ भी बढ़ रही है। एक साल के बच्चे की कीमत 50 हजार, तो चार महीने के मुस्कराते बच्चे की कीमत एक लाख.... क्या ज्यादा है? और जो अभी पेट में है उसकी कीमत दो लाख। गर्भ में आने वाले की कीमत तीन से पांच लाख के बीच मोल-भाव में जो तय हो जाय।
    राजधानी दिल्ली के तैमूरनगर, न्यू फ्रेंड्स काॅलोनी के पास ओखला की रहीमा ‘बच्चा उद्योग’ का जाना-पहचाना नाम है। अंग्रेजी अखबार ‘दि संडे गार्जियन’ ने हाल ही में एक खबर छापी है कि, रहीमा अपने आस-पास के इलाके के बड़े-बड़े घरों में घरेलू नौकरानी के साथ दाई (बच्चा पैदा कराने वाली नर्स) का काम करती है। उसका दावा है कि उसने यह काम 15 साल की उम्र से शुरू किया था और अब तक पांच हजार बच्चे पैदा कराने में उसकी भूमिका रही है। कई बार तो उसे एक ही रात में तीन से चार औरतों को अस्पताल तक पहुंचाने की मदद करनी पड़ी। वह उन औरतों की खास मददगार है जो गर्भधारण नहीं कर सकतीं और जो गरीबी की मार झेल रही हैं। उसका कहना है जो औरत न खुद अपना पेट भर सकती है, न ही अपने बच्चे को पाल सकती है उसकी मदद करती हूँ। दस दिन से जिस औरत के पेट में अन्न का एक दाना न गया हो, उसका बच्चा बीमार हो और उसे उचित देखभाल की जरूरत हो तो कोई उस बच्चे को गोद लेकर 50 हजार रूपये देकर उनका जीवन बचा ले वह भी कानून का पालन करते हुए तो क्या गलत है? ऐसे ही उसके पास कोख में पल रहे बच्चों और किराये की कोख में पाले जाने वाले बच्चों के साथ जरूरतमंद औरतों की खासी लिस्ट है। उसके ताल्लुकात राजधानी के तमाम प्राइवेट नर्सिंग होमों से हैं जहां वह आगरा, जयपुर तक से आने वाली लड़कियों को गर्भधारण कराने व उनके बच्चों को गोद दिलाने व विदेशी दम्पत्तियों को किराए का गर्भ दिलाने का काम धड़ल्ले से कर रही है। उसे अपने काम के खतरों से भी कोई भय नहीं है। उसका कारोबार महंगे सेलफोन के जरिए खूब फल-फूल रहा है। उसके एक कमरे के मकान के दरवाजे पर ग्राहकों और जरूरतमंद औरतों की आवाजाही देखी जा सकती है।
    यह कोई पहली खबर नहीं है। ऐसी खबरें आए दिन छपती रहती हैं। इससे पहले ‘संडे टेलीग्राफ’ अखबार ने छापा था कि ब्रिटिश दम्पत्तियों के लिए भारत ‘बच्चा फैक्ट्री’ बनकर उभर रहा है। उस खबर में दावा किया गया था कि पिछले साल अकेले दो हजार ब्रिटिशर्स ‘सरोगेसी’ के लिए भारत आए थे। जबकि देश में किराए की कोख से पैदा होने वाले बच्चों की संख्या डेढ़ करोड़ हो सकती है। यहां बताते चलें कि ब्रिटेन में किराए की कोख पर प्रतिबंध है। एक अनुमान के मुताबिक गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली आंध्रप्रदेश में हजारों आईवीएफ क्लीनिक ‘बेबी फैक्ट्री’ के नाम से जाने जाते हैं। इनमें अकेले हैदराबाद में 250 तो दिल्ली में अनगिनित नर्सिंग होम इस धंधे में लिप्त है।
    गुजरात के शहर आनंद को दूध उत्पादन में जहां अव्वल दर्जा हासिल है, वहीं किराए की कोख (ैनततवहंबल) के मामले में दुनिया की राजधानी कहा जाने लगा है। यहां अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, इसराइल, फिलीपीन्स, टर्की, जर्मनी, आइसलैण्ड आदि से निःसंतान दम्पत्ति आते हैं और किराए की कोख खरीद कर अपना बच्चा ले जाते हैं। इस छोटे से शहर की ख्याति किराए की कोख को लेकर इतनी हुई कि नेशनल जियोग्राफिकल टीवी चैनल ने इस पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘द वाॅम्ब आॅफ दि वल्र्ड’ बना डाली है।
    किराए की कोख के कारोबार में यहां के एक नर्सिंग होम ने बाकायदा एक तीन मंजिला हास्टल बना रखा है, जहां गर्भवती महिलाओं को रखकर उनकी देखभाल की जाती है। कई बार इस हास्टल में एक साथ चालीस-पचास गर्भवती स्त्रियां रहती हैं। यहां किराए की कोख की कीमत 12-25 लाख है, जबकि अमेरिका में 80-90 लाख। वहीं बच्चा जननेवाली गरीब औरत को महज 5-7 लाख मिलता है। कृत्रिम प्रजनन अस्पतालों के जरिये किराए पर कोख लेने, डिंब या शुक्राणु बेचने के धंद्दे में केवल गरीब औरतें ही नहीं वरन् कुंआरी युवतियां भी शामिल हैं।
    गौरतलब है हिंदी फिल्म ‘विकी डोनर’ फिल्म भी इसी मुद्दे को लेकर बनाई गई थी। इसके प्रमोशन के दौरान अभिनेता जाॅन अब्राहम ने स्पर्म डोनेशन पर जब अपनी बेबाक राय जाहिर की थी, तब उनका शुक्राणु मांगने वाली महिलाओं की खासी संख्या सामने आई थी। इससे भी आगे ूूूण्इमंनजपनिसचमवचवसमण्बवउ साइट खूबसूरत बच्चा पाने वालों के लिए पिछले दस सालों से सक्रिय है। इस वेबसाइट के दुनिया भर में लाखों सदस्य हैं। इसी तरह लंदन के एड हाबेन प्रोफेशनल बेबी मेकर के रूप में पूरे यूरोप में प्रसिद्ध हैं। अप्रैल 2012 तक वे 82 बच्चों के पिता बन चुके थे, इनमें 45 बेटियां और 35 बेटे हैं। हाबेन अपना शुक्राणु बेचने के साथ ही बच्चा चाहने वाली महिला के साथ यौन सम्बन्ध बनाने के लिए भी मशहूर हैं।
    भारत में किराए की कोख कारोबार में उप्र व बिहार की महिलाओं की भी बड़ी संख्या है। यह पूरा कारोबार गोद लेने व प्रजनन कानूनों को धता बताकर खुलेआम हो रहा है। दुःख तो इस बात का है कि इसी मुल्क में कन्या-भ्रूण की हत्याएं हो रहीं हैं, तो खुलेआम नवजात कूड़ाघरों, सड़कों पर फंेके जा रहे हैं और दो करोड़ से अधिक अनाथ बच्चे देश की सड़कों पर जीने को मजबूर हैं। इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है और बच्चा बेचने-खरीदने का धंधा फल-फूल रहा है?

इसके बाद भी नया साल मुबारक?

फिर लौटकर आ गया लाॅटसाहबों की झंडाबरदारी वाला नया साल। पुराना वाला आदमी की आत्महत्या से घबराकर विदा हो गया। मगर अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लम्पट स्वागतम के रतजगे में जनतंत्र-जनतंत्र खेलने में व्यस्त हैं। खबरें छपती हैं, ‘मोहर्रम’ जेल में, अफसरों ने गायब कर दिया भरापुरा गांव, अरे यहां तो पानी लूटा जा रहा है, कर्ज, भूख तो छिपाया ही, उम्र भी सही नहीं बताई, भाजपा को गर्व है कि उसके पास मोदी हैं, उगाही में दो पत्रकार गिरफ्तार।
    वकील साहब गरीब मोहर्रम अली को राजू यादव बनाकर जेल भिजवा देते हैं और अफसरान असलियत जान पाये तो भी 83 दिन तक जेल की सलाखों के पीछे मोहर्रम को रोना कलपना पड़ा। साढ़े बाईस बीघा जमीन का जोतदार कर्ज में डूबा किसान कामता प्रसाद कीटनाशक पीकर मई, 2012 में आत्महत्या कर लेता है। बात विद्दायक तिंदवारी तक पहुंची, उन्हें बुंदेलखण्ड के किसानों की बदहाली का हाल पहले ही मिल रहा था। इस घटना से दुखी विधायक दलजीत सिंह ने सरकार को चिट्ठी लिखी। सरकार के मंत्री ने जवाब दिया कि बुंदेलखण्ड के किसी भी किसान ने भूख या कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या नहीं की। यह जवाब सरकारी अफसरों की जांच रिपोर्ट पर आधारित थी। मजा तो यह कि कामता प्रसाद का गांव गोरनपुरवा उप्र के नक्शे से गायब करने का कारनामा भी इन अफसरों ने कर दिखाया। इसी गांव का पानी, पानी माफिया लूट लेते हैं। ठीक ऐसे ही पवई गांव के किसान अमृतलाल की आत्महत्या को भी अफसरान नकार गये। महोबा में सुगिरा गांव के किसान राम कुमार ने 1.80 लाख के कर्ज से परेशान होकर 14 दिसम्बर को फांसी पर लटक कर अपनी जान दे दी। अफसरान चुप? सच को झूठ के ठीहे पर हलाल करने वाले तो अपराधी कहे ही जाएंगे, लेकिन प्रदेश का भरा पुरा, खाया-पिया अघाया विपक्ष जिनमें से किसी के पास मोदी हैं, तो किसी के पास माया, उनमें से किसी ने भी कोई आवाज नहीं उठाई। कोई भी सियासतदां हमीरपुर जाकर सच जानने को बेचैन नहीं हुआ।
    सच की तलाश करने की कोशिश की एक अखबार ने, उसके पत्रकार ने, तभी सामने आया आदमी और जरायम पेशा हुक्मरानों के बीच का तल्ख षड़यंत्र। बस यहीं पत्रकारों की पूरी जमात मुल्जिम के कटघरे की ओर धकियाई जाने लगती है। समूचे मीडिया की विश्वसनीयता दांव पर लगा दी जाती है। उसकी कलम को द्रौपदी सा निर्वस्त्र करने के तमाम दुर्योधनी जतन होने लगते हैं। मगर यहीं एक सवाल मुझे लगातार मथ रहा है। पत्रकार क्यों पांडवों के जुआरी आचरण को अपनाने का लोभ कर बैठते हैं?
    जी.टी.वी. के दो पत्रकारों को जिंदल ग्रुप से उगाही के जुर्म में पिछले साल पकड़ा गया। उन्हें जेल भेज दिया गया। मीडिया पर भरोसे के संकट का ढोल लगातार पीटा जा रहा है। इसके पीछे वही अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लोग सक्रिय हैं, जो किसी कामता, किसी मोहर्रम को अपना निशाना बनाने के माहिर हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों पत्रकार दूध के धुले हैं या उनके कारनामें को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। अपराध, अपराध है। उसकी सजा बेशक मिलनी चाहिए, लेकिन असल कुसूरवार कौन है? यह तलाशने और उनको दण्ड देने का काम कौन करेगा?
    क्या वो जिनकी नजर में नब्बे फीसदी भारतीय मूर्ख हैं? या फिर वे जिनके पांवों में चांदी के जूते हैं और दांतों में सोना जड़ा है? इन दोनों में से किसी की भी हिम्मत आज तक कानून का मजाक उड़ाने वाले, उद्दंड भाषा में मुंबई से छपने वाले ‘सामना’ के मुखलिफ आवाज उठाने तक की नहीं हुई?  इसके बाद भी नया साल मुबारक?

Friday, November 9, 2012

माँ तेरी ही बीमार है

ओ पुत्र! सुन धैर्य से,
तेरी छह फुट साठ किलो की
काया में रक्त जो दौड़ रहा है
चूसा है तूने अपनी मां के तन से।
उद्दंड आवाज नीची कर
मां तेरी ही बीमार है
आज भी तेरे काटे का
घाव टीसता है मां के स्तन से।
एक रात तू तप रहा था
बुखार में आग सा
न सोने दिया उसने किसी
देवी देवता को, सबको सुमिरा मन से।
डाॅक्टरों ने कह दिया था
अब भगवान ही बचा सकता है
आँगन में लगी तुलसी के आगे
रात भर आँसू उसके बहते रहे सावन से।
और जिस पेड़ के नीचे है खड़ा
तू जिसे पूजता है पिता मान
उसे भी उसने सींचा है अपने बदन से।
अरे मूर्ख, वो नहीं चीखेगी
दर्द को भी उसने ही है पाला पोसा
उसका है वो बड़ा बेटा
वही साथ है रहा उसके पूरे जीवन से।
माँ तेरी ही बीमार है।
माँ तेरी ही बीमार है।
माँ तेरी ही बीमार है।
माँ तेरी ही बीमार है।
-राम प्रकाश वरमा
09839191977

DEEPAWALI PER BADHAI

मित्रो,
दीपावली पर शुभकामनाएँ .जब माता लछमी के आगे दीपक जलायें तो एक दीपक मेरे नाम का भी .............
जला ................मै भी आपकी मुडेर पर एक छोटा सा चिराग बन आपकी ख़ुशी में रौशन हो सकुंगा
                 


                                 शुभकामनाएं            

सूरज ढले ,दीप जले ,फिर हम तुम मिले ,
प्यार से गले मिले,  हो गई दीवाली .
          राम प्रकाश वरमा 

