Sunday, March 4, 2012

रंगा- रंग होली पर हार्दिक शुभकामनायें . 

Friday, March 2, 2012

झूठों को सजा दो


लखनऊ। चुनाव 2012 में झूठे हलफनामंे दाखिल करके जो उम्मीदवार मैदान में हैं, क्या उनका चुनाव निरस्त होगा? क्या इन उम्मीदवारों ने झूठ बोलकर चुनाव आयोग, जिला प्रशासन, मतदाताओं को गुमराह नहीं किया? क्या यह कानूनन अपराध की श्रेणी में नहीं आता? यदि झूठा हलफनामा देना अपराध है तो इन झूठों पर कानून सम्मत कार्रवाई कब होगी? यह सारे सवाल उप्र के सभी नागरिकों को भले ही संजीदगी से बेचैन न कर रहे हों, लेकिन जिन्हें सियासत की समझ है, कानून का जो लोग सम्मान करते हैं या जो लोग सामाजिक राजनैतिक व आर्थिक भ्रष्टाचार के खिलाफ जागरूक हैं, जनजागरण के प्रति सचेत हैं और देशभक्त हैं उनको यह झूठ लगातार परेशान कर रहा है।
राजधानी लखनऊ से छपने और काफी बड़ी आबादी में पढ़े जाने वाले एक हिन्दी दैनिक ने अकेेले लखनऊ के 36 उम्मीदवारों के हलफनामों की पड़ताल की उनमें 32 प्रत्याशियों के हलफनामे झूठे निकले। किसी ने उम्र छिपाई तो किसी ने संपत्ति, कोई व्यवसाय छिपा गया तो कोई आभूषणों की कीमत। अखबार ने मय सुबूतों के अपने कई अंकों के पहले पेज पर इन झूठे हलफनामों की असलियत को छापा है। कमोबेश यही हाल समूचे उप्र में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों का है। क्या इन्हीं ‘झूठो’ से सूबे की तरक्की की उम्मीद की जायेगी? यही झूठे विधानसभा में बैठकर कानून बनाएंगे? मजे की बात है कि इन ‘झूठों’ के आकाओं (राजनैतिक दलों के मुखिया) ने भी इस पर कोई बात करने की पहल नहीं की और न ही समझदार नागरिकों ने ‘अन्ना’ के बहाने से कोई आवाज बुलंद की?
‘प्रियंका’ कानून के जिम्मेदारों/रखवालों से मांग करती है कि इन झूठों के चुनाव निरस्त किये जाएं और इन्हें धारा 420 सहित अन्य कानून  सम्मत धाराओं के तहत जेल भेजा जाए।

