Sunday, February 6, 2011

लखनऊवों की इबादत है, लखनऊ

लखनऊ से मुझे बेइंतहा प्यार है। इसलिए नहीं कि लखनऊ मेरी मातृभूमि है, कर्मभूमि है, द्दर्मभूमि है। दरअसल लखनऊ के मिजाज में शिष्टता, संस्कार और साहित्य इस कदर रचे बसे हैं कि यहां की जमीन पर पांव धरते ही अजनबी भी आप...आदाब का दामन थाम लेता है। यहां तक शराब के नशे में झूमता हुआ आदमी भी आपसे महज टकरा जाने भर से बोल उठता है, गुस्ताखी माफ हो...!’ गोया लखनऊ बेअदब भी है तो चांदी के शफ्फ़ाफ वर्क में लिपटा हुआ। आज भी जब ‘काले अंग्रेजों’ की ‘कई सितरा’ संस्कृति की नंगई ताजा बनी सड़कों पर उछलती फिर रही है, ‘प्लीज.. अपनी गाड़ी आगे लीजिए या साॅरी.. मैं देख नहीं सका’ जैसे जुम्ले आमतौर पर सुनने को मिल जाते है।
    लखनऊ का ‘ट्रैफिक’ भी यहां की सुबह के नाश्ते में मशहूर जलेबी, कचैरी की तरह गड्ड-मड्ड, मीठा-नमकीन लगता है। आप शहर में लगने वाले ‘जाम’ से जितना निकलना चाहेंगे उतना ही जलेबी की तरह फंसते जाएंगे और किसी दिलजले या झुंझलाए हुए सिपाही के अलंकार से नवाजे जाने के बाद कचैरी की नमकीनियत का स्वाद भी मिलेगा। गो कि लखनऊ की रूह में आप जी.. जनाब बसे हैं, बसे रहेंगे। इनसे आपकी मुलाकात न दिल्ली मंे होगी, न मुंबई में होगी।
    बिरयानी से लेकर तहरी तक, पूरी से लेकर रूमाली रोटी तक, सालन से लेकर तरकारी तक, अलीगंज के बजरंगबली से लेकर चैक से आगे रूमी गेट तक सब लखनऊवा है। जी हां! अमीनाबाद वाले हनुमान मंदिर से निकलते पंडित जी का परसाद बांटना और मोहल्ले की मजिस्जदों से निकलते नमाजियों का बाहर खड़े व माओं की गोद में लिपटे बच्चों पर फूंक डालना भी लखनऊवा ही रहा है। यहां न कोई हिन्दू है, न मुसलमान। शाहमीना शाह, खम्मनपीर बाबा की दरगाह में जुड़ने वाली भीड़ के चेहरों से हिन्दू-मुसलमान छांटना मुमकिन नहीं, तो गली-मुहल्लों में ज्योतिषियों व गंडा-तावीज वाले मौलवियों के यहां जुटनेवाली भीड़ में आसानी से फिरकों की तलाश नहीं की जा सकती।
    बेशक लखनऊ बदल रहा है। नये हुक्मरानों की सोंच लखनऊ की छाती पर पसर रही है, बावजूद इसके समूचे लखनऊ का आसमान गवाह है कि आद्दे-अधूरे कपड़ों में खिलखिलाती युवतियां भी हजरतगंज के हनुमान जी को भले ही ‘हाय हनु’ कहें, लेकिन मंदिर में जाते ही दुपट्टे के अभाव में सिर पर रूमाल रखकर अपने भगवान जी या हनु को प्रणाम ही नहीं करतीं बल्कि मन्नतें भी मांग लेती हैं। इसी तरह ‘कान्वेंट’ शिक्षित भी नमाज की शफ (लाइन) में अल्लाह के आगे सिजदा करता दिखेगा। यह सबका सब लखनऊवा है।
    लखनऊ हमेशा से दुनिया के मानचित्र में पर्यटन, नवाबियत और उत्सवधार्मिता के लिए दर्ज रहा है। यहां के इमामबाड़े, मंदिर, बाजार, पहनावा, मेले, लंगर, नवरात्र, मुहर्रम सबकी अपनी अलग पहचान और शान है। टी.वी., इंटरनेट के जमाने में भी रामलीलाओं का जलवा बरकरार है। कव्वालियों और कवि सम्मेलनों का रूतबा आज भी कायम है।
    चुनांचे लखनऊ की नवाबियत और शायराना तबीयत के साथ चैक में बैठी बड़ी काली माता जी के साथ हजरतगंज में शहानजफ का इमामबाड़ा मौजूद है, तो विधानसभा मार्ग पर सरकारी कामकाज के लिए सचिवालय की इमारत बुलंद है। इसके अलावा कई ऐशगाहों से अलग गोमती किनारे की ठंडी सड़क को हजरतगंज कहा जाता है। हाल ही में इसका कायाकल्पा हो गया है। सो साफगोई से कहूं तो लखनऊ लखनऊवों की इबादत है।

मनोरंजन की प्रयोगशाला में... ‘कुंती’?