Tuesday, November 6, 2012

हिन्दी के स्वर्णयुग में भी था बाजार


आरोप और आलोचना के नामवर प्रेमचंद्र की फोटो पर अपने पंजों के बल खड़े होकर गुलाब के फूलों की माला पहनाते हुए हिन्दी के स्वर्णयुग को जातियों के खांचे में बांटने का अपराध जानबूझकर लगातार करते रहे हैं। उस पर जिद यह कि उसे शोध मान लिया जाए। ऐसा ही एक प्रयास ‘हिन्दुस्तान’ हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र 26 जुलाई, 2000 के अंक में ‘लखनऊ की अदालत में प्रेमचंद के खिलाफ नालिशे दीवानी’ लेख के जरिये किया गया था। उसके उत्तर में मैंने स्वयं सुबूतों व प्रेमचंद की स्वीकारोक्ति के साथ लेख लिखा, जिसे ‘एक पहलू यह भी’ के शीर्षक से उसी पृष्ठ पर 30 अगस्त, 2000 के अंक में ‘हिन्दुस्तान’ ने छापा था। नई पीढ़ी के लिए एक बार फिर यहां छापा जा रहा हैं। -संपादक
    चिता की ठंडी राख से पवित्र भूमि पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचकर उसके पुण्य को, उसकी कीर्ति को, उसकी पवित्रता को कालंकित नहीं किया जा सकता। और न ही सच के मुंह में झूठ की जुबान डाली जा सकती है। जब-जब ऐसे प्रयास होते हैं, तब-तब नई पीढ़ी को इतिहास के जंगलों में भटकना पड़ता है। हिन्दी के माथे की बिन्दी प्रेमचन्द अकेले ‘मोटे रामजी शास्त्री’ या ‘सोजेवतन’ के लिए ही नहीं विवादों में फंसे थे, वरन ‘रंगभूमि’ थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ व ‘कायाकल्प’ हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित होने के विवाद में भी फंसे थे। यह दोनों विवाद उस समय की ख्याति प्राप्त पत्रिका ‘सरस्वती’ व ‘सुधा’ में छपे थे। प्रेमचन्द के स्पष्टीकरण भी छपे थे। बावजूद इसके पं. दुलारेलाल भार्गव ने अपने प्रकाशन ‘गंगा पुस्तक माला’ से ‘रंगभूमि’ को 1924 में प्रकाशित किया। ‘रंगभूमि’ के लिए पं. दुलारेलाल भार्गव ने आठारह सौ रूपया उस समय दिया था।
    प्रेमचन्द की रंगभूमि तथा थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ के साम्य को श्री अवध उपाध्याय ने सरस्वती के सन् 26 की अंकों में ‘गणित के समीकरणों’ द्वारा प्रमाणित करने की चेष्ठा की थी। प्रेमचन्द ने ‘अपनी सफाई’ में इसका स्पष्टीकरण स्वयं कर दिया था। फिर भी वह लेखमाला निकलती ही रही थी। बाद में श्री रूद्र नरायण अग्रवाल ने एक विस्तृत लेख द्वारा श्री उपाध्याय के आरोपों का पूर्णतः खंडन किया था।
उपाध्याय जी के आरोप
1- एक से अधिक नायक-नायिकाओं का समावेश।
2-वैनिटी फेयर की अमेलिया, रंगभूमि की सोफिया से, जिसमें कुछ भाग ‘वैनिटी फेयर’ के दूसरे नारी पात्र रेबेका का भी है, काफी मिलती-जुलती है।
3-रेबेका का, संभवतः सोफिया के साम्य से बचे हुए अंश का, इंदु का साथ साम्य है।
4- जार्ज आसवर्न का विनय से साम्य है।
    श्रीमती गीतालाल एम.ए., पी.एच.डी. रंगभूमि पर थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ का प्रभाव उसके नाम के चुनाव अथवा विस्तृत पट की दृष्टि से पड़ा है। पर नारी पात्रों पर तो अवश्य नही है।
    इसी प्रकार एक लेख में शिलीमुख ने प्रेमचन्द की ‘विश्वास’ कहानी को हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर पूर्णतः अवलम्बित बताया था (सुधा 10/27) यह कहानी पहले ‘चांद’ में छपवायी थी। फिर ‘प्रेम प्रमोद’ नाम कहानी संग्रह में उसने पहली कहानी का स्थान पाया, शिलीमुख का कहना था कि ‘एटर्नल सिटी’ एक उपान्यास है और ‘विश्वास’ एक कहानी, इसलिए प्रेमचन्द की रचना उस पर अवलम्बित होने पर भी तर्कयुक्त और संगत नहीं हो सकी है, बल्कि विकृत और अविश्वसनीय हो गयी है। इस लेख के साथ ही प्रेमचन्द जी का प्रतिवाद शीर्षक से सुधार सम्पादक श्री दुलारे लाल भार्गव के नाम प्रेमचन्द का पत्र भी छपा था। उन्होंने ‘शिलीमुख’ के आरोपों को इन शब्दों में स्वीकार किया था।
    प्रिय दुलारे लाल जी!
हमारे मित्र पं. अवध उपाध्याय तो ‘काया कल्प’ को ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित बता रहे थे। मि. शिलीमुख ने उनको बहुत अच्छा जवाब दे दिया। मैं अपने सभी मित्रों से कहा चुका हूं कि ‘विश्वास’ केवल हालकेन रचित ‘एटर्नल सिटी’ के उस अंक की छाया है। जो वह पुस्तक पढ़ने के बाद मेरे हृदय पर अंकित हो गया।.... छिपाने की जरूरत न थी और न है। मेरे प्लाट में ‘एटर्नल सिटी’ से बहुत कुछ परिवर्तन हो गया, इसलिए मैंने अपनी भूलों और कोताहियों को हालकेन जैसे संसार प्रसिद्ध लेखक के गले मढ़ना उचित न समझा। अगर मेरी कहानी ‘एटर्नल सिटी’ का अनुवाद, रूपांतर या संक्षेप होती, तो मैं बड़े गर्व से हालकेन को अपना प्रेरक स्वीकार करता। पर ‘एटर्नल सिटी’ का प्लान मेरे मस्तिष्क में आकर न जाने कितना विकृत हो गया। ऐसी दशा में मेरे लिए हालकेन को कलंकित करना क्या श्रेयकर होता?... फिर भी मेरी कहानी में बहुत कुछ अंश मेरा है, चाहे वह रेशम में टाट का जोड़ ही क्यों न हों?
-‘प्रेमचन्द’।
    प्रेमचन्द जी की ‘मोटेरामजी शास्त्री’ कहानी ‘माधुरी’ में छपने के बाद सवर्णवादी लेखकों-सम्पादकों के बीच कोई गदर नहीं मची थी। यह सब उस युग के बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का तमाशा भर था। इसे उसी दौरान प्रेमचन्द जी ने भी स्वीकार किया है, ‘इस होड़ के युग में अन्य व्यवसायों की भांति पत्र-पत्रिकाओं को अपने स्वामियों या संचालकों को नफा देने या अपने अस्तित्व बनाये रखने के लिए तरह-तरह की चालें चलनी पड़ती हैं। यूरोप वाले तो शब्दजाल या पहेलियों या लाटरियों का लटका निकालते हैं... हिन्दी में धन के अभाव से और ढंग से चालें चली जाती हैं। पत्र में किसी तरह का विवाद छेड़ दिया जाता है या कला के नाम पर अर्द्धनग्न चित्र दिये जाते हैं। (उत्तर प्रदेश: प्रेमचन्दविशेषांक जुलाई, 1980 पृष्ठ 106 सू. एवं ज.सं.वि.)। इसके अलावा प्रेमचन्द स्वयं भी सवर्ण ही थे। रही ब्राह्मणवादी लेखकों की घबराहट या हिन्दी के महारथी साहित्यकारों के गोलबंद आक्रमण की बात, तो इन्हीं ब्राह्मणवादियों ने प्रेमचन्द को सशक्त कथाकार बनने में सहयोग दिया। हिन्दी पुस्तक एजेंसी, गंगा पुस्तक माला जैसे प्रकाशन संस्थाओं के मालिक और ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘सुद्दा’ के सम्पादकगण ब्राह्मण व सवर्ण ही थे। पं. दुलारे लाल भार्गव ने ही 1924 में उन्हें सबसे पहले लखनऊ बुलाया और अपनी बाल पत्रिका ‘बाल विनोद वाटिका’ का सम्पादक सौ रूपये मासिक पर नियुक्त किया तथा रहने हेतु मैक्सवेल प्रेस, लाटूश रोड (डाॅ. पाठक के सामने) की इमारत के पिछले हिस्से, जिसे गंगा फाइन आर्ट प्रेस हेतु किराये पर ले रखा था। अस्थाई रूप से साठ रूपये मासिक पर प्रबंध कर दिया। काफी समय वे वहीं रहे, फिर गणेशगंज चले गये। 1925 के आखिर में प्रेमचन्द्र बनारस वापस चले गये। अपनी आर्थिक दशा में सुधार न होते देखा फिर 1927 में ‘माधुरी’ में आ गये जहां 1930 तक रहे। पं. दुलारे लाल भागर्व सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक, कवि, लेखक और दुर्लभ हिन्दी सेवक थे। उन्होंने केवल प्रकाशन व्यवसाय नहीं किया वरन सैकड़ों लेखकों का परिचय हिन्दी जगत में कराया। जब निराला जी की ‘जूही की कली’, ‘सरस्वती’ से वापस हो गयी तो उसे ‘माधुरी’ में भार्गव जी ने ही छापा। निराला जी का पहला कहानी संग्रह ‘लिली’ से लेकर पं. अमृतलाल नागर तक का पहला उपन्यास भार्गव जी ने ही छापा था। उस समय लखनऊ में हिन्दी का परचम लहराने वालों के अग्रज थे पं. दुलारेलाल भार्गव। साहित्यकारों, पत्रकारों, नौकरशाहों और हिन्दी के दुलारों ने ही उस समय को हिन्दी का ‘स्वर्ण युग’, ‘दुलारे युग’ तक कहा है। पं. दुलारेलाल भार्गव ‘सुधा’, ‘माधुरी’ के अलावा ‘भार्गव पत्रिका’ के सम्पादक भी रहे। उनकी अनुपम कृति दुलारे दोहावली’ पर ओरछा नरेश की ओर से प्रथम देव पुरस्कार (अयोध्या सिंह जी उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘प्रिय प्रवास’ के मुकाबले) दिया गया था। सच यह है कि पं. दुलारेलाल भार्गव हिन्दी जगत के देदप्यिमान नक्षत्र हैं। इसे उस समय सभी ने मुक्त कंठ स्वीकार किया। बाद में हिन्दी का साफ और विशाल आकाश हिन्दी भाषियों ने ही अपने दंभ के बादलों से ढंक दिया। इससे भी आगे कहा जा सकता है कि अपनी मां को गाली देने वालों की जमात का बोलबाला हो गया।
    और अन्त में दो बातें। आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास बगैर पं. दुलारे लाल भार्गव के पढ़ाने वाले, हिन्दी साहित्य के साथ, नई पीढ़ी के साथ लगातार विश्वासघात कर रहे हैं। इन विश्वासघातियों को पहले पूरी ईमानदारी के साथ पं. दुलारेलाल भार्गव के बारे में पढ़ना, जानना चाहिए। यह भी देखना और समझना चाहिए कि सत्तर-अस्सी बरस पहले लखनऊ में हिन्दी जिस भव्य भवन में विराजमान थी आज उसे जर्जर किसने किया है? प्रेमचन्दजी अपने पारिवारिक मामलों में भी विवादित रहे। जबकि सच केवल इतना था कि यही उनकी शेहरत का कारण बनता। श्रीमती शिवरानी देवी से विवाह को लेकर भी तमाम हल्ला मचा।
    वास्तव में प्रेमचन्दजी विधुर थे और शिवरानी देवी विधवा। उस समय ऐसे विवाहों का चलन नहीं था। लेकिन यह विवाह आदर्श तो था ही। चुनांचे प्रेमचन्द अपमान के मित्र इसलिए रहे कि वे गरीबों, दलितों और तिरस्कृतों की जुबान थे।

बालिका वधू या वध?

‘बालिका वधू’ टी.वी. सीरियल की आनन्दी को बालिग होने के साथ ही तलाक के गहरे घाव की पीड़ा सहनी पड़ी। हाँ, उसके सास-ससुर ने उसे अपनी बेटी और ददिया सास ने पोती मान लिया है। अब वे उसका ब्याह उसी (जैतसर) जिले के कलेक्टर से करने की तैयारी में हांफते-दौड़ते दिखाए जा रहे हैं। इसी बीच उसका पति अपनी दूसरी पत्नी गौरी के झूठ से बिफरा हुआ अपनी पहली पत्नी को वापस पाने अपने घर आ गया है, और भावनात्मक षड़यंत्रों का तमाशा जारी है। फिर भी यहां एक सवाल है कि क्या टेलीविजन के रंगीन पर्दे पर दिखाई जाने वाली आनन्दी जैसी किस्मत देश की असल बालिका बधुओं की भी है? सच ‘सत्यमेव जयते’ से भी अधिक खतरनाक है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री की सलाह और खाप पंचायतों के फरमान से भी कहीं अधिक दर्दनाक है। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम मुल्कों में बाल विवाह का प्रचलन है। इसके पीछे सामाजी शातिर अपराधियों का घिनौना षड़यंत्र सक्रिय है।
    गुजरात के वाडिया में पिछले दिनों सामुहिक बाल विवाह का आयोजन हुआ था। इसका उद्देश्य मात्र वेश्यावृत्ति था। वहां की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इसके विरोध में आवाज उठाई भी थी। ऐसे ही छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखण्ड, बिहार, उप्र, मणिपुर, उत्तराखण्ड, पूर्वोत्तर व दक्षिणी भारत के इलाकों के अलावा नेपाल की लड़कियां आये दिन महानगरों में नारकीय जीवन जीते मौत की गोद में समा जाती हैं। कई बार खबरें छपती हैं कि पुलिस ने नाबालिंग लड़कियों को दलालों के चंगुल से छुड़ाया। बावजूद इसके गरीबी और अंधविश्वास के चलते एक बड़ी आबादी लड़कियों (नाबलिग/किशोरी) से छुटकारा पाने का आसान तरीका ‘बाल विवाह’ अपनाते हैं।’ राजस्थान के श्रीरामपुर में आखातीज पर पांच साल की इमली का ब्याह 15 साल के अशोक से उसके माता-पिता ने कर दिया। ऐसे ही सात साल की राधिका को 20 साल के राजू से उप्र के बलरामपुर जिले के इटियाथोक इलाके में ब्याह दिया गया। बाल विवाह का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है तो 15-16 साल की किशोरियों को ब्याहने का चलन शहरों में भी धड़ल्ले से जारी है। वह भी तब जब यह कानूनन अपराध है और सरकारें ‘बेटियां बचाओ’ का हल्ला मचाए हैं। पिछले ही महीने दुनिया भर में ‘गल्र्स डे’ मनाया जा चुका है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-3) के हालिया आंकड़े बताते हैं कि देश में 47.4 फीसदी लड़कियों को 18 साल से कम उम्र में ब्याह दिया जाता है। इनमें 15 साल से भी कम उम्र में ब्याहने वाली किशोरियों की संख्या 18.5 फीसदी हैं।
    नाबालिग बच्चियों के साथ उनके माता-पिता और रिश्तेदारों के संरक्षण में लगातार बलात्कार हो रहे हैं। उसके नतीजे में वे समय से पहले मां बन रही हैं। वे नवजात बच्चे कुपोषण का शिकार होकर मर रहे हैं। युनिसेफ के अनुसार दुनियाभर में एक तिहाई किशोरियों के विवाह होते हैं, उनमें दस फीसदी बालिकाएं होती हैं। ये बालिकाएं बालिग होने से पहले ही अधिकांशतः मौत के मुंह में समा जाती हैं। क्योंकि वे गाली-गलौज, मारपीट और यौन शोषण का क्रूर शिकार होती हैं। इसके अलावा उनके असमय गर्भवती होने के कष्ट भी इसमें सहायक होते हैं। इनकी उम्र जब खेलने, पढ़ने की होती हैं तब वे अपनी ससुराल में सूर्योदय से पहले उठती हैं। पानी भरना, नहाना धोना, घर की साफ-सफाई, कपड़े धोना, खाना बनाना फिर सास के निर्देशित कामों को करना। आधा पेट भोजन करने के बाद थकी हुई बालिका को रात में पति के बलात्कार का शिकार होना आम है। ऐसे परिवार अधिकतर मिट्टी की कच्ची झोपडि़यों में या सीलन भरी कोठरियों में रहते हैं। जहां कहीं अच्छे मकान हैं वहां भी दुर्दशा कम नहीं है। मां बनने के दौरान कोई चिकित्सा सुविधा भी नहीं हासिल होती। क्योंकि ग्रामीण इलाकों में अस्पतालों का दूर-दूर तक पता नहीं होता। युनीसेफ की बाल संरक्षण विशेषज्ञ के अनुसार विकासशील देशों में गर्भावस्था के दौरान 10-14 साल की बालिकाओं के मारने की संख्या 20-24 साल की युवतियों की अपेक्षा पांच गुनी अधिक है। 15-19 साल की 50 हजार लड़कियां हर साल गर्भधारण के दौरान मारी जाती है।
    संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड ने पिछले दिनों चेतावनी जारी की है कि ‘बाल विवाह बच्चियों के विकास, शिक्षा में जहां बाधक हैं वहीं उनका बचपन लूटनेवाला भी है। इस पाप कृत्य को रोकना होगा वरना अगले दस वर्षों में 5 करोड़ बालिका वधुएं होंगी। यदि यही हालात रहे तो 2030 तक दस करोड़ की संख्या में होंगी 15 साल से कम की गृहणियां।’
    आधुनिक दुनिया में हर तीसरी नाबालिंग लड़की को उसके मां-बाप द्वारा ब्याह दिया जाता है। युनीसेफ इस परम्परा को रोकने के लिए शैक्षणिक अभियान चला रहा है। बच्चियों की शिक्षा के लिए दूर-दराज इलाकों में स्कूल खोले जा रहे हैं। पिछले पखवारे ‘क्योंकि मैं एक लड़की हूँ’ योजना को भी जमीन पर उतारा गया है। इसी तर्ज पर उप्र में ‘पढ़ें बेटियां’, मप्र में ‘बेटी बचाओ’ अभियान चलाए जा रहे हैं। ग्लोबल दुनिया में 83 फीसदी लड़कोें की अपेक्षा महज 74 फीसदी 11-15 वर्ष की बच्चियाँ स्कूल जाती हैं। भारत की दशा इससे भी खतरनाक है। वहीं बांग्लादेश बाल विवाह के मामले में सबसे ऊँचे पायदान पर है। समूचे दक्षिण एशिया में 46 प्रतिशत तो सबशारान अफ्रीका में 37 प्रतिशत, लैटिन अमेरिका में 29 प्रतिश तो यूरोप में सर्वाधिक टर्की व जार्जिया में 14 प्रतिशत और 17 प्रतिशत बालि (नाबालिग) विवाह होते हैं। कहांनियां भी हैं, बेटी बचाओ, कन्या विद्याधन जैसी तमाशाई योजनाएं भी हैं, लेकिन बच्चियों को वधू बनाने की जगह विद्वान बनाने की ओर गंभीर सोंच राजनैतिक, सामाजिक क्षेत्रों में कहीं नहीं दिखती। बालिका को वधू बनाकर उसका वध करने की जगह उसे शिक्षित बनाने की ओर बढ़ना ही होगा, तभी सुसंकृत नई पीढ़ी का निर्माण संभव होगा।

