Friday, November 15, 2013

आधा गांव

थानेदार ठाकुर हरनारायण प्रसाद को हम्माद मियाँ वगैरह को सजा दिलवाने मे कोई दिलचस्पी नहीं थी। उन्हंे तो केवल फुन्नन मियाँ में दिलचस्पी थी। उनसे भी उनकी कोई जाती अदावत नहीं थी और उन्हें यह भी मालूम था कि फौजदारी में ज्यादती उत्तर-पट्टीवालों की ही थी, फिर भी उन्होंने एकतरफा तफतीश की। वह इस काम में सफल भी हुए और फुन्नन मियाँ के साथ-साथ दक्खिन-पट्टी के और कई लोगों को भी सजा हो गयी। इनाम में उन्हंे सर्विस-बुक में चार इन्दराजात मिल गये।
    वह उसी वक्त घोड़ा कसवाकर कासिमाबाद की तरफ चल पड़े।
    गुलाबी जान उनके क्वार्टर में उनकी राह देख रही थी। ठाकुर साहब का हश्शाश-बश्शाश चेहरा देखकर उसे यकीन हो गया कि वह मियाँ लोगों को सजा दिलवाने में सफल हो गये। उसने उसी वक्त दुखीराम कांस्टेबल से हवलदार समीउद्दीन खां को बुलवाया। कासिमाबाद थाने में उनके सिवाय कोई और मुसलमान नहीं था। उन्हें बीस आने देकर गुलाबी जान ने बहादुरगंज चलता किया कि वह हशमतुल्ला हलवाई की दुकान से मिठाई लायें कि ठाकुर साहब की जीत की खुशी में दोना नियाज दिलवाया जा सके। गुलाबी जान ने फुल्लन शाह और चंदन शहीद के मजारों पर भी चादरें तान रक्खी थीं, गरज कि गुलाबी जान ने अपनी तरफ से पूरा जोर लगा रक्खा था।
    मगर गुलाबी जान को भी ठाकुर साहब ही की तरह फुन्नन मियाँ से कोई जाती अदावत नहीं थी। उसने तो फुन्नन मियां को केवल एक बार देखा था- बहादुरगंज के बड़े खाँ साहब की छोटी बेटी की शादी के नाच में!
    फुननन मियाँ घराती थे। बारातवालों ने गुलाबी जान के साथ-साथ गाजीपुर की प्रसिद्ध चंदा बाई को भी बुलाया था।
    उन दिनों चंदा बाई के बड़े शुहरे थे। वह बड़े ठस्से से आयी। गुलाबी जान महफिल में आ चुकी थी। चंदा बाई उसे हिकारत से देखकर एक तरफ बैठ गयी। इन दोनों से थोड़ी ही दूर पर चमार का एक नमकीन-सा लौंडा, होंठों पर पान का लाखा जमाये, बैठा इन दोनों पर हिकारत से मुसकरा रहा था, और अपने हर तरफ बैैठे हुए लोगों की गंदी जुमलेबाजी का तड़ातड़ जवाब दे रहा था, और इठला रहा था। उसकी इठलाहट देखकर गुलाबी जान को ख्याल आया कि नाज-नखरे के सबक उन्होंने बेकार ही लिये। उस लौंडे के पास बैठने वालों की आँखों में वासना के चिराग जल रहे थे। गुलाबी जान और चंदा बाई के पास बैठनेवालों की आँखों में भी इन्हीं चिरागों की जोत जाग रही थी, परन्तु इन चिरागों की लवें इतनी ऊँची न थीं।
    यह छः या सात साल पहले की बात है। उन दिनों गुलाबी जान कोई चैदह-पंद्रह साल की थी, और उसकी उतरी हुई नथ अभी बिल्कुल ताजा थी। फुन्नन मियां इज्जत की जगह, यानी दूल्हा के पास, बैठे थे। पहले गुलाबी जान का मुजरा हुआ। गुलाबी जान मियाँ लोगों की महफिलों को जानती थी। दो-तीन पूरबी गीत गाने के बाद उसने गालिब की एक गजल छेड़ी। चंदा बाई गरदन टेढ़ी किये बैठी अपने दाहिने पैर से ताल देती रही, मगर वह लौंडा अपने चारों तरफ बैठे