ए फाॅर एप्पल गलत जवाब


लखनऊ। सही जवाब है, एडमिशन, एडवांस फीस। जी हां, अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई का दावा करने वाले गली-गली खुले क्राइस्ट/विसडम/सेन्ट फ्रांसिस/मान्टेसरी स्कूलों में बच्चों के दाखिले का मौसम है। इन नकली अंग्रेजों का शिकार ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये शहर में कमाने वालों, सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने वालों से लेकर खोमचे वालों, सफाई कर्मियों तक के परिवार हो रहे हैं। इन परिवारों की ललक मध्यम वर्गीय परिवारांें के बच्चों को देखकर इधर काफी बढ़ी है। इसी का फायदा दो कमरों वाले अंग्रेजी स्कूल उठा रहे हैं। इनकी फीस तीन-पांच से सात सौ रूपए प्रतिमाह बताई जाती है। इसके अलावा वर्दी-जूता, बस्ता, किताबें-कापियां और आये दिन मैंगो डे, रोज डे, फाडर्स-मदर्स डे, टीचर्स डे, बर्थ डे या फ्रेंड्स डे आदि का खर्चा अलग। पैरेंट-टीचर्स मीटिग के नाम पर भी ठगी के अनोखे तरीके अपनाये जाते हैं।
दरअसल अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने में अभिभावक कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। पिछले दस सालों में लोगों में जहां शिक्षा के प्रति जागरूकता पैदा हुई है, वहीं स्कूल को दुकान में बदलने का काम भी बड़ी तेजी से हुआ। इसकी प्रेरणां सिटी माॅटेसरी स्कूल से लेकर कई अच्छे स्कूल जहां खुले, वहीं हर किलोमीटर पर दुकानें या माॅल जैसे अंग्रेजियत का बखान करते स्कूल भी खुल गये। इन ‘ब्लैंक अंग्रेजों’ के यहां कुत्ता, बिल्ली, बतख, मुर्गी, कबूतर, घोड़ा, गधा, गाय तक पाले गये हैं। इन जानवरों के आकर्षण से छोटे-छोटे बच्चों को बहलाया जाता है। अभिभावक भी झूले, कम्प्यूटर, सुंदर आधुनिक मास्टरनी को गिटपिट-गिटपिट फर्राटे से ‘एक्चुअली...वी...केयर.. ओह.. डोंट... चिंता.... आपका ... बेबी... इज.. सेफ... अई... विल...’ बोलते देख अभिभूत हो जाते हैं। उससे भी मजेदार बात है इनक स्कूलों का घोर जातिवादी होना। हिन्दू सवर्ण मालिकों के यहां ‘ऊँ भूर्भुवः....’ से लेकर ‘वंदे मातरम्..’, मुसलमान, दलित या अन्य मालिकों के यहां अंग्रेजी की प्रेयर होती हैं। इसी तरह यहां होने वाली छुट्टियों का भी हाल है। जहां इन स्कूल के मालिकों ने अपनी जेबें भरने का इंतजाम किया है, वहीं चाहे-अनचाहे साक्षारता की दर मंे भारी इजाफा किया हैं आज उप्र में साक्षरता दर 80.2 प्रतिशत है। लखनऊ में 88.5 प्रतिशत है।
ऐसा नहीं है कि सरकार मुंह ढककर सो रही है। सूबे मंे एक लाख पांच हजार पांच सौ पांच प्राथमिक और 42 हजार उच्च प्राथमिक स्कूल है। इसके बाद भी हर तीन सौ की आबादी पर एक प्राथमिक स्कूल खोलने का फैसला उप्र सरकार ले चुकी है। शिक्षा के अधिकार के तहत इन स्कूलों का जायजा भी लिया जा रहा है। जहां अध्यापक, प्रधानाध्यापक, पुस्तकालय नहीं हैं या अनिवार्य शिक्षा के तहत मिलने वाली सुविधाएं नहीं है, वहां उन्हें दूर करने के प्रयास भी जारी हैं। मगर मिड डे मील में होने वाली अनियमितताओं से अधिक बडे अपराधों की ओर गंभीरता से नहीं ध्यान दिया जा रहा है। बच्चों से शौचालय साफ कराये जाते हैं, उनका यौन शोषण तक होने के समाचार हैं। ऐसे में अभिभावकों का सरकारी स्कूलों से दूर होना स्वाभाविक है। आउट आॅफ स्कूल बच्चों की राज्य स्तरीय परियोजना के मुताबिक इसका अकेला उदाहरण राजधानी लखनऊ हैं जहां के 5.5 हजार से अधिक बच्चे आज तक स्कूल गये ही नहीं।
बहरहाल ‘ब्लैक हिंग्लिश मीडियम’ स्कूलों की चांदी काटने का मौसम है। इन्हें कमाई के साथ गुरूकुल परम्परा पर एक निगाह अवश्य डालना चाहिए।