सनातन ही है, शुभ

लखनऊ। 16 नवंबर से विवाह आदि शुभकार्य शुरू हो जाएंगे जो 11 दिसंबर तक जारी रहेंगे। इसके बाद धनु संक्रांति खरमास दोष है। इस बीच कुल 15 शुभ मुहुर्त हैं। नवंबर में दीपावली बाद 16, 17, 18, 23, 24, 29, 30 और दिसम्बर में 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, 11 तक ही विवाह संपन्न होंगे।
    इसी बीच तुलसी विवाह, हरि प्रबोद्दनी एकादशी व्रत, डाला छठ, कार्तिक स्नान व देव दीपावली पर्व होंगे। आजकल विवाहों और पर्वों पर पूजा पाठ व नियमों में काफी बदलाव आ गये हैं। जहां वैवाहिक कार्यक्रमों में वीडियों, फोटोग्राफी, डिस्को डांस और भारी भरकम साडि़यों/ड्रेसेस में सड़कों पर चलती बारात में नाचती युवतियों की मस्ती, वहीं कारों के काफिले और खाने के लम्बे-चैड़े दस्तरखान देखने को मिलते हैं। संस्कार और रस्मों-रिवाज, रिश्तों का दिखावा भर होता है। आठ घंठे के वैवाहिक कार्यक्रम में विवाह कार्यक्रमों को महज एक घंटे में निपटा लिया जाता है।
    पूजा पाठ में भी यही हाल है। वहां भी बदलाव की बयार ने काफी कुछ बदल डाला है। स्नान ध्यान और प्रणाम तो छोडि़ए अब आचमन और दीपदान से काम चल जाता है। बहुत हुआ तो अगरबत्ती जलाकर प्रसाद चढ़ाकर छुट्टी पा ली। अभी पितृपक्ष व नवरात्रि गये हैं। इनमें पितृपक्ष की परंपराओं का पालन करने वालों की संख्या बेहद कम दिखी। दुर्गा पूजा में पंडालों की सजावट भव्यता तो खूब थी लेकिन दर्शनार्थियों का रेला-मेला कहीं नहीं था। कहा पांच साल पहले तक राजधानी के लाटूशरोड, हीवेट रोड, गुरू गोविन्द सिंह मार्ग, हुसैनगंज में चलना मुश्किल था। यही हाल राम बारातों और रामलीलाओं का हो गया है।
    शायद यही कारण है कि एक भक्ति चैनल और कुछ आस्थावानों ने मिलकर निकट फरवरी में सनातन धर्म के गूढ़ ज्ञान की जानकारी देने के लिए भक्ति मेले के आयोजन की सोंची है। यह मेला लखनऊ में फरवरी तक संभावित है। इस मेले के जरिए युवाओं को धर्म का सत्य बताने के प्रयास होंगे। तिलक से वेद तक की व्याख्या का आनंद उठा सकेंगे श्रद्धालु। इसके अलावा सनातन ही शुभता का प्रतीक है का संदेश भी होगा यह मेला।

सही जवाब... टीवी चैनल बनेगा करोड़पति!

लखनऊ। छोटे पर्दे (टीवी) की जादुई दुनिया में सोनी टीवी चैनल के शो कौन बनेगा करोड़पति’ के जरिए बिहार के सुशील कुमार पांच करोड़ के विजेता बने तबसे लोगों का आकर्षण इस कार्यक्रम के प्रति काफी बढ़ा है। उससे भी अधिक उसके ब्रांड अमिताभ बच्चन के प्रति चाहत ने लोगों को उससे जोड़ा है। इसी कार्यक्रम में दर्शकों के लिए घर बैठे जीतिए ‘जैकपाॅट’ प्रतियोगिता में एक लाख और तुरन्त पूछे गए जैकपाॅट प्रश्न पर दो लाख इनाम पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में सही जवाब देने पर हैं। सवाल टीवी के पर्दे पर एक-सवा घंटे के कार्यक्रम के दौरान दो-तीन बार उभरता है, जिसे अमिताभ बच्चन द्वारा दोहराया जाता है। बताया जाता है 24 घंटे तक फोन लाइने खुली हैं, डायल करें या एसएमएस करें। यहां बता दें एक एसएमएस पर पांच रूपए लगते हैं, वहीं फोन काॅल की दरें भी आठ दस गुनी अधिक वसूली जाती है। विजेता रैंडम के आधार पर चुना जाता है।
    गौरतलब है, कौन बनेगा करोड़पति 22 जनवरी 2007 से 19 अप्रैल 2007 तक सप्ताह में चार दिन स्टार प्लस टीवी चैनल पर एक घंटा प्रसारित किया जाता था। इसमें एक अन्य प्रतियोगिता हर सीट हाॅट सीट भी थी। इसमें कौन बनेगा करोड़पति के प्रत्येक दर्शक को भाग लेने का आमंत्रण था। इसके खिलाफ स्वयंसेवी संगठन ‘द सोसाइटी आॅफ कैटलिस्ट’ ने उपभोक्ता फोरम में शिकायत दर्ज कराई थी कि स्टार प्लस टीवी और भारती एयरटेल ने दर्शकों के मन में यह प्रभाव पैदा किया कि प्रतियोगिता में भाग लेना निःशुल्क था और इनाम की रकम संचालकों द्वारा दी जा रही थी। पर वास्तविकता इससे अलग थी। प्रतियोगिता के आयोजन की लागत तथा इनाम की रकम एयरटेल द्वारा दिये गये नंबर पर प्रतियोगियों द्वारा भेजे गए एसएमएस या टेलीफोन के खर्च में अन्तर्निहित थी व एसएमएस का खर्च भी सामान्य खर्च से अधिक था। स्वयंसेवी संगठन का तर्क था कि यह एक लाॅटरी थी क्योंकि इसमें पूछे जाने वाले प्रश्न साद्दारण थे और इसके तमाम जवाब देने वाले विजेताओं के बीच अंतिम रूप से विजेता का चयनरैडम आधार पर किया जाता था। यह प्रतियोगिता केवल टीआरपी बढ़ाने के लिए की गई थी। राष्ट्रीय उपभोक्ता फोरम ने मामले की जांच में पाया कि स्टाल प्लस टीवी और भारती एयरटेल को 5 करोड़ 80 लाख एसएमएस मिले जिससे 13 करोड़ 92 लाख रूपए आये। इस प्रकार सामान्य एसएमएस दर से कहीं अधिक उसे 8.12 करोड़ रूपये की आमदनी हुई। फोरम ने इसे धोखाद्दड़ी मानते हुए स्टार प्लस व भारती एयरटेल पर एक करोड़ रूपए का जुर्माना लगाया जिसे उपभोक्ता कल्याण निधि में जमा करने का आदेश दिया व 50 हजार रूपए वाद खर्च के रूप में स्वयंसेवी संगठन को देने के लिए कहा था। यहां बताते चलें कि आज भी सोनी टीवी पर चलने वाले ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जैकपाॅट प्रश्न के इनाम की रकम संचालकों द्वारा दी जाएगी, दर्शायी जा रही है। तमाम दर्शकों को तो इनाम की रकम अमिताभ बच्चन द्वारा दिए जाने का भ्रम है। क्योंकि जैकपाॅट विजेता के घर फोन करने और विजेता द्वारा उत्तर देने पर अमिताभ द्वारा कहा जाता है, आपने घर बैठों जैकपाॅट में एक लाख रूपए जीत लिए हैं। यदि आप दो लाख रूपए और जीतना चाहते हैं तो आपको एक प्रश्न का उत्तर और देना होगा।
    इसी तरह ज्योतिष व घरेलू उपयोग में आनेवाले सामानों का पूरा बाजार निजी टीवी चैनल चला रहे हैं। तंत्र-मंत्र, सास-बहू के षड़यंत्र, दवा, भोजन बिग-बाॅस और न जाने क्या-क्या दिखाया जा रहा है। इस सबसे निश्ंिचत सरकार अपना राजस्व बढ़ाने और उद्योग अपनी तिजोरी भरने की दौड़ में टी.वी. के पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है, से कोसों दूर है? 24ग7 के समाचारों में लड़ते नेता, डराते-धमकाते स्वामी, हिंसा, गाली-गलौज के अलावा मीडिया को कोसते ‘एडल्ट नेतागणों’ के असभ्य आचारण के अलावा अपराध की सनसनी, बेहूदा काॅमेडी व कमर मटकाऊ लटकों-झटकों को धड़ल्ले से दिखाया जा रहा है। निजी चैनलों की भरमार में विज्ञापनों की मारामारी और कार्यक्रमों की टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में भारतीय संस्कृति पर भौंड़ा हमला जारी है। विज्ञापनों में औरत को लगभग नंगा करने की दौड़ में शामिल स्प्राइट कोल्डड्रिंक में रास्ता क्लीयर है -कैसे इसकी ले लूं मै’, ‘एक्स के परफ्यूम में औरत की अधनंगी छाती और पूरी नंगी टंागें दिखाई जाती हैं, हीरो-मांचा बेचने वाले चिडि़या/बुलबुल (लड़कियों) की तलाश के साथ प्रौढ़ा को गिद्ध बताते हैं, यूनीनार के प्रचार में चाट के ठेले पर बीबी साथ में है फिर भी छज्जे पर खड़ी लड़की को देख रहे हैं, साथ में स्लोगन बज रहा है -आशिक की मांग है ज्यादा, विज्ञापन घड़ी का नाचे लड़की, बनियान बेचते हुए लड़की से घर पर डिलेवरी करने जुम्ला बेहद सेक्सी अन्दाज में उछाला जा रहा है। गरम मसाला से लेकर कंडोम तक के विज्ञापनों में फूहड़ता परोसी जा रही है। और अमिताभ तो विज्ञापनों के ब्रांड हैं ही। बताते हैं कि अभिनेता/अभिनेत्री की एक विज्ञापन की कमाई एक फिल्म की कमाई के लगभग बराबर पड़ती है।