हुए लोगों से ठठोल करता, हंसता और लोगों को हंसाता रहा। उसके पास बैठनेवालों की आवाजों में वासना की नमी बढ़ती ही चली गयी। यहां तक कि गुलाबी जान ने यह महसूस किया कि वासना की इस बाढ़ में शायद वह अपनी आवाज-समेत डूब जानेवाली है। उसने उस्तादजी की तरफ कनखियों से देखा, मगर वह बेचारे कर ही क्या सकते थे! वह लौंडा अरीब-करीब के मशहूर नचय्यों में था। और मशहूर था कि सलीमपुर के जमींदार अशरफुल्ला खाँ ‘अशरफ’ अपने दादा के कलमी दीवान की तरह उस लौंडे को भी रक्खे हुए थे! और फुरसत में इन दोनों ही के पन्ने उल्टा-पल्टा करते थे। उन्होंने तो उसका नाचना भी बंद करवा दिया था। उसे बस खास-खास मौकों पर नाचने की इजाजत थी। मगर जाहिर है कि इन खास मौकों पर भी वह उनके पास तो बैठ नहीं सकता था। बहादुरगंज के खान साहब से उनका याराना था, इसीलिए उनकी बेटी के ब्याह की महफिल में उनका लौंडा नाचने तो आ गया था, मगर उनसे दूर बैठा हुआ लोगों से चुहलें कर रहा था। अशरफुल्ला खां मसनद पर थे और फुन्नन मियां से अपने दादा की शायरी की बातें कर रहे थे। वह लौंडा उनसे दूर फर्श पर था। खान साहब उन गंदे-घिनौने जुमलों को सुन रहे थे जो गुड़-से उस लौंडें के चारों ओर मक्खियों की तरह भिनभिना रहे थे, और बार-बार उस पर बैठ जाना चाहते थे। खान साहब बेचारे उस वक्त तो कुछ कर नहीं सकते थे, मगर उन्होंने यह तय कर लिया था कि इस जश्न के बाद बहादुर गंज और सलीमपुर के बीच में पड़नेवाले जंगल में वह इस लौंडे को काटकर डाल देंगे। उनसे यह हतक झेली नहीं जा रही थी। खान साहब का गुस्सा सदा नाक पर धरा रहता था, मगर शरीफ आदमी थे और हर जगह गुस्से में बरस नहीं सकते थे। वरना उनके बारे में तो यह मशहूर था कि जब गुलाबी जान ने नथ पहना और यह खबर खान साहब को इस दुमछल्ले के साथ मिली कि नसीराबाद के ठाकुर साहब गुलाबी जान का नथ उतारने का फैसला कर चुके हैं, तो खान साहब को ताव आ गया। बोले, ‘‘वह क्या खाकर गुलाबी जान का नथ उतारेगा! भाई साहब मरहूम ने उसकी बड़ी बहन का नथ उतारा था, बाबा मरहूम ने उसकी खाला का नथ उतारा था, इसलिए गुलाबी जान का नथ मैं उतारूँगा।’’
    नतीजे में गुलाबी जान का दाम चढ़ गया। उसका नथ एक सौ एक नगद और पांच बीघे की माफी पर उतरा। ठाकुर साहब हिम्मत हार गये। मगर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि पानी पड़ने लगा। अब गुलाबी जान भला बरसते पानी में कैसे आती! खान साहब पहले तो पहलू बदलते रहे, फिर कमरे में टहलने लगे। जब पानी किसी तरह न थमा तो वह अपनी दोनाली लेकर बाहर निकल आयें। उन्होंने आसमान की तरफ धाँय-धाँय दो गोलियाँ चलायीं। वह अल्लाह मियाँ से खफा हो गये थे। फिर शायद खुदा ही का करना ऐसा हुआ कि पानी रूक गया। गुलाबी जान आयी और उसका नथ उतर गया। उसी दिन से यह बात मशहूर हो गयी कि सलीमपुर के खान साहब से तो अल्लाह मियां तक डरते हैं।