लखनऊ। बुद्धू बक्से को बुद्धिमान हुए अरसा हो गया। अब उसे अभिमान भी हो गया है। टेलीविजन इस कदर प्रभावमान है कि उसकी ओर टकटकी लगाए देखते दर्शक बकायदा उससे प्रेरणां और प्रशिक्षण पा रहे हैं। जिसके चलते बाजार भी उत्साहित होकर उछालें भर रहा है। इसके विभिन्न चैनलों पर दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में मनोरंजन से अधिक हिंसा, षड़यंत्र और अश्लीलता के सफल प्रयोग हो रहे हैं। जिसके चलते ब्लड प्रेशर व हृदयघात के रोगियों में खासा इजाफा हो रहा है और मानवदेह के सेक्स उपकरणों का प्रदर्शन खुली सड़कों पर हो रहा है। इससे जहां डाॅक्टरों के यहां हृदय रोगियों की कतार बढ़ती जा रही है, वहीं भारतीय संस्कारों के चीरहरण के साथ शोहदई, सहमति के साथ यौनानंद, बलात्कार, समलैंगिक दोस्ताना व अनैतिक अप्राकृतिक यौन संबंधों वाले अपराधों की बाढ़ से समाज प्रदूषित हो रहा है।
    टेलीविजन के सभी चैनल सामाजिक समस्याओं के नाम पर बेहूदगियों से भरपूर धारावाहिक दिखाने की होड़ लगाए हैं। जी टीवी पर अगले जनम मोहे बिटिया कीजो, पवित्र रिश्ता, कलर्स पर भाग्य विधाता, उतरन, बालिका वधू, न आना इस देश लाडो, तुझसे लागी लगन, एनडीटीवी इमैजिन पर बाबा ऐसा वर ढूंढो, गुनाहों का देवता, बंदिनी जैसे दिखाए जाने वाले धारावाहिकों में लगभग एक जैसे षड़यंत्र सास-बहू के तमाशे, बाल विवाह, विद्दवा विवाह, प्रौढ़ आदमी का बालिका से विवाह, औरतों की खरीदी, बालिका की हत्या, अनैतिक संबंध, लिव इन रिलेशन, तलाक, प्रेमिका या होने वाली पत्नी से बलात्कार, शादी से पहले बच्चा या अनैतिक गर्भ, हत्या के तरीके, अपराध व अपराधियों की प्रयोगशाला मे होते नए-नए प्रयोग होते हैं। विज्ञापनों के जरिए बीच-बीच में सेनेटरी नेपकीन व कंडोम, 72 घंटे वाली गर्भनिरोधक गोली के बहाने पूरी तरह अश्लीलता परोसी जाती है। किट चाॅकलेट का प्रचार दो गिलहारियों की आइ लव यू.. से होता है। काॅमेडी शो के नाम पर द्विअर्थीय संवादों की अदायगी के साथ आधे-अधूरे पारदर्शी कपड़ों में सजी लड़कियों से फूहड़ व अश्लील मजाक होते हैं।
    समाज में तमाम समस्याओं से जूझने वाले एनजीओ के अध्यक्ष सुनील मिश्रा का कहना है, ‘इस तरह के द्दारावाहिक सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रमों में बांधक साबित हो रहे हैं। खासकर औरतों की प्रताड़ना व स्वास्थ्य मामलों में तो बेहद खतरनाक है।’
    मध्यमवर्गीय क्षेत्र में प्रैक्टिस करने वाले डाॅ0 ए0के0 खान कहते हैं, ‘इन सीरियलों में जो भी दिखाया जाता है उसमें अधिकांश असत्य होता है। सेक्स संवाद या अनैतिक संबंधों के कारण युवा-किशोर यौनशक्ति बढ़ाने की दवाएं पूंछने आते हैं। लड़कियां गर्भ गिराने की दवा लेने आती हैं। पांच सालों में इस तरह के मरीजों का आना बढ़ा है। इसके अलावा इन सीरियलों को देखते हुए उत्तेजना के चलते रक्तचाप बढ़ जाता है जिससे इंसान का चिड़चिड़ा हो जाना सामान्य बात है। औरतें अत्याचार, महिला किरदारों की पिटाई, यौन उत्पीड़न, सास/बहू षड़यंत्र आदि देखकर उत्तेजित हो जाती हैं, रोने लगती हैं। इसके नतीजे में अधिकांश अवसाद ग्रस्त हो जाती हैं। अवसाद की दवा के नाम पर नींद की गोलियां देकर उन्हें नशेड़ी बनाया जा रहा है।’ विधान सभा मार्ग पर दवा की दुकान चलाने वाले मुश्ताक खान बताते हैं, ‘कंडोम, 72 घंटे वाली गर्भ-निरोधक गोलियां या यौनशाक्ति बढ़ानेवाली दवाओं को लड़के ही नहीं लड़कियां भी बेझिक खरीद रही हैं।’