मारीशस की अभिनेत्री का अपने मायके में स्वागत

हमारे देश में अतिथियों को देवता की संज्ञा दी गयी है। ऐसी ही एक अतिथि बीते दिनों मारीशस से चल कर सोनाचंल स्थित राजा बलदेन दास बिड़ला इण्टर कालेज सलखन प्रांगण में जब पहुची तो उनकी अगवानी व स्वागत में सम्पूर्ण विद्यालय परिवार उमड़ पड़ा। बताते चलंे कि मारीशस की सुप्रसिद्ध भोजपुरी गायिका व अभिनेत्री हौसिला देवी रिसोल इन दिनों भारत की यात्रा पर आयी हुई हंै। बीते दिनों भोजपुरी संस्कष्ति शोध समिति के अध्यक्ष दीपक कुमार केशरवानी के विशेष बुलावे पर श्रीमती रिसोल एक दिन के लिए सोनांचल भी पधारी थी। उसी दौरान प्रधानाचार्य हरिशंकर शुक्ला के नेतष्त्व में विद्यालय परिवार की ओर से उनका जोरदार स्वागत व अभिनन्दन किया गया। छात्र-छात्राओं के आत्मीय स्नेह व स्वागत से अभिभूत सिने तारिका व भोजपुरी गायिका होसिला रिसोल अपने की रोक नही सकी और मंच से उठकर छात्राओं की टोली में जाकर पष्थ्वी माता की गोद में बैठ गयी। स्वागत व अभिनन्दन समारोह को बतौर मुख्य अतिथि अपने विचार व्यक्त करते हुये अभिनेत्री हौसिला देवी रिसोल ने कहा कि हमारे पूर्वज जब अंग्रेजो के बहकावे में आकर कलकत्ता से पानी के जहाज से मारीशस पहुचे तो अपने साथ एक लोटा, तुलसी का पौधा एवं भोजपुरी भाषा ले गये। वहां पहुचने पर दुख दर्द सहते हुये दिनभर कड़ी मेहनत के बाद रात को लोटा बजाकर भोजपुरी गीत गाते थे। धीरे-धीरे इसका असर वहां पर बसे ईसाईयों पर हुआ। श्रीमती रिसोल के अनुसार आज जब मारीशस स्वंस्त्र है और भोजपुरी भाषा को राजभाषा का दर्जा मिल चुका है बावजूद इसके यहां पर हर घर में भारतीयता की झलक दिखलाई देती है और मारीशस  क लोगन कअ यही नारा बा- ‘‘हमार गांव, हमार देश भारत नाहि हव परदेश’’ इस मौके पर श्रीमती रिसोल को सम्मान स्वरूप पुष्पहार, परमहंस आश्रम सक्तेशगढ़ के स्वामी अडगड़ानंद द्वारा रचित भजन किसका करे व श्रीमद् भगवत् गीता की टीका यर्थाथ गीता के साथ स्मष्ति चिन्ह भेटकर विद्यालय के प्रधानाचार्य हरिशंकर शुक्ला द्वारा सम्मानित किया गया। समारोह में प्रख्यात भोजपुरी कवि पं0 हरिराम द्विवेदी द्वारा काव्य पाठ एवं संगीतकार सरदार दयासिंह द्वारा माउथहार्गन पर ‘कौन दिशा में लेके चलारे बटोहिया’ (भोजपुरी धुन) व आओ बच्चो तुम्हंे दिखायकृ (देशभक्ति गीत) सुनाकर वाहवाही बटोरी। स्कूल की छात्र-छात्राओं ने गीत, भजन प्रस्तुत किया रिसोल छात्र छात्राओं के साथ पड़े की छांव में बैठकर अपनी गांव गाजीपुर की याद ताजा किया। कार्यक्रम में भोजपुरी माता की जय का नारा से सारा वातावरण गंूज उठा।
   प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष मिथिलेश द्विवेदी ने कहा कि ‘आज हमारी गाजीपुर की बेटी लघु भारत के रूप में विकसित मारिशस की धरती पर रहते हुये भोजपुरी गीतो की खुशबू देश-विदेश में बिखेर रही हंै और भोजपुरी भाषा की सेवा करते हुये ‘‘गंगा माता’’ को साफ व स्वच्छ बनाने हेतु भारत में अभियान चला रखा है।
    वरिष्ठ पत्रकार व कैमूर टाइम्स पत्रिका के संपादक विजय शंकर चतुर्वेदी ने अपना विचार व्यक्त करते हुये कहा कि हौसिला जी का अपनी सरजमी पर हमे स्वागत करते हुये हर्ष हो रहा कि ये भोजपुरी भाषा को मारिशस में राजभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष की और इन्हें सफलता भी मिली। इस प्रकार इन्होनें अपने पुरखों की भूमि उ0प्र0 के गाजीपुर की मिट्टी का कर्ज अदा किया क्योंकि इनका बचपन इसी स्थान पर पेड़ो के झुरमुटो के छांव में खेलते कूदते बीता है। भोजपुरी संस्कष्ति शोध समिति के अध्यक्ष व सोनघाटी पत्रिका के संपादक दीपक कुमार केसरवानी ने कहा कि हमे गर्व है कि जिन गिरमिटिया मजदूरांे को अंग्रेज मारिशस में गन्ने की खेती कराने के लिए ले गये थे वे भारतीय आज शासन कर रहे है और भारतीय संस्कष्ति को अक्षुण्य रखे हुये है। भोजपुरी भाषा, साहित्य सूर, तुलसी की रचनाओ का गायन इनकी नित्य की परम्परा है और मारीशस के लोगो ने विश्व पटल पर यह साबित कर दिया कि भारत हमारी जन्मभूमि, मारिशस हमारी कर्मभूमि है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व समाजसेवी राजेश द्विवेदी ने कहा कि सोनभद्र में भोजपुरी साहित्य के शोद्द की असीम संभावनाएं है और हम चाहते है कि रिसोल अपने सहयोगियों के माध्यम से इस क्षेत्र के प्रचलित लोकगीतों, कथाओ व कहानियों पर शोध कार्य करके सोनाचंल का मान बढ़ाये हम इस कार्य में तन मन धन से सहयोग करेंगे। अन्तर्राष्ट्रीय भोजपुरी सम्मेलन के कार्यकारिणी सदस्य, वरिष्ठ पत्रकार सुल्तान शहरयार खां व अभय भार्गव ने अपनी मारिशस यात्रा का संस्मरण सुनाते हुये कहा कि हमारी मुलाकात हौसिला देवी से वहां पर राष्ट्रपति भवन में हुई थी जहां भोजपुरी भाषा के विकास व आन्दोलन पर चर्चा हुई थी। कार्यक्रम में संतोष सिंह चन्देल, पत्रकार सनोज तिवारी, तष्त्पी केसरवानी, हर्षवर्धन, फिल्म निर्देशक दिलीप सोनकर, प्रबोध मिश्रा, विद्यालय के छात्र-छात्रा, अध्यापक, अभिभावकगण, स्थानीय नागरिक उपस्थित रहे।

कुत्ते भी करते हैं किटी पार्टी और ब्याह!

लखनऊ। आवारा कुत्तों के झुंड के झुंड राजधानी की सड़कों पर, गलियों में, निर्माणाधीन भवनों में, खण्डहरों में, खाली पड़े मकानों व कूड़ाघरों में, पार्कों और गोश्त की दुकानों, बूचडखानों, बिरियानी-मुर्ग-मछली के ठेलों के आस-पास देखे/पाये जाते हैं। इन्हें कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। यदि ये सेक्सक्रियारत होते हैं तो उन्हें मार भगाने से लेकर उनके संवेदनशील सेक्स उपकरण पर लाठियों से प्रहार तक किए जाते हैं। इसके पीछे समाज का घिसा-पिटा तर्क ‘अश्लीलता’ होता है। जबकि यही समाज अपने प्यारे ‘डाॅगी’ को ‘सेक्स मीटिंग’ कराने बड़े फख्र से ले जाता हैं। आवारा कुत्तों की शादियों का मौसम ‘कातिक’ में बताया जाता है। इसकी गवाही में उतरती सर्दियों में उनके बच्चे पैदा होने को रखा जाता है। इस लिहाज से यह मौसम उनकी शादियों या ‘मीटिंग’ का है।
    आमतौर पर पांच-सात कुत्तों के झुंड में एक मादा होती है और उसी को लेकर सबके सब लड़ते-झगड़ते देखे जाते हैं। जबकि यह महज वर्चस्व की जंग होती है, जो जानवरों में आम बात है। जानवरों के डाॅ. एस. नार्मन के अनुसार कुत्ता बेहद समझदार जानवर होता है। वह भी आपसी सहमति पर विश्वास करते हैं, उनमें भी सामाजी भावानाएं काम करती हैं तभी तो उनके इलाके/मोहल्ले तक होते हैं। एक इलाके के अकेले कुत्ते पर दूसरे इलाके के कुत्ते गुर्राने (शुरूआती पूंछताछ) के साथ हमलावर तक हो जाते हैं। उन्हें भी शोहदों/चोरों का भय होता है। आप गौर से देखिए खण्डहरों/पार्कों में पसरे या दावतों के आस-पास मंडराते कुत्ते किस तरह भाईबंदी दिखाते हैं। ये भी आपसी समझौते के तहत ‘लिव इन रिलेशन’ बना लेते हैं या एक ही मादा के साथ पूरा जीवन गुजार देते हैं।’ ऐसा पक्षियों और अनेक वन्य जीवों में भी देखा जाता है।
    गौरतलब है, देश में 2.5 करोड़, दिल्ली में 3 लाख और लखनऊ 40 हजार आवारा कुत्ते होने का आंकड़ा पेट्स पर काम करनेवाली संस्था यूरोमाॅनीटर ने पिछले दिनों जारी किया था। वहीं इनके काटने से अकेले उप्र में हर साल लगभग 16 लाख लोग वैक्सीन के इंजेक्शन लगवाते हैं। उप्र में वैक्सीन खरीदने का बजट 2010-11 में 44 करोड़, 2011-12 में 52 करोड़ था। पेटा और पाॅ जैसी संस्थाओं ने आवारा कुत्तों पर काफी काम किया है। उनके ही एक सदस्य के मुताबिक वे भी किटी पार्टी, सामुहिक भोज के साथ शान्ति से सेक्सक्रिया में विश्वास रखते हैं। यह तो इंसान है जो उन्हें दुत्कारता रहता है जिससे वे आक्रमक रूख अपना लेते हैं। वहीं पालतू कुत्तों का आचरण देखिए उनमें कहीं उग्रता नहीं होती।
    कुत्ते पालने वाले अपने ‘पॅपी’ या ‘डाॅगी’ के मनोरंजन व जीवनसाथी के लिए खासे सचेत रहते हैं। उन पर 10 से 30 हजार रूपये महीने तक खर्च करते हैं। उनके लिए किटी पार्टी आयोजित कराते हैं। उनकी शादी व बच्चों के पैदा होने के जश्न गए जमाने के ‘गुड्डे-गुडि़यों’ की शादी से भी अधिक धूमधाम से मनाए जा रहे हैं। पेट स्पेशालिस्ट डाॅ0 उमेश जी कहते हैं कि ‘पेट के लिए किटी पार्टी आयोजित करने या उनमें ले जाने से उनके व्यवहार में बदलाव आता है। हर गेट-टू-गेदर में वे अपने जैसे साथी से मिल पाते हैं, मस्ती करते हैं। उनका अकेलापन दूर होता है और अपनी मादा भी तलाश कर रोमांस और शादी तक पहुंच जाते हैं।’ कुत्ते पालने वाली महिलाएं कुत्तों को लेकर काफी संजीदा रहती हैं। युवतियां तो उनके लिए हद दर्जे तक भावुक और सारी खुशियां जुटाने में आगे रहती हैं। सुनने में आश्चर्यजनक लगे लेकिन है सच, डाॅगीशादी, पेटशादी, कैन्डीरोमियो जैसी साइडे इंटरनेट के साथ महानगरों में धड़ल्ले से फल-फूल रही हैं, जो बाकायदा हजार से पांच हजार रूपए में आपके कुत्ते का पंजीकरण कर उसके लिए जीवन साथी तलाश कर ‘मीटिंग’ कराने का काम कर रही हैं। ऐसे में आपको भी कुत्तों की बारात में जाने या रिशेप्शन पार्टी का निमंत्रण कभी भी मिल सकता है। जी हां, महानगरों में यह इज्जतदार व्यवसाय और स्टेटस सिंबल बन रहा है। लखनऊ भी इससे अछूता नहीं है। इन कुत्तों के लिए पार्लर/सैलून खुलने के साथ बजाज आलियांज के अलावा कई इंश्योरेंश कंपनियां लाखों रूपयों की पाॅलिसी तक करती हैं। यूरोमाॅनीटर इंटरनेशनल के अनुसार कुत्तों के पालने के चलन बढ़ने के साथ इनसे जुड़े कई कारोबार खड़े हो रहे हैं। इनमें पशु आहार, पशु चिकित्सा, पशु फैशन, व्यवसाय अरबों रूपयों का हो रहा है। सरकार को अभी तक महज कुत्ता पालने के लाइसेंस से ही राजस्व मिलता था, लेकिन अब पांच अरब के राजस्व की संभावनाएं कुत्तों से जुड़े कारोबार के चलते बढ़ गई हैं। आयकर विभाग इस ओर खासी रूचि दिखा रहा है।
    आवारा कुत्तों पर काम करने वाले श्री वी.एस. तिवारी के अनुसार यदि इनके साथ प्यार से पेश आया जाए तो यह बड़े काम के सिद्ध हो सकते हैं। इन्हें अपराध रोकने से लेकर चैकीदार तक का रोजगार देकर इनका उपयोग किया जा सकता है। यह काम नगर निगम और पुलिस विभाग आसानी से अंजाम दे सकता है।

