Sunday, October 23, 2011

लक्ष्मी बड़ी ढीठ....

लक्ष्मी एक नौजवान ढीठ लड़की है। हाल ही में मेरे मोहल्ले में आई है। बला की सुंदर है और बेहद चंचल है। कम कपड़ों में दिखती है। उसकी आधी जांघों तक नंगी टांगे शायद अर्थशास्त्र के नियमों का पालन करती आंकड़ों की तरह चमकती हैं। खुली बांहें कुछ हद तक महंगाई के ग्राफ की मोटी वाली लाइन से मिलती-जुलती। गले के विस्तारित क्षेत्र का भराव आतंकवादियों के आकर्षण का आसान निशाना, तिस पर ‘फेयर एण्ड लवली’ वाला जगमगाता चेहरा, युवाओं ही नहीं अस्सी साल के बेदम जवानों को भी भ्रष्ट आचरण के लिए उकसाते लगते। उसकी दप-दप करतीं एक जोड़ा आंखें सूर्योदय पूर्व किये गये स्वामी जी के योगा की चमक से भरी-पुरी दिखतीं। घने काले बालों का लहराना कुछ-कुछ काले धन का हल्ला। जब भी वह सामने वाली अव्यवस्थित क्रांतिकारी भीड़ से धधकती सड़क पर अपनी इएमआई (आसान किश्तों) से खरीदी गई रंगीन स्कूटी से फर्राटा भरते गुजरती तो सैकड़ों उल्लुओं का जेहाद फड़फड़ाने लगता। लक्ष्मी इस सबसे बेपरवाह अपने ‘उत्सव’ से मिलने के बेताब, अपनी ‘पूजा’ के लिए बेचैन, अपनी ‘भव्यता’ के लिए बेसब्र यूं गुजर जाती जैसे शेयर बाजार से सोने-चांदी का भाव। करोड़ों बर्बाद कोई फिकर नहीं। इच्छाओं, अपेक्षाओं और आजीविका से जूझता आदमी इएमआई (किश्तों) पर खुशहाली तलाशते उसका पीछा करने को मजबूर।
शायद सांस्कृतिक मजबूरी ही है कि दीपावली पर्व पर दीपक जलाना है। लक्ष्मी-गणेश की पूजा करनी है। किश्तों पर नई कार खरीदनी है। नये जेवर खरीदने है। नये बर्तन खरीदने और तो और किश्तों पर ही जीवन की सुरक्षा (एलआईसी पाॅलसी) खरीदनी है। पटाखे भी फोड़ने हैं। जुआ भी खेलना है। शुभ मुहूर्त पर शेयर बाजार में निवेश भी करना है। गो कि शहरी जीवन का दर्शनीय भूगोल इसी आर्थिक पंचांग की बदौलत जगर-मगर कर रहा है। चुनाचे उत्सव का अनुग्रह और ईश्वर को धन्यवाद स्वामी और अन्ना के सत्याग्रह की टोली में समा जाता है। पोथियां बताती हैं, पुरखे बताते हैं, दीपावली भगवान राम, राजा राम, मर्यादा पुरूषोत्तम राम के लंका विजय के बाद पुष्पक विमान से पत्नी सीता व छोटे भाई लक्ष्मण सहित अयोध्या वापसी पर दीपमाला जलाने का पर्व है। राम के अभिनंदन का पर्व है। भगवान महावीर और तथागत बुद्ध की स्मृति का पर्व है। अज्ञानता के आंगन में ज्ञान का दीपक जलाने का पर्व है। कबीर की सुने तो ‘सुन्न महल में दिबरा बार लें। यानी रोशनी पर विश्वास का पर्व है, दीपावली। यही विश्वास किसी महाजन की तिजोरी में कैद है?या देश की व्यवस्था ने उसका अपहरण कर लिया है?या फिर हम ही उसे आजादी की उद्दंडता के खूंटे से बांध आये हैं?नहीं तो क्या वजह है कि निरोध और विरोध के हिमायती भ्रष्टाचार के रथ दौड़ाने में लगे हैं और माटी का दीया उसकी हवा के झोंके से बुझने-बुझने को हो रहा हैं?
    गांधी की ‘जीराक्स काॅपी’ के अनशन और गलियारों में किये गये सर्वे में मिला विश्वास?या फिर भारत के नक्शे को दीवार पर चिपका कर तिरंगा लहराते हुए वंदेमातरम् के नारे ने पैदा किया नया विश्वास?असलियत यह है कि पाखण्डी परम्पराएं इएमआई में अपनी दीवाली मनाने का भ्रम जरूर पाले हैं, मगर 32 रूपए में पेट का दोजख भरने वाले किस भ्रम में पर्व की ओर देखें?इससे भी गयी गुजरी 26 रूपए वाली जमात जिसकी मैली-कुचैली हथेली तक भारत सरकार की टकसाल में ढले सिक्के कभी नहीं पहुंच पाते वे मिट्टी के दीये में तेल कैसे डालें?सच यह है कि गांव-गिरांव में आज भी अनाज के बदले साबुन, तेल, बीड़ी, तमाखू, खरीदने की सामंती व्यवस्था लागू है, जो ग्रामीणों, गरीबों और आदिवासियों को गुलाम साबित करने में लगी है। इसके सुबूत में सैकड़ों घटनाओं का जिक्र किया जा सकता है।
    इस सबको नजर अंदाज करके वोटों की राजनीति के दौड़ते रथ जनभावनाओं को चोटहिल करने में और लोकतंत्र की सच्ची भावनाओं को घायल करने में लगे हैं। इन मध्ययुगीन रथों के बीच से लक्ष्मी की स्कूटी का फर्राटे भरते निकल जाना सभ्य समाज की किस मर्यादा का पालन माना जाए?और दीपावली में मिट्टी के दीपक जलाने के लिए किस महाजन से ऋण लिया जाए?या फिर दादी, अम्मा के मिथकों, कहावतों को प्रणाम करके दीवाली में लक्ष्मी-गणेश पर फूल, अक्षत चढ़ा कर उनके न खा सकने वाले मुंह पर मिठाई चुपड़कर दीये जला दें? पटाखे फोड़कर विधर्मी पड़ोसियों की नींद हराम कर दें?क्या करें, कोई बताएगा?
    सवाल बहुत हो गये। लक्ष्मी-गणेश को पूजने के लिए लोकतांत्रिक राजनीति के नाबदान पर एक दीया आर्थिक आजादी के लिए संघर्ष का जलाएंगे और संकल्प लेंगे, अखण्ड भारत के वाशिन्दों की खुशहाली का, हर हाथ में फोन की जगह रोटी पहुंचाने का और माता सरस्वती को प्रणाम करने का यानी मैं सुधरूंगा, जग सुधरेगा।