    समाज में सेक्स व अपराध के बढ़ते चलन से सरकार भी चिंतित है। सरकार की तमाम नसीहतों के बाद भी टीवी चैनल अश्लीलता, अंधविश्वास और फूहड़ता दिखाने से बाज नहीं आ रहे हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने ऐसे चैनलों के खिलाफ पिछले छह महीने के दौरान दो दर्जन से अधिक कड़ी चेतावनियों वाले और कारण बताओं नोटिस जारी किए हैं। कई चैनलों को दर्शकों से माफी मांगने और कई मामलों में तो प्रसारण पर रोक के लिए मजबूर किया गया है।
    खबरों में अश्लीलता और सनसनी दिखाने में कुछ न्यूज चैनल भी कम नहीं है। मंत्रालय ने एक प्रमुख हिंदी न्यूज चैनल को एक ऐसा कार्यक्रम दिखाने के लिए कड़ी चेतावनी दी, वहीं ‘बिग बाॅस’ रिएलिटी शो के प्रकारण पर कलर्स चैनल को अदालत तक जाना पड़ा।
    हालांकि सेंसर बोर्ड का कहना है कि इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन अपनी आचरण संहिता लागू करता है और उसी पर जोर देता है।
    अमेरिका में पिछले दिनों दिखाया गया सीरियल ‘द सीक्रेट लाइफ आॅफ द अमेरिकन टीनएजर’ में 16 साल की नायिका शैलेन विवाहपूर्व ‘बालिका वधू’ है। इसमें हाईस्कूल में पढ़ने वाली लड़की गर्भवती हो जाती है और अपने बच्चे को जन्म देने के लिए उत्साहित है। सीरियल में किशोरों के यौन मस्ती-उत्पीड़न, ड्रग, शराब सेवन जैसी तमाम विसंगतियों को दिखाया गया है। नतीजे में 10-16 तक उम्र के बच्चे सेक्स का आनंद उठाने में मगन है और मां-बाप परेशान। परेशानी बढ़ने का यह हाल है कि हर साल लगभग चार लाख लड़कियां यौन संक्रमण का शिकार हो रही हैं। ये लड़कियां अवसादग्रस्त होकर मनोवैज्ञानिकों की शरण में पहुंच रही हैं। भारत में यह समस्या अभी पहले चरणपर है। भले ही राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान कंडोम की लूट या उससे चोक हुए टाॅयलेट का प्रचार जोर-शोर से किया गया हो या यौन अपराध हो रहे हैं। कंडोम की बिक्री बढ़ रही हो। गर्भ निरोधक, यौनशक्तिवर्धक दवाओं का बाजार बड़ा हो रहा है। बच्चियों से बलात्कार, हत्याएं हो रहे हैं। फिर भी अभी इसे रोका जा सकता है।
    टेलीविजन पर दबाव बनाने की आवश्यकता है। ‘सेल्फ कंटेंट’ के नाम पर अश्लीलता की कोचिंग चलाने से टीवी चैनलों को रोकना होगा, दंडित करना होगा। सरकार के साथ हमें यानी समाज को, परिवार को पूरा सहयोग करना होगा। इसे रोकने के लिए पुलिस नहीं मां-बाप, शिक्षकों को आगे आना होगा। सीता-अहिल्या के देश में, श्रीराम की माता कौशल्या के देश में बार-बार कंुती को प्रयोग करने की छूट देने से सिर्फ और सिर्फ महाभारत ही होगा। इस सर्वनाश से भारत को भारतीयता को और उसके संस्कारों को बचाना ही होगा।

