Thursday, December 20, 2012

बारात आगे चलकर मनुवादी हो गई

अल्ला-अल्ला खैर सल्ला। आपकी दुआ है कि बारात के तम्बू और पूरी रात बजने वाले कानफोड़ू बाजों के बावजूद मैं हूं और यह मेरा वजूद है कि सब कुछ सहने को मजबूर है। अभी पिछले हफ्ते शहर की भरी पूरी सड़क से गुज़र रहा था बीच सड़क पर तम्बू लगा हुआ था, कुर्सिया थीं, मेजों पर सफेदी की चमकार वाली चादरें थीं, मेरे ड्राइवर ने जीप रोक दी, आगे सड़क बंद है।
    पी.डब्ल्यू.डी. भी पुल बगैरह बनाने के लिए सड़क बंद करती है, तो बगल से कामचलाऊ बाई पास बनाती है और चमकता हुआ बोर्ड लगवाती है। सड़क बंद है, कृपया दायें से जाएं मगर यहां कोई बाईपास नहीं। बोर्ड की जगह बिजली के बल्बों से चमकता बोर्ड सोनू वेड्स पिंकी। मैं उतर पड़ा, गनर को उतरता देखकर दो-तीन लोग आगे बढ़े मेरी ओर मुखातिब हुए ‘‘आइए-आइए, हम लोग अभी आपकी ही बात कर रहे थे कि सोनू के फूफा आएंगे जरूर।’’
    मैंने कहा, ‘‘मगर मैं तो आगे जा रहा था।’’
    ‘‘कोई बात नहीं भैय्ये, राह भूल ही जाती है, आज कई ठो बाराती राह भूल गए, बाद में लौट आए।’’
    हमारे गनर ने समझाने की कोशिश की ‘‘साहब हैं, हम लोग उन्नाव.....’’
    ‘‘अरे उन्नाव जाना हो या आमा, दीवान जी जब निजी मोटर है तौ बगैर खाए पिए...........’’
    मैंने हाथ जोड़ लिए, मेरा मन गुस्से से अमरीशपुरी हो रहा था मगर मैं राखी की तरह रूआ सा होकर बोल, ‘‘मैं  आपके यहां निमंत्रण में नहीं आया हूं। यह तम्बू राह में लगा है, इसीलिए रास्ता पता लगाने के लिए शैडो उतरा है।’’
    शादी पिंकी की हो या सक्सेना बाबू के चिरंजीव पुक्कू की। तम्बू रास्ते को बंद करके ही लगाया जाता है। लड़की के घर का माल लड़के के बाप का होता ही है, मुझसे क्या लेना-देना? मगर सड़क रोकना कहां का ‘शगुन’ है।
    रास्ता था नहीं, मैंने कार रूकवा दी थी। नचनिहा लड़के कार की ओर लपके, ‘अबे साले अगवानी में कार पेल रहे हो। ‘मैंने कार के भीतर से हाथ जोड़े, चूंकि बारात सम्भ्रात लोगों की थी, और क्योंकि बारात में अच्छे भले घरों के लड़के शामिल थे और चूंकि सब सुशिक्षित थे इसलिए उन लड़कों ने मेरे ड्राइवर को पीटना शुरू कर दिया। जब मैंने व मेरे साथ अंगरक्षक ने असलहे निकाले तब लड़के भागे और उपस्थित नसेड़ी सम्भ्रातों ने मुझे नसीहत दी ‘‘लड़के हंै, अब आपको ऐसा शोभा नहीं देता। तो मुझे नाराज होना चाहिए, मगर चूंकि वे लड़के हैं और सम्भ्रांत हैं और दारू पिए हैं इसलिए उनका संस्कृति-सिद्ध अधिकार है कि राह रोकें और मारपीट करें।
    लखनऊ राजधानी के एक थानेे में थानाध्यक्ष हैं, मेरे एक परिचित। उनके भाई की बारात। वे भाई उन्नाव में
थानाध्यक्ष है। रास्ते में बारात चली। थोड़ी दूर तक कोई 15-20 कदम तक तो बारात गांधीवादी रही। शांत। अभद्रता रहित। आगे चलकर मनुवादी हो गई। राजधानी वाले थानाध्यक्ष नाचने लगे। कोई बात नहीं। भाई की शादी है। सिपाही भी नाचने लगे। होमगार्डों ने भी सुलगती बीड़ी के साथ नाचना शुरू कर दिया। राह ठप्प। नेशनल हाईवे जाम। दोनों और ट्रैफिक रूक गया। मैंने नेतागीरी की कोशिश की। यार दरोगा को समझाने का उपक्रम किया, जैसा की जरूरी है कि बारात में सुशिक्षित और हनक वालों को लाया जाता है और प्रतिष्ठा की खातिर दारू पीनी ही पड़ती है, सो वे भी पिए हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा ‘‘गुरूजी नाचो’’।
    गुरू घबड़ाया। दरोगा लोगों को थाने में मुर्गा बनाते, गाना सुनते और थाने आए हुए लोगों से अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते सुन रखा था। नाचने का हुक्म सुना। मैं रिरिया, गया। ‘‘गुरू को नाचना होगा’’ उन्होंने दोनों हाथ पकड़े। इधर-उधर धुमाया। मैंने द्रोपदी होकर कृष्ण को पुकारा। गिरधारी बचाओं लाज। एक डिप्टी एस.पी. गा रहे थे, ‘‘समधिन तेरी घोड़ी चने के खेत में।’’ मैं, विवाह एक संस्कार है, पवित्र बंधन है और बारात गधा पच्चीसी है, रास्ता रोको बदतमीजी है या पूर्व जन्म का कोई पाप है? आदि सोच-सोचकर खुन्नस में था। मैं उधेड़बुन में हूं, क्योंकि ‘‘फुर्सत में’’ हूं। सोचता हूं एक बारात के स्वागत में रास्ता रोकना क्यों जरूरी है? दारू पीकर नाचना किस संस्कार का हिस्सा है? रास्ते में तम्बू लगाकर आवागमन ठप्प करने से क्या वर-कन्या का विवाह बंधन ज्यादा मजबूत रहता है? आदि प्रश्न मुझे काट रहे हैं। मगर मैं कर क्या सकता हूंँ?
    अठारह साले पहले ‘प्रियंका’ के जून, 1994 अंक में छपा व्यंग्या फिर से पाठकों के लिए छापा जा रहा है।