डराते हैं पुलिस के सिपाही

लखनऊ। वर्दी में सजा-धजा आदमी अपनी अकड़ या अहंकार में डूबा रहता है। तिस पर वर्दी का रंग अगर खाकी हो तो यह नशा बेहोशी की हद तक का हो सकता है। पुलिस कई मायनों में जहां बदनाम है, वहीं खौफजदा करने में सबसे आगे रहती है। सुरक्षा के नाम पर चैराहों, सड़कों पर तैनात पुलिस के जवान हाथों में डंडा थामें, कंधे पर रायफल लटकाये आमतौर पर दिख जाते हैं। इन्हीं में कई सिपाही अपनी कमर में, आगे पेट की तरफ या पीछे पीठ की तरफ अपनी पैंट मंे नंगी रिवाल्वर लगाये रहते हैं। ये नजारा खास पर्वों या राजनैतिक दलों की रैलियों के दौरान तो रहता ही है, इससे अलग रोजमर्रा के दिनों में भी किसी चैराहेे पर देखा जा सकता है।
    रिवाल्वर वह भी बगैर कवर के लगाये सिपाही के बगल से गुजरने की गुस्ताखी भला कौन कर सकता है? गलती से ऐसे शस्त्र-वस्त्र सुसज्जित सुरक्षाकर्मी ने यदि किसी शरीफ नागरिक को रोक लिया तो उसका क्या हाल होगा? क्या वह भय के कारण उस सिपाही के प्रश्नों का सही उत्तर दे सकेगा? ऐसे में ये सिपाही शरीफ नागरिकों को बेइज्जत तक कर देते हैं, रहा अपराधी को डराने का तो वह सभी जानते है कि चैराहे पर खड़े सिपाही से कितना डरते हैं अपराद्दी। अब जरा इनकी रिवाल्वर/रायफल की बात करते हैं।
    इनमें अधिकतर अपनी जान की सुरक्षा के चलते खाली रिवाल्वर/रायफल यानी बगैर गोलियों के (अनलोड) लिये रहते हैं। जब भी कोई हादसा या दुर्घटना होती है तो ये अपने असलहों में गोलियां ही भरते रह जाते हैं। होना तो यह चाहिए कि आला अफसरान चैराहों पर तैनात सिपाहियों के असलहों की जांच-पड़ताल भी समय-समय पर करें जिससे उनकी कर्तव्यनिष्ठा का पता चलने के साथ उनकी कार्य प्रणाली की भी जानकारी होगी।
    गौरतलब है जब कभी रेड अलर्ट या वाहनों की जांच के नाम पर इन सिपाहियों को तैनात किया जाता है, तब इनका भयावह और रिश्वतखोर चेहरा देखने लायक होता है। इसकी गवाही में किसी घटना का जिक्र करना बेमानी होगा क्योंकि यह तो रोज ही होता है। आला अफसरों को देखना चाहिए कि आम नागरिकों की सुरक्षा में तैनात सिपाही उसे खौफजद़ा न करके उसकी वास्तविक सुरक्षा पर ध्यान दें।

महंगाई वाला धनतेरस

लखनऊ। महंगाई का महिषासुर तमाम पर्वों को रौंदता हुआ अपनी छाती कूटते हुए ठहाके लगाकर लोगों को चिढ़ा रहा है। दीपावली मनाने की तैयारियों में मगन लोगों के लिए बाजार सज गये हैं। सोने-चांदी की कीमतों की बढ़ोत्तरी को देखते हुए नामचीन सर्राफों ने किश्तों में आकर्षक इनामों के साथ कई लुभावनी स्कीमें बाजार में उतार दी है। चांदी की ब्रांडेड ज्वैलरी और एक ग्राम सोने के गहनों की मांग बढ़ने की आशा के साथ ज्वैलर्स के शोरूम सज गए हैं। महज चार महीने पहले अक्षय तृतीया पर्व पर 65 किलो सोना और 300 किलो चांदी लखनऊवालों ने खरीदी थी।
    धनतेरस के बाजार में सोने-चांदी के अलावा कार, मोटरसाइकिल, बर्तन, मोबाइल, होम अप्लाइंसेज का नया और आकर्षक स्टाक चमचमा रहा है। पिछले धनतेरस में 60 करोड़ का 300 किलो सोना, 2 करोड़ की साढ़े 6 कुन्तल चांदी, 17 लाख का हीरे का एक हार, तीन हजार चार पहिया और छः हजार से अधिक दो पहिया वाहन, इनमें 75 लाख की मर्सडीज भी शामिल थी, 15 करोड़ के पटाखे, 11 करोड़ की मिठाइयां, दीया मोमबत्तियां 8 लाख, 3.5 करोड़ के बर्तन बिके थे। इनमें लाखों के मूल्य वाली सोने-चांदी की मूर्तियों के अलावा पांच सौ से लेकर 50 हजार तक के गिफ्ट पैक के साथ 3 से 5 हजार रू0 किलो मिठाई भी खूब बिकी। नहीं बिका तो मिट्टी का दीपक। इसकी अनुमानित बिक्री बताने वाली कोई एसोसिएशन भी नहीं थी। इस समूची बिक्री पर बिक्रीकर की धड़ल्ले से चोरी हुई। सरकारी खजाने में भले ही कर की रकम न जमा हुई हो, लेकिन वाणिज्य कर कर्मचारियों की जेबंे काफी भारी हुई थी। इस बार पहले से ही व्यापारियों के स्टाक का आकलन करने के निर्देश दिये गये हैं। इसके अलावा आन लाइन बाजार 22 सौ करोड़ का और 23 करोड़ एसएमएस भेजे जाने का आंकड़ा भी था।
    इस साल भी सोने-चांदी, वाहनों की तगड़ी खरीदी के अनुमान लगाये जा रहे हैं। बाजार में सोने-चांदी के भाव में भले ही अस्थिरता हो, मगर सिक्कों, मूर्तियों, जेवरों की खरीदी धनतेरस पर बड़े पैमाने पर होगी। नवरात्र के बाजार में 18 करोड़ से ऊपर की खरीद का आंकड़ा सामने आया है। यही हाल दो, चार पहिया वाहनों का भी रहा है। हालांकि इस साल अब तक पेट्रोल की कीमतों में चार बार और सीएनजी में पांच बार और डीजल में दो बार इजाफा हो चुका है। लखनऊ में प्रति लीटर पेट्रोल 75 रू0 में मिल रहा है, ऐसे में पिछले साल का आंकड़ा पार होगा? इस सवाल का जवाब वाहन बाजार ने आकर्षक इनामों, छूट, पैकेज के साथ किस्तों में ब्याजदरों में रियासत व डाउन पेमेन्ट महज दस-बीस हजार के आॅफर दिये हैं।
    32 और 26 रूपए रोज पर गुजारा करने वाले (सरकारी आंकड़ों मे) नये अमीर दीपावली पर क्या और कैसे खरीद पायेंगे, जबकि पराग दूध की कीमतों में तीसरी बार फिर दो रूपये की बढ़ोत्तरी हो चुकी है? फिर भी दीपावली रौशन होगी।

सरक गई खटिया...