औरतों का मीना बाजार है गड़बड़झाला

लखनऊ। शहर का दायरा बढ़ता जा रहा है। सौंदर्य में निखर आ रहा है। पहचान की नई-नई इमारतें अपने हुस्न पर इठला रही हैं। नए बाजार और शार्पिंग माॅल्स का ग्लैमर सर चढ़कर बोल रहा है। शहर के हर कोने में नामी गिरामी चीजों की फ्रेंचाइजी उपलब्ध है। काकोरी के कवाब हों या टुंडे के सड़क किनारे ठेले से लेकर ‘वेब माॅल’ तक में मिल जाएंगें। चूड़ी, क्राकरी, चिकन के कपड़े, बिंदी, लाली, पाउडर सब बंथरा से लेकर चिनहट तक, मोहनलालगंज से ठाकुरगंज तक उभरी नई काॅलोनियों के बाजारों में बिकता है। महिलाओं के उपयोग में आने वाला हर सामान शहर में खुली हजारों नई दुकानों में बिकता है। मगर जो बात अमीनाबाद बाजार के बीचोबीच बसे गड़बड़झाला बाजार की है, वह कहीं नहीं है।
    अमीनाबाद बाजार में मौजूद भीड़ खाली वहां से गुजरती भर है या वहां खरीददारी भी करती है। यह देखने के लिए वहां थोड़ी देर ठहर कर देखने की जरूरत पड़ेगी। आज भी अमीनाबाद में माताबदल पंसारी शहर के इकलौते पंसारी हैं, जहां आदमी की जरूरत के लिए जड़ी-बूटियों, ग्रहों के अनुसार हवन की लकड़ियों से लेकर रसोई में काम आनेवाले पुराने मसाले और न जाने क्या-क्या मिलता है। मिलने को तो यहां बहुत कुछ मिलता है। यहीं है जूतों वाली गली, झउवे वाली गली, मारवाड़ी गली, भूसेवाली गली और इन सबके बीच में है औरतों का मीना बाजार ‘गड़बड़झाला’। सच में गड़बड़झाला में सब गड़बड़ नजर आता है। उसका हर गलियारा हर दुकान एक जैसे नजर आते हैं। यहां बेलन भी बिकता है, बर्तन भी हैं और महिलाओं के अंतरंग उपयोग की चीजे भी बिकती हैं। आर्टिफीशियल ज्वैलरी भी है तो बिंदी, चूड़ी, कंगन, फीता भी है। शादी ब्याह, पूजापाठ में उपयोग होने वाले तमाम सामान बिकते है।
    लखनऊ को आधुनिक बनाने की होड़ में या सियासत के मोहल्लों में अमर हो जाने की नई संस्कृति के चलते भले ही नये-नये आए ‘लकनौवालों’ को गड़बड़झाले की गड़बड़ न समझ आए लेकिन उसकी अहमियत आज भी जस की तस बरकरार है। ‘स्टेफ्री’, ‘जाॅकी’, ‘नेपी’, ‘हगीज’, ‘हेयर रिमूवर’ या ‘तनिष्क’ के विज्ञापन टी0वी0 के छोटे से पर्दे पर चैबीसों घंटों दिखाएं जाएं, मगर आम औरतों को ये सारी चीजें आज भी गड़बड़झाला बाजार से खरीदने में मजा आता है। दरअसल गड़बड़झाले से औरतों का अपनत्व है, अंतरंगता है और बहनापा है। इसीलिए गड़बड़झाला चूड़ियों की खिलखिलाहट और पायलों के संगीत की मुस्कराह से गुलजार है। गो कि गड़बड़झाला बाजार नहीं लखनऊ की आत्मा है और आत्मा तो अजर अमर होती है।