उल्लू देवो भवः

लक्ष्मी की पूजा और उल्लू को प्रणाम। पुण्य लक्ष्मी का पूजन शुभ मुहूर्त देखकर, तो पाप लक्ष्मी और उल्लू को नित प्रणाम। उल्लू देवता है। उल्लू हमारा नेता है। उसी के नेतृत्व में हम आर्थिक विकास के ‘राम मंदिर’ का निर्माण करने का समाजवादी शंखनाद करके घोषणाओं के प्रसाद का जूठन आदमी के आगे फेंकने का पुण्य कमाते चले आ रहे हैं। पाप लक्ष्मी की इएमआई के जरिए समूचे बाजार पर उल्लू भक्तों का बोलबाला है। इसी वजह से गांधी, अम्बेडकर, लोहिया के फर्जी पुत्र और रामभक्त अमीरी के पहले पायदान पर पसरे हैं।
    65 बरसों में देश में मौजूद (1947 में) 1600 करोड़ की संपदा भंडार की जगह 345.8 अरब डाॅलर का विदेशी कर्ज आ गया। महज 35 साल पहले देश के 20 बड़े घरानों की कुल संपत्ति 5 हजार करोड़ थी। आज अकेले मुकेश अंबानी 1050 अरब रूपयों (21 अरब डाॅलर) के मालिक हैं। 10 बड़ों की कुल संपत्ति 109.3 अरब डाॅलर है। 1950 में प्रति व्यक्ति आय 247 रुपए थी तो आज 5 हजार रूपए है। आजादी के तुरन्त बाद गरीबी की रेखा के नीचे आधी से अधिक आबादी यानी 19 करोड़ लोग थे, तो आज 36 करोड़ लोग हैं। देश में गरीबी-अमीरी का मौसम काफी बदल गया है। आज उम्मीदों के दीपक दप-दप करते इंडिया गेट से लेकर गांव के बाजारों तक उजियारा फैलाने को बेचैन हैं। पूर्णमासी और अमावस्या की रातों को एक साथ पूजने वाले देश में माटी और मुद्रा की लड़ाई और तेज हुई है। भले ही फुलझडि़यों की हंसी ठहाकों में बदल रही है, लेकिन माटी के श्रीगणेश-लक्ष्मी की जगह पूजा की अलमारी में जस की तस है। अम्मा जरूर घर-गांव के कुंए की तरह बिला गईं हैं, मगर मम्मी जी... माॅम.. वाॅटर पार्कों में अनार दगा रही हैं। बेबी-बाबा के साथ उनका हर दिन धनतेरस और हाय.. हसबेंड के साथ हर रात दिवाली।
जीभ और जांघ के उद्दंड बाजार की तेजी ने पर्वों और मेलों का संेसेक्स काफी नीचे ला दिया है। एक तू... एक मैं ही ‘जिहाद’ है, बाकी सारा परिवार ‘आतंकवाद’ के इंकलाबी परचम तले शहरी फ्लैट, कालोनियां आबाद हैं, तो अलाय-बलाय गांव-खेत में डाल हरऊ-घुरऊ शहर में मोबाइल थामे साहब अस बतियाए रहें...। कहां हैं इंतजार करती कहावत ‘करवा हैं करवारी है, तेहिके बरहें रोज देवारी...? यहां तो हर दिन दीवाली हैं। हर रात दीवाली है। जभी देश में चार पहिया वाहनों की वेटिंग 8 लाख के आस-पास है, तो गए साल 2520421 वाहन बिके थे। इस धनतेरस अकेले लखनऊ में डेढ़-दो अरब के दो-चार पहिया वाहनों के बिक जाने का अन्दाजा है। फिर भी पेट्रोल के महंगा होने की चीख-पुकार? महलों में 18 गैस सिलेंडरों पर सिर्फ चाय उबल रही है और मंझोली रसोइ में एक का भी जुगाड़ नहीं? अजब उलट-पुलट है, गई अक्षय तृतीया के दिन लखनऊ वालों ने 25 करोड़ का सोना खरीदा था। गई दिवाली में 1 अरब 6 करोड़ का सोना-चांदी, 80 करोड़ के वाहन, 40 करोड़ की मिठाई, 35 करोड़ का इलेक्ट्रानिक, 3 करोड़ के बर्तन, 7 करोड़ के पटाखे, 15 करोड़ की पतंगे खरीदे गये, तो 10 करोड़ एसएमएस मंे खर्चे और 60 करोड़ का स्टाक कारोबार महज पौने दो घंटों में कर डाला। कुल 3.56 अरब की दीवाली 2011 में लखनउवों ने अकेले मना डाली। देश भर मंे काले पैसे सहित क्या खर्च हुआ होगा? वह भी तब, जब एक महीने पहले ही महंगाई 7 फीसदी ऊँची छलांग लगा चुकी थी और सब्जियों के भाव आसमान पर थे। आटा 16 रू0 किलो बिक रहा था।
    माटी के दिये के आंकड़ों पर अभी श्वेत पत्र जारी होना है। डिजाइनर दिये और फैशनेबल मोमबत्तियों के साथ चाइनीज इलेक्ट्रानिक नूडल्स (बिजली की झालर) का बिग बाजार रौशनी बेच रहा है। गजब विरोधाभास है, अकेले अपने यूपी में 63 फीसदी घरों में ढिबरी/लालटेन रौशन हैं। 37 फीसदी बिजली जलाने वालों की जगमगाहट के बयान उपभोक्ता परिषद में दर्ज हैं। उपभोक्ता क्रांति के नाम पर देशवासी 31.9 फीसदी कपड़ों, जूतों पर व 36.3 फीसदी नई तकनीकी पर खर्च कर रहे हैं। लगातार अमीरों की संख्या में इजाफा हो रहा है। 2011 में 2,10,000 करोड़पति थे, अगले लोकसभा चुनावों तक 4 लाख की गिनती हो जाएगी। रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश में पैसा बचाने में मुंबई नंबर एक है तो लखनऊ नंबर नौ और पटना नंबर ग्यारह के पायदान पर है। वहीं खर्च करने में भी आगे हैं। शहर में प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च लगभग 21 सौ रूपए तो ग्रामीण क्षेत्र में 12 सौ रूपए है। रही नकद पैसे के जेब में होने की बात तो हम दुनिया में चैथे नंबर पर हैं। शहरों की चमक-दमक में 38 करोड़ लोग मस्त हैं, तो गांवों में साढ़े तिरासी करोड़ लोग सुविधा-असुविधा, महाजनी व्यवस्था और नवपूंजीवादी नखरों के बीच जी रहे हैं। इन्हीं गांवों में रोज दो-तीन किसानों के आत्महत्या करने के भी आंकड़े हैं। आटे का घोल पीकर जीने-मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है। भूख के आंकड़े बताते हैं कि 79 देशों में भारत 65वें सथान पर तड़प रहा है। आंकड़ों के आग की आँच बहुत तकलीफदेह है। फिर भी दिवाली हर साल आती है। इस साल भी आई है। अमावस्या की रात के अंधेरे को मुंह चिढ़ाती इठलाती रौशनी आयेगी। आयेगी ही नहीं नाचेगी, गाएगी और चिरागों का समाजवादी हल्ला भी रहेगा। पटाखों के जागरण का जयकारा भी गूंजेगा।
    गो कि दीवाली में ‘शगुन’ का मरद भले ही गांव न पहुंचे, लेकिन ‘मैडम’ की दीवाली का सूरज रात भर बांटेगा सौगतें। ‘लक्ष्मी’ के डांस के साथ ‘विष्णु’ उपहारों के पैकेट अतिथिदेवों को पकड़ाता रहेगा उत्सव की चैखट पर खड़ा होकर। आसमान पटाखों की रोशनी की अगवानी में थोड़ा और झुकेगा, तो नीचे ‘ओम जय लक्ष्मी मइया...’ की आरती के बोलों के साथ ‘सब कुछ छोड़-छाड़ के अनारकली चली अपने सलीम की गली...’ का टंटा भी सुनाई देगा। रोशनी की जगर-मगर में इक्का...बादशाह...गुलाम सबके सब उल्लुओं की सेवा में जगराता करते रहेंगे। और बचीं अकेली अम्मा, वो अपनी ममता के घाव खारे आँसुओं से सेंकती अतीत की वापसी की प्रतीक्षा में गुमसुम बैठी रह जाएंगी। शुभकामना और मुबारक.. की शहनाई इस दीवाली ‘अयोध्या’ में तो नहीं ही बजेगी। और कहां बजेगी...?

Sunday, October 14, 2012

हमारे घर में तीसरा मोर्चा


सियासत के माॅल में साहित्य और पत्रकारिता के ‘कोलोबरेशन’ की जानी-पहचानी शख्सियत पहले ‘फुर्सत में’ आपसे मुखातिब होती थी। बीच के दिनों में निर्माणाधीन राजनैतिक काॅलोनी और साहित्यिक ‘फन’ के बीच बढ़े हुए यातायात में फंसे हुए अकुला रहे थे। मेरा आग्रह हुआ तो लोटन कबूतर की तरह उड़कर अपनी अटरिया पर गुटर... गूं...गुटर...गूं..., तो अब विधायकी, वोट और आदमी के बीच आपाधापी में फिर से आपसे रूबरू हैं, नींबू सी सनसनाती ताजगी के साथ उसी आखिरी पन्ने पर नये काॅलम ‘राजनैतिक व्याव्स्ता के बीच’ तीसरा मोरचा लेकर।                       -संपादक
हम सच ही कहते हैं। आप विष्वास करो या न करो। आपके पास विष्वास के अलावा और कोई उपाय नहीं। अविष्वास करोगे तो हमारी जगह कोई साम्प्रदायिक ताकत लपक लेगी। इसलिए यकीन करो कि मैं भी अर्थषास्त्र का जानकार हूं। अर्थषास्त्र का एम0ए0 हूं। मैं एम0ए0 की डिग्री यूनीवर्सिटी से नहीं लाया। तब डिग्री लेने के लिए 20 रूपये पड़ते थे। कोई भी समझदार अर्थषास्त्री 20 रूपये यों ही नहीं खर्च करेगा। मैंने भी नहीं किये। डिग्री से होता क्या है? मार्कसीट काफी है। मुझे अच्छे नम्बर मिले थे। नम्बर देने का काम विष्वविद्यालय के अपने ही प्रवक्ता करते हंै। राजनीति के क्षेत्र में भी नम्बर देने का काम अक्सर अपने दल वाले ही करते हैं। अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री को भी सोनिया जैसे उनके संरक्षको ने 10 में 10 नम्बर दिये थे लेकिन विदेषी मीडिया ने नम्बर काट लिये। अब विदेषी अखबार विद्वान अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री को भी ‘अंडर एचीवर - कम अंक पाने वाला’’ बता चुके हैं।
लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रधानमंत्री विद्वान अर्थषास्त्री थे और हैं। मैं भी अर्थषास्त्र का एम0ए0 तो हूं ही। भरापूरा परिवार है मेरा। पुत्र, पुत्रियां, बहुएं और पौत्र। लेकिन घर गष्हस्थी चलाने में अर्थषास्त्र की समझ काम नहीं आती। पुत्र पढ़े लिखे हैं, पिता कड़क हैं सो घर का काम चला करता है। लेकिन पीछे हफ्ते बात बिगड़ गई। पुत्रों के साथ बैठा। उन्हें अर्थषास्त्र का ‘सकल घरेलू उत्पाद’ समझा रहा था। बताया कि खेती की उपज और तुम्हारे फुटकर व्यापार से धन समष्द्धि नहीं बढ़ेगी। घर के बाहर से आया परदेषी धन ही समष्द्धि लाता है। युवा पुत्र भिड़ गये। एक खेती में रूचि रखता है, एक काम चलाऊ व्यापार करता है, एक अखबार में है। मैं भी अकड़ गया। मैंने डांटा, ‘‘अर्थषास्त्र समझो। एफ0डी0आई0 जानो। जी0डी0पी0 समझो। अर्थषास्त्री प्रधानमंत्री के मुताबिक प्रति व्यक्ति समष्द्धि बढ़ी है, यह भी जानो। तभी घरेलू अर्थषास्त्र समझ में आएगा।’’
    बच्चे नहीं माने। एक ने कहा कि आपके अर्थषास्त्र से ही घर की लोटिया डूबी है। मेरे स्वाभिमान को चोट लगी। मैं कौटिल्य के अर्थषास्त्र का ज्ञाता हूं, एडम स्मिथ, मार्षल कीन्ज से लेकर मनमोहन अर्थषास्त्र तक मेरा ज्ञान फैला हुआ है। लेकिन घर वाले हैं कि मेरे ज्ञान अर्थषास्त्र को ही चुनौती दे रहे हैं।’’ मैंने ऊपर-ऊपर ऐंठते हुए लेकिन भीतर से मिमियाते हुए प्रतिवाद किया। अपना अर्थषास्त्र दोबारा समझाया ‘‘तुम्हारी खेती में इस दफा लहसुन जमकर पैदा हुआ। 7 रूपया किलो ही बिक रहा है, इसमें विदेषी कम्पनियों का ज्ञान लगता वे इसे खूबसूरत कागज की पन्नी में पैक करते। अंग्रेजी में नाम रखते ‘‘प्यारोफाइड गैरलाक्सि’’। हारलिक्स की तरह खूब बिकता। अपने हिमांचल प्रदेष का सेब मधुर है, ग्लूकोज से भरापूरा। लेकिन विदेषी सेब पर पर्ची चिपकी है, विदेषी होने की।
    खन्ना बाबू गोयल मैडम को परसों बता रहे थे कि फाॅरेन के सेब की बात ही दूसरी है। कांस्टीपेषन में भी फायदेमंद है। इसलिए मेरे बच्चों एफ0डी0आई0 पर ध्यान दो। विदेषी ज्ञान की हनक दूसरी है। करीना कपूर और कैटरीना कैफ का फर्क देखो। करीना देषी है, कैटरीना विदेषी। विदेषी अर्थषास्त्र ही मनमोहन है। देषी अर्थषास्त्र और स्वदेषी को कौन पूंछता है?’’ बच्चे झगड़े पर आमादा हो गये। मैंने कहा कि मैं अपनी बात पर अडिग हूं। यह कड़े निर्णय का समय है। मैं पीछे नहीं हटूंगा। तुमको साथ छोड़ना हो तो छोड़ो।’’ बच्चों ने भी फैसला सुना दिया ‘मैं आपको कमजोर नहीं होने दूंगा। आपका समर्थन करूंगा। आपको हमारा ख्याल रखना होगा। सिर्फ आपकी नीतियों का विरोध करता रहूंगा और तीसरा मोर्चा बनाने की कोषिष करूंगा।’’
    मैं फुर्सत में नहीं हूं। इसलिए फुर्सतनामा लिखने का समय नहीं। यह कड़े फैसले लेने का वक्त है। राजनैतिक अस्त व्यस्तता है। मैं भयभीत हूं। हमारे घर में भी तीसरा मोर्चा बनने जा रहा है।


आगामी हिंदी-साहित्य-सम्मेलन


इस बार हिंदी-साहित्य-सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन मुजफ्फरपुर में होगा। स्वागत-समिति बन चुकी है, और वह अपना कार्य करने लगी है। अब सम्मेलन के समय और सभापति के चुनाव का प्रश्न उपस्थित है। समय के संबंध में तो यह एक प्रकार से निश्चित ही है कि वह ईस्टर की छुट्टियों में होगा। सभापति के संबंध में हमारा मत यह है -
1. बाबू जगन्नाथ ‘रत्नाकर’ बी0ए0
2. ‘आज’-संपादक श्रीयुत बाबूराव-विष्णु पराड़कर
3. पं0 पद्मसिंह शर्मा
4. बाबू मैथिलीशरण गुप्ता
5. श्रीयुत जयशंकर ‘‘प्रसाद’’
    इन पांचों सज्जनों की विदृत्ता और हिंदी की सेवा हिंदी-संसार में किसी से छिपी नहीं। बाबू जगन्नाथ-दासजी बहुत अच्छे कवि हैं, और आपने आजन्म हिंदी-सेवा की हैं। आप वयोवृद्ध भी हैं और ज्ञानवृद्ध भी। ब्रजभाषा के तो आप इस समय एक मात्र सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। आपकी संपादित अनेक काव्य-पुस्तकें काशी के भारत-जीवन-प्रेस से किसी समय प्रकाशित हुई थीं। इधर आपने बिहारी-सतसई की वृहत और सुंदर टीका लिखी है, जो बिहारी-रत्नाकर के नाम से गंगा-पुस्तकमाला ने प्रकाशित की है। आपने इसके लिखने में बड़ी खोज, परिश्रम और अध्ययन किया है। इसकी भूमिका जो आपने लिखी है और जो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है, वह एक 2-3 सौ पृष्ठ का स्वतंत्र ग्रंथ ही होगा। उससे आपकी साहित्यज्ञता का प्रकृष्ट परिचय प्राप्त होगा। यही नहीं, आप प्राकृत के भी अच्छे ज्ञाता हैं, और अंगरेजी के भी ग्रेजुएट। आपने गंगावतरण नाम का एक मनोहर काव्य लिखकर इंडियन-प्रेस से प्रकाशित कराया हैं। उसकी काव्य-छटा भी दर्शनीय है। आपने उद्धव-शतक, भीष्माष्टक, गणेशाष्टक, द्रौपदी-अष्टक आदि अनेक छोटी-मोटी रचनाएं भी की हैं, जो शीघ्र ही प्रकाशित होंगी। ऐसे श्रेष्ठ विद्धान को यह सम्मान देना हिंदी-संसार का आवश्यक कर्तव्य है। श्रीयुत पराड़करजी की अध्ययनशीलता और योग्यता वास्तव में प्रशंसनीय है। आप संपादक भी प्रथम श्रेणी के हैं। आज पत्र को जो गौरव प्राप्त है, वह आप ही के मार्मिक लेखों और विवेचना-पूर्ण टिप्पणियों के कारण। आपने भिन्न-भाषा-भाषी होकर भी हिंदी को अपनाया है, यह आपकी विशेषता है। पं0 पद्मसिंहजी के विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। आप संस्कृत, प्राकृत और फारसी के साहित्य के विशेष मर्मज्ञ हैं, सत्समालोचक हैं, सहृदय हैं, सफल संपादक हैं। ज्वालापुर से निकलने वालों भारतोदय पत्र को जिन्होंने पढ़ा है, वे इस बात को अच्छी तरह जानते होंगे। इस पत्र का संपादन आप ही करते थे। सतसई-संहार और सतसई-संजीवन आपकी सर्वतोमुखी प्रतिभा के प्रकृष्ट प्रमाण हैं। गुप्तजी हिंदी के लिये गौरव हैं। आपकी रचानाएं बहुत संुदर हैं। आपके जोरदार गं्रथों से हिंदी-संसार अच्छी तरह परिचित हैं। बाबू जयशंकर प्रसाद की प्रतिभा अब अच्छी तरह विकास को प्राप्त हो चुकी है। आप जैसे नाटक लिखने में सिद्धहस्त हंै, वैसे कविता करने में, वैसे ही काहनी तथा उपन्यास लिखने में। आपकी आँसू, अजातशत्रु, कामना, नागयज्ञ, स्कंदगुप्ता, अशोक, कंकाल, चंद्रगुप्त आदि पुस्तकें हिंदी-साहित्य का गौरव हैं। आपकी कविताएं इतनी भावपूर्ण और सुंदर होती हैं कि सहदय पाठक मुग्ध हो जाते हैं। हमारी राय में इन्हीं पांच सज्जनों में से किसी एक को इस बार सभापति बनाना उचित होगा। आशा है, हिंदी-संसार हमारी इस प्रार्थना पर ध्यान देने की अवश्य कृपा करेगा। अवस्था की दृष्टि से रत्नाकरजी को ही सभापति बनाने के लिये हम अधिक जोर देते हैं।