लखनऊ। सरकाय ल्यौ खटिया... गाना जहां गुदगुदी पैदा करता है, वहीं खटिया पर आराम से पसर जाने की याद भी दिलाता है। आज घरों में चारपाई या खटिया की जगह डबलबेड, फोल्डिंग बेड ने ले ली है। आदमी के रहन-सहन में बदलाव के चलते बांस की चरपाई को शहरी घरों से लगभग निकाल दिया गया है। चारपाई नारियल की रस्सियों या बांद्द से बुनी जाती थी। इसे कपड़े की चैड़ी पट्टियों (निवाड़) से भी बुना जाता था। बुनी हुई बड़ी-बड़ी चारपाईयां घर की आरामगाह से लेकर आंगन, छत, बैठक व दरवाजे की शोभा होती। शादी-ब्याह में इन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। चारपाई उर्दू शब्द है। कहते हैं 1845 में चारपाई का चलन शहरों में सामने आया। दस अंगुलियों के जादू का कमाल चारपाई कैसे कहलाया पर कई किस्से हैं, लेकिन चैपाये से इसे जोड़कर देखा जाता है। चारपाई का चलन मुस्लिम शासकों की आमद के बाद अधिक बढ़ा। चार बांसों को जोड़कर उन्हें पायों के सहारे खड़ाकर रस्सी से बीनकर तैयार करते थे चारपाई। इसे आम बोलचाल में खटिया कहा जाता है। कीमत में कम और उठाने रखने में आसान होने के चलते खटिया हर घर की जरूरत थी। आज शहरी क्षेत्र के घरों में खटिया तलाशने से नहीं मिलेगी। खटिया केवल ‘जनाजा’ ले जाने के काम में लाए जाने के लिए ही इस्तेमाल होते देखी जा सकती है। चंद समय पहले गलियों में आवाजें आती थीं, ‘चारपाई बिनवाय ल्यौ’ या ‘चारपाई बिना इ...इ....ई वाला। अब चारपाई बीनने वाले शायद ही मिलें। हां लोहे के फोल्डिंग बीनने वालांे की कमी नहीं। नायलान की पट्टी (निवाड़) से महज आधे घंटे में एक फोल्डिंग बेड पंेच के सहारे कसकर तैयार कर दिये जाते है। इनका इस्तेमाल आमतौर पर घर की छतों पर होता है। बाजार में आज सौ तरह के बेड या चारपाई बेचे जा रहे हैं। बेंत से भी इन्हें बनाया जा रहा है। आधुनिक घरों के हिसाब से इनकी खरीदी होती है।
    ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी चारपाई का चलन है। चारपाई की बिटिया भी लोगों की दुलारी होती थी, जिसे मचिया कहते थे। छोटे स्टूल के आकार की चार पावों व छोटे बांसों से बनी और रस्सियों या बांध से बुनी होती थी। इस पर बैठकर बड़े बूढ़े-बूढि़यां तमाम अहम मसले तय करते थे। घर भर में मचिया कहीं भी डाल ली जाती थी। इसे बैठक या चैपाल में भी खास जगह हासिल होती थी। यह भले ही सिंहासन नहीं कहलाई लेकिन सम्मानजनक आसन रही। यही हाल ‘बाध’ से बीने मोढ़ों का भी रहा है। कुछ समय पहले इन्हें प्लास्टिक की पतली ‘केन’ से बीनकर बेचा जाता था। अब तो सीधे प्लास्टिक के मोढ़े मशीन से बनकर आते हैं।

आओ खेलें कूड़ा-कूड़ा...!