गंदा है! गंदा है!! गंदा है!!! लखनऊ शहर

लखनऊ। कूड़े से पाटा पार्षद का घर। गणेशगंज के 10 वार्डों में नहीं होगी सफाई। सफाईकर्मियों का प्रदर्शन। भ्रष्टाचार के मसले पर मुख्य अभियंता व पार्षद भिड़े। ननि के इंजीनियर हड़ताल पर। मलबा न उठाने पर नगर निगम का घेराव। घर से कूड़ा उठाने का मामला टला। ये सारी सुखिंयां पिछले महीने सुबह के अखबारों में छपी थीं। इन सुर्खियों के पीछे की पहली घटना कुछ यूं बयान की गई हैं, यदुनाथ सान्याल वार्ड के पार्षद विनोद सिंघल ने सुपरवाइजर से अपने घर की सफाई करने को कहा। विकास ने मना कर दिया। इस पर उन्होंने उसे पीट दिया। उसके बाद तमाम सफाईकर्मी आन्दोलित हो उठे, धरना-प्रदर्शन से लेकर पार्षद के खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी दर्ज करा दी गई। पार्षद के घर के सामने कूड़े का ढेर लगा दिया गया। सफाई कर्मचारी नेताओं ने भी लगे हाथ नगर निगम घेर लिया।
    इस घटना का सच बयान करने के लिए पार्षद से मुलाकात नहीं हो सकी। आस-पास व इलाके के लोगों से बात करने पर जो जानकारी हाथ आई वह पार्षद से अद्दिक सफाईकर्मियों पर अंगुली उठाती है। बेशक पार्षद की तू-तू, मैं-मैं सफाई को लेकर सुपरवाइजर से अक्सर होती रही है। इसी बात को लेकर सुपरवाइजर और पार्षद में झड़पे होती है। दबी जुबान से लोगों का कहना था असल मामला कुछ लेन-देन का है। सच कुछ भी हो, लेकिन समूचे शहर में वीआईपी इलाका छोड़कर दिन के 9-10 बजे सड़कांे पर झाडू लगाते, कूड़े का ठेला ले जाते सफाई कर्मियों को देखा जा सकता है। इस बीच सड़कों, गलियों में आवागमन जारी हो जाता है। ऐसे में सफाईकर्मियों से किसी शिष्टता की उम्मीद करना अपराध हो जाता है। कोई भी सफाईकर्मी किसी के कहने से रूकने की जगह अकड़कर खड़ा हो जाता है या अनसुनी करके कूड़ा, द्दूल-गर्द राहगीरों की ओर द्दकेलता-उड़ाता रहेगा। आमतौर पर सुबह-सुबह ही अल्कोहल का सेवन किये सफाईकर्मियों को बगैर काम किये घर-घर उगाही करते देखा जा सकता है। इनके सुपरवाइजर भी इन्हीं की तरह देखे जा सकते हैं। ये गलियों में झांकने की जहमत तक नहीं उठाते। गली से किसी ने इनकी शिकायत नगर निगम अद्दिकारियों या मेयर के कार्यालय में कर दी तो ये सुपरवाइजर बाकायदा गाली-गलौज तक करने पर अमादा हो जाते है।
    पिछले साल की गर्मियों में मकबूलगंज के एक सुपरवाइजर की शिकायत मेयर कार्यालय में की, उसी इलाके के एक सज्जन ने नगर विकास मंत्रालय में भी सफाई न होने की शिकायत की। जिस पर सुपरवाइजर गली में आया और बड़ा लाल-पीला हुआ। लोगों के बाप-दादाओं तक रिश्ते बनाने की कोशिश करने लगा, तब इलाके के एक दबंग ने उसे अपनी भाषा में समझाया। उसे वह भाषा आसानी से समझ में आ गई। पूरे शहर में जहां-तहां कूड़ा बिखरा पड़ा है। गालियों-सड़कों की नालियों में सिल्ट भरा है। फिर कौन सी सफाई ये कर्मचारी करते हैं?
    इससे भी भ्रष्ट आचरण नगर निगम के इंजीनियरों व अन्य कर्मियों का है। उनके भ्रष्टाचार का लेखा-जोखा हजारों बार अखबारों में छपा लेकिन ढीठ अफसरों का कुछ नहीं हुआ। क्योंकि भ्रष्टाचार में सभी आकंठ डूबे हैं। क्या पार्षद, क्या अधिकारी क्या बाबू सबके सब एक ही आचार संहिता भ्रष्टाचार का पालन करने में लगे हैं। यदि ऐसा न होता तो निगम कंगाल न होता और शहर चमक रहा होता। दरअसल लोकतंत्र से अधिकारियों की आस्था दरक रही है, तो साधारण कर्मी भी उनके साथ खड़ा हो रहा है। नेताओं की भ्रष्टता का बयान करना अक्षरों को महज काला करना होगा। इसका हल कैसे निकलेगा? सफाई से शहर कैसे चमकेगा? कर्मचारी अपनी जिम्मेदारी कैसे समझेगें? नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति कैसे सचेत होंगे? इन सभी सवालों का जवाब है, मैं सुधरूं, तुम सुधरों तो हम भी सुधरेंगे की तर्ज पर नागरिकों को ही आगे आना होगा।

गलियों में भी लगता है जाम!

