Friday, November 15, 2013

यह झगड़े वोट बैंकों के दरवाजे हैं...

डाॅ. राही मासूम रज़ा
अभी कुछ दिनों के लिए अमरीका जाना पड़ा। पतझड़ का मौसम था और जितना अमरीका मैंने देखा वह पतझड़ के रंगों में डूबा हुआ था।
    राष्ट्रपति रीगन का पतझड़ भी मेरे सामने ही शुरू हो गया था... साहब यह अमरीकी राजनीति भी गजब की चीज है। यह डाॅलर के सिवा और किसी की वफादार नहीं- इसकी बेहयाई देखिए कि सद्र रीगन चंद अमरीकी नागरिकों को लेबनान के शीया आतंकवादियों के कब्जे से निकालने के लिए खुमैनी सरकार से बातचीत करने पर तैयार हुए। यह बात बिल्ली के गुह की तरह छिपाई गयी। उस पर इंगलैंड की मिट्टी डाली गयी.. मोल-तोल हुआ। अमरीकी नागरिक छूट गये और इस सौदे में अमरीका ने सैकड़ों मिलियन डाॅलर कमा लिये!... और यह कमाई निकारागुआ में आतंकवादियों की मदद के लिए खर्च की गयी! ऐसी दोगली, ऐसी झूठी, ऐसी बेईमान राजनीति! यह मैली राजनीति दुनिया की किसी लाडरी में धुल कर साफ नहीं हो सकती... इसलिए इतिहास को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी उस दिन की, जब अमरीकी जनता यह फैसला करेगी कि यह राजनीति उसका अपमान है। उस दिन वह इसे उतार फेंकेगी और डाॅलर की गुलामी से आजाद होकर अपनी क्रांति को पूरा कर लेगी।
    परंतु मैं आज राष्ट्रपति रीगन की बात करना नहीं चाहता था, पर वह जब भी ध्यान में आते हैं मेरी जुबान में खुजली होने लगती है; क्योंकि सच पूछिए तो हमारी राजनीति का हाल भी वैसा ही है। स्वतंत्रता जो आयी वह मेड इन इंगलैण्ड थी। स्वतंत्रता मेड इन इंगलैंड इसलिए आई कि जो पार्टी स्वतंत्रता संघर्ष की अगुवाई कर रही थी, अर्थात इंडियन नेशनल कांग्रेस, वह भी मेड इन इंगलैड ही थी.. इसलिए जब खुद ब्रिटेन डाॅलर की छत्रछाया में जा बैठा है तो भारतीय राजनीति भला डाॅलर की पाठशाला में कैसे न जा बैठती। और जनाब हमारी राजनीति ने भी डाॅलर के सबक फर-फर याद कर लिये। डाॅलर की सभ्यता यह है कि राजनीति देश के लिए नहीं है, देश राजनीति के लिए है और राजनीति उस ‘व्यक्ति’ के लिए है जिसकी स्वतंत्रता का ढिंढोरा डाॅलर सरकार पीटती रहती हैं। परंतु अमरीका दूसरे देशों के व्यक्तियों की स्वतंत्रता बरदाश्त नहीं कर सकता। अमरीका में दूसरों की स्वतंत्रता की परिभाषा डाॅलर की गुलामी है; और जो देश डाॅलर के गुलाम नहीं हैं, उन्हें यह ‘मेड इन अमरीका’ स्वतंत्रता देने के लिए अमरीकी सरकार करोड़ों डाॅलर खर्च करती रहती है। हमारा रूपया सींकिया पहलवान है। डाॅलर की तरह मुंहजोरी तो नहीं कर सकता.... परंतु जीवित है और डाॅलर के कदम चूमकर आत्महत्या करने पर तैयार नहीं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मैदान में वह डाॅलरबाजी का विरोध करता है और दुनिया के सारे कमजोर देशों का साथ देता है। पर देश के अंदर वह डाॅलर ही का खेल-खेल रहा है। जो आतंकवाद उसके दुश्मन का दुश्मन है, वह आतंकवाद नहीं; जैसे गोरखालैंड की मांग करने वाले। दिल्ली सरकार उनके खिलाफ नहीं क्योंकि वह बंगाल सरकार का तख्ता उलटने की कोशिश में दिल्ली सरकार के काम आ सकते हैं। यह मत कहिए कि भारत एक लोकतंत्र है और यहां ऐसा नहीं हो सकता। केरल में नम्बूदरीपाद सरकार कैसे उलटी थी? कश्मीर में अब्दुल्लाह सरकार कैसे उलटी थी? आंद्द्र में एन.टी.आर. की तेलुगूदेशम की सरकार कैसे उलटी थी? भारतीय लोकतंत्र इस खेल का उस्ताद है। लोकतंत्र का मतलब यह थोडे़ है कि यहां सचमुच का लोकतंत्र है।
    हमारे संविधान में तो और भी बहुत सारी खूबसूरत बातें लिखी हुई हैं। उसमें लिखा हुआ है कि भारत एक सेक्युलर डिमोक्रोसी है। लेकिन यहां न तो सेक्युलर ही है और न ही डिमोक्रेसी। यहां शिवसेना के नेता सर्वश्री बाल ठाकरे शिवाजी पार्क में माइक्रोफोन लगाकर भारतीय मुसलमानों को विदेशी बताते हैं और उन्हंे सीधा करने की बात करते हैं, और मुख्यमंत्री यह बयान देकर चुप हो जाते हैं कि मैं उन्हें ऐसा कहने पर छोडुंगा नहीं! गालिब का कोई माशूक अवश्य श्री चव्हाण जैसा रहा होगा; जभी तो उन्होंने यह लिखा है:
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान छूट जाता
कि खुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।
    और भारतीय राजनीति की सबसे मजेदार बात यहां 8 दिसम्बर के समाचार पत्रों में छपी। म्युनिसिपल बाई इलेक्शन में एक शिव सैनिक भारतीय जनता पार्टी के आदमी (?) को हराकर चुनाव जीत गया तो उसने यह बयान दिया कि उसकी जीत हिंदूइजम की जीत है। यह तो रोमनों से भी ज्यादा रोमन होने की बात हो गयी। जहां दो ईंटों के बीच में जरा सी भी जगह नहीं है, वहां भी मज़हब का भूत धुँआ बनकर घुसने की कोशिश कर रहा है और दुर्भाग्य से सफल भी हो रहा है।
    हर धर्म कभी न कभी मनुष्य को रास्ता दिखने आया था। परंतु, आज हर धर्म अपने मानने वालों को कुछ लोगों के फायदे के लिए राह से भटकाने का काम कर रहा हैं। लोग वोटो के दरबे पर धर्म का ताला लगाना चाहते हैं कि बस चुनाव के दिन वोटर दरबे से निकाले जायें, वोट दें और फिर पांच बरस के लिए बंद कर दिये जाएं। यदि आज अस्सी प्रतिशत हिंदुओं को यह समझाने का काम किया जा सकता है तो उनका धर्म खतरे में है, तब तो फिर 12 प्रतिशत मुसलमानों और 2) प्रतिशत सिखों को यह समझाना बहुत ही आसान है।
    इस बात पर याद आया कि 8 दिसम्बर को एक सभा बुलायी गयी थी। डाॅ. भ.दी. फड़के ने मराठी भाषा में एक किताब लिखी है- ‘‘स्वतंत्र आंदोलनातील मुसलमान’’ यह सभा इसी किताब के सिलसिले में थी और एक भारतीय मुसलमान के नाते मैं वहां बुलाया गया था। जब मैं भाषण देने के लिए उठा तो पहली बार यह सोचकर दुःख हुआ कि मैं मराठी नहीं जानता।
    जब मैं मराठी जानता होता तो शायद ज्यादा खुल के बात कर पाता। पर हम हिंदीवालों का दिल इस बात में बहुत छोटा है। हम यह तो चाहते हैं कि हिंदी देश भर में स्वीकार कर ली जाए, पर हम देश की दूसरी भाषाओं की न इज्जत करते हैं और न ही उनकी जरूरत समझते हैं। शायद यही कारण है कि अहिंदी भाषियों के लिए हिंदी का स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है। परंतु यह बात फिर कभी।