लखनऊ। राजधानी कूड़े-कचरे की दुर्गंद्द से बेहाल है। महापौर नारजगी जताते गली-मोहल्ले में घूम रहे हैं। उच्च न्यायालय ने शहर साफ करने के आदेश दिये हैं। आक्रोशित नागरिकों व सफाईकर्मियों मंे रोज झड़पों से लेकर मारपीट तक हो रही है। आधे से अधिक लखनऊ में संक्रामक रोगों और मच्छरों का हमला जारी है। अखबारों ने पहल की, सुझाव-सलाह का सिलसिला जारी भी है। अफसर-सफाईकर्मी कूड़े के निस्तारण को लेकर हलकान है। कूड़ा है कि लगातार बढ़ता जाता है।
    लखनऊ में 6570 मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है और 5475 उठाया जाता है। जेएनएनयूआरएम योजना के तहत लखनऊ को 43 करोड़ रूपया मिला उससे कैसा और कितना प्रबन्ध हो रहा है, सारा शहर देख रहा है। इसी कूड़े के प्रबंद्दन के लिए नगर निगम के अफसर, सभासद सिंगापुर की सैर भी कर आए थे। सारी कवायदों के बाद घर-घर से कूड़ा उठवाने के नाम पर 40 रूपया प्रतिमाह का बोझ नागरिकों पर तब डाल दिया गया, जब नगर निगम के चुने हुए प्रतिनिधियों ने सामुहिक विरोध किया। इस योजना के तहत घरों से कूड़ा उठाकर सड़कों पर डाला जा रहा है, नदी किनारे या नदी में फेंका जा रहा है। विशेष सफाई के नाम पर ईद, दशहरा में करोड़ो डकार लिए गये। दीपावली में निकलने वाले कचरे के नाम पर फिर करोड़ों का बजट डकारने की तैयारी होगी।
    नागरिक सुविधाओं से खिलवाड़ आम बात है, लेकिन करदाता को करके बदले बीमारी या मृत्यु बांटना संविधान की किस धारा में लिखा है? बेशक नागरिकों पर भी शहर को साफ रखने की जिम्मेदारी है, लेकिन इसके लिए शहरी प्रबंधन को नागरिक संगठनों, एनजीओं या मोहल्ला सुधार कमेटियों के तहत पहल करनी होगी।
    शायद ही कोई दिन ऐसा जाता होगा जब किसी न किसी इलाके में कूड़े को लेकर आम लोगों का आक्रोश न फूटता हो। आए दिन जनता अपने घर-मुहल्ले के करीब डंपिंग ग्राउंड न बनने देने के लिए आंदोलन करती दिखाई देती है। कूड़ा, सरकार और समाज दोनों के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा है। भले ही हम कूड़े को अपने पास फटकने नहीं देना चाहते हों, लेकिन विडंबना यही है कि यह दिन-दूना, रात-चैगुना बढ़ रहा है। औसतन प्रति व्यक्ति 20 ग्राम से 60 ग्राम कचरा रोज निकलता है। इसमें से आधे से अधिक कागज, लकड़ी या प्लास्टिक होता है, जबकि 22 फीसदी घरेलू कबाड़ या घरेलू कचरा होता है। लखनऊ नगर निगम कई-कई किलोमीटर दूर तक कचरे का डंपिंग ग्राउंड तलाश रहा है। इतने कचरे को इकट्ठा करना, फिर उसे दूर तक ढोकर ले जाना कितना महंगा और जटिल काम है। कुल कूड़े का महज पांच फीसदी का भी ईमानदारी से निपटान नहीं हो पाता है। कूड़ा निस्तारण संयंत्र जमीन न मिलने के चलते अब तक नहीं लग सका। राजधानी लखनऊ का 60 फीसदी कूड़ा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से गोमती में बहा दिया जाता है। कागज, प्लास्टिक, धातु जैसा बहुत सा कूड़ा तो कचरा बीनने वाले जमाकर रिसाइकलिंग वालों को बेच देते हैं। सब्जी के छिलके, खाने-पीने की चीजें, मरे हुए जानवर वगैरह कुछ समय में सड़-गल जाते हैं इसके बावजूद ऐसा बहुत कुछ बच जाता है, जो हमारे लिए विकराल संकट का रूप लेता जा रहा है।
    असल में, कचरे को बढ़ाने का काम समाज ने ही किया है। अभी कुछ साल पहले तक स्याही वाला पेन होता था, उसके बाद ऐसे बालपेन आए, जिनकी केवल रिफिल बदलती थी। आज बाजार में ऐसे पेनों का बोलबाला है जो खत्म होने पर फेंक दिए जाते हैं। बढ़ती साक्षरता दर के साथ ऐसे पेनों का इस्तेमाल और उसका कचरा बढ़ता गया। तीन दशक पहले एक व्यक्ति साल भर में औसतन एक पेन खरीदता था और आज औसतन हर साल एक दर्जन पेनों की प्लास्टिक प्रति व्यक्ति बढ़ रही है। इसी तरह शेविंग-किट में पहले स्टील या पीतल का रेजर होता था, जिसमें केवल ब्लेड बदले जाते थे और आज ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ वाले रेजर रोज कचरा बढ़ा रहे हैं। हमारा स्नानागार और रसोई तो कूड़े के बड़े उत्पादक बन गए हैं।
    कुछ साल पहले तक दूध भी कांच की बोतलों में आता था या फिर लोग अपने बर्तन लेकर डेयरी जाते थे। आज दूध तो दूध, पीने का पानी भी कचरा बढ़ाने वाली बोतलों में मिल रहा है। मेकअप का सामान, डिस्पोजेबल बर्तन, पोलीथीन की थैलियां, पैकिंग की पन्नियां वगैरह कचरा बढ़ा रहे हैं। ऐसे ही न जाने कितने तरीके हैं, जिनसे हम कूड़ा-कबाड़ा बढ़ा रहे हैं। घरों में सफाई और खुशबू के नाम चलन ने भी अलग किस्म के कचरे को बढ़ाया है। सबसे खतरनाक कूड़ा तो बैटरियों, कंप्यूटरों और मोबाइलों का है। इसमें पारा, कोबाल्ट और न जाने कितने किस्म के जहरीले रसायन होते हैं। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलोग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा, 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। शेष हिस्सा प्लास्टिक होता है। इसमें से अधिकांश सामग्री ‘सड़ती-गलती’ नहीं है और न ही जमीन में जज्ब हो पाती है। ये सारे जहर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने और भूगर्भ जल को जहरीला बनाने का काम करते हैं। ठीक इसी तरह का जहर बैटरियों और बेकार हो चुके मोबाइलों से भी उपज रहा है। भले ही अदालतें समय-समय पर फटकार लगाती रहती हों, लेकिन अस्पतालों से निकलने वाले कूड़े का सुरक्षित निपटान लखनऊ और अन्य नगरों से ले कर छोटे कस्बों तक में लापरवाही भरा है। कूड़ा अब नए तरह की आफत बन रहा है। सरकार उसके निपटान के लिए तकनीकी उपाय और दूसरी कोशिशें कर रही हैं लेकिन असल में कोशिश तो कचरे को कम करने की होनी चाहिए न कि उससे खेलने की। कचरा-नियंत्रण और उसके निपटान को एक विषय के तौर पर स्कूलों में पढ़ाया जाना भी जरूरी है। हर किसी को कूड़ा यहां-वहां फेंकने से परहेज करना होगा। कूड़ा प्रबंधन के लिए मोहल्ला स्तर की कमेटियों का गठन होना चाहिए। सिविल सोसाइटी के ठेकेदारों को कूड़े के भ्रष्टाचार पर भी पहल करनी चाहिए। कूड़ा प्रबंधन को लेकर जनजागरण अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है।

डाकिया डाक नहीं लाया

लखनऊ। डाक समय से नहीं बंटती या उसके जिम्मेदार कैसे उसे मंजिल तक नहीं पहुंचने देते? जीपीओ व आरएमएस डाकघरों में पत्र डालने वाले आमतौर से यह मानते हैं कि डाक 24 से 48 घंटों में मंजिल तक पहुंच जाएगी। जबकि यह सच नहीं है। अखबार/पत्रिकाएं तो आमतौर पर मंजिल पर नहीं पहुंच पाते। यहां एक घटना के जिक्र से बहुत कुछ साफ होगा।
    लखनऊ से छपने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र ने अपनी 33 ग्राम की एक प्रति में पचास पैसे मूल्य का डाक टिकट लगाकर दो सौ प्रतियां आरएमएस के डाक बक्से में डाल दी। चैबीस घंटों बाद समाचार-पत्र के कार्यालय में एक डाक बाबू का फोन आया कि आपकी डाक रोकी जा रही है। क्योंकि इसको भेजने के लिए अलग से व्यवस्था है। उसमें पंजीकरण कराकर ही भेजें। गौरतलब है कि बगैर पंजीकरण समाचार-पत्र उचित मूल्य के डाक टिकट लगाकर भेजने का प्रावधान है। यही बात दोहराने पर बाबू द्वारा डाक जब्त करने या वापस मंगाने की बात की जाती रही। गौरतलब है कि समाचार पत्र का डाक पंजीयन पहले से था, तय तारीख निकल चुकी थी। इसी कारण दुगने मूल्य का डाक टिकट लगाकर साधारण डाक से प्रेषण किया जा रहा है, बाबू को बताया गया फिर भी कुतर्क करने पर समाचार-पत्र के प्रकाशक ने जब उस बाबू को बताया कि यह अखबार का दफ्तर है, जहां आपने फोन किया हैं, आपकी बात रेकार्ड भी हो सकती है। तब उसने तुरंत फोन काट दिया और डाक भी वितरण के लिए निकाल दी। और केवल निकाल ही नहीं दी बल्कि त्वरित सेवा में पहुंचाने की व्यवस्था भी की। तभी 24 घंटों में प्रदेश भर में समाचार -पत्र की प्रतियां बंट भी गई। इसी तरह एक मासिक पत्रिका के साथ भी किया गया था। नई प्रकाशित होने वाली पत्रिका का डाक पंजीकरण तब नहीं हो पाया था। उसके संपादक को अपनी पत्रिका वहां से वापस लानी पड़ी थी।
    इससे भी अलग पंजीकरण के तहत भेजे जाने वाले समाचार-पत्रों की तमाम प्रतियां समय से तो छोडि़ए बंटती ही नहीं। यह आरोप नये नहीं है। आम आदमी भी डाक समय से न मिलने के आरोप लगाता रहता है। यही वजह है आज लोगों की पहली पसन्द कोरियर सेवा हो गई है। आज डाक सेवा से बेहतर कोरियर सेवा का कारोबार अरबों रूपयों का हो गया है।
    डाक विभाग ने पिछले महीने इन आरोपों को नकारते हुए बताया था कि 95 फीसदी डाक समय से बंटती और पहुंचती है। देरी का कारण लोगों का घर पर न मिलना होता है। यह विभाग द्वारा कराये गये सर्वेक्षण का नतीजा बताया गया था। जबकि सच यह नहीं है। ग्रामीण इलाकों की बात छोडि़ये राजद्दानी में 24 घंटों में साधारण डाक नहीं बंट पाती। पर्व-त्योहारों पर तो और दयनीय हालात हो जाते हैं। भले ही सर्वेक्षण या अन्य तर्कों के जरिये आरोपों को खारिज किया जाये, लेकिन तमाम सुधारों के दावों के बावजूद डाक सेवा सुस्त और भ्रष्ट आचरण की गिरफ्त में दिखाई देती है।