काशी में भरत मिलाप

वाराणसी। भरत मिलाप नवरात्रि बाद एकादशी को काशी या बनारस में मनाया जानेवाला एक महत्वपूर्ण पर्व है। भगवान श्रीराम के 14 वर्षाें के बनवास व लंकापति रावणबध के पश्चात अयोध्या लौटने पर भाई भरत, शत्रुघ्न व अयोध्याजनों के पुर्नमिलन की स्मृति में मनाया जाने वाला यह त्यौहार सारी दुनिया में चर्चित है। ऋग्वेद के समय से गंगा तट पर बसे काशी नगर में बाबा विश्वनाथ का वास है। इस पुण्यनगरी में करोड़ों श्रद्धालु तीर्थाटन व पर्यटन के लिए आते हैं। ‘वरणा’ और नासी के बीच बसा वाराणसी नगर दो शब्दों के योग से बना है। सभी इन्द्रियों के दोषों का जो निवारण या वरण करे उसे कहते हैं, वरणा और जो सारी इन्द्रियगत दोषों को नाश करे वह नासी। सो इसी वाराणसी में सभी संकटों से मुक्त करनेवाले महादेव रांड़ (विधवा), सांड़ और सन्यासियों से घिरे अपने भक्तों का कल्याण करते हैं। कहते हैं इसी पुण्य नगरी में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास रामलीलाओं का आयोजन अलग-अलग मोहल्लों में किया करते थे तभी कई मोहल्लों के नाम रामायणकालीन हैं।
    वाराणसी हमेशा से अपने रंगीन मेलों, त्योहारों और घटनाओं के लिए प्रसिद्ध है। लगभग हर महीने कुछ त्योहार या मेले इस प्राचीन शहर में मनाये जाते है। वाराणसी के लोगों के सांस्कृतिक जीवन में गंगा नदी और इसके महत्व के साथ आत्मिक जुड़ाव है। वाराणसी में भरत मिलाप एक ऐतिहासिक त्योहार है जो हर साल बहुत आनंद के साथ मनाया जाता है।
    वाराणसी में भरत मिलाप हर साल अंग्रेजी महीने के अक्टूबर या नवंबर व भारतीय महीने के कुआर या कार्तिक में मनाया जाता है। काशीवासी इसे बड़ी धूमधाम के साथ मनाते हैं। यह त्योहार नाटी इमली, वाराणसी में आयोजित किया जाता है। वाराणसी के इस महत्वपूर्ण त्योहार में असत्य और बुराई पर अच्छाई की जीत का सार है। वाराणसी में भरत मिलाप वाराणसी वासियों को ही नहीं, वरन् यह पूरे भारत से भरपूर मात्रा में भक्तों को आकर्षित करता है। लोगों की बड़ी संख्या इस त्योहार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। रत्नाभूष्णों जडि़त वस्त्रों में प्रभु के रूपों के इस मिलन में काशी नरेश द्वारा भी भाग लिया जाता है। त्योहार की भावना से उठ। यह त्योहार वाराणसी और लोगों के लोगों के लिए एक बड़ा आकर्षण है। पूरे साल बेसब्री से इंतजार के बाद महान आनंद और भक्ति के साथ श्रृद्धालु इस त्योहार को मनाते हैं। लोगों को सड़क पर इकट्ठा करने के लिए शानदार जुलूस शहर में बड़े पैमाने पर रोशनी के साथ सजाया जाता है। लोग प्रभु श्रीराम की मूर्ति और उनके भाई भरत पर फूल माला और तिलक लगाकर पूजा करते हैं। इस साल यह त्योहार 25 अक्टूबर को धूमधाम से मनाया जाना है।

तिलक को कौन देगा इंसाफ?

ओबरा (सोनभद्र)। हज़ारों हज़ार छात्र छात्राओें का आदर्श, विद्वता और शैक्षिक आदर्श का स्तम्भ बन चुके वरिष्ठ शिक्षक सीजे तिलक को उनके ही स्कूल सेकेे्रड हर्ट सेकेण्ड्री कानवेण्ट की प्रधानाचार्या सिस्टर किरन नें अपनी निरंकुश तानाशाही का इस क़दर शिकार बनाया कि आज वह इन्साफ पाने के लिए दर-दर की ठोकरें खानें को मजबूर हैं। सीबीएसई के नियम कानून की धज्जियां उड़ाने पर उतारू प्रधानाचार्या नें शिक्षक धर्म को शर्मसार करने वाली ओछी हरकत को अन्जाम देते हुए बच्चों को जीवन भर अनुशासन और ज्ञान का पाठ पढ़ाने वाले संस्था के प्रति निष्ठावान शिक्षक को उसी स्कूल मे बच्चों व साथी कर्मियों के सामने अपमानित करते हुए स्कूल परिसर से बाहर निकलवाने का क्षुद्र कार्य भी अंजाम दे दिया।       
    उक्त शिक्षक का सुदोष मात्र इतना था कि विद्यालय प्रबन्धन द्वारा समय से पूर्व उसे सेवानिवष्त्त किये जाने की कुचेष्टा का उसने विरोध करते हुए अपने हक की मांग कर दी कि उसे राज्य सरकार और सीबीएसई के नियमानुसार 60 वर्ष की अवस्था में सेवानिवष्त्त किया जाये न कि 58 वर्ष में। लिहाजा हक और अधिकार की बात सुनते ही त्योरियां चढ़ाने वाली क्रिश्चियन संस्था दी एजुकेशनल सोसाइटी आफ दी अरसू लाइन मेरी इम्माकूलेट विमल सदन लखनऊ द्वारा संचालित उक्त विद्यालय की प्रधानाचार्या नें इस मामले को निजी प्रतिष्ठा का विषय बनाते हुए शिक्षक के जीवनभर के योगदान को मटियामेंट करने पर ही नहीं तुली अपितु अपने अहंकार और स्वतंत्र अल्प संख्यक संस्था के दम्भ में चूर होकर स्थानीय नियंत्रक जिलाविद्यालय निरीक्षक, रूल एवं रेगुलेशन से लेकर जिले एवं प्रशासन के सर्वोच्च नियंता जि़ला मजिस्ट्रेट के आदेश की अवमानना करने पर अड़ गयीं।
    यहां तक कि विद्यालय को मान्यता प्रदान करने से लेकर परीक्षा नियंत्रक सीबीएसई के आदेश को भी उक्त तानाशाह और निरंकुश हो चली प्रधानाचार्या ठेंगा दिखाती आ रही हंै। हैरान परेशान और हताश शिक्षक को अब बिल्कुल समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर अब वह इन्साफ मांगने कहां जायें। भीगी बिल्ली बनकर रहने वाले उक्त विद्यालय के शिक्षक और शिक्षिकाओं से लेकर विद्यालय परिवार भयवश दुबककर अपने साथी कर्मी के साथ हो रहे अन्याय को चुपचाप देखने को मात्र इसलिए विवश है कि कहीं उन्हें भी कल को बाहर का रास्ता न दिखा दिया जाये।
    अन्याय और शोषण के विरूद्ध अपने हक की आवाज उठाने वाले उक्त शिक्षक द्वारा इन्साफ के लिए अधिकारियों के यहां 2 फरवरी 12 से ही प्रत्यावेदन के साथ किये गये गुहार पर गौर करें तो न्याय पाने के लिए उक्त शिक्षक ने जिलाधिकारी के यहां दिये गये आवेदन पत्र में उल्लेख किया है कि उसकी सेवानिवष्त्ति की आयु 31 जनवरी 2014 को पूरा होता है जबकि उन्हे 60 वर्ष की बजाय 58 वर्ष की अवस्था में ही 01 फरवरी 2012 को पठन-पाठन कराने के बाद जबरिया सेवानिवष्त्त कर दिया गया और कहा गया कि अब आपको सेवामुक्त किया जाता है। विदित है कि राज्य सरकार द्वारा जारी राजाज्ञा में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि सेवानिवष्त्ति की आयु 60 वर्ष निद्र्दारित की गई है। साथ ही वह सेवानिवष्त्ति के बाद दो साल और सेवा का एक्सटेंशन पाने का अद्दिकारी है। यदि सेवक एक्सटेंशन नहीं लेता है तो वह साढ़े सोलह माह का वेतन सेवा लाभ के रूप में पाने का अधिकारी है।
    केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत कार्यरत कर्मचारी भी उक्त सेवा नियमावली के दायरे में आते हैं। पीडि़त शिक्षक ने अधिकारियों के यहां सेवानिवष्त्ति पर पक्ष रखते हुए दावा किया है कि उनकी सेवानिवष्त्ति की आयु 31 जनवरी 2014 को पूरी होती है। बावजूद इसके उनकी आयु 58 वर्ष पूरे होते ही उन्हे 01 फरवरी 2012 को ही सेवामुक्त कर दिया गया। उन्हे न तो सेशन का लाभ ही दिया गया हैै और न ही 60 वर्ष की सेवा आयु और 2 वर्ष का एक्सटेंशन लाभ ही। विदित है कि पीडि़त शिक्षक की जन्म तिथि 1 फरवरी 1954 है जो विद्यालय अभिलेख में भी दर्ज है और विद्यालय द्वारा जारी वार्षिक बुलेटिन पत्रिका में भी उसका उल्लेख किया गया है।
    यहां ध्यान देने योग्य व विद्यालय प्रबन्धन के द्वारा शासन को गुमराह करने वाला एक तथ्य और है कि श्री तिलक को नियुक्ति का जो पत्र दिया गया है, इस पर 11 अप्रैल 1988 की तारीख अंकित है जबकि शासकीय अभिलेखों में वर्ष 2004 से उनकी नियुक्ति दर्शायी गई है। क्या यह संज्ञेय अपराध नहीं है?
    बावजूद इसके केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा जारी सेवा नियमावली का अनुपालन प्रबन्धन द्वारा न कर मनमानी की जा रही है। हालत यह है कि कल तक उस कालेज का स्तम्भ कहे जाने वाले उक्त शिक्षक को कालेज जाने पर हर दिन रूसवाई का सामना करना पड़ रहा है और कालेज परिसर में जाने पर प्रतिबन्द्दित कर दिया गया है।

सुन लो सुनाता हूँ एक कहानी...