    डाॅ. फड़के ने यह किताब बड़ी मेहनत
और गम्भीर सच्चाई से लिखी हैं। यह साबित भी कर  दिया है कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े काम किये हैं। पर मुझे इन मौकों पर हमेशा यह लगता है कि मैं मुलजिमों के कटघरे में खड़ा हूं और मेरी सफाई का गवाह अपना बयान दे रहा हैं। मुझे ऐसे में बड़े अपमान का अनुभव होता है। इसलिए मैंने उस सभा में कहा कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ नहीं किया, पर हिंदुओं ने भी कुछ नहीं किया; और अगर कुछ किया हो तो बताइए। सिखों और ईसाइयों का भी कोई योगदान नहीं.... स्वतंत्रता आंदोलन में तो हिस्सा लिया था किसानों-मजदूरों ने; विद्यार्थियों और अध्यापकों ने; क्लर्काें और दुकानदारों ने... रामप्रसाद बिसमिल हिंदू नहीं हिंदुस्तानी क्रांतिकारी थे; भगत सिंह सिख नहीं थे; भारतीय इंकिलाबी थे; धर्म तो स्वतंत्रता के रास्ते का रोड़ा था, जैसे आज प्रगति के रास्ते का रोड़ है... वह कहीं सर्वश्री बाल ठाकरे को नेता बना देता है, कहीं मौलाना बुखारी को। इनके हाथों से धर्म छीन लीजिए तो इन फुकनों की हवा निकल जाएगी।
    पंजाब में संत भिंडरवाला उभरे। उन्हें खोज के निकाला किसने था? कांग्रेस के भीतरी झगड़े ने, सरदार जैल सिंह और सरदार दरबारा सिंह की अनबन ने। दरबारा सिंह का सूरज डूब गया। जैलसिंह जी राष्ट्रपति हो गये, और पंजाब जल रहा है। इसी तरह श्री ठाकरे का सूरज स्वर्गीय नायक की राजनीति के क्षितिज से निकला। वह डांगे को हराकर बम्बई के मजदूरों को कम्युनिस्टों के असर से निकालना चाहते थे।
    डांगे आखिरकार हार तो गये। कम्युनिस्टों का असर भी टूट गया। परंतु बम्बई भी कांग्रेस के हाथ से निकल गयी और जो वातावरण यही रहा, तो शरद पवार को मिलाने के बाद भी आने वाले चुनाव में कांग्रेस के हाथ से महाराष्ट्र के निकल जाने का बड़ा डर है। क्योंकि, शिवसेना के हाथ में धर्म और क्षेत्र दोनों की लाठी है और कांग्रेस या किसी और पार्टी के पास इस दोहरे जादू की कोई काट नहीं है। असम में चुनी हुई सरकार से त्यागपत्र दिलवा कर असम को आतंकवादियों के हवाले कर दिया गया। कांग्रेस का बस चला तो बंगाल में एक ‘गुरखिस्तान’ भी बन जाएगा।
    मुझे तो उत्तर प्रदेश और बिहार भी थोड़े ही दिनों के मेहमान दिखाई देते हैं। इन दोनों का बंटवारा भी होने ही वाला है क्योंकि दाल बांटने के लिए जूतियां कम पड़ रही हैं....
यह बात सही नहीं है कि 14 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन हो गया था। सही बात यह है कि 14 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन शुरू हुआ था और विभाजन का काम खत्म नहीं हुआ है, जारी है।
    वहां अमरीका में मैंने हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी दोस्तों से यह कहा कि-अपने घर की यादों को मत ताजा रखिए। भूल जाइए कि आप हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी हैं। आप अमरीकी हैं। डाॅ. अब्दुल्लाह वाशिंगनटनवी... डाॅ. सलमान अख्तर फिलेडलफियावी...
    परंतु यहां, अपने घर में यह कहना चाहता हूं कि घर की याद को ताजा रखिए। भाषा भी ठीक, धर्म भी ठीक, पर यह भी सोचिए कि देश भी ठीक है या नहीं! जरा सी बात पर धर्म का यूं सड़क पर निकल आना, धर्म और देश दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
    कल किसी ने शिवाजी की तस्वीर को जूते का हार पहना दिया, तो सजा मिली सैकड़ों बेगुनाहों को, जो कत्ल कर दिये गये। सजा मिली सैकड़ों  दुकानों को जो लूट ली गयीं, सजा मिली सैकड़ों घरों को जो जला दिये गये।
    आज किसी समाचार पत्र में इस्लाम के पैगम्बर के बारे में किसी ने कुछ अंट-शंट लिख दिया तो सजा मिली बाजारों को, सजा मिली सरकारी बसों को...
    सीधी बात यह थी कि उस समाचार पत्र पर मुकदमा चलाया जाता। उस कहानी के लेखक को सजा दिलावाने की कोशिश की गयी होती, क्योंकि पैगम्बर का अपमान बसों ने या दुकानों ने तो किया नहीं था!
    मगर कुर्सियों के आसमान से नीचे उतर कर कोई सोचने पर तैयार नहीं है.. यह झगड़े वोट बैंकों के दरवाजे हैं, लोग या डरके वोट दे रहे हैं या गुस्से में। और डर और गुस्से दोनों के लिए किसी न किसी फसाद की जरूरत पड़ती है।


आधा गांव

थानेदार ठाकुर हरनारायण प्रसाद को हम्माद मियाँ वगैरह को सजा दिलवाने मे कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्हंे तो केवल फुन्नन मियाँ में दिलचस्पी थी। उनसे भी उनकी कोई जाती अदावत नहीं थी और उन्हें यह भी मालूम था कि फौजदारी में ज्यादती उत्तर-पट्टीवालों की ही थी, फिर भी उन्होंने एकतरफा तफतीश की। वह इस काम में सफल भी हुए और फुन्नन मियाँ के साथ-साथ दक्खिन-पट्टी के और कई लोगों को भी सजा हो गयी। इनाम में उन्हंे सर्विस-बुक में चार इन्दराजात मिल गये।
    वह उसी वक्त घोड़ा कसवाकर कासिमाबाद की तरफ चल पड़े।
    गुलाबी जान उनके क्वार्टर में उनकी राह देख रही थी। ठाकुर साहब का हश्शाश-बश्शाश चेहरा देखकर उसे यकीन हो गया कि वह मियाँ लोगों को सजा दिलवाने में सफल हो गये। उसने उसी वक्त दुखीराम कांस्टेबल से हवलदार समीउद्दीन खां को बुलवाया। कासिमाबाद थाने में उनके सिवाय कोई और मुसलमान नहीं था। उन्हें बीस आने देकर गुलाबी जान ने बहादुरगंज चलता किया कि वह हशमतुल्ला हलवाई की दुकान से मिठाई लायें कि ठाकुर साहब की जीत की खुशी में दोना नियाज दिलवाया जा सके। गुलाबी जान ने फुल्लन शाह और चंदन शहीद के मजारों पर भी चादरें तान रक्खी थीं, गरज कि गुलाबी जान ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा रक्खा था।
    मगर गुलाबी जान को भी ठाकुर साहब ही की तरह फुन्नन मियाँ से कोई जाती अदावत नहीं थी। उसने तो फुन्नन मियां को केवल एक बार देखा था- बहादुरगंज के बड़े खाँ साहब की छोटी बेटी की शादी के नाच में!