यह है सामाजिक भ्रष्टाचार


भारतवासी फेंक देते हैं 883.3 करोड़ किलो जूठन!
लखनऊ। रोटी और भूख का हल्ला मचानेवाले लोगों की थाली से रोजमर्रा फेंकी जाने वाली जूठन से देश के 35 करोड़ गरीबों का पेट लगभग पूरे साल तक भरा जा सकता है। हम बड़े गर्व से अपनी थाली में जूठन छोड़कर पेट पर हाथ फेरते हुए डकार लेते हैं। उस समय भूख से बेहाल लोगों का ख्याल तक नहीं आता। जूठन से जानवरों, पक्षियों का पेट बेशक भरता है, लेकिन अधिकतर जूठन के नाम पर फेंका जाने वाला खाद्यान्न सड़कर बेकार हो जाता है।
शिवरात्रि बीते हुए महज दस दिन हुए है। पर्व के नाम पर करोड़ों लीटर दूध शिवलिंग पर चढ़ा के नालियों में बहा दिया गया। अकेले लखनऊ में 1 लाख 0 हजार लीटर दूध शिव भक्तों ने शिवमंदिरों मंे चढ़ाया। इसमें 30 हजार लीटर पराग डेरी ने बेचा। इस दूध से कुपोषण के शिकार बच्चों की जिंदगी बचाई जा सकती थी। इसी तरह हम पूजा-पाठ के नाम पर चावल (अक्षत), घी, तेल, फल, नारियल और अनाज बर्बाद कर देते हैं। भगवान के नाम पर फेंके जाने वाले खाद्यान्न से इंसानों का जीवन बचाया जा सकता है। यही नहीं हम खाना पकाने और खाने के बाद बेहद लापरवाही से बर्तनों में काफी मात्रा में अनाज छोड़ देते हैं, जो बर्तनो को साफ करते समय नालियों में बह जाता है। नालियों में सड़कर यही अनाज संक्रामक रोगों का जनक बनता है। यही हाल फल, सब्जी, दूध व अनाज मण्डियों में होता है। ढाबों, रेस्टोरेन्ट-होटलों, हलवाई व छोटे ठेले-खोमचों के माध्यमों से टनों खाद्यान्न सड़ने के लिए फेंका जाता है। शादी-ब्याह व अन्य दावतों में जूठन का ढेर गांव-शहर कहीं भी देखा जा सकता है। गौरतलब है कि नवंबर 11 से मार्च 12 तक 46 विवाह मुहूर्त हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक एक जिले मंे एक लग्न पर यदि पांच सौ शादियां होती हैं तो देश भर में होने वाले शादी के समारोह की संख्या क्या होगी और उनमें कितना खाद्यान्न भोजन मंे और कितना बारात के स्वागत (द्वारचार में अक्षत/आटे के दीप व चित्रों) में बर्बाद होगा? इसके अलावा मुसलमानों, सिखों समेत अन्य जातियों के शादी विवाह समारोहों में भी खाद्यानों की बर्बादी होती है। क्या इसका सर्वे करके आंकड़े नहीं निकाले जाने चाहिए?
अनाज के साथ मांस, मछली, अंडा आदि की मंडियों, कीलघरों (स्लाटर हाउस) व बस्तियों में बिखरी दुकानों के आस-पास इसकी बर्बादी देखी जा सकती है। हां कुत्ते-बिल्लियों का पेट तो भरता है, लेकिन दुर्गंध से रोगों का जन्म होता है और कुत्ते-इंसानों के टकराव से दुघर्टनाएं होती हैं। कई बार खाली वैक्सीन के इंजेक्शनों से काम नहीं चलता बल्कि लाखों रूपए इलाज में खर्च हो जाते हैं। कीलघरों के पास मांस के लालच में मंडराते कुत्तों के गिरोह बाइक/स्कूटर, साइकिल सवारों को दौड़ा लेते हैं। हड़बड़ाया, भयभीत आदमी जान बचाने के चक्कर में इन आक्रामक कुत्तों का शिकार होकर हाथ-पैर तुड़वाने के साथ अपने शरीर का सौ-पचास ग्राम मांस तक इन्हें खिला देता है।
धर्म और पुण्य कमाने के नाम पर हमारे देश के मदिरों, मस्जिदों, दरगाहों, गुरूद्वारों और समय-समय पर होने वाले (दुर्गापूजा, पितृपक्ष, सावन, एकादशी, जन्माष्टमी, बड़ा मंगल, मोहर्रम, ईद, बकरीद, ग्यारहवीं, मीलाद व जन्मोत्सवों आदि) आयोजनों में लंगर, भंडारे की धूम होती है। इनमें भी गरीबों-फकीरों का या जाति बाहर के लोगों का प्रवेश वर्जित रहता है, लेकिन जूठन टनों वजन के हिसाब से खुली सड़क पर फेंक दी जाती है। इससे भी आगे अपने दैनिक क्रियाकलापों में कुत्ता, गाय, सांड, कौवा-गौरइया, बन्दर के नाम पर खाद्यान्न खुले में (यहां तक चैराहों पर) फेंक देते हैं। इससे इन जानवरों-पक्षियों का पेट तो कम भरता है, बर्बादी अधिक होती है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, गुजरात से बंगाल तक सड़कों के तिराहों-चैराहों पर कटा नींबू, चावल, टूटा हुआ नारियल, मिठाई, पूरी-कचैरी, दाल-भात या यूं कहंे पकवानों भरी थाली रखी मिल जाएगी। इन पकवानों को खानेवाले न के बराबर होते हैं। हां, इन्हें वाहनों के जरिये हम आप बड़े शान से रौंदकर नष्ट कर देते हैं। इससे भी बुरा हाल रेलगाडि़यों, बसों, हवाई यात्राओं के दौरान खाद्यान्न की बर्बादी को देखा जा सकता है। सरकारी योजना मिड-डे-मील मे खाद्यान्नों की बर्बादी किसी से भी छुपी नहीं है।
मजे की बात है, यह उस मुल्क की हकीकत है जहां कुपोषण से रोजाना लगभग 3 हजार बच्चे मरते हैं। जो विश्व भूख सूचकांक (जीएचआई) 2008 की रैंकिंग में 88 देशों में 66वें स्थान पर है। और मानव विकास की ताजा रिपोर्ट में 169 देशों में 119 वे स्थान पर है। सरकारी आंकड़ों में 6 करोड़ 52 लाख परिवार गरीबी की रेखा के नीचे जीवन गुजार रहे हैं। हालांकि तंेदुलकर समिति इनकी संख्या 8.1 करोड़ बताती हैं। सच कुछ भी हो, क्या हम इस ‘जूठन’ से अपने भूखे देशवासियों का पेट नहीं भर सकते? क्या गंभीरता से कोई एनजीओ या समाजसेवी इस सामाजिक भ्रष्टाचार के मुखलिफ जनजागरण अभियान चलाने की कोशिश करेगा? क्या हम ‘भूखों’ का पेट भरने के लिए अन्न/ खाद्यान्न की बर्बाद न करने का संकल्प लेंगे?
सरकार के भरोसे केवल भोजन की गारंटी के कानून बनते हैं या फिर 60 करोड़ गरीबों को मुफ्त भोजन कराने की जगह 4.6 लाख करोड़ रूपयों का राजस्व उद्योगपतियों को माफ कर दिया जाता है। इसी तरह देश के राजनैतिक दल महंगाई के खिलाफ महिलाओं के हाथों में ‘रोटी’ थमाकर सड़कों पर धरना-प्रदर्शन आयोजित करते है। जो खाई-पी-अघाई महिलाएं सड़कों पर हलक फाड़कर हर जोर जुलुम की टक्कर पे..’ नारा लगाती हैं वे ही ‘जूठन’ फेंकने में सबसे आगे होती है। यहां बताते चलें कि अकेले वर्ष 2010 में 10,688 लाख टन खाद्यान फूड काॅरपोरेशन आॅफ इंडिया (एफसीआई) के गोदामों में सड़ गया। इस अनाज से दस साल तक 6 लाख लोगों का पेट भरा जा सकता था। सरकार द्वारा जारी तमाम रिपोर्टें बताती हैं कि वर्ष 1997 से 2007 (दस साल) में देश भर के एफसीआई के गोदामों में 121.36 लाख टन खाद्यान्न सड़ा पाया गया। आंकड़ों की जुबान में बात करंे तो देश में पिछले साल 24.47 करोड़ टन खाद्यान्न पैदा हुआ था। सच यह है कि हमारे पास खाद्यान्न की कमी नहीं है। हम लापरवाह और खुदगर्ज हैं। धर्म-कर्म में लाभ-हानि और व्यवहार में स्वार्थ को अपनाकर अपने ही देशवासियों को भूखा मारने का अपराध कर रहे हैं। इस अपराध के मुखालिफ आन्दोलन खड़ा करने के लिए हम आगे बढ़कर पहल करेंगे?
क्या कहते हैं आंकड़े