लखनऊ। राजधानी की सड़कों पर आदमी को लगभग 12 घंटे हर दिन यातायात जाम की समस्या से जूझना पड़ रहा है। वाहनों की बेतरतीब भीड़ में पैदल चलना भी कष्ट देता है। उस पर युवाओं के फर्राटा भरते दो पहिया वाहन रोंगटे खड़े कर देने के लिए काफी है। गलियों तक में आप पैदल नहीं चल सकते। सारा शहर इस जाम की समस्या से परेशान है। यह समस्या सरकार ने कम जल्दबाज व मतलब परस्त नागरिकों ने ज्यादा पैदा की है।
    गलियों में लोग-बाग अपने घरों के बाहर दो पहिया वाहन, यहां तक चार पहिया वाहन भी खड़े करने से नहीं चूकते। कई जगह जहां गलियां चैड़ी हैं वहा दोनों ओर मोटरबाइकों की कतार देखी जा सकती है। किसी ने अपने दरवाजे लगे नल के पाइप में जंजीरों से अपनी बाइक जकड़ कर खड़ी कर रखी है। तो किसी ने बिजली के खम्बे से बांद्द रखी हैं। इस अवैध पार्किंग से आद्दी से अधिक गली घिरी रहती है। इस तरह की पार्किंग शहर की हर गली में मौजूद है। इन्हीं गलियों में लोगों ने अपने घरों में दुकानंे तक खोल रखी हैं। इससे जहां पैदल चलने वालों, साईकिल यात्रियों, फेरीवालों को तकलीफ होती है, वहीं छोटे बच्चों के साथ महिलाओं के चोटहिल होने का अंदेशा बना रहता है। इसके अलावा सफाईकर्मी इन गलियों में जाने से कतराते हैं, नतीजे में गंदगी से बजबजाती नालियां और कूड़े-कचरे का ढेर लग जाता है, जो संक्रामक रोगों के फैलने का कारण बनता है। इन गलियों में आॅटो रिक्शा, तीन पहियों वाला हाथ रिक्शा, ठेला गाड़ी, कूड़ागाड़ी की पार्किंग आम है। गली के बच्चे इन पर खेलते हैं तो आवारा जानवरों के लिए आश्रय व प्रसूति केन्द्र के काम आते है ऐसे वाहन। बेघरों, उचक्कों, जुआरियों व चोरों के लिए भी यह वाहन फायदेमंद होते हैं। वहीं इन गलियों में अतिक्रमण आम बात है। किसी की चारपाई, तखत तो कोई पूरी की पूरी गृहस्थी बसाये हैं।
    ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी नेताओं या सरकारी कारिन्दों को नहीं हैं, वे खूब अच्छी तरह जानते हैं। वोट मांगते समय नेताजी इन गलियों से गुजरते हुए, करों की वसूली के दौरान सरकारी कर्मचारी गुजरते हुए यहां के जाम व अतिक्रमण से दो-चार होते हैं। फिर भी दोनों ही अपने-अपने स्वार्थाें के चलते चुप्पी लगा जाते है। सच पूछा जाए तो क्या गलियों में अतिक्रमण, पार्किंग, जाम के लिए सरकार जिम्मेदार है। कतई नहीं। नागरिक जिम्मेदार हैं। नागरिकों को ही सोचना होगा। उन्हें ही इससे निजात पाने का उपाय तलाशना होगा वरना सरकार तो नियम-कानून के डंडे से ही शायद निपटे। उसे निपटना ही होगा। सभ्य शहरी और सरकारी हाकिम क्या कोई कदम उठाएंगे?

शुभकामनाएं देते टैक्सचोर!

लखनऊ। नए साल की मुबारकबाद के हल्ले के बीच नगर निगम को करोड़ों के राजस्व का नुकसान हुआ है। इसकी चिंता न नगर निगम को है, न सरकार को और न ही नेताओं व उभरते हुए नेताओं को है। समूची राजधानी की सड़कों के किनारे, बीच में लगे स्ट्रीटलाइट के खंभों पर नववर्ष की बधाई के छोटे-बड़े बोर्ड लगे हैं। इनमें भावी नेताओं के हाथ जोड़े मुस्कराते हुए चेहरों के साथ क्षेत्रवासियों की मंगलकामना का प्रचार दिखता है। मजे की बात है, तमाम चेहरों को क्षेत्रवासी पहचानते तक नहीं है।
    शहर के चैराहों व बाहरी हिस्सों में लगी बड़ी-बड़ी होर्डिंगों में भी विद्दानसभा क्षेत्रवासियों को शुभकामनाएं देने वालों का मुस्कराता चेहरा दिखता है। ये चेहरे निकट भविष्य में होने वाले पार्षद व विधायक के चुनाव के नजरिये से लगाये गये हैं। गौरतलब है कि प्रचार के नजरिये से लगाए जाने वाले होर्डिंग या छोटे बोर्ड का टैक्स नगर निगम को चुकना होता है। यहां बताते चलें कि लखनऊ नगर निगम के अद्दिकारियों ने नए साल की आमद से ठीक दस दिन पहले शहर में अभियान चलाकर 24 विज्ञापन एजेन्सियों के 15 होर्डिंग्स व अन्य बोर्डों को हटवाया था। अपर नगर आयुक्त के मुताबिक इन विज्ञापन एजेंसियों पर 1. 35 करोड़ का टैक्स बाकी है।
    इसके बावजूद इतनी अधिक तादाद में नववर्ष की शुभकामनाओं वाली होर्डिंग्स कैसे लगीं? नगर निगम ने उन्हें अब तक क्यों नहीं उतरवाया? निगम ने इन प्रचार बोर्ड लगाने वालों को कोई नोटिस भेजा? इसके अलावा जो जिला प्रशासन के आला हाकिम लखनऊ को सुन्दर बनाने की होड़ में आधुनिकता के प्रतीक ‘नियोन साइन’ तक उतरवाने पर बजिद हैं, उन्होंने क्यों नहीं इन ‘शुभकामनाओं’ की ओर ध्यान दिया?
    सूबे की राजनीति में विपक्ष को सिर्फ मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन पर लगी होर्डिंग्स, लाइट या नीले रंग पर गुल-गपाड़ा मचाना याद रहा, लेकिन शहर भर में टंगी इन अवैध होर्डिंग्स के जरिए की जाने वाली टैक्सचोरी का ख्याल तक नहीं आया? शुभकामनाओं के नाम पर टैक्स चोरों के खिलाफ नगर निगम कोई कदम उठाएगा?