    फुननन मियाँ घराती थे। बारातवालों ने गुलाबी जान के साथ-साथ गाजीपुर की प्रसिद्ध चंदा बाई को भी बुलाया था।
    उन दिनों चंदा बाई के बड़े शुहरे थे। वह बड़े ठस्से से आयी। गुलाबी जान महफिल में आ चुकी थी। चंदा बाई उसे हिकारत से देखकर एक तरफ बैठ गयी। इन दोनों से थोड़ी ही दूर पर चमार का एक नमकीन-सा लौंडा, होंठों पर पान का लाखा जमाये, बैठा इन दोनों पर हिकारत से मुसकरा रहा था, और अपने हर तरफ बैैठे हुए लोगों की गंदी जुमलेबाजी का तड़ातड़ जवाब दे रहा था, और इठला रहा था। उसकी इठलाहट देखकर गुलाबी जान को ख्याल आया कि नाज-नखरे के सबक उन्होंने बेकार ही लिये। उस लौंडे के पास बैठने वालों की आँखों में वासना के चिराग जल रहे थे। गुलाबी जान और चंदा बाई के पास बैठनेवालों की आँखों में भी इन्हीं चिरागों की जोत जाग रही थी, परन्तु इन चिरागों की लवें इतनी ऊँची न थीं।
    यह छः या सात साल पहले की बात है। उन दिनों गुलाबी जान कोई चैदह-पंद्रह साल की थी, और उसकी उतरी हुई नथ अभी बिल्कुल ताजा थी। फुन्नन मियां इज्जत की जगह, यानी दूल्हा के पास, बैठे थे। पहले गुलाबी जान का मुजरा हुआ। गुलाबी जान मियाँ लोगों की महफिलों को जानती थी। दो-तीन पूरबी गीत गाने के बाद उसने गालिब की एक गजल छेड़ी। चंदा बाई गरदन टेढ़ी किये बैठी अपने दाहिने पैर से ताल देती रही, मगर वह लौंडा अपने चारों तरफ बैठे हुए लोगों से ठठोल करता, हंसता और लोगों को हंसाता रहा। उसके पास बैठनेवालों की आवाजों में वासना की नमी बढ़ती ही चली गयी। यहां तक कि गुलाबी जान ने यह महसूस किया कि वासना की इस बाढ़ में शायद वह अपनी आवाज-समेत डूब जानेवाली है। उसने उस्तादजी की तरफ कनखियों से देखा, मगर वह बेचारे कर ही क्या सकते थे! वह लौंडा अरीब-करीब के मशहूर नचय्यों में था। और मशहूर था कि सलीमपुर के जमींदार अशरफुल्ला खाँ ‘अशरफ’ अपने दादा के कलमी दीवान की तरह उस लौंडे को भी रक्खे हुए थे! और फुरसत में इन दोनों ही के पन्ने उल्टा-पल्टा करते थे। उन्होंने तो उसका नाचना भी बंद करवा दिया था। उसे बस खास-खास मौकों पर नाचने की इजाजत थी। मगर जाहिर है कि इन खास मौकों पर भी वह उनके पास तो बैठ नहीं सकता था। बहादुरगंज के खान साहब से उनका याराना था, इसीलिए उनकी बेटी के ब्याह की महफिल में उनका लौंडा नाचने तो आ गया था, मगर उनसे दूर बैठा हुआ लोगों से चुहलें कर रहा था। अशरफुल्ला खां मसनद पर थे और फुन्नन मियां से अपने दादा की शायरी की बातें कर रहे थे। वह लौंडा उनसे दूर फर्श पर था। खान साहब उन गंदे-घिनौने जुमलों को सुन रहे थे जो गुड़-से उस लौंडें के चारों ओर मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे, और बार-बार उस पर बैठ जाना चाहते थे। खान साहब बेचारे उस वक्त तो कुछ कर नहीं सकते थे, मगर उन्होंने यह तय कर लिया था कि इस जश्न के बाद बहादुर गंज और सलीमपुर के बीच में पड़नेवाले जंगल में वह इस लौंडे को काटकर डाल देंगे। उनसे यह हतक झेली नहीं जा रही थी। खान साहब का गुस्सा सदा नाक पर धरा रहता था, मगर शरीफ आदमी थे और हर जगह गुस्से में बरस नहीं सकते थे। वरना उनके बारे में तो यह मशहूर था कि जब गुलाबी जान ने नथ पहना और यह खबर खान साहब को इस दुमछल्ले के साथ मिली कि नसीराबाद के ठाकुर साहब गुलाबी जान का नथ उतारने का फैसला कर चुके हैं, तो खान साहब को ताव आ गया। बोले, ‘‘वह क्या खाकर गुलाबी जान का नथ उतारेगा! भाई साहब मरहूम ने उसकी बड़ी बहन का नथ उतारा था, बाबा मरहूम ने उसकी खाला का नथ उतारा था, इसलिए गुलाबी जान का नथ मैं उतारूँगा।’’
    नतीजे में गुलाबी जान का दाम चढ़ गया। उसका नथ एक सौ एक नगद और पांच बीघे की माफी पर उतरा। ठाकुर साहब हिम्मत हार गये। मगर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि पानी पड़ने लगा। अब गुलाबी जान भला बरसते पानी में कैसे आती! खान साहब पहले तो पहलू बदलते रहे, फिर कमरे में टहलने लगे। जब पानी किसी तरह न थमा तो वह अपनी दोनाली लेकर बाहर निकल आयें। उन्होंने आसमान की तरफ धाँय-धाँय दो गोलियाँ चलायीं। वह अल्लाह मियाँ से खफा हो गये थे। फिर शायद खुदा ही का करना ऐसा हुआ कि पानी रूक गया। गुलाबी जान आयी और उसका नथ उतर गया। उसी दिन से यह बात मशहूर हो गयी कि सलीमपुर के खान साहब से तो अल्लाह मियां तक डरते हैं।
    अब भला ऐसे से कौन न डरता, मगर उस लौंडे को अपने नमक पर नाज था। वह यह कह सकता था कि सलीमपुर के खान साहब ने उसके पाॅव दाबे हैं, और उसके तलबों से आँखें मलकर रोये हैं। अगर वह कभी किसी की तरफ देखकर मुस्करा दिया है तो वह जल-जल गये हैं, और उन्होंने उसे औरतों की तरह कोसने दिये हैं। बार-बार कहा है, ‘‘आज सता ले, जालिम! जब मर जाऊँगा तो याद करेगा।
    और शायद यही वजह है कि लौंडा खान साहब की परवाह किये बिना लोगों से ठठोल कर रहा था और जोर-जोर से हंस रहा था। इस हंगामे में गुलाबी जान बार-बार सुर ले रही थी और बार-बार सुर की डोर टूट रही थी। चंदा बाई हिकारत से मुसकराकर अपने उस्तादजी से कानाफूसी कर रही थी।
    फुन्नन मियाँ एकदम से खड़े हो गये। वह उस लौंडे की तरफ बढ़े। वह उनकी तरफ देखकर बड़ी निर्लज्जता से मुसकराया। फुन्नन मियां ने उसे एक ऐसा तमाचा मारा कि उस्तादजी के बायें की गमक दब गयी। महफिल में सन्नाटा छा गया। फुन्नन मियां फिर अपनी जगह लौट आये। सारी महफिल की निगाहें खान साहब पर जमी हुईं थीं।
    ‘‘वह गालिब की ग़जल गा रही थी, भाई।’’ फुन्नन मियां ने कहा। वैसे वह अलिफ-बे नहीं जानते थे, मगर अनीस और वहीद के मर्सियों ही की तरह उन्हें मोमिन, गालिब और दाग के अनगनित शेर याद थे। वह गालिब की हतक बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। खान साहब की समझ में भी यह बात आ गयी। उन्होंने फिर कुछ नहीं कहा। बाद में थानेदार शिवधन्नी सिंह और उत्तर-पट्टी के जमींदार ने खान साहब को चढ़ाने की पूरी कोशिश की कि फुन्नन मियाँ का थप्पड़ उस चमार के लौंडे के मुँह पर नहीं पड़ा था, बल्कि उनके मुहं पर पड़ा था, मगर खान साहब ने उन लोगों की बात मानने से इन्कार कर दिया।
    कहते हैं कि उस लौंडे का मंुह हफ्तों सेंका गया, लेकिन सूजन न गयी। जब वह अच्छा हुआ तो खान साहब ने उसे बड़ी भयानक सजा दी। उन्होंने उसे किसी काम से खलवत में भेजा। उस खलवत में सिराजुद्दीन खां पहलवान और उनके आठ पट्ठे पहले से मौजूद थे। वे उसी की राह देख रहे थे। दूसरे दिन खान साहब ने उस लौंडे को उसकी टोली समेत गांव से निकाल दिया और फिर वह अरीब-करीब के किसी गाॅव में भी नहीं देखा गया....