अमीर मायावती के पास 87.27 करोड़

लखनऊ। बसपा सूबे के सभी सियासी दलों में सबसे अमीर पार्टी है। उसकी मुखिया और सूबे की मुख्यमंत्री भी अन्य दलों के नेताओं के मुकाबले सबसे रईस हैं। वे आजकल स्वच्छता अभियान पर हैं। अपने दल के विधायकों, सांसदों के लिए आदर्श मानी जाने वाली मायावती मौजूदा समय में 87.27 करोड़ से अधिक की संपत्ति की मालिकन है।
    विधानसभा से लेकर विधान परिषद तक बसपा के विधायक, नेता और मंत्री करोड़पति व अरबपति है। पिछले दस वर्षों में इनकी संपत्ति में तेजी से इजाफा हुआ है। वह भी बिना किसी फैक्ट्री व कंपनी के। बसपा के 201 विधायकों में 51 करोड़पति हैं और विधान परिषद में 52 विधायक करोड़पति हैं। विधानसभा व विधान परिषद में मिलाकर जहां सीएम मायावती सबसे अमीर विधायक हैं, वहीं राजनीतिक दलों के मामले में बसपा के बाद दूसरे नंबर पर सपा, तीसरे पर भाजपा और चैथे पर रालोद और कांग्रेस के विधायक करोड़पति हैं। विधान परिषद में मुख्यमंत्री मायावती के बाद बसपा के ही मनीष जायसवाल दूसरे नंबर के अमीर हैं। उनके पास लगभग 36 करोड़ रूपए की संपत्ति है। टाॅप टेन सूची में बसपा के आठ और सपा के दो विधायक हैं। तीसरे स्थान पर बसपा के ही अरविंद कुमार त्रिपाठी के पास 20 करोड़, प्रशांत चैधरी 18 करोड़, मनोज अग्रवाल नौ करोड़, अशोक कटियार सात करोड़, मोहम्मद इकबाल सात करोड़, डाॅ. संतराम निरंजन के पास चार करोड़ से ज्यादा की चल-अचल संपत्ति है।