  • देश में 2010-11 में 24.47 करोड़ टन खाद्यान्न की पैदावार हुई 2011-12 में 25 करोड़ 4.2 लाख टन खाद्यान्न उत्पादन की संभावना है।
  • एग्रो कमोडिटी का कारोबार लगभग 15 बिलियन डाॅलर है। जिसके 2014 तक 18 बिलियन डाॅलर तक पहुंचने का अनुमान है।
  • 2010 में देशभर के एफसीआई के गोदामों में 10,688 टन खाद्यान्न सड़ गया। पिछले दस सालों (1997-2007) में देश के एफसीआई के गोदामोें में 121.36 लाख टन खाद्यान्न सड़ गया।
  • भारत ग्लोबल हंगर इन्डेक्स (विश्व भूख सूचकांक) 2008 की रैंकिंग में 88 देशों के बीच 66वें स्थान पर है। 2011 के जीएफसी इंडेक्स में एशिया में 6 देशों में दूसरे स्थान पर 23.7 अंक पर है। मानव विकास की ताजा रिपोर्ट में हम विश्व के 169 देशों में 119वें स्थान पर है।
  • कुपोषण से होने वाली बीमारियों से लगभग 3000 बच्चे रोज मरते हैं।
  • उत्तर प्रदेश में कुल कृषि क्षेत्र 2011 में 166 लाख हेक्टेयर है। 2011 में 475 लाख टन अनाज की पैदावार हुई, जिसमें गेहूं 301 लाख टन पैदा हुआ। फल उत्पादन 5313357 टन और सब्जियों का उत्पादन 20696129 टन हुआ।
  • देश में भुखमरी सूचकांक में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार सहित संपन्न गुजरात राज्य भी पांचवे स्थान पर है।
  • राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार बीते 16 वर्षों में 256913 किसानों ने विभिन्न कारणों से आत्महत्या की है।
  • योजना आयोग के अनुसार अंत्योदय योजना का लाभ उठा रहे बीपीएल परिवारों की संख्या 2.4 करोड़ है। राज्यों के अनुसार 6.52 से 10.8 करोड़ है। उप्र में 30 लाख बीपीएल परिवार हैं।
  • केन्द्र सरकार राज्यों को बीपीएल दर पर 469.57 टन अनाज दे रही है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दिये गये एक हलफनामें के अनुसार 25 लाख टन अतिरिक्त अनाज बीपीएल दरों पर राज्यों को दिया जाएगा।
  • यदि 1 आदमी (बच्चा/औरत) प्रतिदिन औसतन 20 ग्राम खाद्यान्न की जूठन फेंकता है तो साल भर में 7 किलो 300 ग्राम खाद्यान्न नष्ट होगा इसे 121 करोड़ की आबादी से गुणां किया जाय तो 883.3 करोड़ किलो निकलता है। (यह एक अनुमान है)
  • भारत हर साल सामाजिक उत्थान और स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रम चलाने के लिए करोड़ों पांउड्स की विदेशी मदद लेता है। अकेले ब्रिटेन से 28 करोड़ पाउंड्स मिलते हैं।