रोटी को पत्थर में मत बदलो...यारों...!

सियासत के मोहल्लांे मंे जो घमासान इन दिनों मचा है, उससे भारतीय लोकतंत्र बेहद आतंकित है। और नागरिकों को अपने वोट देने पर शार्मिन्दगी महसूस हो रही है। घपले-घोटालों की आड़ में जिस ‘रारनीति’ का नाटक देशभर में हो रहा है, वह निंदनीय ही नहीं अपराध है। देश की महापंचायत का मानसून सत्र बगैर किसी कामकाज के हंगामे की भेंट चढ़ गया। जनता की गाढ़ी कमाई के 6 सौ करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। इसकी भरपाई कौन करेगा? कायादा तो यह कहता है कि इसे सभी सांसदों से वसूल किया जाये।
    देश में महंगाई पर हो-हल्ला मचाने के अलावा कहीं कुछ नहीं हुआ। सरकार ‘प्रयासरत’ होने के दावे करती रही, तो विपक्षी ‘टीवी स्क्रीन’ पर आरोप लगाते रहे। बोफोर्स तोप को पकड़कर रोने वाले, जेपीसी की जिद पर अड़े महासंग्राम रैली करने वाले और लालचैक पर तिरंगा फहरा कर राष्ट्रप्रेम दर्शाने वाले अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगे? उनकी पार्टी ने भी कई बरस भारत में राजकाज सम्हाला है। उन्हें भी अपने किये हुये फैसले और कारनामे अच्छी तरह याद होंगे। उन पर गौर करना होगा। वे अपना एक भी वायदा पूरा नहीं कर सके। हिन्दुओं की भावनाओं से लगातार खेलने का अपराध अलग कर बैठे। साथ ही भगवान श्रीराम के भी अपराधी हैं। महज भगवा टोपी के नीचे लंबी चोटी में गांठ बांधकर और पीले रंग का जनेऊ कान पर चढ़कार हिंदुत्व के नाम की लघुशंका करते रहने से क्या होगा? आज की पीढ़ी आपसे सच की जमीन पर खड़े होने की आशा रखती है। अपने ही झूठ को सच करने के लिए हलक फाड़ने से ज्यादा जरूरी है नई पीढ़ी में ‘कर्मण्ये व धिकारस्ते..’ की ऊर्जा भरने की, उनमें राष्ट्र के प्रति ईमानदार सोंच जगाने की और आजादी को बचाए रखने की प्रेरणा देने की।
    गांधी को गरियाने से या सारे देश को ‘अयोध्या’ बनाने की जिद से कुछ नहीं होने वाला। जरा गौर से देखिए विदेशी पूंजी आपके देश में लगातार बढ़ रही है। महान राष्ट्रों के महान राज्याधीश आपके देश में व्यापार करने की, बढ़ाने की मांग करने आ रहे हैं। यानी एक बार फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की बदली हुई शक्ल में विदेशी ताकतें देश में सक्रिय होने को बेताब हैं और आप हैं कि मीरजाफर व जगत सेठ का इतिहास बांचने में समय बर्बाद कर रहे हैं। हम एक बार फिर पं0 जवाहर लाल नेहरू के शब्दों को दोहरा रहे हैं, ‘आजादी खतरे में है इसे हमें पूरी ताकत से बचाना होगा।’
    बेहद तकलीफ और हैरत के साथ लिखना पड़ता है, रोटी को पत्थर में बदलने से तरक्की नहीं होती। सूबा उप्र की समूची सियासत में 16वंे चुनाव कुंभ की हाय तौबा मची है। हर राजनैतिक दल उम्मीदवारों के चुनाव से लेकर आदमी को झूठे सपने दिखाने में मसरूफ है। सूबे में क्या हो रहा है? आदमी किन तकलीफों से गुजर रहा है? ये कौन सोंचेगा? वह भी तब जब इस वित्तीय वर्ष के दस महीनों में विकास योजनाओं पर बजट का महज 45 फीसदी ही खर्च किया गया है। इसी तरह पिछले साल आई बाढ़ से निपटने व बाढ़ग्रस्तों की सहायता के लिए 220 करोड़ दिये गये थे, उसमें भी आधी ही रकम खर्च की गई है। ऐसे बहुत सारे आंकड़े हैं, जिनकी वजह से उत्तर प्रदेश को ‘बीमारू’ प्रदेश कहा जाता है। ह्यूमन डेवलपमेंट इन्डेक्स पर 2006-07 में उप्र 17वें स्थान पर था। इन तीन चार सालों में सूबे में शिक्षा, स्वास्थ्य,सड़क, पानी, बिजली, कृषि, उद्योग सभी क्षेत्रों में कोई आशाजनक कदम नहीं उठाए गए। आंकड़ों में उप्र की विकासदर 6.3 प्रतिशत है और प्रतिव्यक्ति आय 11 हजार रुपए और टेलीफोन व मोबाइल 11 करोड़ हैं।
    यहां गौर करने लायक है कि सूबे की जनसंख्या 16 करोड़ है, यानी महज चार करोड़ लोग फोन, मोबाइल फोन से महरूम है। इस बाजीगरी से अलग जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। राजधानी के विधानसभा मार्ग के आसपास की बस्तियों को शौचालय तक नसीब नहीं है। जहां सरकार बैठी है उसके चारों ओर बंदरों, आवरा कुत्तों, सांडों, गायों का आतंक है। घरों में नल लगे हैं, उनमें पानी नहीं आता। बिजली के कनेक्शन हैं लेकिन बिजली जब-तब गायब रहती है। अस्पतालों में मरीज भर्ती नहीं किये जाते। प्रसूता को बगैर इलाज के मरने के लिए तड़पना पड़ता  है। स्कूल में पढ़ने  वाले बच्चों से मजदूरी कराई जा रही है। पुलिस पीड़ितों को ही जेल भेज कर अपनी पीठ थपथपा रही है। कानून-व्यवस्था संभाल रहे हाकिम ही कानून का मखौल उड़ाकर गौरान्वित हो रहे हैं। सारा लखनऊ शहर गंदगी से अटा पड़ा है। समूची राजधानी में कचरा सड़ रहा है। हां, हजरतगंज की सूरतेहाल बदलने की कवायद जारी है। नक्खास को कौन सुधारेगा? हैदरगंज में आदमी नहीं रहते? हाकिमों की ढिठाई इस कदर कि बीत गई ठंड में सूबे में मरनेवालों की संख्या हजारों में थी, मगर राहत आयुक्त/प्रमुख सचिव नहीं मानते कि एक भी आदमी ठंड से मरा। वहीं नगर निगम के रैन बसेरा बनाने व अलाव जलवाने के झूठ को उजागर करने के लिए उच्चतम न्यायालय को टीम गठित करनी पड़ी। फिर भी सरकार हर मोर्चें पर सफल है, ऐसा मुख्यमंत्री का कहना है।
    सूबे का थका हारा विपक्ष पार्को-स्मारकों पर हल्ला मचाने के बाद 16वें चुनाव कंुभ में स्नान करने की चिंता में पल-पल घुल रहा है। उसके पास न कोई नीति है, न नीयत। बस सत्ता पर कब्जा करने के मंसूबे और सपने हैं। यहां एक बात और कहनी होगी कि समूची राजनीतिक जमात गैरजिम्मेदाराना रेस में दौड़ रही है। इनमें भी एक बड़ी संख्या लव, सेक्स, धोखा, भ्रष्टाचार और अपराध के हैरतअंगेज सर्कस में शामिल होकर सूबे की जनता को हलकान करने में लगी है। रह जाती है हमारे सूबे की सर्वजन सरकार, तो उसके अपने एजेंडे हैं, अपनी सोंच है वह उसी पर अमल कर रही है। बहुमत की सरकारों का आचारण प्रायः ऐसा ही होता है। हमें सरकार से उम्मीद छोड़कर खुद आगे बढ़कर कदम उठाने होंगे। 16वें चुनाव कंुभ में शामिल होकर उम्मीद का नया चिराग रौशन करना होगा। कुछ करने वालों को तलाशना होगा ईमानदारों को छांटना होगा। गो कि अब भी समय है, वरना... न समझोगे तो तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में...!