माया का माया जाल टूट रहा है

सूबे की समूची राजनीति चुनावी मिशन-2012 की कवायद में व्यस्त है। सत्तादल पत्थरों की सजावट और पार्कों को खूबसूरत बनाने के कार्मों से फुर्सत लेकर अपने दल में घुस आये अपराधियों को निकाल बाहर करने, अफसरों को मनमाफिक कुर्सियों पर बैठाने के साथ चिट्ठी-पत्री लिखने और उप्र भर में घूम-घूमकर मतदाताओं को रिझाने में लगा है। विपक्ष खासा जोश में है। समाजवादी पार्टी का क्रांतिरथ अपने युवा प्रदेश अध्यक्ष को लेकर समूचे प्रदेश में अपने आक्रमक तेवरों के साथ दौड़ रहा है। भारतीय जनता पार्टी की कलह की तमाम खबरों के बाद भी चुनावी रथ उप्र के शहर-कस्बों में अपने मतदाताओं के बीच पहुंच रहा है। कांग्रेस के युवा महासचिव और नई पीढ़ी के चहेते राहुल गांधी बगैर किसी रथ के पूरी तरह सक्रिय हैं। और इस चुनावी समर में उतरने वाले उम्मीदवार अपने सपनों, अपनी अकांक्षाओं के इस पड़ाव पर अपने सत्कर्मों की थाती लेकर गांव-गलियारे-शहर से लेकर पार्टी दफ्तर तक दौड़ लगा रहे हैं। कुछ के सपने उपलब्धियों के नये आकाश छूने के हैं, तो कुछ इस हौसले के साथ मैदान में उतरना चाह रहे हैं कि उन्हें अपनी पिछली निराशाओं को धोना है। वहीं तमामों की निराशा के द्रोहीरथ बगावत की रास थामे दौड़ने को बेताब है। लेकिन चुनाव-2012 महज हार-जीत या आशा-निराशा बांटने वाली कचेहरी भर नहीं है, बल्कि सत्तादल से परेशान, हलकान आदमी की उम्मीदों, आवश्यकताओं पर खरा उतरने वाली सरकार को चुनने का आम यज्ञ है।
    चुनावी यज्ञ में दौड़ते रथों-सारथियों के उत्साह पथ पर अपने तेज -तर्रार संवाददाताओं की टीम को भी सूब के मतदाओं का रूझान जानने समझने का जिम्मा सौंपा। संवाददाताओं ने शहरी-ग्रामीण, लैंगिक, आयु या राजनीति के पूर्वाग्रहों से अलग सीधी और साफ-साफ बात करने की कोशिश हर आयु, जाति-वर्ग वाले मतदाता से की और जो नतीजे निकलकर सामने आये हैं, उनकी माने तो सत्तारूढ़ बसपा का एनेक्सी से बाहर का रास्ता देखना निश्चित है। इसके पीछे मुख्यमंत्री की कार्यशैली के साथ कथनी और करनी का अंतर मुख्यरूप से उभरकर सामने आया है। पत्थरों, मूर्तियों, पार्कों से प्रेम के अलावा केन्द्र सरकार को समर्थन के साथ उससे टकराव का दिखावा, अपराधियों को संरक्षण और चुनावों की आमद पर उनसे रिश्ते तोड़ना, विपक्ष के भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा संगठन में बाहर से आये लोगों का पलायन भी बड़ी वजहें है। सरकारी कर्मचारी खफा हैं, अंदरखाने नौकरशाह मौके का फायदा उठाने की फिराक में है। इसके सुबूत समीक्षा बैठकों में वरिष्ठ अधिकािरयों के बदले सुरों का ऊंचा होते जाने में देखे जा सकते हैं, शिक्षक, पुलिस की नाराजगी, मुसलमानों-सवर्णों का गठजोड़, ब्राह्मणों का मोहभंग और पिछड़ों में सपा के द्वारा चलाया जा रहा अभियान सत्तादल को उप्र के सिंहासन से नीचे उतारने में बड़ी भूमिका निबाहेगा। नाराजगी की और भी कई वजहें सामने हैं, उनमें वफादारों से गैरकानूनी काम कराने और उसका पूरा फायदा उठाने के बाद उन्हें दूध में मक्खी की तरह निकाल बाहर करना भी एक बड़ा कारण है। जातिगत वोटों में भी सेंध लगने के आसार साफ दिखाई दे रहे हैं। रूझानों में महिलाओं, दलितों का उत्पीड़न, बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में 25 लाख की आबादी की दुर्दशा, विकास के नाम पर किसानों का उत्पीड़न युवाओं की अनदेखी और अपने ही कार्यकर्ताओं को दुत्कारना भी विरोध स्वरूप उभर कर सामने आया है।
2007 के आंकड़ों पर गौर करें तो 30.43 फीसदी वोट पाकर 206 सीटों पर काबिज होने वाली बसपा 2009 के लोकसभा चुनावों में महज 27.42 फीसदी वोटों पर सिमट गई। 304 विधानसभा सीटों पर उसका प्रदर्शन बेहद खराब रहा। 2011 की सर्दियों की दस्तक के साथ नये बनाए गये जिलों की कलह और संगठन से निकाले गये बाहुबली मंत्रियों, विधायकों, सांसदों के विरोधी स्वर बसपा के लिए नये और मजबूत अवरोद्द खड़े करेंगे। याद रखने लायक है, बसपा ने पिछले चुनाव में 170 अपराधिक छविवालों को चुनाव मैदान में उतारा था, उनमें 70 जीत गए थे। आज यह सूची 71 के अंक पर है। और उनमें कई जेल में है। इसी तरह उनके मुस्लिम व दलित मतदाताओं के आर्थिक व शैक्षिक स्तर की हकीकत को जोर-शोर से प्रचारित किया जाएगा। इसके अलावा उनकी अपनी भव्य कोठियों के निर्माण के साथ अकूत संपत्ति के मामले भी उन्हें कष्ट देंगे। इस सबाके हवा देने मंे विपक्ष से अधिक अन्ना टीम आगे होगी। सर्वेक्षण के नतीजे साफ कहते हैं कि माया की सेवानिवृति की तारीख तय हो गई है। विपक्षी दलों में सपा के प्रचार अभियान और सूबे की सड़कों पर दौड़ते क्रांति रथ के आस-पास जुटने वाली भीड़ को नजरअंदाज भले ही नहीं किया जा सकता, लेकिन मतदाताओं में मुलायम सिंह यादव के युवा बेटे में कोई खास दिलचस्पी नहीं झलकती। मुसलमान वोटों पर अम्बेडकरनगर जनपद के एक वरिष्ठ नागरिक और जनता दल के सक्रिय सदस्य रहे सज्जन की सुनिए, ‘हेमवती नन्दन बहुगुणा अपने साथ हमेशा दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अब्दुल्ला बुखारी को साथ लेकर मुसलमानों को रिझाने के लिए घूमते थे। उन्हें इसका कितना नफा-नुकसान हुआ उससे सारी सियासी जमात वाकिफ है, लेकिन बंद कमरे में बहुगुणां जी से मैंने पूंछा, ‘इमाम साहब को आप हमेशा क्यों साथ ले लेते हैं? उनका जवाब था, ‘हाथी हमेशा बारातों की शोभा बढ़ाता है और ध्रुवीकरण में वोटों की खेप ढोने के भी काम आता है।’ हालांकि उस हाथी से कितना नुकसान हुआ, वह लोकदल तक आते-आते बहुगुणा जी को बाखूबी अहसास हो गया था। ऐसा ही एक चेहरा मुलायम सिंह के साथ भी है, उससे होने वाला नुकसान 20 मई 2012 को सामने आ जाएगा।’