दिल्ली से दुबई तक पीसी


लखनऊ। दिल्ली और दुबई की जमीन पर अपने दोनों पांव मजबूती से जमाये पोंटी चड्ढा के साम्राज्य पर छापेमारी करने वाले आयकर अधिकारी का तबादला हुए तेरह दिन बीत गए। चुनावी सरगर्मी में इस खबर को अखबार के अंदर वाले पेज पर छोटी सी जगह में निपटा दिया गया। केन्द्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने बोर्ड अध्यक्ष लक्ष्मण दास को मुंबई क्षेत्र में सीमित किया, तो एस.एस. राणा को जांच कार्य से हटा दिया, उनकी जगह के. माधवन नायर आ गये। दो नए सदस्य सुधा शर्मा, एस.सी. सैनी शामिल किये गये हैं। इन तबादलों को पोंटी के यहां छापेमारी के लीक होने से जोड़ा जा रहा है। गौरतलब है चड्ढा के ठिकानांे से करोड़ों की नकदी मिलने का हल्ला होते ही राजनैतिक दलों में मातम मनाने जैसा माहौल हो गया था।
पांेटी चड्ढा को बसपा सुप्रीमों मायावती का करीबी बताया जाता है, जबकि समाजवादी पार्टी की साढ़े तीन साल की सरकार में पोंटी मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ चलता दिखाई दिया था। इससे भी पहले भाजपा सरकार के मुखिया रहे कल्याण सिंह के भी बेहद करीब रहा है पोंटी चड्ढा। इन तीन नामों से आगे पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, झारखण्ड, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों से उसकी करीबी के चर्चे रहे हैं। दिल्ली के सियासी इलाकों मंे भी उसकी गहरी पैठ बताई जाती है। भले ही ‘फोब्र्स’ पत्रिका की सूची के खरबपतियों और भारतीय अखबारों के बड़े नामों की फेहरिश्त में पोंटी का नाम दर्ज न हो, लेकिन इस खरबपति ने रियलस्टेट, शराब, फिल्म, चीनी मिल और मीडिया जैसे क्षेत्रों में अपना पैर मजबूती से जमा लिया है।
शराब के कारोबार में माया सरकार के वजनदार मंत्री नसीमुद्दीन के साथ मिलकर ढाई लाख करोड़ कमाये तो अन्य राज्यों से भी उसके सिंडीकेट ने अरबों कमाए। यही नहीं शराब के कारोबारी जायसवालों ने पोंटी के सिंडीकेट से जहां भी हाथ नहीं मिलाया वहां वे शराब के धंधे से ही बाहर हो गये। बिहार, झारखण्ड, पंजाब, हरियाणा में पोंटी का शराब सिंडीकेट सबसे तेज गति से भाग रहा है। आज पोंटी का नाम उत्तर भारत के बड़े फिल्म वितरकों की कतार में नंबर एक पर है। फिल्म ‘अग्निपथ’ जो हाल ही में रिलीज हुई है और जिसने पहले हफ्ते की कमाई के सारे पिछले रेकाड तोड़ दिये, के वितरण के अधिकार पोंटी की कंपनी के ही पास हैं।
इसी तरह रियलएस्टेट के जमे जमाये कारोबारियों को भी पांेटी से ईष्र्या है क्योंकि पोंटी जब जमीन के कारोबार में उतरा तो कई पुराने कारोबारियों को पीछे छोड़ गया। नोएडा सिटी सेंटर की सबसे बड़ी जमीन का सौदा पोंटी चड्ढा की कंपनी वेब इन्फ्राटेक ने किया। 405 एकड़ जमीन उसने 6570 करोड़ रूपये में खरीदी जिसके लिए उसने 350 करोड़ की स्टैम्प ड्यूटी जमा करवाई। आज उसके पास इतनी जमीन है कि वह एक नया गाजियाबाद बसा सकता है।
गाजियाबाद डेवलपमेंट अथाॅरिटी ने पिछले 35 सालों में अपने लिए जितनी जमीन नहीं जुटाई होगी उससे ज्यादा जमीन पोंटी चड्ढा की कंपनी के पास है। बताते हैं कि पांेंटी करीब दस हजार एकड़ जमीन का मालिक है, जबकि गाजियाबाद डेवलपमेंट अथाॅरिटी के पास चार हजार एकड़ जमीन ही है। पोंटी की ये जमीनें गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, दिल्ली, लखनऊ, जयपुर के अलावा पंजाब और उत्तराखण्ड तक फैली हुई हैं। मल्टीप्लेक्स और माॅल के कारोबार में भी उसने कईयों को पछाड़ा है। यह सब करते हुए उसने अपना पुश्तैनी धंधा कभी नहीं छोड़ा जो कि गन्ना पेराई से जुड़ा हुआ था। वह जब गन्ने के कारोबार में उतरा तो उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों का सबसे चर्चित घोटाला सामने आया। जो चीनी मिलें ढाई हजार करोड़ कीमत वाली थीं उसे ढाई सौ करोड़ रूपये में उसने हासिल कर लिया। इसी तरह सोने के कारोबार में भी पोंटी की पौ बारह है। एक खबरिया चैनल और गाजियाबाद के एक अखबार में भी उसका पैसा लगा बताते हैं।
पिछले पांच सालों में पोंटी चड्ढा का कारोबार बेहद तीव्र गति से आगे बढ़ा है। 2007 में जब उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री मायावती ने शपथ ली तब से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश में पोंटी चड्ढा ने जो चाहा वह पाया है। यह मायावती ही हैं जिन्हांेने पोंटी को पूरे प्रदेश का शराब कारोबार सौंप दिया। इससे पहले प्रदेश में शराब कारोबार के ठेके कई व्यापारियों को दिये जाते थे लेकिन मायावती ने अकेले पोंटी चड्ढा को सारा ठेका दे दिया। इसके बाद पोंटी ने अपना सिंडिकेट बनाकर मनमानी कमाई की है। कमाई के साथ उसके रसूखों का ही दबदबा है कि जहां छापेमारी में करोड़ों बरामद होने का हल्ला था, वहीं अब टाल-मटोल के बयान आ रहे हैं।
सूत्र बताते हैं उप्र, उत्तराखण्ड और पंजाब विधानसभाई चुनावों में सपा, बसपा के अलावा भाजपा और कांग्रेस को भी भरपूर चंदा देने वालों में पोंटी का नाम अगली कतार में है। पोंटी के दोस्तों में प्रकाश सिंह बादल, कलराज मिश्र, कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे आला दर्जे के राजनैतिक नामों की एक लम्बी फेहरिश्त है। इस दोस्ती से हुए लाभ और चंद सालों में खड़े किये गये साम्राज्य की सारी सच्चाई को जानने के लिए लखनऊ की नई सरकार और दिल्ली की पुरानी सरकार पीसी यानी पोंटी चड्ढा पर कानून का शिकंजा कसेगी?