    अब भला ऐसे से कौन न डरता, मगर उस लौंडे को अपने नमक पर नाज था। वह यह कह सकता था कि सलीमपुर के खान साहब ने उसके पाॅव दाबे हैं, और उसके तलबों से आँखें मलकर रोये हैं। अगर वह कभी किसी की तरफ देखकर मुस्करा दिया है तो वह जल-जल गये हैं, और उन्होंने उसे औरतों की तरह कोसने दिये हैं। बार-बार कहा है, ‘‘आज सता ले, जालिम! जब मर जाऊँगा तो याद करेगा।
    और शायद यही वजह है कि लौंडा खान साहब की परवाह किये बिना लोगों से ठठोल कर रहा था और जोर-जोर से हंस रहा था। इस हंगामे में गुलाबी जान बार-बार सुर ले रही थी और बार-बार सुर की डोर टूट रही थी। चंदा बाई हिकारत से मुसकराकर अपने उस्तादजी से कानाफूसी कर रही थी।
    फुन्नन मियाँ एकदम से खड़े हो गये। वह उस लौंडे की तरफ बढ़े। वह उनकी तरफ देखकर बड़ी निर्लज्जता से मुसकराया। फुन्नन मियां ने उसे एक ऐसा तमाचा मारा कि उस्तादजी के बायें की गमक दब गयी। महफिल में सन्नाटा छा गया। फुन्नन मियां फिर अपनी जगह लौट आये। सारी महफिल की निगाहें खान साहब पर जमी हुईं थीं।
    ‘‘वह गालिब की ग़जल गा रही थी, भाई।’’ फुन्नन मियां ने कहा। वैसे वह अलिफ-बे नहीं जानते थे, मगर अनीस और वहीद के मर्सियों ही की तरह उन्हें मोमिन, गालिब और दाग के अनगनित शेर याद थे। वह गालिब की हतक बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। खान साहब की समझ में भी यह बात आ गयी। उन्होंने फिर कुछ नहीं कहा। बाद में थानेदार शिवधन्नी सिंह और उत्तर-पट्टी के जमींदार ने खान साहब को चढ़ाने की पूरी कोशिश की कि फुन्नन मियाँ का थप्पड़ उस चमार के लौंडे के मुँह पर नहीं पड़ा था, बल्कि उनके मुहं पर पड़ा था, मगर खान साहब ने उन लोगों की बात मानने से इन्कार कर दिया।
    कहते हैं कि उस लौंडे का मंुह हफ्तों सेंका गया, लेकिन सूजन न गयी। जब वह अच्छा हुआ तो खान साहब ने उसे बड़ी भयानक सजा दी। उन्होंने उसे किसी काम से खलवत में भेजा। उस खलवत में सिराजुद्दीन खां पहलवान और उनके आठ पट्ठे पहले से मौजूद थे। वे उसी की राह देख रहे थे। दूसरे दिन खान साहब ने उस लौंडे को उसकी टोली समेत गांव से निकाल दिया और फिर वह अरीब-करीब के किसी गाॅव में भी नहीं देखा गया....
    लेकिन ये बातें तो और लोगों के साथ गुलाबी जान ने बाद में सुनीं। उस दिन तो बस इतना हुआ कि तमाचा खाकर लौंडा सन्न खींच गया। वह सोच भी नहीं सकता था कि फुन्नन मियाँ जैसा मामूली जमींदार भरी महफिल में उस पर हाथ भी उठा सकता है। मगर जो बात उस लौंडे को नहीं मालूम थी वह यह थी कि फुन्नन मियाँ लाख छोटे जमींदार सही, मगर सय्यद थे। और खान साहब के पुरखे सय्यद नूरूद्दीन शहीद के साथ आये थे। यह बात न फुन्न मियाँ भूले थे और न अशरफुल्ला खाँ ‘‘अशरफ’’- जो ‘नूह’ नारवी के शागिर्द थे। इसलिए जब फुन्नन मियाँ ने खान साहब को यह बताया कि गुलाबी जान गालिब की गजल गा रही थी, तो फिर कहने या सुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया।

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