    इससे भी आगे मुलायम का भाजपा प्रेम जग जाहिर है। 2009 के लोकसभा चुनावों में कल्याण सिंह की दोस्ती के चलते सपा के सभी 12 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गये थे। 2012 के लिए चार पुराने भाजपाई जिन्हें कट्टर हिंदूवादी माना जाता है, को सपा से टिकट दिया गया है। इनमें दो मौजूदा भाजपा विधायक हैं। इन चारों का विरोध पार्टी में खूब हो रहा है। पार्टी के भीतर आजम खां और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रशीद मसूद की तकरार से सभी वाकिफ हैं। जहां तक आजम खां की बात करें तो वे अपनी साख लोकसभा चुनावों में जयप्रदा की जीत के साथ गंवा चुके हैं। मुलामय सिंह मुसलमानों से माफी मांगने के बाद एक नहीं चार भाजपाई चेहरों के साथ मुसलमान वोटों को मतदान केन्द्रों तक कैसे लायेंगे? मुलायम का अपराधी छवि वाले बाहुबलियों से प्रेम जगजाहिर है। 2012 में चुनावों के लिए भी जूही सिंह को टिकट दिया गया है, जो पूर्व मुख्य सचिव अखंड प्रताप सिंह की पुत्री हैं और जिन्हें आइएएस एसोसिएशन ने महाभ्रष्ट चुना था। वे जेल से लौटने के बाद भ्रष्टाचार के मुकदमों का सामना कर रहे हैं। बावजूद इसके यह सच है कि अखिलेश यादव युवा चेहारा हैं, भीड़ उन्हें मुलायम सिंह का बेटा मानकर देखने सुनने उमड़ रही हैं, लेकिन उनमें कितने साइकिल पर मुहर लगा सकते हैं? उसके अलावा इस बार पार्टी के पास स्टार प्रचारक चेहरे भी नहीं है। संजय दत्त, मनोज तिवारी, जयाप्रदा, जया बच्चन, अमिताभ बच्चन सभी अमर सिंह के साथ पार्टी से दूर हो गये। मुलायम का स्वास्थ्य भी कठोर परिश्रम की इजाजत नहीं देगा, तब क्या शिवपाल सिंह, आजम खां और अखिलेश यादव सपा को बहुमत दिलाने में कामयाब होंगे? वह भी तब, जब लोहिया के समाजवादी आदर्शों से सपा का कोई लेना-देना नहीं रह गया।
    भारतीय जनता पार्टी अपनी अंतरकलह में उलझी आत्मबल तक गंवाये एक सैकड़ा सीटों के आस-पास जूझने के मंसूबे पर काम कर रही है। इसकी गवाही पिछले दिनों दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही द्वारा जीत सकने वाली 80-82 सीटों का आंकड़ा रखा जाना है। हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह के बहुमत की सरकार बनाने के मेहनतकश दावे तब और ध्वस्त होते दिखाई देते हैं, जब उमा भारती व संजय जोशी अब तक न तो कोई करिश्मा दिखा सके हैं, न ही पार्टी में नई ऊर्जा भर सके, उल्टे भीतरी कलह का सामना कर रहे हैं। कल्याण सिंह का चेहरा भी भाजपा को डराने में कामयाब है। स्वाभिमान यात्रा भी कोई करिश्मा नहीं कर पा रही है। ऐसे हालात में पार्टी अपने पुराने चोले को धारणकर बसपा की ओर देख सकती है।
    कांग्रेस के चेहरे की बदसूरती पिछले कई बरसों से यथावत है। उसे धोने, पोछने और निखारने में लगे राहुल गांधी की साख को बट्टा लगाने में यूपी वाले भइया आगे-आगे हैं। अभी तक पार्टी अपने उम्मीदवारों पर, समझौते या गठबंधन पर कोई मजबूत फैसला नहीं ले सकी है। राहुल गांधी के तमाम प्रयासों को गुटबाजी व राष्ट्रीय फलक पर कांग्रेस पर लगते आरोप निष्क्रिय करते रहे हैं। हालांकि कांग्रेस दफ्तर से खबर आई है कि राहुल के रोड शो संपर्क रथ के जरिये फिर से हांेगे। इसकी शुरूआत पश्चिमी उप्र से होने की बात कही जा रही है। इसके पीछे भट्टा परसौल आंदोलन की सफलता को रखा जा रहा है। सर्वेक्षण टीम को कांग्रेस के पक्ष में जो रूझान मिले हैं वे महंगाई, भ्रष्टाचार और आपसी कलह से परे आश्चर्यजनक रूप से उम्मीदों भरे हैं। कई क्षेत्रों में कांग्रेस के युवा चेहरों आर.पी. एन. सिंह, जितिन प्रसाद के नामों पर, तो कई जगहों पर बेनीप्रसाद वर्मा, रीता बहुगुणां पर, तो कई विधानसभा क्षेत्रों में नये चेहरों पर उम्मीदें जताते मतदाता जोश में हैं। वहीं कुछ अपशकुनी संकेत भी मिले जो बताते हैं कि कांग्रेस की राह आसान नहीं है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, उसे सिर्फ पाना है, जीतना है, जबकि बसपा, सपा की प्रतिष्ठा दांव पर है, तो भाजपा को अपनी सीटें बचाये रखने की फिक्र सता रही है। छोटे दलों का अपना समीकरण अपने क्षेत्रों में कम-ज्यादा रहने के संकेत है। रह गई अन्ना टीम के विरोध की बात तो वह समय के गर्भ में है।
नई सरकार, नया चेहरा
ऽ    क्या उत्तर प्रदेश का विकास पिछले साढ़े चार सालों में हुआ है?
    हां 20    नहीं 70    बाकी कह नहीं सकते
ऽ    पार्कों मूर्तियों व नये जिलों के बनने से प्रदेशवासियों को लाभ हुआ हैं?
    हां 25    नहीं 60    बाकी पता नहीं
ऽ    राज्य सरकार के कार्यों से किस तबके का सबसे अधिक फायदा हुआ?
    धनी 60    निर्धन 10    मध्यम वर्ग 22   
    बाकी पता नहीं
ऽ    सबसे अधिक चिंता का मसला?
    बेरोजगारी 10    महंगाई 30    भ्रष्टाचार 32   
    कानून व्यवस्था 26    धार्मिक जातिगत समस्याएं 2
ऽ    प्रदेश की गलियों में महिलाएं सुरक्षित हैं?
    हां 12    नहीं 68    पता नहीं 20
ऽ    मौजूदा सरकार में दलितों पर अत्याचार कम हुए?
    हां 35    नहीं 59    पता नहीं 6
ऽ    वर्तमान सरकार में आपराधिक छवि वालों का बोलबाला रहा?
    हां 58    नहीं 27    पता नहीं 14
ऽ    क्या बसपा सरकार अपने वायदों पर खरी उतरी?
    हां 22    नहीं 68    पता नहीं 10
ऽ    प्रदेशवासी सपा, बसपा की सरकारों को देख चुके, क्या मतदाता कांग्रेस, भाजपा की ओर बढ़ा हैं?
    हां. 75    नहीं 20    पता नहीं 5
ऽ    युवा मतदाताओं का रूझान किस पार्टी की ओर हो सकता है?
    कांग्रेस 30    सपा 22    बसपा 11   
    भाजपा 17    अन्य 20
ऽ    सोलहवीं विधानसभा में महिलाओं की संख्या बढ़नी चाहिए?
    हां 60    नहीं 32    पता नहीं 8
ऽ    छोटे राजनैतिक दलों के गठबंधन को उप्र विधानसभा चुनाव-2012 में फायदा होगा?
    हां 27    नहीं 69    पता नहीं 4
ऽ    राज्य में सरकार बनाने के लिए बहुजन समाज पार्टी को एक मौका और मिलना चाहिए?
    हां 8    नहीं 90    पता नहीं 2
ऽ    अन्ना हजारे टीम का उप्र चुनाव-2012 में कोई असर होगा?
    हां 30    नहीं 54    पता नहीं 16
ऽ    कल्याण सिंह उप्र विधानसभा चुनाव-2012 में प्रभाव डाल सकते हैं?
    हां 12    नहीं 61    पता नहीं 27
ऽ    पीस पार्टी मंे आपराधिक छवि के लोगों का जमावड़ा उप्र के चुनाव 2012 में कोई फर्क डाल सकेंगा?
    हां 14    नहीं 79    पता नहीं 7
ऽ    वर्तमान सरकार की मुखिया द्वारा आरक्षण व अन्य मामलों पर केन्द्र को लिखी जाने वाली चिट्ठियों से बसपा के वोट बैंक में बढ़ोत्तरी होगी?
    हां 18    नही 69    पता नहीं 13