एक खरब का सट्टा
प्रियंका संवाददाता
लखनऊ। शेयर बाजार और चुनावी गलियारों में भले ही उतार चढ़ाव का माहौल हो लेकिन सटोरियों की फड़ पर 1 खरब का दांव फैला है। सट्टा कारोबारियों की माने तो कौन कहां जीतेगा, किस दल की कितनी सीटें आएंगी या कौन होगा मुख्यमंत्री? किस दल की सरकार बनेगी या राष्ट्रपति शासन लगेगा? इन सब पर बंद कमरों से लेकर आॅन लाइन दांव लग रहे हैं। सपा पर जो लोग दंाव लगा चुके थे, वहीं दोबारा कांग्रेस के उम्मीदवारों पर एक का दो भाव लगाने लगे हैं। भाजपा पर भी सटोरिये भरोसा करने लगे हैं। बहुतेरे खुला सट्टा लग रहे हैं यानी कौन पार्टी कितनी सीटें जीतेगी पर करोड़ों लगे हैं। सटोरियों के पास किसकी सरकार बन रही है इसके भी आंकड़े है।
राजनैतिक दलों के छुटभय्यों से लेकर करोड़ों मतदाताओं को भले ही सट्टा कारोबार की पूरी जानकारी न हो लेकिन शहर दर शहर सटोरियों के सेंटर खुले हैं। मोबाइल सेंटरों पर भी बुकिंग जारी हैं यह सारा खेल सुनियोजित तरीके से पूरे सूबे में चल रहा है। सूत्र बताते हैं कि जनवरी की शुरूआत में ही लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, गोरखपुर, कानपुर के सटोरियों ने करोड़ों रूपयों का कारोबार कर डाला था। सीधे दांव लगाना बड़ा मुश्किल है। दलालों के माध्यम से यह संभव है। लखनऊ में एक सांसद के चहेते और पुलिस की लिस्ट में ‘सट्टा किंग’ के नाम से दर्ज के नेटवर्क मंे सूबे के आधे से अधिक जिलों में सट्टा कारोबार फल-फूल रहा है। बताते है जो लोग कभी लाॅटरी कारोबार से जुड़े थे उन लोगों की बड़ी संख्या इस धंधे में लगी है। मुंबई, कोलकाता की तर्ज पर बाकायदा सट्टा काॅल सेंटर चलाए जा रहे हैं जहां हजारों लड़कियां काम कर रही हैं। मजे की बात है कि उन लड़कियों को खुद नहीं मालूम कि वे किसी अवैध धंधे से जुड़ी हैं।
उम्मीदवारों पर एक का डेढ़ का भाव आम है। सपा, बसपा के भाव में तीसरे चरण के मतदान के बाद गिरावट आई है। पहले कांग्रेस/भाजपा का भाव एक के बदले डेढ़-दो का था अब कांग्रसे पर एक का पांच भाजपा एक का दो-तीन का भाव खुला है। इसी तरह सरकार बनाने के भावों में कांग्रेस का भाव ऊँचा हो गया है। यहां बताते चलें कि सट्टा बाजार में भारतीय क्रिकेट टीम में आये उतार चढ़ाव के साथ विदेशी जमीन पर पर हारने श्रीलंका से वनडे मैंच ड्रा हो जाने के बाद रन, विकेट और हर गेंद पर पैसा लगाने वाले चुनावी खेल में बढ़-चढ़कर दांव लगा रहे हैं। सटोरियों की जमात में जहां जीतने की ललक है, वहीं सट्टा कारोबार को शेयर बाजार की तरह चलाये रखने की भी दृढ़ इच्छा है। यही वजह है कि इससे जुड़े लगभग 25 लाख लोग पुलिस व प्रशासन के भीतर तक अपनी जड़े जमायें हैं।