एक थी लोकतांत्रिक राज की राजधानी। वहां था एक राजा। राजा हो गया था बूढ़ा, सो युवराज का राजतिलक कर दिया गया। युवा राजा पाकर प्रजा हो गई खुश। इधर प्रजा प्रसन्नता के सपने में थी, उधर युवा राजा और बूढ़ा पिता अपने राज को और बढ़ाने के लिए शराब कारोबारी के साथ चाय, पैसा बेचने वाले के साथ नाश्ता और वोट के ठेकेदारों के साथ भोजन करने में मस्त थे। घोषणा करने, आश्वासन देने व धन-भत्ता की खैरात बांटने में व्यस्त थे। देश की दूसरी राजधानियों के राजाओं से मेल-मुलाकात करके देश पर राज करने के मंसूबे बनाने में बूढ़े राजा और उनके चट्टे-बट्टे जी जान से लगे थे। इधर सूबे की राजद्दानी में युवा राजा अंकल, आंटी, मम्मी, बुआ और बहू के चोंचलों से घिरे। उधर राजधानी में आइएएस तक शोहदई पर अमादा। साथ के सूबेदार बलात्कार से लगाकर जमीनों का कब्जे के फेर में। कानून का राज.. कानून का राज.. का हल्ला मचाने के साथ ‘बोले यूपी’ का सिनेमाई ‘दयावान’ वाला अंदाज भी घर-घर दरवाजा खटखटाने लगा।
    अब सुनिए आगे का हाल-हवाल। पहले पिटे, होने वाले शिक्षक फिर प्रधान जी लोग। अब शायद पिटने की बारी है साठ हजार शिक्षकों की जो हड़ताल के चक्कर में हैं। खुली सड़क पर लड़के-लड़कियां शोहदई पर बजिद, तो सांड़ व कुत्ते बाकायदा बलात्कार के दुष्कर्म में लिप्त। शहर की हर सड़क पर प्रातःदर्शन में प्यारे-प्यारे कुत्तों को शौच करते, नालियों-नालों किनारे आदमी को हाजत से फारिग होते देखना हरिदर्शन है? मेयर साहब कहते हैं, साड़ों को पकड़कर मध्य प्रदेश भेज देंगे। तो जनाब आदमियों, कुत्तों और बन्दरों के लिए क्या इंतजाम होंगे ? शरीफ शहरी नागरिक जो गृहकर, जलकर समय से नकद जमा करते हैं उनका पानी बाकायदा चोरी करके बेचने वालों के लिए क्या करेंगे? और जो पार्षद इस कारोबार में साझीदार हैं उनसे कैसे निबटेंगे? यानी पीने का पानी शुद्ध रूप से नागरिकों को उपलब्ध नहीं ही है। इसके बाद भी जलकर तीन गुना बढ़ाने की कवायद जारी है? सफाई का हाल बेहाल है? इससे भी बुरी हालत बिजली की है। राजधानी के साठ फीसदी इलाके अंधेरे में हैं, इनका काम वैकल्पिक व्यवस्था से चलता है। लोग बाग सड़कों पर उतरकर रेल-बस रोककर विरोध प्रकट करते हुए पुलिस से पिट रहे हैं, फिर भी पूरी निर्लज्जता से बिजली की दरें बढ़ाई जा रही हैं। सड़क किनारे बेहाल मरीजों को ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा है। एम्बुलेन्स व अस्पताल गेट/हाते में प्रसव कराये जा रहे हैं। दवा के नाम पर, प्राइवेट प्रैक्टिस के नाम पर लूट जारी है। यही हाल शिक्षा का है, वहां भी खुले हाथों लूट का आतंक है। फिर भी नारा है मुफ्त चिकित्सा/शिक्षा का? रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल महंगा। टी.वी. देखने वालों के लिए सेट टाॅप बाॅक्स या डीटीएच लगवाना अनिवार्य। या सारा केन्द्र सरकार ने थोपा है, लेकिन सूबे की सरकार अपना कर छोड़कर नागरिकों को राहत क्यों नहीं पहुंचा सकती? साफगो बात यह कि आप अपने हिस्से का पूरा कर वसूलेंगे और केंन्द्र सरकार पर आरोप मढ़ देंगे?
    महारानी साहिबा (पूर्व) और उनके दरबारियों की कारें पिछले बरस दो अरब से अधिक का पेट्रोल पी गईं। इस साल राजा साहब और उनके मंत्रिगण की कारें लगभग तीन अरब का पेट्रोल पिएंगी। यह खर्च नौकरशाहों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली कारों से अलग है। गरीब आदमी की थाली 16 रूपए की तो राजा साहब की सुबह की चाय ही 160 रुपए की? और थाली बेशकीमती? राजा साहब छुट्टी मनाने सपरिवार जाते हैं, विदेश और आदमी टी.वी. के सामने अपनी बीवी से रिमोट छीनते और रूठने पर उसे मनाने के जेहाद में जूझकर अपनी छुट्टियां मनाता है? ऐसे सैकड़ों किस्से बयान किये जा सकते हैं। मगर 2014 में होने वाले चुनावों की समाजवादी तैयारी के बगैर राजा-प्रजा की यह कहानी अधूरी रह जाएगी। भारत बंद में 13 हजार करोड़ के नुकासान में शामिल होकर राजा साहब और उनके पिता ने किसका भला किया? बिचैलियों का, व्यापारियों का या आम नागरिकों का? या फिर अपनी संभावित गोलबंदी का? इस गोलबंदी की मार बंगाल से चेन्नई तक जारी है। अंदरखाने नागपुरवालों से भी खुसर-पुसर की तरंगे सियासी हवा में तैर रही हैं। सूबे में खैरात (कई योजनाओं के जरिए) बांटने के साथ छः महीने की उपलब्धियों के प्रचार में राजकोष के धन को खुले हाथों लुटाकर कार्यकर्ताओं तक को ठगा जा रहा है? संसाद/विधायक/पार्षद/प्रद्दान तक बीस-बीस लाख की गाडि़यों के काफिले में सड़कें रौद रहे हैं? मरीज ढोने वाली एम्बुलेन्स वोटरों के थोक व्यापारियों के दरवाजे खड़ीं हैं? इससे भी दो कदम आगे अल्पसंख्यक वोटर कहाने वाले खुले हाथों दंगा करते हैं, भगवान की मूर्ति तोड़ देते हैं और पुलिस सिर्फ तमाशाई रहती है। बाद में बयानों के जरिये नागरिकों को गुमराह किया जाता है? यह किस किस्म की चुनावी तैयारी है?
    मैं यहां एक सवाल पूंछना चाहता हूँ। हालांकि यह सवाल कई बार पूंछ चुका हूं कि यह सूबा उत्तर प्रदेश किसका है? भाजपाइयों का, सपाइयों का, कांग्रेसियों का, बसपाइयों का या फिर अल्पसंख्यक मोर्चाे का है? ठाकुरों, बाभनों, बनियों, लालाओं, यादवों, कुर्मियों या हरिजनों का है? या अपराधियों शोहदों का है? या लुटी-पिटी रोती औरतों का है? या फिर वोटर कार्डधारक वोटरों का हैं? आखिर यह सूबा किसका हैं? कौन जवाब देगा? तो किस्सा कोताह ये कि मेरी किस्सागोई शायद आपको थका रही होगी, लेकिन युवा राजा की इस कहानी पर सोंचिए फिर फैसला आपके हक में हो सकता है।

सियासत के मोहल्ले में आया लालू का बेटा

पटना। राजनीति की चिकनी सड़क पर लालू यादव के बड़े सुपुत्र तेज प्रताप ने भी नितीश कुमार सरकार के खिलाफ मोर्चा निकालकर अपने छोटे भाई तेजस्वी के साथ कदम बढ़ा दिये। मजे की बात है कि उसी बी.एन. कालेज व पटना विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ तेज प्रताप छात्रों के लिए सुविधाओं की मांग कर रहे थे, जहां से 40 साल पहले लालू यादव ने छात्र नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। राष्ट्रीय जनता दल की यूथ विंग की कमान भी तेज प्रताप संभालेंगे। वे छात्रों के बीच काम करने को लेकर बेहद उत्साहित हैं। उन्होंने कुछ ही समय पहले औरंगाबाद, बिहार में मोटरसाइकिल का शोरूम भी खोला है। राजनीति और व्यापार में दोनों पैर जमाकर राजद के युवराज उप्र की तर्ज पर बिहार के सिंहासन पर कब्जा करने की जंग लड़ने सड़कों पर उतर गये हैं।

‘मैनफोर्स’ का आतंक या शोहदाई का आक्रमण

लखनऊ। औरैया की युवती को बंधक बनाकर सपा विधायक मदन सिंह गौतम व उनके चार साथियों ने चार महीने तक लगातार बलात्कार किया। ऐसा आरोप पुलिस अद्दीक्षक को दी गई तहररी में पीडि़त युवती ने लगाया है। इस घटना से पहले लखनऊ-दिल्ली के बीच चलने वाली वीआईपी गाड़ी लखनऊ मेंल में यात्रा के दौरान सूबे के आइएएस शशिभूषण लाल ‘सुशील’ ने सहयात्री युवती से छेड़छाड़, मारपीट की व बलात्कार करने का प्रयास किया। इसी दिन कैसरबाग क्षेत्र में दबंगों  ने मां के साथ जा रही युवती को न सिर्फ छेड़ा वरन् उसके कपड़े तक फाड़ने के प्रयास किया। हर पांच मिनट में पांच लड़कियों को राजधानी में छेड़ने के मामले सामने आते हैं। पूरे सूबे के हालात का अंदाजा लगाना तब और आसान हो जाता है जब कानपुर में भरे बाजार दो लड़कियों से अश्लील हरकत करते रहे शोहदे और पुलिस घटना से ही इन्कार करती रही। इससे भी दो कदम आगे अलीगढ़ की खैर कोतवाली में तैनात रहे सिपाही ने छात्रा से दुष्कर्म कर उसकी वीडियों क्लिप बना ली। इन शर्मनाक घटनाओं की बाढ़ में भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं की पवित्र धरती नंदगांव (मथुरा) के एक विद्यालय की शिक्षिका से वहीं के सह-समन्यक ने बलात्कार कर डाला। इस कुकर्म में विद्यालय की प्रद्दानाचार्या भी शामिल थीं। इलाहाबाद के मांडा इलाके में 17 साला छात्रा के साथ उसके ही चचेरे भाई ने अपने डाक्टर मित्र व एक अन्य दोस्त के साथ डाक्टर मित्र के क्लीनिक में बंधक बनाकर तीन दिन तक बलात्कार किया। वहीं फर्रूखाबाद के जिंजौरा व पहाड़पुर गांव में युवती से छेड़छाड़ को लेकर आमने-सामने गोलियों की बौछार होने की खबर आई हैं।
    इससे भी अधिक खतरनाक घटना अलीगढ़ के अतरौली विद्दान सभा क्षेत्र के गांव विद्दीपुर की है। गांव की युवती के साथ वहीं के युवक ने दुराचार किया। पंचायत बैठी युवक ने अपना अपराध कबूल किया। पंचों ने फैसला सुनाया भरी पंचायत में आरोपी को दस जूते युवती मारे और 80 हजार जुर्माना पीडि़त परिवार को मिले। घटनाएं तो इतनी हैं कि अखबार में पन्ने कम पड़ जाएंगे। ये घटनाएं महज बानगी भर नहीं हैं, वरन् समाज की बदलती सांेच का घृणित चेहरा हैं, कानून के खौफ को बिला जाने की है।
    तकलीफ तो तब और होती है जब मुख्यमंत्री से लेकर डीजीपी तक बयान देते हैं, चाहे कोई भी हो बहू-बेटी से छेड़छाड़ महंगी पड़ेगी या लड़कियों को नहीं जाना होगा थाने, पुलिस लिखाएगी मुकदमा।’ ये झूठे आश्वसनों वाले बयान लगातार बढ़ती शोहदई और बलात्कार के सामने प्रदेश की महिलाओं/ युवतियों का मजाक उड़ाने वाले लगते हैं। पुलिस क्या करती है या क्या कर रही है? इसे कौन नहीं जानता। इससे भी दो कदम आगे बढ़कर उपदेशकों के हास्यास्पद बयान भी ठहाके लगा रहे हैं, ‘नियमों का पालन हो तो आसान होगा महिलाओं का सफर’, ‘मानसिकता बदलें, नहीं तो घर में छेड़ी जाएंगी लड़कियां।’ कैसे बदलेगी मानसिकता? कौन बदलेगा? वह भी तब जब टी.वी. के पर्दे पर विज्ञापन (स्प्राईट कोल्ड ड्रिंक) में ‘कैसे ले लूं मैं इसकी....’, इच गार्ड में स्त्री गुप्तांग को खुजलाते और मैनफोर्स के विज्ञापन के जरिए कंडोम के साथ का सुख खुलेआम पूरा परिवार (दादा-दादी, नाना-नानी, बहू-बेटी, बेट, पोते-पोती, नतिनी-नाती) रजामंदी के साथ देखता है। यहीं नहीं लड़कियांे को मेडिकल स्टोर पर 72 आॅवर पिल्स या कंडोम खरीदते, दुकानदार रोक सकता हैं?
    सड़क पर आधे-अधूरे कपड़ों में बाइक पर पूरी बेशर्मी से लिपटी युवती को कौन रोक सकता हैं? चार शोहदों को सरेआम किशोरी से अश्लील हरकत करने से कौन रोकेगा? वह पुलिस जो खुद थानों के भीतर यही सब करने के प्रयास में बदनाम है? वह कायर पाखंडी अभिभावक जो खुद पड़ोस की महिला/युवती से रंगरेलियां मनाने के सपने देखते हैं या मनाते हुए पकड़े तक जाते हैं?
    या फिर सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव का गए विधानसभा चुनावों के समय किया गया वायदा, ‘अगर उनकी पार्टी की सरकार बनती है तो बलात्कार पीडि़ता लड़की को सरकारी नौकरी दी जाएगी और बलात्कारी के विरूद्ध कड़ी कार्यवाहीं की जायेगी।’ कहां हुआ है इस वायदे पर अमल? बसपा सरकार के समय के सोनम, शीलू कांड के अलावा कन्नौज, एटा, बाराबंकी, मुरादाबाद, चिनहट (लखनऊ) कांड का सपा मुखिया ने अपने चुनाव प्रचार में बेहतर प्रयोग किया था। उस समय बड़ा हंगामा भी हुआ था। उन कांडों की सुध लेना तो मौजूदा सरकार के ‘पिताजी’ भूल गये लेकिन जो हर पल घटने वाले बलात्कारों की खबरें आ रही हैं उन पर तो चुनावी वायदे को पूरा किया जा सकता है।
    बलात्कार या छेड़छाड़ क्यों बढ़ रहे हैं? इस सवाल को लेकर महज बहस नहीं शोध हो सकता है। पुरूषों पर बढ़-चढ़कर आरोप लगाये जा सकते हैं, लेकिन मानसिक नंगई पर, सामाजिक नंगई पर कौन सा शोध होगा? जब कंप्यूटर लिंग निर्धारण से लेकर बच्चा पैदा करने की तारीख तय कर रहा है और टी.वी. के पर्दे पर बच्चा जनने की सारी प्रक्रिया ‘थ्री इडियट्स’ के जरिए दिखाई जा रही है, तब ‘सत्यमेव जयते’ में चीखना बेमानी हो जाता है। जब पूनम पांडे, रोजलीन, गहना, शर्लिन चोपड़ा जैसी सिनेमाई युवतियां अपने सारे कपड़े उतारकर नंगई का हल्ला बोल देती हैं, तब सारा समाज गोलबंद होकर चटखारे लगाता है? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि पूरा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक ढांचा जब बाजार में खड़ा है तो संस्कार के मूल्य कैसे बचाए जायेंगे? इसके जवाब में सरकार और सरपरस्तों को ही आगे बढ़कर पहल करनी होगी।
इश्कज़ादों और लापताओं के आंकड़े
वर्ष    गुमशुदगी दर्ज    मिले    शेष
2012 552    265    287
(1 जनवरी से 30 जून)
2011    957    837    120
2010    1012    948    64
2009    137    989    148
कुल        3658    3039    619

दादी अम्मा... दादी अम्मा मर जाओ...!

लखनऊ। दादी तुम कब मरोगी? दादी मर जाए तो....? जैसे अबोध और आतंकी सवालों के बीच पिछले पखवारे अंग्रेजी-हिन्दी के रोमांस से पैदा ‘वर्णशंकर पाठशालाओं’ मंे ‘ग्रांड पेरेंट्स डे’ कार्यक्रम सूबे के महानगरों से लेकर कस्बों तक में आयोजित किये गये। इनमें बच्चों ने अपने दादा-दादी, नानी-नाना के लिए ग्रीटिंग कार्ड, बेस्ट स्टोरी, गेम्स, फैशन शो आदि का उपहार देकर आनंद उठाया और स्कूलों ने मोटी कमाई की।
    पांच दशक पहले ‘धूल का फूल’ सिनेमा आया था, जिसमें रूठी हुई दादी अम्मा को मनाने के लिए उनके पोता-पोती ने गाना गया था, ‘दादी अम्मा.... दादी अम्मा.... मान जाओ...’। आज अधिकांश परिवार के बच्चे बगैर दादी-दादा के यहां तक बगैर मां-बाप के क्रेच, डे बोर्डिंग और हास्टलों में अपना बचपन गुजार रहे हैं। ऐसे में इन उधार की पाठशालाओं के धनबटोरू पाखण्ड से बच्चों को कौन से संस्कार मिलंेगे?