    लेकिन ये बातें तो और लोगों के साथ गुलाबी जान ने बाद में सुनीं। उस दिन तो बस इतना हुआ कि तमाचा खाकर लौंडा सन्न खींच गया। वह सोच भी नहीं सकता था कि फुन्नन मियाँ जैसा मामूली जमींदार भरी महफिल में उस पर हाथ भी उठा सकता है। मगर जो बात उस लौंडे को नहीं मालूम थी वह यह थी कि फुन्नन मियाँ लाख छोटे जमींदार सही, मगर सय्यद थे। और खान साहब के पुरखे सय्यद नूरूद्दीन शहीद के साथ आये थे। यह बात न फुन्न मियाँ भूले थे और न अशरफुल्ला खाँ ‘‘अशरफ’’- जो ‘नूह’ नारवी के शागिर्द थे। इसलिए जब फुन्नन मियाँ ने खान साहब को यह बताया कि गुलाबी जान गालिब की गजल गा रही थी, तो फिर कहने या सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया।

शादी

दीनानाथ अपनी बेटी सरिता की शादी को लेकर काफी परेशान थे। सरिता की शादी के लिए जहां भी जाते लड़के वालों की भारी दहेज की मांग के आगे नतमस्तक हो कर घर लौट आते। अभी तक दीनानाथ दस-बारह जगह लड़का देख चुके थे। मगर कहीं बात नहीं बनी। दीनानाथ ने अपने रिश्तेदारों में भी कह रखा था, कोई लड़का हमारे लायक मिले तो जरूर बताइएगा। दीनानाथ के पास इतना रूपया भी नहीं था कि दो-चार लाख अपनी बेटी की शादी में खर्च कर सकें।
    एक रोज दीनानाथ अपनी दुकान पर बैठे हुए थे। तभी उनके मोबाइल की घंटी बज उठी। दीनानाथ ने मोबाइल में नाम देखा तो फोन उनके मामा जी का था। फोन कान से लगाकर दीनानाथ बोले, ‘‘हलो मामा जी, नमस्कार कहिए क्या समाचार है?’’
    ‘‘समाचार तो सब ठीक है। आपने अपनी बेटी सरिता के लिए एक लड़के के लिए हमसे कहा था न, तो हमें एक लड़का मिल गया है। लड़का अपने मां-बाप का अकेला हैं। गोलाबाजार में रहता है। लड़के के पिता नही ंहै सिर्फ मां है। लड़का बाजार में ठेला लगाकर शाम को चाट और चाऊमीन बेचता हैं रोज दो-तीन सौ कमा लेता है। लड़के का बाजार में अपना तीन कमरे का पक्का मकान है। लड़के का नाम संजय है। मैंने पंडित जी से दिखवा लिया, शादी अच्छी बन रही है। आप लड़का आकर देख लीजिए। दहेज में तीन हजार रूपया और सोने की जंजीर व अंगूठी देनी हैं। बाकी लड़की को आप जो देंगे वह आपकी मर्जी पर निर्भर है। कब आ रहे हैं लड़का देखने? आते वक्त लड़की की एक फोटो जरूर लेते आइएगा।’ मामा जी की बात सुनकर दीनानाथ बोले, ‘‘मामा जी मैं फोटो लेकर परसों आ रहा हूँ। हमारी बेटी सरिता की यह शादी जरूर करवा दीजिए। हमें यह रिश्ता मंजूर है।’ इतना कहकर दीनानाथ ने फोन काट दिया। मामा के माध्यम से दीनानाथ की बेटी सरिता की शादी पक्की हो गई। व धूमधाम से शादी हो गई।
    शादी के बाद सरिता अपने पति के घर चली गई। वह वहां चार-पांच दिन ही ठीक से रह पाई थी कि एक रोज रात को उसका पति शराब के नशे में घर आया और अपनी पत्नी सरिता से बोला, ‘मेरीजान आज मैं तुम्हारे साथ सुहाग रात मनाऊंगा। तुम्हें जी भरकर प्यार करूंगा चलांे कमरें में चलते हैं।’ संजय सरिता का हाथ पकड़ कर कमरें की तरफ बढ़ा। सरिता ने अपना हाथ छुड़ा कर कहा, ‘मैं तुम्हारे साथ आज नहीं सोऊंगी। मां जी के पास सो जाऊंगी। मुझे पहले यह पता होता तो मैं तुम्हारे साथ शादी नहीं करती।’ इतना सुनना था कि संजय सरिता के गाल पर चार-पांच थप्पड़ जड़कर चीखा, ‘मेरे साथ नहीं सोएगी तो किसी दूसरे के साथ सोएगी। जा मैं तुझे नहीं रखूंगा। कल सुबह अपने पापा को बुलाकर उनके साथ अपने घर चली जाना। मैं आज से नही पीता हूँ कई सालों से पी रहा हूं। बस शादी तक कसम खायी थी शराब नहीं पीऊंगा। अब तो मेरी शादी हो गई। मैं अब रोज शराब पीकर घर आऊंगा। मुझ कौन रोकेगा।’ इतना कहकर संजय कमरे में जाकर पलंग पर सो गया।
    सरिता को रोते देखकर उसकी सास बोल पड़ी, ‘बेटी मत रो कल मैं तेरे पापा को बुलाकर तुम्हें बिदा कर दूंगी। मैं तो इस शादी के खिलाफ थी। मगर तेरे मामा ने यह शादी करवाने के वास्ते हमारे बेटे संजय से दस हजार रूपया लिया था। तेरा माना ही सबसे बड़ा दोषी है।’
    अगले दिन संजय की मां ने दीनानाथ को फोन करके अपने घर बुला लिया और घर का सारा हाल सुनकर कहा, ‘समघी जी मुझसे बड़ी भूल हो गई जो आपकी बेटी से अपने बेटे की शादी कर ली। इसके लिए आप हमें जो चाहें वह सजा दे सकते हैं। मैं तो आप से यही प्रार्थना करूंगी कि आप अपनी बेटी को दो-चार महीने के लिए अपने घर ले जाइए। जब हमारा बेटा संजय शराब पीना छोड़ देगा तभी अपनी बेटी को बिदा कीजिएगा। वर्ना कभी मत बिदा कीजिएगा। इसकी दूसरी जगह शादी कर दीजिएगा, मै शादी का सारा खर्च अपने जेवर बेचकर दे दूंगी।
    ‘‘हां पापा, मां जी ठीक कह रही हैं। मैं अब यहां नहीं रहूंगी। न कभी इस घर में आऊंगी। मेरी शादी दूसरे जगह कर दीजिएगा। मुझे मंजूर है।’’ सरिता बोल पड़ी। पास खड़ा सरिता का पति संजय सबकी की बातें पत्थर का बुत बना सुना रहा था। सरिता के वापस न आने की बात सुनकर वह अपने ससुपर का पैरा पकड़कर रो-रोकर कहने लगा पापाजी मैं भगवान की सौगंध खा कर कहता हूं आज के बाद शराब को हाथ नहीं लगाऊंगा। आज के बाद आपको यह सुनने को नहीं मिलेगा कि संजय ने शराब पीकर अपनी पत्नी को मारा-पीटा। पापाजी शराब पीने की आदत हमें आपके मामाजी ने लगाई वर्ना मैं शराब से बहुत डरता था। सरिता मैं तुम्हारे पांव पड़कर कहता हूं आज के बाद कभी शराब नहीं पीऊंगा न तुम्हें मारूंगा। मेरी बातों पर विश्वास करके रूक जा सरिता आज से मै तुम्हें कभी नहीं मारूंगा। कल रात जो भूल हो गई उसे क्षमा कर दो।
    आज रात मै शराब पीकर घर आया तो तू अपनी मर्जी से यह घर छोड़कर चली जाना। संजय को रोता देखकर दीनानाथ बोल पड़े, ‘बेटा अगर सुबह का भूला रात को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते हैं। बेटी तू मेरी बात मानकर रूक जा अगर संजय ने दोबारा गल्ती की तो मैं तुम्हें यहां से लेकर चला जाऊंगा। मैं घरी चलता हूं तुम एक बात याद रखना रोज हमें फोन करती रहना।’ इतना कह कर दीनानाथ बेटी के घर से चल दिए। इस घटना से संजय की जिन्दगी ही बदल गई उसने शराब पीने के साथ-साथ मामा जी का भी साथ छोड़ दिया और अपनी पत्नी, मां के साथ सुखमय जीवन व्यतित करने लगा।

महंगाई के अनुष्ठान का अर्थशास्त्र...!