  • उप्र विधानसभा चुनाव 2012 के खर्च का अनुमान
  • 6.50 अरब का खर्च राजनैतिक दल और उम्मीदवार लिखा पढ़ी में करेंगे।
  • आयकर के अनुसार एक दलीय प्रत्याशी औसतन 1.25 करोड़ कालाधन खर्च करेगा, 16 लाख वैध वाला छोड़कर। चार प्रमुख दलों के उम्मीदवारों का खर्च होगा 05 करोड़। इसी को आधार बनाकर जोड़ा गया तो प्रदेश में 1612 उम्मीदवारों पर यही खर्च 2015 करोड़ आता हैं। आयकर अधिकारियों ने 25 अरब काला धन खर्च होने का अनुमान लगाया है।
  • आयोग और प्रशासनिक मशीनरी पर खर्च का अनुमान भी 4 हजार करोड़ का है।
  • इसी में टिकट खरीदने, नोट फाॅर वोट, चार प्रमुख दलों से अलग प्रत्याशियों का खर्च, राजनैतिक दलों का खर्च, आॅनलाइन खर्च भी जोड़ दिया जाए तो करीब 3 हजार करोड़ से ऊपर आता है।
  • सट्टा बाजार में 403 सीटों पर चार प्रमुख दलों पर लगी रकम लगातार बढ़ रही है। इसे 25 लाख लोगों के जरिये एक का दस तक ले जाने का अनुमान लगाया जा रहा है।