    नोट: सभी उत्तर प्रतिशत में हैं।



जीवित माता-पिता की पूजा!

बाराबंकी। माता-पिता की उपेक्षा के इस दौर में पुत्रों द्वारा उनकी पूजा-अर्चना का समाचार हैरत में डालने वाला है। लेकिन है यह पूरी तरह सच। खबर के मुताबिक पितृपक्ष की चतुर्दशी के दिन जनक जननी सम्मान समारोह का आयोजन पारिजात युवक समिति द्वारा सफदरगंज में समिति के कार्यालय में पिछले तेरह वर्षों से किया जाता है। यह वृद्धजनों के प्रति युवाओं में प्रेम के नये पाठ का संदेश है।
    समिति कि यह परम्परा गांव-गांव फैल रही है। अपनी संतान से जिंदगी के आखिरी पड़ाव में मिलने वाला सम्मान बुढ़ापे में मजबूत संबल बन रहा है। हालांकि यह प्रथा वैदिक रीति-रिवाज से कुछ अलग हटकर है। सामान्यतया पितृपक्ष में पुत्र दिवंगत माता-पिता को हर वर्ष याद कर श्राद्ध आयोजित करता है और उनके प्रति कृतज्ञ होता है, वहीं इस परंपरा के तहत जीवित तौर पर माता-पिता का विधि-विधान से पूजन किया जाता है। समारोह में करीब ढाई-तीन सौ तक की संख्या में माता-पिता के साथ उनका कुटुंब शामिल होता है।
समारोह का खर्च सब मिलजुलकर उठाते हैं। समिति भी अपना योगदान करती है। पुत्र माता-पिता के लिए पांच नए कपड़े उनकी पसंद के पकवान व अन्य खाद्य सामग्री की व्यवस्था करते हैं। माता-पिता की विधि-विधान से आरती कर चरणों में पुष्प अक्षत अर्पित उनका वंदन करते हैं। इस परंपरा का निर्वहन करने वाले पुत्रों का कहना है, माता-पिता देव की तरह पूजन-अर्चन व संतानों द्वारा क्षमा याचना करते देख फूले नहीं समाते हैं। उनके चेहरे पर ऐसी खुशी आती है जो शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती।

सब्जियों की तस्करी!

गोरखपुर। सब्जियों की तस्करी सुनकर लोगों को हैरानी हो सकती है। जबकि खुलेआम नेपाल के रास्ते चीन तक भारतीय सब्जियां जा रही हैं। इसी तरह चीन से सब्जियों के साथ बहुत कुछ आता है। सब्जियों की कीमतों में बढ़ोतरी के पीछे बाढ़ के साथ तस्करी का बड़ा हाथ है आलू और प्याज की कीमतों में इस कदर बढ़त ने आदमी की रसोई में सिर्फ नमक का विकल्प छोड़ा है। मजे की बात है प्याज के निर्यात पर पिछले दिनों सरकार ने प्रतिबंध भी लगा दिया था, फिर भी खुदरा बाजार में प्याज 24-25 रूपए से 30 रूपए प्रतिकिलों तक बिक रहा है। हालांकि नया प्याज बाजारों में आने वाला है।
    सोनौली, ठूंठीबारी (महाराजगंज), रूपईडीहा (बहराइच), धनगढ़ी (लखीमपुर), पचपेड़वा (बलरामपुर), नेपाल सीमाओं पर, सर पर व साइकिलों पर सब्जियों का बोझ लादे नेपाल जाते सैकड़ों भारतीयों को देखा जा सकता है। इसी तरह हजारों ट्रकों, मिनी ट्रकांे, टेम्पों को सब्जियां लादे नेपाल में प्रवेश करते देखा जा सकता है। इनमें तमाम ट्रक चीन सीमा तक जाते हैं। यही हालात बिहार, उत्तराखण्ड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब सीमाओं पर भी कमोबेश हैं। नासिक का प्याज, पूर्वांचल की भिण्डी, तरोई, लौकी, गोभी, आलू, उत्तराखण्ड का टमाटर, भुसावल का केला सहित तमाम सब्जियां व देशी लहसुन बगैर निर्यात लाइसेंस के नेपाल, चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश के बाजारों में रोज पहुंचता है, बिकता है।
    प्रदेश में बार-बार लौटती बारिश से बढ़ा नदियों का क्रोध लगातार सब्जियों की आपूर्ति में बाधक बना, जिससे भी कीमतों में भारी इजाफा हुआ। लौकी-कद्दू, तरोई जैसी साधारण सब्जियां खरीदने में मध्यमवर्ग घबरा रहा है। दशहरे के बाद दीपावली पर्व की दस्तक ने बाजार में नई सब्जियों की आवक जरूर बढ़ाई है, लेकिन उनके भाव आसमान छू रहे हैं। लोग बाग छोला, राजमा, काला चना, आलू से काम चलाने को मजबूर हैं। यह हालात अकेले उत्तर प्रदेश या भारत में हों ऐसा भी नहीं है। चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश में भी कुछ ऐसे ही हालात भारी बारिश ने बना दिये हैं। इन देशों के थोक व्यापारियों में भारतीय सब्जियों के प्रति हमेशा से लगाव रहा है, क्योंकि वे हाथ के हाथ महंगे दामों में बिक जाती हैं। जहां भारतीय सब्जियां चोरी छिपे विदेशी बाजारों में पहुंचती हैं, वहीं इन्हें नियति भी किया जाता है। पिछले साल अक्टूबर में पाकिस्तान को सब्जियां निर्यात की गईं थी। इस साल भी वेलफेयर एसोसिएशन आॅफ होलसेल वेजीटेबल्स मार्केट्स, कराची ने भारतीय सब्जियों का आयात करने के संकेत दिये हैं। जबकि भारतीय सब्जी थोक व्यापारी संघ बहुत कुछ उत्पादक संघ के साथ मिलकर पहले ही प्याज, आलू के साथ फलों का निर्यात करने में लगा है। यदि नई सब्जियां भी त्योहारी सीजन में पाकिस्तानी बाजारों में भेजी जाएंगी तो भारतवासियों को दीपावली में बेहद कीमती सब्जियां खरीदनी पड़ेंगी। एक अनुमान के मुताबिक यह कीमतें 75 से सौ फीसदी तक बढें़गी।
    गौरतलब है बाढ़ के कारण जिन बाजारों में प्रतिदिन सब्जियों के ढाई-तीन सौ ट्रक आ रहे थे, वहीं आजकल भी महज पांच-सात सौ ट्रकों की ही आमद है। जबकि आमतौर पर हजार-बारह सौ ट्रक रोज आते थे। इसके पीछे सब्जी उत्पादक जिलों से तस्कर सीधे सब्जियां खरीदकर अपने साधनों से ऊंची कीमतों पर सीमा पार भेज रहे हैं। गो कि तस्करी से, निर्यात से जैसे भी हो, भारतीय सब्जियां विदेशी खाएंगे।

Monday, October 10, 2011

SERVEY FOR C.M. U.P.

२०१२ में  उ.प्र .का मुख्य मंत्री    कौन होगा ?
मायावती 
अखिलेश यादव 
राजनाथ सिंह 
नया चेहरा
गठबंधन का मुख्यमंत्री  
अपना मत दें - editor.priyanka@gmail.com