Thursday, December 20, 2012

आज सडे है, लखनऊ गंदा रहेगा

लखनऊ। राजधानी में सफाई अभियान के साथ कूड़ा उठवाने और आवारा जानवरों को पकड़ने में नगर निगम ने पिछले दिनों खासी दिलचस्पी ली। हालांकि इसी बीच पुराने लखनऊ के तोप दरवाजे पर आवारा सांड़ ने एक युवक को बुरी तरह घायल कर दिया। पूरे शहर में दसियों लोग इन साड़ों की दबंगई का शिकार हो रहे हैं। नगर विकास  मंत्री भी बार-बार गंदगी देख नाराज होते हैं। वहीं सफाईकर्मी शहर को गंदा रखने की कसम खाकर आन्दोलन और धरने का सहारा ले मजे कर रहे हैं। 30 लाख की आबादी वाला शहर लखनऊ रविवार और सार्वजनिक अवकाशों को बेहद सुस्त हो जाता है। सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है। कई प्रमुख बाजार बन्द रहते हैं। सड़कों पर यातायात का दबाव बेहद कम होता है। ऐसे में सफाईकर्मी भी छुट्टी मना लेते हैं। सफाईकर्मियों की छुट्टी का नतीजा शहर के लिए गंदगी का तोहफा हो जाता है। गलियों, सड़कों पर कूड़ा फैला रहता है, तो नालियाँ भरी हुई बजबजा रही होती हैं। आमतौर पर सफाईकर्मी कूड़ा आधा-अधूरा उठाते हैं, नालियों की सिल्ट खाली ही नहीं करते, इसी कारण महज 24 घंटे में शहर कूड़े से पट जाता है। इसमें आवारा जानवर और समझदार नागरिक भारी इजाफा करने में बढ़-चढ़कर कर हिस्सा लेते हैं। ये सभ्य लोग अपने को राजधानी का वाशिन्दा नहीं मानते या सरकारी कर्मचारी आसमान से आएंगे सोंचते हैं? इसी तरह की सोंच के लोग एक बार सरकारी सेवा में आने के बाद काम न करने का जेहाद जारी रखते हैं। पिछले दिनों स्मारकों पर तैनात सफाई कर्मचारियों ने नगर निगम के सफाई अभियान मंे काम करने से न केवल इन्कार किया बल्कि जिस काम के लिए तैनात हैं वह भी बंद करके धरना प्रदर्शन करते रहे, अधिकारियों के खिलाफ नारेबाजी करते रहे। उनका तर्क है कि उन्हें केवल स्मारक व कैम्पस में साफ-सफाई के लिए नियुक्ति किया गया है। यह तर्क उचित नहीं है। इस तरह चुनावों के दौरान चुनावों में काम करने वाले शिक्षक, राज्य कर्मचारी, न्यायिक अधिकारी तर्क दें, तो क्या चुनाव संपन्न हो सकेंगे? स्मारकों में तैनात कर्मियों का काम न करने का एलान अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए? इन पर बाकायदा कार्रवाई की जानी चाहिए? यदि राज्य सरकार दण्डात्मक कदम नहीं उठाती तो उच्च न्यायालय को स्वतः इस प्रकरण को संज्ञान में लेकर इन सफाईकर्मियों पर चेतावनी स्वरूप कार्रवाई करनी चाहिए? यूं भी उच्च न्यायालय समय-समय पर स्वतः संज्ञान लेकर राज्य सरकार को शहर में सफाई करने, अतिक्रमण हटाने के आदेश देता आया हैं। इन सवालों को उठाने का मतलब है, अधिकार और कर्तव्य की परिभाषा कौन समझाएगा, कैसे समझाएगा या हम कैसे समझेंगे?
    गौरतलब है कि पिछले बरस पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने सफाई और पीने के पानी की व्यवस्था करने में उप्र को फिसड्डी घोषित किया था। ये ऐसे ही नहीं घोषित किया गया बाकायदा प्रदर्शन के आधार पर रैकिंग दी गई थी। लखनऊ तो गंदगी के मामले में काफी लम्बे समय से अव्वल रहा है। इसके पीछे जरूरत से आद्दे सफाईकर्मियों की तैनाती और उसमें भी आधे काम करने आते ही नहीं। इसके अलावा दलित राजनीति ने इन कर्मियों को ‘वोट’ में तब्दील कर दिया है। कमोबेश हर बालिग नागरिक ‘वोट’ में बदलकर मुट्ठियां भींचे हाथ हवा में लहराते हुए इंकलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद किये हैं। तो फिर कौन करेगा अपने-अपने कत्र्तव्य?

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