आदमी के भरोसे में है खबरपालिका


सच लिखुंगा तो सियासी मुहल्ले के जांबाज हाथ काटे लेंगे। झूठ लिखुंगा तो अपनी ही आत्मा धिक्कारेगी। ऐसी जद्दोजहद से कई बार आमना-सामना हुआ। चार दशक से अधिक खबरपालिका के गलियारों में गुजारने के बाद भी दाल-भात-तरकारी का रोना, गरीबी का बांझ होना और नैतिकात की सड़ती लाश पर राम नाम सत्य है का जयकारा लगाने का कर्मकांड जस का तस है। पिछले दिनों सूबे के बेहद पिछड़े इलाके सोनभद्र जिले के राबर्ट्सगंज मंे पत्रकार बिरादरी के एक आयोजन में जाना हुआ। पहली बार किसी जिले में ग्यारह पत्रकार संगठनों के साझा मंच पर बैठने, बोलने, बतियाने, समझने, सुनने, सीखने और गुनने का मौका मिला। जल, जंगल, जमीन के झंझट से लेकर खबरपालिका में भरोसे के संकट पर लगातार तीन घंटे तक बातें हुईं। वहीं मुझे चेतावनी जैसे अंदाज में जानने-सुनने को मिला पत्रकारिता पांचवा वेद है, चैथा खम्भा है। मुझे अफसोस भी हुआ और भरोसे के लुटेरों से गाफिल जमात को नैतिकता की अंतहीन सड़क पर बिखरे पाखण्डी कंकड़ों पर दौड़ते देखने की पीड़ा भी हुई।
सच तो यह है कि ‘भरोसे’ का कहीं कोई संकट नहीं है। भरोसा कहीं नहीं टूटा है। यह तो बाजार का खड़ा किया गया छद्म है। क्योंकि इसकी आड़ मंे खबरपालिका को बदनाम किया जा सके, उसमें सेंध लगाई जा सके, उसके चरित्र पर उंगलियां उठाई जा सकें। ऐसा हो भी रहा है। दरअसल बाजार के देवताओं की नजर में आदमी सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता है। सो उपभोक्ता को भरमारकर लूटना उसका लक्ष्य है और उसके इस कुकर्म में सत्ता के स्वामियों की बराबर की साझेदारी है। तभी तो पढ़ाई, दवाई, सफाई व रोजमर्रा की आवश्यकताओं से लेकर लाशों और उनके ताबूतों के घपलों-घोटालों में रावणी ठहाके चारों ओर शोर मचाए हैं। ऐसे में धोबी द्वारा माता सीता पर लगाए झूठे लांक्षन में संदेह की तलाश बेमानी है। सो निष्पक्ष, राष्ट्रीय, पेड न्यूज, पीत-पत्रकारिता या पूर्वजों की गाथा से हटकर आज की जरूरतों पर मजबूती से कदम बढ़ाने की जरूरत है। अक्षरों से खेलना और अक्षरों को खौलाना दोनों अलग एकदम अलग तरह का बाजार खड़ा करते हैं। इसीलिए बाजार के साथ, सत्ता के साथ खबरपालिका को भी मौका-बे-मौका बदलना पड़ेगा। बाजार के अर्थशास्त्र से तालमेल -बिठाने होंगे लेकिन अपनी मां कलम का दामन थामे हुए। ऐसा हर युग में हुआ है और होता रहेगा।
हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह सम्पादकाचार्य पं0 दुलारेलाल भार्गव ने अंग्रेजी, उर्दू और फारसी की फिरंगी-नवाबी तरबियत में डूबे लखनऊ में सन् 1924 में ‘माधुरी, ‘सुधा’ जैसी हिन्दी की पत्रिकाआंे व गंगा-पुस्तक-माला जैसा प्रकाशन खड़ा करके ‘दुलारे-युग’ का निर्माण कया था। वह नवाबों, राय बहादुरों, ताल्लुकेदारों के अंग्रेज हाकिमों की कोठियों पर सलाम बजाने का जमाना था। तब सच को सरेआम फांसी दिये जाने का चलन था। फिर भी हिन्दी पुत्र ने भारतीय मानस को उच्चकोटि के साहित्य, सूचना और शिक्षा से सराबोर कर दिया। बस ‘दुलारे युग’ के पन्ने पलट कर प्रेरणां लेने भर से ‘भरोसे’ और ‘सच’ के संकट से उबरने का रास्ता मिल जाता है। मुझे चवालीस बरस पहले उस ‘कवि-कुटरी’ में माथा टेकने का मौका मिला था, जहां से हिन्दी के सैकड़ों दिग्गज नाम निकले थे। हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य के उस गुरूकुल में मुझे दीक्षा देते वक्त गुरूवर पं0 दुलारेलाल भार्गव ने समय और सामयिकता का भरपूर अध्ययन कर समाज से सामंजस्य बनाते हुए शब्दों का हलफनामा आदमी की अदालत में दाखिल करने की हिदायत दी थी।
और अंत में इतना ही कि पत्रकार भी इसी समाज की इकाई है। उसकी भी सीमाएं हैं। उसकी भी जरूरतें हैं। उसका भी परिवार है, परिवेश है। उसे भी बदचलन हवाएं गुमराह कर सकती है। बावजूद इसके उसकी हथेली पर सच और भरोसे वाला खरा सिक्का था, है और रहेगा कवि नीरज के शब्दों में कहें तो-
धूप चाहे रंग बदले, डोर और पतंग बदले।
जब तलक जिंदा क़लम है, हम तुम्हें मरने न देंगे।