Monday, September 17, 2012

‘सुधा’ की सम्पादकीय सम्मति कुछ अपने संबंध में


ईश्वर की कृपा से सुधा के प्रथम वर्ष का प्रथम खंड सकुशल समाप्त हो गया। यह सातवीं संख्या प्रेमी पाठकों की सेवा में उपस्थित की जाती है। सुधा कैसी निकली या निकल रही है, इसका फैसला करने का अधिकार पाठकों को हैं। हम केवल इतना ही निवेदन कर देना चाहते हैं कि हमने यथाशक्ति पाठकों की सेवा में उत्कृष्ट सामग्री उपस्थित करने की चेष्टा की है, और यह हमारी चेष्टा उत्तरोत्तर बढ़ती ही जायगी। इस समय हिंदी की दिन-दूनी रात-चैगुनी उन्नति हो रही है। उच्च साहित्य का आदर्श भी उच्चतम होता जा रहा है। नई-नई उच्च कोटि की पत्रिकाएं निकल रही हैं। प्रत्येक हिंदी का पत्र अपनी उन्नतिकरने में लगा हुआ है। यह बड़े ही हर्ष की बात है। हम सातवीं संख्या सुधा में कुछ परिवर्तन कर रहे हैं। आशा है, ये परिवर्तन पाठकों को रूचिकर होंगे। ‘चित्रकला’-स्तंभ के स्थान पर ‘ललित कला’ स्तंभ रक्खा गया है। इसमें चित्र, संगीत, अभिनय, रंगमंच, उपन्यास, कहानी, नाटक, कविता आदि सभी ललित कलाओं पर लेख और नोट रहेंगे। इस स्तंभ में विश्व-साहित्य का भी परिचय देने की चेष्टा की जायगी। इस प्रकार यह स्तंभ बहुव्यापक और अधिक उपयोगी बन जायेगा। इसके अतिरिक्त ‘चारू चयन’, ‘देश-विदेश’ आदि कई अस्थायी स्तंभ भी देने का विचार है। उनमें से कभी कोई स्तंभ रहेगा, कभी कोई। हमने इस बात का भी प्रबंध किया है कि प्रतिमास किसी विदेशी नाटककार, उपन्यासकार या कहानी-लेखक का परिचय, उसकी सर्वोत्कृष्ट रचना का अनुवाद या आलोचना भी दी जाया करे। इस संख्या से पं0 विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक का ‘मा’ उपन्यास भी शुरू कर दिया गया है। यह क्रमशः निकलेगा। इसके बाद वर्तमान उत्कृष्ट हिंदी-लेखक, हमारे परम मित्र बा0 जयशंकरप्रसादजी का ‘कंकाल’ उपन्यास क्रमशः निकाला जायगा। यह उपन्यास बहुत ही उच्च कोटि का होगा। अगली संख्या से हिंदी के वर्तमान लेखकों और लेखिकाओं का सचित्र परिचय भी, ‘साहित्य-संसार’-स्तंभ देकर, क्रमशः प्रकाशित किया जायेगा। तात्पर्य यह कि सुधा को और भी अधिक उत्कृष्ट और उपयोगी बनाने के लिये भरसक पूरी चेष्टा की जायेगी। आशा है, हिंदी-प्रेमी जनता की ओर से हमें पूर्ण सहायता और सहयोग प्राप्त होगा।

नाच बेटा नाच...पैसा मिलेगा


लखनऊ। छोड़-छाड़ के अनारकली चली अपने सलीम की गली... ओ... अनारकली डिस्को चली या पौव्वा चढ़ा के आई चमेली से भी दो कदम आगे माशाअल्लाह... गानों पर कमर मटकाती तीन से तीस साल की नई पीढ़ी को खुलेआम घरों में, स्कूलों में, सड़कों पर देखा जा सकता है। और चालीस से साठ की अघाई-बुढ़ाई पीढ़ी को इस नाच-गाने पर ताली बजाने में कतई संकोच नहीं। इस जमात में पिज्जा-पास्ता, पराठा-तरकारी से लेकर लिट्टी-चोखा खाने-पचाने वालों की पूरी साझेदारी है। किटी से सीटी पार्टियों, किचन से क्लासरूम, बस से बेडरूम और दफ्तर से सड़क तक मोबाइल पर गाना सुनते और थिरकते दिखना नई पीढ़ी का ‘स्टेटस’ हो गया है। सरकारी रजिस्टरों में दर्ज गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की जमात के कानों में भी ‘इयरफोन’ ठुंसा हुआ दिखाई ही नहीं देता बल्कि उन्हें थिरकते हुए देखा जा सकता है। स्कूलों में बाकायदा ‘डांस के सुपर किड्स’ जीटीवी शो के आडीशन के लिए अलग से कक्षाएं लगाई जाती हैं। प्रधानाचार्या से लेकर शिक्षिकाएं तक उत्साह से बच्चों की तैयारी में हिस्सा लेते हैं। अभिभावक-शिक्षक बैठक में अभिभावकों पर बच्चों को घर पर अभ्यास कराने के लिए प्रशिक्षक रखने का दबाव डाला जाता है। यानी स्कूलों ने इसे आमदनी का जरिया बना लिया है। जब घर-स्कूल दोनों जगह बच्चों को प्रोत्साहन दिया जाता है, तो वे रिक्शा, आॅटो, वैन, बस में मस्ती करते नाचते-गाते दिखते हैं। ऐसे में किसी भी हादसे से इन्कार नहीं किया जा सकता। किशोरियों, युवतियों को तो लगातार हादसों का शिकार होना पड़ रहा है। इसके पीछे पैसा कमाने की होड़ भर नहीं है बल्कि यह सोंचा समझा ‘ग्लोबलाइबल कारपोरेट’ षड़यंत्र है। टीवी के लाइफ ओ.के. चैनल पर ‘झलक दिखला जा-5’ नृत्य कार्यक्रम दिखाया जा रहा है। इसमें नाच कम फूहड़ता, अश्लीलता अधिक दिखती है। इसमें अधिकांश नाचनेवाले जोड़ों के ‘सेक्स उपकरण’ उभार कर दिखाने की होड़ सी लगी रहती है। औरत को सामान्यरूप से छू भर देने से हंगामा खड़ा हो जाता है। बेडरूम से बाहर जिन नारी अंगों का भूल से भी दिखना तक नारियों को गंवारा नहीं उनकी नुमाइश बकायदा तबला-पेटी बजाकर की जा रही है। इसका असर यह है कि घरों के गुसलखाने, रसोई यौनाक्रमण के शिकार हो रहे हैं, तो बैठकों, शयनकक्षों में नृत्यशाला का अतिक्रमण हो गया है। संगीत की दुनिया में आई इस नई क्रांति का शिकार राजधानी की हजारों युवतियां हो रही हैं और सुरों की महफिल से आत्महत्या तक की नाकाम कोशिश करने वाली पूनम जाटव का नाम भुलाया जा सकता है?
‘झलक दिखला जा-5’ के मंच पर ईशा शरवानी-सलमान की जोड़ी संभावित विजेता में ईशा के हाथ में चोट लगने से वह बाहर हो गई है। रश्मि और ऋत्विक की जोड़ी को भी सराहा जा रहा है। इनके अलावा एक बच्चा जोड़ा दर्शील-अवनीत का भी रहा जो अपनी उम्र से पहले ‘कामशास्त्र’ का प्रशिक्षण लेकर विदा हो गया।
    कामेडियन भारती की गरीबी की दास्तान देशभर को सुनवाकर उसकी फूहड़ता से भरपूर जज रोमो के साथ रोमांटिक होने के नखरों को देर तक दिखाकर मनोरंजन करने की नाकाम कोशिश जारी है। इसके अलावा ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के विजेता बिहार के सुशील कुमार से उल्टे-सीधे हाथ-पैर उछलवाकर निम्नमध्यम वर्ग के दर्शकों को जोड़ने की भरपूर कोशिश की गई है। माधुरी के माधुर्य से दर्शक जहां बंधे हैं, वहीं लगातार आनेवाले मेहमान अभिनेता/अभिनेत्री भी दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हैं। इस शो के दर्शकों में सर्वाधिक संख्या बच्चों और युवतियों की है। यही वजह है कि इसकी टीआरपी भी पहले पायदान पर है। गो कि नाचने की धूम है। अधिक दिन नहीं बीते लखनऊ के कोठों और कोठेवालियों को उजड़े हुए। इन्हें सुनने और इनके नृत्य की एक शरीफाना उम्र और जगह तय थी और ‘झलक दिखला जा’ हर जगह नाच रहा है?
    इसी तर्ज पर सुरों की महफिलें भी सजी हैं। ‘इंडियन आइडल’, ‘सुरक्षेत्र’ जैसे कार्यक्रमों में छोटे-बड़े सभी गाते दिख जाएंगे। इससे पहले भी ‘जुनून’ जैसे कार्यक्रम से लखनऊ की मालिनी अवस्थी का नाम सामने आया। वहीं कल्पना भी कलप गयीं। इनकी नकल स्थानीय स्तर पर भी की जा रही है। चुनाचे नाचने-गाने की घोर महत्वाकांक्षी पीढ़ी का शिक्षा जगत से नाता टूटता जा रहा है और अपराध की नई किस्मों के जंगल उग रहे हैं। इस सबकी जिम्मेदारी समाज की नहीं है? ताली बजाकर ‘नाच बेटा नाच..पैसा मिलेगा’ का प्रोत्साहन क्या संज्ञेय अपराद्द की श्रेणी में नहीं आता? इन सभी सवालों का जवाब तलाशना ही होगा वरना बदलाव का कुतर्क बरबाद कर देगा।

बहूरानी भूखे हैं बच्चे


लखनऊ। बहूरानी की राजनैतिक जन्मभूमि कन्नौज के गांव बीसापुर तराई में 6 नाबालिंग (4-17 साल के) बच्चे भूख से बेजार इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हैं और युवा ‘टीपू’ सरकार के हाकिम व समाजवादी नेता उनके मुंह में झूठ का काढ़ा जबरन ढकेले दे रहे हैं। जबकि उन बच्चों की ढाई बीघा जमीन दबंगों ने हथिया ली हैं। उन बच्चों के पिता की दुर्घटना बीमा राशि भी मिलनी है, लेकिन राजस्व व पुलिस महकमा उनसे खुलेआम रिश्वत मांग रहा है।     कन्नौज की जिलाधिकारी सेल्वा कुमार जे. बच्चों के शिकायती पत्र की जांच और उचित कार्यवाही में व्यस्त हैं। उधर बच्चों को दर-दर भटकने के साथ दुत्कार मिल रही है। इन बच्चों की बेबसी देखकर गांव के लोग अपनी सांसद बहू से बेहद नाराज हैं।

मीडिया की सनसनी हैं रामदेव!

जून, अगस्त और अब अक्टूबर से फिर रामलीला मैदान में बाबा रामदेव देश को ‘आन्दोलन’ का तमाशा दिखाएंगे? यह सवाल देश के हर पढ़े-लिखे मानस के दिमाग में खदबदा रहा है। पिछले दो आन्दोलनों में बाबा के योग और भोग को देख चुके लोगों के मन में और भी कई सवाल हैं? बाबा जिस कालेधन के वापसी की बात कर रहे हैं, वह क्या विदेश से अधिक देश में नहीं हैं? बाबा हर विषय की ठेकेदारी स्वयं क्यों लेने का प्रयास करते हैं? बाबा के आन्दोलनों में खर्च होनेवाली रकम क्या सफेद है? उनके ट्रस्टों की संपत्ति में यदि कालाधन नहीं है तो उसकी जांच पर इतनी हाय-तौबा? वे कहते हैं 9वें योगी हैं, सन्यासी हैं और जनहितार्थ संघर्ष कर रहे हैं। यहीं सवाल उठता है कि क्या सन्यासी चार्टड हवाई जहाज/हेलीकाफ्टर व कारों के काफिले में चलने का हकदार हैं? उनके संस्थान द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद इतने महंगे हैं कि हर शख्स उन्हंे खरीद नहीं सकता। डाॅबर और वैद्यनाथ जैसी ख्याति प्राप्त और भरोसे वाली कम्पनियों के उत्पादों से पतंजलि के उत्पाद 20-25 फीसदी महंगे हैं। उनके ‘लौकी के जूस’ का हश्र देश देख चुका है। वे मामूली बुखार से लेकर कैंसर तक के इलाज का दावा करते हैं और स्वयं का इलाज इलौपैथिक पद्धति के नर्सिंग होम में कराते हैं?
    विपक्षी राजनीतिज्ञों की तरह सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगा कर सनसनी तो पैदा करते हैं उनमें से एक का भी सुबूत नहीं देते। उनका सवाल है, ‘सरकार योग सिखाने पर टैक्स क्यों लगा रही है? तो कोई सनसनी सिद्ध पत्रकार पलट कर बाबा से यह क्यों नहीं पूंछता, क्या वे मुफ्त में योग सिखाते हैं या अपने शिविरों में मोटी फीस वसूलते हैं? इसी तरह वे महंगे उत्पाद बेंचकर जनता की जेबंे नहीं हल्की कर रहे? मोटी सी बात है कि व्यापारियों पर जब भी सरकार टैक्स लगाएगी तो व्यापार मण्डल हल्ला मचाता है। उसी तर्ज पर बाबा के आरोप नहीं हैं? योग से स्वास्थ बनेगा लेकिन गरीब का पेट कैसे भरेगा? या योग अमीरों के लिए ही है? रही फकीर और वजीर की लड़ाई तो वे कतई फकीर नहीं हैं, सिर्फ गेरूआ धारण कर लेने से, दाढ़ी बढा लेने से और कुछ करतब दिखाने भर से सन्यास का नाम बदनाम करना तो कहा जा सकता है, सन्यासी नहीं। वे बात राजनैतिक करते हैं, ढोल सामाजिकता का पीटते हैं? उनका हर हल्ला केवल और केवल कांग्रेस के मुखालिफ होता है? जिसे टीआरपी बढ़ाने वाले चैनल अपने दर्शकों को दिखाकर उनका मनोरंजन करते हैं। उनके बीच ‘बाबा’ ब्रांड की सनसनी पैदा करते हैं? वे यदि वास्तव में संत हैं तो ‘ब्रांडेड’ महत्वाकांक्षा छोड़कर सन्यासियों जैसा आचरण करें, जनसेवा कर जनता के बीच जाकर वह भी पूर्णरूप से निःशुल्क। किराए के पंडाल के नीचे देशी कालेधन के दान की पूड़ी-कचैड़ी खा-खिलाकर आन्दोलनों का तमाशा दिखाकर नहीं।