महंगाई और भ्रष्टाचार का नगाड़ा इस कदर ऊँची आवाज में बज रहा है कि देश का भूगोल लांघकर यह पूरी दुनिया में हैरतअंगेज शोर में बदल गया है। बुलंद आवाज में हलक फाड़नेवाले सियासतदां और मीडिया की जुगलबंदी 125 करोड़ आदम की औलादों को गुमराह करने के षड़यंत्र में दिन-रात एक किये हैं। सच का दामन थामने से हर एक को परहेज हैं। एकतरफा आंकड़ों का पहाड़ा याद कराने की कामयाब कोशिश में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को धता बताया जा रहा है। और तो और चाणक्य की सियासी सलाहों की पुस्तकें दीमक का भोजन बन चुकी हैं, शायद मुगल शासक अकबर के शूरा-ए-गुल का सर्वधर्म समभाव जातीय राजनीति के चक्रव्यूह में दम तोड़ गया है। नेहरू का समाजवाद वंशवाद के राजमहल मे ंचाकरी को मजबूर है। भ्रष्टाचार के सियासी गणित पर ‘नमो’ और ‘राहु’ की गणना करके आमजन को ठगने की साजिश की जा रही है।
    पहले बात करते हैं बढ़ती महंगाई के हल्ला मचाओं अनुष्ठान में शामिल न किये जाने वाले 35 करोड़ इंसानों की, जो ‘सस्ता’, ‘महंगा’ दोनों शब्दों से अंजान हैं। न इनका तन ढका है, न मन। न पेट भरा है, न इनके पास सर छुपाने के लिए पांच वर्गफुट जमीन का टुकड़ा है। श्रम के बदले औरतों को नंगा करके धूप, बारिश में खुले आसमान के नीचे मुर्गा बना दिया जाता है और मर्दाें को कुत्ता! भोजन के नाम पर जूठन और वो प्राकृतिक वनस्पति जो जानवरों तक से बच जाती है। कहीं-कहीं तो ये इंसान मरे हुए जानवरों के मांस पर जीवित हैं। अब तो जूठन का भी बाजार तरक्की कर रहा है। पहले मुंबई में ही जूठन बिकते देखा था, आजकल लखनऊ से भी आगे छोटे शहरों में जूठन का कारोबार बड़ी तेजी से अपने पांव पसार रहा है। इस सच से सामना करने से हर कोई भाग रहा है। कोई भी इन मजलूमों की बात नहीं करना चाहता। वोटों के लिए पाखण्डी कर्मकाण्ड मीडिया के कैमरों के सामने बड़ी गंभीरता से किये जा रहे हैं लेकिन हकीकत की द्दरती पर इनका पांव धरना भी इन्हें अपवित्र कर जाता है। चुनाचे इनकी सद्गति के लिए झूठ और भ्रष्टाचार की चिता हमेशा धू...धू करके जलती रहती हैं।
    नब्बे करोड़ में लगभग दो करोड़ देवगण सोने के गिलास में ‘मिनरल वाइन’ फूंक-फूंक पर पीते हैं। इन्हें असत्य, महंगाई और भ्रष्टाचार के पौधारोपण कार्यक्रम चलाने में महारत हासिल है। इन्हीं से प्रशिक्षण प्राप्त बाकी के 80 करोड़ को महंगाई डायन खाय जात है। भ्रष्टाचार इनकी जड़ों और जोड़ों में मजबूती लाने की अचूक दवा है। यही कैंडिलमार्च से लेकर हिंसा के तमाम नातेदारों के साथ सड़क जाम, तोड़-फोड़, आगजनी, लूट के आयोजक एवं कार्यकर्ता होते हैं। इन्हीं का छोटी-छोटी बातों से धर्म भ्रष्ट या खतरे में पड़ जाता है। ये ही जमीन कब्जाने से लेकर बिजली चोरी जैसे कर्मकांड में लिप्त या ताली बजानेवाले तमाशाई होते हैं। यही शोहदई और फसाद के निर्माता हैं। इनको प्याज का रेट याद है। दाल का भाव याद है। मांस की कीमत में हुआ इजाफा याद हैं, दूध में हुई वृद्धि की गिनती जुबानी याद है। साग-सब्जी की बढ़ी दर याद है। इसी जमात को तेल, चीनी, रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल की बढ़नेवाली कीमतों पर सरकार को गाली देने की आदत है। इन्हीं के सुर में सुर मिलाकर तुष्टीकरण करता मीडिया भी चीखता है कि पिछले 10 वर्षाें में देश में खाने-पीने की चीजे 100 से 16 सौं फीसदी तक महंगी हुई हैं। पिछले दो महीने से फल-सब्जियों खासतौर पर प्याज की बढ़ी हुई कीमतों को लेकर बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है। हर साल बरसात के मौसम में बाजार में सब्जियों की आवक में कमी से भाव बढ़ जाते हैं। इसके और भी कई कारण हैं, उनमें बाढ़ प्रमुख है। कई पर्व भी इसी दौरान पड़ते हैं, जमाखोरों का अधिक मुनाफा कमाने का लोभ भी है। यह हाल केवल भारत में ही नहीं है पड़ोसी देशों में भी है। दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में भी धार्मिक मान्यताओं और आपूर्ति में कमी होने के चलते हर साल सितम्बर-अक्टूबर में फल-सब्जी 50-60 फीसदी तक महंगे हो जाते हैं।
    अगर महंगाई नहीं बढ़ती है तो शराब, कास्मेटिक्स, कवाब, पिज्जा, ड्रेसेस, मोबाइल, लैपटाॅप, चार -दो पहिया वाहन, यौनवर्धक दवाओं, कंडोम, सेक्सशापी और मनोरंजन मस्ती जैसे तमाम लग्जरी आइटमों पर, इनकी बिक्री में लगातार इजाफा होता जा रहा है। महंगाई का शोर मचाने वाला वर्ग 50 हजार रूपयों के टमाटर की होली खेलकर मस्ती करने में आगे हैं? इन्हीं का बाजार तय करता है कि आप पितृपक्ष में क्या खरीदेंगे? ब्रांडेड हो जाती है सत्यनारायण कथा! एनआरआई हो जाते हैं बकरीद पर बकरे तक! मंदिरों में स्वर्णदान अगर नहीं बढ़ता तो अरबों-खरबों की संपति के मालिक कैसे हैं देश के तमाम मंदिर? हाल ही में मुंबई के सिद्धनाथ मंदिर में गणेशोत्सव के दौरान चढ़ावे में चढ़े सोने-चांदी की नीलामी हुई है। किसी अखबार में नहीं छपता कि 2004 में आम आदमी की तन्ख्वाह क्या थी? कोई टीवी चैनल नहीं बताता कि पेटी बगल में दबाए हुए नाई की एक दिन की आमदनी क्या हैं? जबकि केवल शमशानघाट पर एक सिर मूंडने का सौ रूपया तक वसूला जा रहा है, बाकी कर्मकांडों की बात ही बेमानी है। सरकारी मुलाजिमों से अधिक वेतन प्राइवेट कम्पनियों के कर्मचारी पाते हैं। व्यापार में लगे लोग एक रूपये को तीन रूपये के मुनाफे में कैसे बदल रहे हैं, यह खुली आंखों से हर कोई देख रहा है। शिक्षा की दुकानों की आमदनी में किस वर्ग की साझेदारी है और कौन वर्ग लूट रहा है, लुट रहा है? पेट्रोल की खपत कौन बढ़ा रहा है? आबादी बढ़ाने की मशक्कत में कौन दिन-रात एक किये दे रहा हैं? देश में 90 करोड़ मोबाइल आपस में बातचीत के लिए सक्रिय हैं। इन मोबाइल कंपनियों को अरबों का मुनाफा कमाने की दावत कौन दे रहा है? यदि महंगाई सौ से सोलह सौ फीसदी बढ़ी है तो आमदनी में भी सौ से दो हजार फीसदी तक बढ़ोतरी हुई है। अमीरों की गिनती में काफी बड़ा इजाफा हुआ है। उप्र जैसे पिछड़े सूबे के सबसे पिछड़े इलाके सोनभद्र के राबर्ट्सगंज, चोपन, ओबरा, डाला, दुद्धी जैसे इलाकों में जाकर देखिए बाजार चमक रहे हैं, वहां के छुटभइये पत्रकार तक चार पहिया वाहन के मालिक हैं। मजदूरी करने वालों की झोपड़ी तक में रंगीन टीवी बैटरी से चल रहे हैं।