पैसेवालों की कांग्रेस

लखनऊ। मिशन 2012 के लिए कांग्रेस ने अपने माल एवेन्यू के दफ्तर में लगे लोहे के दोनों दरवाजे पूरी तरह से खोल दिये हैं। वहां बैठकें हो रहीं हैं। रणनीति तय हो रही है। राहुल गांधी से लेकर प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा तक बेहद मसरूफ हैं। राजा दिग्विजय सिंह के साथ ताजा-ताजा दिल्ली के राज दरबार में शामिल बाबू बेनी प्रसाद वर्मा भी सक्रिय है। केन्द्रीय मंत्री और राहुल बिग्रेड का युवा चेहरा जितिन प्रसाद कांग्रेस वापस लाओं अभियान की कवायद में पसीना बहा रहा है। अरबपति ग्रह से आईं और उन्नाव से सांसद अनुटंडन भी कांग्रेस की सूबे में वापसी की कसमें खा रही है। गो कि कांग्रेस उप्र में अपनी सरकार बनाने के लिए सचमुच व्यायाम कर रही है।
    खबरों के मुताबिक कांग्रेस चुनाव-2012 के अखाड़े में उन्हीं पहलवानों को उतारने के मंसूबे बना रही है जो अरबपति ग्रह के वाशिन्दे हों। खासकर उद्योगपति, ठेकेदार, बिल्डर, ज्वैलर्स को तरजीह दिये जाने के संकेत लखनऊ भर में लगे होर्डिंग्स से मिलते हैं। इन होर्डिंगों से झांकते चेहरों को लखनऊवासियों ने आज तक साक्षात नहीं देखा है, फिर भी नववर्ष की शुभकामनाएं स्वीकार करनी पड़ रही हैं। पिछले महीने मुंबई के नामी-गिरामी ज्वैलर्स मोहित कम्बोज अपने कद्दावर कांग्रेसी दोस्तों और अभिन्न समर्थकों के साथ चाटर्ड प्लेन से लखनऊ आए थे। कांग्रेस के दफ्तर में उनका भव्य स्वागत हुआ। उन्होंने भी कांग्रेस के सूबाई नेताओं की अगली पांत में दबदबा बनाये नेताओं को खुश करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। पक्की खबर है कि मोहित कम्बोज की वाराणसी कैन्ट से ‘उम्मीदवारी तय’ है। उन्होंने सूबे के कांगे्रसी दिग्गजों और राजधानी के चुनिंदा ‘मीडिया पर्सन’ को शानदार दावत दी। इस पांच सितारा उत्सव में उनके साथ उप्र में जौनपुर जिले के रहनेवाले और मुंबई प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह और उनके दामाद विजय प्रताप सिंह भी मौजूद थे। विजय प्रताप सिंह का नाम प्रतापगढ़ सदर सीट से तय माना जा रहा है। विजय प्रताप प्रतापगढ़ के निवासी हैं लेकिन मंुबई में रहकर कारोबार करते हैं।
    दूधवाले भइया से बड़े कारोबारी बने तुलसी सिंह राजपूत भी कांग्रेस में है और चंदौली सीट से उम्मीदवारी पक्की करने में कामयाबी के काफी करीब हैं। वे पिछला लोकसभा चुनाव अखिल भारतीय संयुक्त अधिकार मंच के बैनर तले लड़ चुके हैं। वे बहुत कम वोट पाकर हारे थे। मगर इस चुनाव में उनका हेलीकाप्टर उनसे अधिक उनके मतदाताओं में पहचान बना पाया था। उनका कहना है कि मेरा कारोबार बेशक मंुबई में है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है कि मैं अपने क्षेत्र में वापस नहीं हो सकता। मैंने वापसी का निर्णय इसलिए लिया कि यहां के युवाओं को अवसर मुहैय्या कराऊं। आखिर यहां के लोगों ने ही मुंबई को समृद्ध करने में अपना पसीना बहाया है, तो हम अपनी मंुबई यहां क्यों नहीं बना सकते? बुलंद हौसलों के मालिक राजपूत महज कक्षा 8 पास हैं और तेलगीकांड में भी उनका नाम आया था।
    दया शंकर पटवा मुंबई के बड़े ज्वैलर हैं। हाल ही में उन्होंने भी कांग्रेस के दफ्तर में दाखिला लिया है। इनकी पत्नी फिरोजा पटवा कांग्रेस से विधान परिषद चुनाव लड़ चुकी है, लेकिन हार गईं। इसी तरह एक नए उद्योगपति व ठेकेदार विवेक सिंह ने भी कांग्रेस में अपना नाम लिखाया है। उनके समर्थक उन्हें ‘‘विधायक जी’ कहकर बुलाते हैं। यह उत्साही युवा लखनऊ पूर्व सीट से चुनाव लड़ने को इच्छुक ही नहीं है बल्कि अपने को कांग्रेस प्रत्याशी भी घोषित कर चुका है। इनके साथ वाराणसी व लखनऊ छात्रसंघ से जुड़े लोगों का जमावड़ा दिखाई देता है। भावी उम्मीदवार के इस जत्थे को सियासत की हर चमकदार बारादरी में देखा जाता है। इंनरनेट पर कांग्रेस नेता राजा दिग्विजय सिंह के साथ के फोटो भी दिखते हैं। इसी तरह कई अमीर और पूर्व नौकरशाहों की कांग्रेस में सक्रियता व उम्मीदवारों की चर्चा सुनी व देखी जा रही है।
    कांग्रेस का रईसों, रजवाड़ों से प्रेम जगजाहिर है। उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए पार्टी के दिग्गजों दिग्विजय सिंह, जितिन प्रसाद, प्रमोद तिवारी, प्रदेश अध्यक्ष ने पार्टी की कोआर्डिनेशन कमेटी की बैठक लखनऊ शहर से 30 किमी. दूर लखनऊ-कानपुर रोड पर बनी में एक नये होटल/रिसार्ट में की, इसी दिन इस होटल का उद्घाटन भी हुआ था। बताते हैं, होटल के मालिक अपराध जगत से होते हुए ठेकेदार हैं। अखबार से भी जुड़े होने के जिक्र के साथ उनके ‘पैलेस आॅन पोलीटिक्ल व्हील्स’ पर सवार होने की खबरें बेहद गर्म हैं। खबरों के मुताबिक उन्हें प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा, दिग्विजय सिंह, जितिन प्रसाद, प्रमोद तिवारी का विशेष आशीर्वाद प्राप्त है और इन्हीं के सहारे वे अपने सियासी मंसूबे पूरे करने के खेल में सक्रिय हैं।
    कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता जहां इन बाहरियों पर अंगुली उठाते हुए कहते है, ‘इस तरह के लोगों के आने से कांग्रेस को कोई खास लाभ होने वाला नहीं है।’ वहीं ख्यातिनाम कांग्रेसी भोला पांडे व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरूण सिंह मुन्ना ने इन ‘बहारियों’ का विरोद्द खुलेआम किया और राहुल गांधी तक इसे पहंुचाया भी।
    कांग्रेस के एक प्रवक्ता कहते हैं कि पार्टी ने किसी भी उम्मीदवार के नाम की अधिकारिक घोषणा नहीं की है, फिर भी यदि चुनाव जीत सकने वाले नामों पर चर्चा हो रही है या कोई अमीर आदमी पार्टी में शामिल हो रहा है, तो इसमें बुराई क्या है? टिकट उसे ही क्यों नहीं मिलना चाहिए जो चुनाव जीत सकता है?, सवाल किसी अमीर की उम्मीदवारी का नहीं है, बल्कि राहुल गांधी की कवायद का है जो पिछले काफी समय से जारी है। क्या उन साक्षात्कारों और आब्जर्वर्रो की पड़ताल में प्रदेश में सक्षम उम्मीदवार नहीं मिले? या फिर प्रदेश कांग्रेस में निजी, क्षेत्रीय, गुटीय स्वार्थों का बोलबाला जारी रहेगा? या फिर कांग्रेस के घर में बैठे विभीषण मायाराज बरकरार रखने के षड़यंत्र में कामयाबी से  सक्रिय हैं?

Rajiv Dixit's Expose of Manmohan Singh as America's Agent 2