    कांशीराम आवास योजना या हरिजन काॅलोनियों में जाकर झांकिये हर घर रंगीन, टी.वी., फ्रिज, बाइक से गुलजार है। जिन मुसलमानों के लिए हल्ला है कि उन्हें इस मुल्क में गरीबी के अलावा कुछ नहीं मिला। उन्हीं मुसलमानों ने देश भर के रियल स्टेट कारोबार में आग लगा दी है। जिन इलाकों में आज से महज दस साल पहले तक तीन-चार लाख में छोटे रिहाइशी मकान मिल जाया करते थे आज वहां 30-35 लाख कीमत हो गई है। सच इससे भी अधिक नंगा है। सांतवां वेतन आयोग गठित होते ही उसे 2011 से लागू करने की मांग उठ गईं? गोया सारे जहां की दौलत का मालिक ‘मैं’ होऊंगा? एक तरफा तमाशा, चिल्लापों वोट की राजनीति के लिए समझ में आता है, लेकिन मध्यवर्ग अपनी बेईमानी पर गौर क्यों नहीं करता? कोई जवाब देगा कि दरोगा कौन है? सिपाही कौन है? इंजीनियर कौन हैं? डाॅक्टर कौन हैं? बाबू कौन हैं? बिजली-पानी कर्मी कौन हैं? दवा-दुआ विक्रेता कौन है? गोकि सब तो मध्यमवर्ग के लोग ही ‘हम-आप’ हैं। फिर बेईमान कौन है? भ्रष्टाचारी कौन है? मामूली रिक्शावाला दो रूपए की ठगी करके, तो सब्जी विक्रेता सौ ग्राम कम तौलकर भ्रष्टों की जमात में शामिल है। शहर से लेकर गांव तक कवाब-पराठे-चाउमीन से लेकर ‘डव’ साबुन, लोरियाल लिपिस्टिक की बिक्री की धूम है। और सरकार की नीतियों को हम बेइमान कोसने से पीछे नहीं हटते? जब सौ बेईमान एक बड़े बेईमान/अपराधी को राजा बना देंगे तो उससे ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गिनती के जो 10 करोड़ लोग बचते हैं वे ‘संतोषं परम सुखम्’ के खामोश अनुयाई हैं। सच का आइना इससे भी अधिक खतरनाक है। आंकड़ों की बाजीगरी और उधार की संस्कृति का खामियाजा जिन्दा कौमों को ही भुगतना होगा। चुनाचे महंगाई के अनुष्ठान में लक्ष्मी को बख्श दो लक्ष्मीपुत्रों!

सोने के तस्कर...‘कबूतर’!

लखनऊ। दीपावली में सोने की खरीद का खासा महत्व है। धनतेरस के दिन हर खास-ओ-आम की चाहत सोने के गहने, गिन्नी खरीदने की होती है। कुछ लोग सिक्के, श्रीगणेश-लक्ष्मी की मूर्ति, स्वास्तिक चिन्ह, चरणपादुका भी सोने और चांदी के खरीदते हैं। भारतीयों का सोने के प्रति असीम प्रेम है; इसकी गवाही में गये साल (2012-13) आयात किये गये 875 टन सोने को रखा जा सकता हैं गए साल दीवाली के धनतेरस में 300 किलो सोना अकेले लखनऊवासियों ने खरीदा था। देश भर में इसी दिन चार सौ टन सोना बिकने का अनुमान हैं इस साल सोने का आयात प्रतिबंधित हैं। आयात पर शुल्क भी कई बार बढ़ाया गया मगर सोने की खरीद पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वल्र्ड गोल्ड कौंसिल की माने तो अप्रैल-जून, 2013 तक 370 टन सोने की मांग रही, जो पिछले साल से 71 फीसदी अधिक है। यही हाल सोने के वायदा कारोबार में भी है। सोने के कारोबारियों का अनुमान है कि लखनऊ में पिछले साल से कम बिक्री नहीं होगी। दरअसल सोने में निवेश को फायदेमंद माना जाता है।
    भारतीयों के सोने के प्रति लगाव ने ही इसे वायदा बाजार और तस्करों का प्रिय बनाया। पिछले महीने की 7 तारीख को दुबई से चेन्नै आये एयर इंडिया के विमान के टाॅयलेट से 32 किलो सोना पकड़ा गया। इसकी कीमत 15 करोड़ आंकी गई है। चार लोगों को पकड़ा गया है। अकेले जून, 2013 में दिल्ली के इन्दिरा गांधी हवाईअड्डे पर दुबई, बंैकाक से आने वाले तस्कर कोरियरों से चार करोड़ से अधिक का सोना पकड़ा गया। चेन्नई में सौ किलों से ऊपर सोना अगस्त 2013 तक पकड़ा जा चुका है। जबकि पिछले साल महज 5.5 किलो ही पकड़ा गया था। भारत-नेपाल सीमा पर भी इस साल अगस्त तक 60 किलो से अधिक सोना तस्करों से बरामद किया जा चुका है। कोलकाता, मुंबई, हवाईअड्डों पर भी तस्करी से लाया गया सोना काफी तादाद में पकड़ा जा रहा है। समुद्र के रास्ते आने वाला अवैध सोना भी पकड़ा जा रहा है। अगस्त, 2013 में हैदराबाद के राजीव गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एक करोड़ रू0 से अधिक व वाराणसी के बाबतपुर हवाईअड्डे पर छः किलो सोना पांच आदमियों के पेट से बरामद किया गया। तस्करी के जरिये आने वाला सोना लगातार भारत के बाजारों में तमाम सख्ती के बावजूद पहुंच रहा है। सोने की तस्करी के मामले में अकेले भारत ही नहीं श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल व बांग्लादेश की सरकारें भी परेशान हैं। खबरों के मुताबिक पाकिस्तान में पिछले सालों की तुलना में सोने का आयात 386 फीसदी व श्रीलंका में दोगुना तक बढ़ा है। इन दोनों देशों में आयात शुल्क का अंतर और ड्यूटी फ्री पोर्ट होने से तस्करों की चांदी है। श्रीलंका में तस्कारों को ड्यूटी फ्री शराब और सुअर का मांस भी मिलता है जो उन्हें आकर्षित करने के लिए काफी है। सोने के कारोबारियों का अनुमान है कि दीपावली में हर साल से भी अधिक सोना इस साल बिकेगा। आंकड़ों की बाजीगरी से परे पूरे देश में तस्करी के सोने से धनतेरस, दीपावली के साथ आनेवाली सहालग में भी सोना कारोबारियों की चांदी रहेगी।
    सोने की तस्करी के कारोबार में श्रीलंका, सिंगापुर, बैंकाक, दुबई की हवाई उड़ानों के कई यात्री, छोटे व्यापारियों, के साथ ‘कबूतरबाज’ तक शामिल हैं। इन तस्करों ने भोले-भाले हाजियों तक को अपना कोरियर बनाने की साजिश रची है। पहले भी हाजियों (स्त्री/पुरूष) के जरिए भारत से तम्बाकू, बनारसी साड़ी, हीरे जड़ी अंगुठियों जैसे कीमती सामानों को हर हज यात्री को यह कहकर दिया जाता था कि इसे लेते जाइए वहां हमारे भाई/बहन या अन्य रिश्तेदार आपसे आकर ले लेंगे। इसी तरह वहां से सोने के आभूषण भारत के लिए रवाना किये जाते थे जिसे यहाँ ट्रेवल एजेन्ट्स हाजियों से वसूल कर लेते थे। यही तरीका आद्दे- अधूरे कागजातों के साथ विदेश जाने वाले श्रमिकों (कबूतर) के माध्यम से भी अपनाया जा रहा है। अधिकतर यात्रियों को मालूम तक नहीं होता और वो सोने की तस्करी में शामिल हो जाता है। यहां गौरकरने लायक है कि यात्रियों को उतना ही सोना या सामान दिया जाता है जितना सरकार द्वारा लाने-ले जाने के लिए मान्य है या शुल्क मुक्त है। पकड़े जाने वालों में ऐसे यात्रियों की संख्या न के बराबर है। इन यात्रियों या कोरियर्स का इस्तेमाल बड़ी चालाकी से किया जाता है। भारत से विदेश जाने वाले श्रमिक भी जाने-अनजाने  इन तस्करों के ‘कोरियर’ का काम करते हैं। हैरत की बात है कि सउदी अरब ने पिछले महीनों अपनी नई श्रमनीति निताकत लागू कर दी है, जिसमें रोजगार देने के लिए स्थानीय लोगों को वरीयता (निर्माण के लिए 6-10 फीसदी व तेल/गैस निकालने के लिए 30 फीसदी) दिए जाने का नियम हैं। इस समय सउदी अरब में लगभग 13 लाख भारतीय कामगार हैं। तमामों को वापस आना पड़ रहा हैं, बावजूद इसके भारतीय कामगारों को सउदी अरब भेजनेवाले एजेन्ट्स के दफ्तरों में कामगारों की भारी भीड़ है। इन श्रमिकों से पासपोर्ट मेडिकल, इमीग्रेशन व बीजा के नाम पर ये एजेंन्ट्स अंधी कमाई कर रहे हैं। इन्हें आधे-अधूरे दस्तावेजों के साथ भेजने के अलावा यहां बतायें जाने वाले काम से दीगर निम्नतर कामों में जबरिया झोंक दिया जाता है। तस्करों के पेशेवर कोरियर उपन्यासों से मिलते-जुलते किरदार जैसे रास्ते अपनाने में भी पीछे नहीं हैं। चार महीने पहले दुबई से दिल्ली आये हवाई जहाज में टीवी बाॅक्स को स्ट्रेपल करने वाले पिन की शक्ल में चांदी की कोटिंग चढ़ाकर लाया गया सोना बरामद किया था। इसी तरह कई कोरियर (महिला/पुरूष) अपने गुप्तांगों में या अंतःवस्त्रों में सोना छुपा कर लाते हैं, लेकिन ये लोग 1 से 2 किलों तक ही ला पाते है। इन कोरियरों को जहां अच्छी कमीशन मिलती है वहीं सुनहरे भविष्य का लालच भी इन्हें इस पेशे में धकेलता हैं। लब्बोंलुआब यह कहा जा सकता है कि सोने का कारोबार एक बार फिर तस्करों के हाथों में लौट आया है। इन तस्करों के पास से देश के तमाम हवाई अड्डों व बन्दरगाहों से अब लगभग 1 हजार किलो सोना पकड़ा जा चुका है और तीस लोगों को गिरफ्तार किया गया है। इनमें एक अब्दुल रहमान को कस्टम के लोगों ने छत्रपति शिवाजी एयरपोर्ट पर पकड़ा, जिसने कस्टम अधिकारियों को बताया था कि वो अब तक 13 बार दुबई से भारत सोना लेकर आ चुका है। हर बार वह अपने शरीर के भीतरी हिस्सों में छुपाकर सोने की खेप लाता रहा। अद्दिकारी हैरत में थे कि वह उनकी नजरों से कैसे बच गया। जबकि वे महीने में 15-20 बार देश के बाहर आने-जाने वालों पर पूरी नजर रखते हैं। सोने की तस्करी नब्बे के दशक से थम गई थी। देश में तस्करों की जमात के सरगना नशीले पदार्थाें (ड्रग्स), हथियारों, हीरे-जवाराहतों व नकली नोटों के कारोबार में उतर गये या फिर डाॅन दाऊद इब्राहीम के साथ आतंकवादी षड़यंत्र में शामिल हो गये। क्योंकि भारत सरकार ने सोने के आयात से प्रतिबंध हटा लिया और प्रवासी भारतीयों को 5 किलो तक सोना लाने की इजाजत 450 रू0 प्रति 10 ग्राम ड्यूटी देकर दी गई थी। बाद में यह शुल्क 220 रू0 प्रति 10 ग्राम कर दिया गया। इससे सोने का समूचा कारोबार सर्राफा कारोबारियों के बीच सिमट गया। गौरतलब है कि सोने की तस्करी के असल जनक सुकुर नारायण बखिया, राजनारायण बखिया थे। ये दोनो भाई सत्तर-अस्सी के दशक में गोवा-मुंबई के समुद्री तटों के बादशाह कहे जाते थे। मुंबई बंदरगाह पर हाजी मस्तान कुली थे। दोनों भाइयों का सोना बंदरगाह से बाहर फिर शहर में पहुंचाने का काम हाजी मस्तान ने शुरूआत में किया। बाद में मस्तान के दाहिने हाथ व यूसुफ पटेल व अन्य तीन साथियों वरदराजन मुदलियार, करीम लाला और लल्लू जोगी के साथ हाथ मिलाकर साझे में गोवा-मुंबई के समुद्रतट व शहर बांट लिये। बड़े भाई राजनारायण बखिया की बीमारी से मौत होने पर सुकुरनारायण बखिया अकेला पड़ गया। उस पर तस्करी का एक भी मुकदमा नहीं दर्ज हुआ। उसे मीसा, कोफेपोसा व साफेया के तहत निरूद्ध किया गया था। छोटे बखिया की मौत के बाद हाजी मस्तान का एक छत्रराज्य सोने की तस्करी में रहा। यूसुफ पटेल से हुए झगड़े में हुई गैंगवार ने हाजी को और मजबूत किया। उसी गैंगवार के बाद युसूफ और लल्लू जोगी किनारे हो गये। सोने की तस्करी हाजी मस्तान, वरदा भाई व करीम लाला के बीच रही लेकिन एशिया का ‘गोल्ड किंग’ हाजी मस्तान ही रहा। इसी बीच दाऊद की आमद हुई और उसकी तेजी देखकर बूढ़े होते व राजनीति के खेमे में दाखिल होने को ललायित मस्तान ने गिरोह की बागडोर दाऊद के हाथों सौंप दी। खुद अल्पसंख्यकों के नाम से संगठन बनाकर अपनी मृत्यु तक सक्रिय रहे।

Tuesday, November 12, 2013

वाह! वाह! क्या बात है मैं रूपया तुम डाॅलर हो!


राम प्रकाश वरमा
‘गुनगुनाना चाहिए और मुस्कराना चाहिए। जिंदगी है चार दिन हंसना-हंसाना चाहिए।’ उम्मीद और ऊर्जा से भरपूर अंबर की ये लाइने महज कोरी कल्पना नहीं हैं। आज के माहौल में तमाम बेचारगियों, मजबूरियों और आदमी को हर क्षण यथार्थ से जूझने के बावजूद उसकी बेहतरी के पक्ष में इससे सार्थक व सकारात्मक आवाज शायद नहीं हो सकती और यह कविता में ही संभव है।
    कविता, कल्पना और विज्ञान का तालमेल है। इसी कारण सच को जितनी जोरदार आवाज में भावलोक में ले जाती है उतनी ही संजीदगी से पीड़ा की गली में भी खड़ा कर देती है। व्यथा-कथा-व्यंग्य ही नहीं वरन वर्तमान को हास्य के मेघों में संजोकर कहकहों से भरपूर बरखा में आदमी को तरबतर कर देती है। गौर फर्माइए सूर्य कुमार पाण्डेय की लव इकोनाॅमी पर, ‘मैं एक अनुभवी बैट्समैंन और तुम नई बाॅलर हो... मैं रूपया तुम डाॅलर हों’।
    कविता को एक मंच सब टीवी चैनल ने ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ के नाम से दिया है। इसका प्रसारण हर शनिवार व रविवार रात नौ बजे होता हैं जहां कवियों की नई-पुरानी पीढ़ी एक साथ मंच पर होती है। हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के बीच उबलते कहकहे और तालियां बजाते हर्षित श्रोताओं का जीवन के प्रति उल्लास और विश्वास नृत्य करता है। इस मंच के सौ एपीसोड की धूम में पढ़ी गईं तमाम लाइने हसंने-हंसाने के साथ आज के हालात पर गंभीरतापूर्वक सोंचने को मजबूर करती हैं। बानगी देखिए।
    लखनऊ के सूर्य कुमार पाण्डेय कहते हैं, ‘फैमिली का बोझ ढोते-ढोते कंधे थक गये’ तो अनामिका अंबर गा उठती हैं, ‘‘आपके जैसी छवि हो वर तो मेरा कवि हो...’ हाथ जोड़ते हुए संजय झाला संुदर सी हरियाणवी में सरकार की कार्यशैली पर तंज भरी उंगली उठाते हैं, ‘सरकार क्या है। वो जो सर पर कार चलाती है। जो सरका सरका कर काम चलाती है।’ वहीं डाॅ0 कुंवर बेचैन की प्रेम में पगी और सकारात्मकता से भरपूर लाइने मुलाहिजा हों, ‘सबकी बात न मानाकर/ खुद को भी पहचाना कर.... दर्द मिले तो गीत बना/दुनिया बहुत सुहानी है। इसे और सुहाना कर।’’
    ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ के मंच पर एक पुरानी परम्परा को नए सिरे से जीवंत किया गया हैं। हर एपीसोड में एक नए कवि को अवसर दिया जाता है। जिसे छुपा रूस्तम की संज्ञा से नवाजा गया है। उसकी पीठ ठोंकने के साथ एक ट्राॅफी देकर उसका उत्साह भी बढ़ाया जाता है। अब तक के सौ एपीसोड में एक से बढ़कर एक नई सोंच वाले कवियों का काव्य-पाठ समूचे भारत ने सुना हैं। सौवें एपीसोड में छुपा रूस्तम के तौर पर आये फिरोज सागर ने जब पढ़ा, ‘खुशी-खुशी बन जा नेता/भाई मेरे राज करेगा/ फिर तेरे आगे कोई न आवाज करेगा...’ तो श्रोता झूम उठे और होस्ट शैलेष लोढ़ा ने एक और गीत की फर्माइश कर डाली तो फिर सागर में लहरें उठीं, ‘भइया-भइया रे मेरे भइया रे/ हमको झगड़ता देख रो रही भारत मइया रे...’। इन कविताओं में चारो और व्याप्त विसंगतियों के प्रति व्यंग्य का स्वर अपनी उदग्रता के साथ दिखा।
    मंचीय कविता का सूत्रपात तो दिनकर, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के समय में ही हो गया था। लखनऊ में ‘माधुरी’, ‘सुधा’ सम्पादक आचार्य पं0 दुलारेलाल भार्गव ने कवि सम्मेलनों की परम्परा डाली। 1922  से 1975 तक वे मंच पर कवियों को जहां बढ़ावा देने के लिए चांदी/सोने के सिक्के पुरस्कार स्वरूप देते रहे वहीं उनकी कविताओं को अपनी मासिक पत्रिका में व अपने प्रकाशन ‘गंगा पुस्तक माला’ में छापते रहे। ब्रजभाषा के वे स्वयं प्रतिष्ठित कवि थे। उनका कविता प्रेम मात्र इतने से ही जाहिर हो जाता है कि उन्होंने अपने घर का नाम ‘कवि कुटीर’’ रखा था। इतना ही नहीं  उन्होंने ‘कवि-कोविद क्लब’ भी बना रखा था जिसके तहत साप्ताहिक/मासिक कवि गोष्ठियां उनके ‘कवि कुटीर’ में हुआ करती थीं। उनके जीवनकाल का अंतिम कवि सम्मेलन 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में लखनऊ के रवीन्द्रालय सभागार में हुआ था, जिसमें स्वर्गीय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होते हुए भी काफी देर तक मौजूद रही थीं। दरअसल वे हिंदी के विशाल वट वृक्ष थे। इसके बाद मंचीय कविता को बच्चन, नीरज, रमानाथ अवस्थी आदि ने और स्वस्थ व मजबूत किया।
    ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ की बात करते हुए पुरखों की याद इसलिए करनी पड़ी कि किराये के मंचों, ठेके के पंडालों पर लड़ते-झगड़ते भोंड़े कवियों के सस्ते मनबहलाव से उकताये श्रोता कविता से किनारा करने लगे। हालांकि इसका एक कारण टीवी की नई मनोरंजक दुनिया भी है। ऐसे माहौल में कवियों/गीतकारों का ताजा स्वर टीवी पर ही लोकप्रिय हो सकता था। भले ही इसकी टीआरपी का पायदान बहुत ऊँचा न हो या कुछ कवियों का अंदाज न भाये लेकिन ‘गीत के यह हंस तुम तक आ रहे हैं/ और मेरा हाल इनसे जान लेना...’ गुनगुनाता है इसका हर एपीसोड। इसके होस्ट शैलेष लोढ़ा खुद कवि हैं और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे अतिशय कुशल वक्ता और सुकंठी होने के साथ अपने युवा मन से मंच पर कवियों को मुखरित होने का भरपूर अवसर देते हैं। कई बार तो उन्हें हर्षातिरेक नृत्य करते और साथी होस्ट नेहा के मेहता के साथ मनोरंजक वार्तालाप में आकंठ डूबे हुए देखा जाता है और अंत पंत इतना ही ‘लेकिन धारा की लहर-लहर है कर्मशील।’’