3 करोड़ की चिकनी चमेली!


नये साल के जश्न पर बाॅलीवुड की नायिकाओं की जेबों में करोड़ों की कमाई आने वाली है। हर वर्ष इस मौके पर आयोजित होने वाले समारोहों में आजकल बाॅलीवुड की नायिकाओं को नाचने के लिए बुलाया जाता है और उन्हें उन्हीं की फिल्मों के गीतों पर थिरकने के लिए मशहूर पांच सितारा होटलों द्वारा करोड़ों का भुगतान किया जाता है। इस मौके को कोई भी भारतीय फिल्म अभिनेत्री छोड़ना पसंद नहीं करती है। इन दिनों इस मौके के लिए नायिकाओं के पास प्रस्तावों को ढेर लगा रहा है। इनमें सबसे ज्यादा डिमांड कैटरीना कैफ की है जिन्हें अग्निपथ के गीत चिकली चमेली को प्रस्तुत करने के लिए तीन करोड़ की भारी भरकम राशि दी जा रही है। हालांकि कैटरीना ने अभी इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है। वहीं दूसरी ओर बंगाली वाला विपाशु बसु को 1 करोड़ और कंगना रणावत को 1.5 करोड़ का आॅफर मिला है। हालांकि कंगना ने यह आॅफर ठुकरा दिया है। उनका कहना है कि उनके पास अपनी फिल्मों से वक्त नहीं है। इसलिए वे इन कार्यक्रमों में शिरकत नहीं कर सकती, लेकिन अब कहा जा रहा है कि कंगना ने इन प्रस्तावों को इसलिए ठुकराया शायद उन्हें इससे ज्यादा कि उम्मीद है। वहीं प्रियंका चोपड़ा और करीना कपूर ने परफोर्मेस के बारे में कन्फर्म नहीं किया है। जबकि करीना ने छत्तीसगढ़ महोत्सव में पिछले दिनों 8 मिनट की पारफारमेंस के लिए 1.46 करोड़ वसूले है। उधर नयी नवेली दुल्हन करीना का सैफ के साथ हनीमून का प्लान है। ऐसे में उनके लिए परफाॅर्म करना मुश्किल भरा हो सकता है। इनके अलावा पोर्न स्टार सनी लियोन को 1 करोड़ का आॅफर मिला है। जरीन खान, वीना मलिक, ईशा शरवानी और तनु श्रीदत्ता समेत कई हीरोइनो को लाखों के आॅफर मिल रहे हैं। वहीं समीरा रेड्डी को लखनऊ में 50 लाख, प्राची देसाई को 51 लाख, श्वेता तिवारी 50 लाख, परणीता चोपड़ा को दस लाख के आॅफर हैं।
    यहां बताते चलें कि फिल्मी सितारे अमीरों की शादियों में नाचने और पंडाल की रौनक बढ़ाने की मोटी रकम लेते हैं। लोगों से मिलने के लिए अलग से 20 से 50 लाख रूपये के बीच फीस वसूलते हैं। इस साल इन सितारों ने अपनी फीस दोगुनी कर दी है। खबरों के मुताबिक गुजरी शादियों के मौसम में इनकी कीमत कुछ इस तरह बताई गई।
कैटरीना - 3 करोड़ रुपये (पिछले साल 1.5 करोड़ थी कीमत)
शाहरूख - 3 करोड़ (पिछले 2-2.5 करोड़ थी कीमत)
अक्षय कुमार - 2.5 करोड़ (1.5 करोड़ रूपये थी पिछले साल कीमत)
सलमान खान - 2.5 करोड़ रूपय
प्रियंका चोपड़ा - 1.2 करोड़ रूपये
मलाइका अरोड़ा - 60-75 लाख रूपये
बिपाशा बसु - 40 लाख रूपये
अनुष्का शर्मा - 50 लाख रूपये
मल्लिका शेरावत - 25-30 लाख रूपये
सोफी चैधरी - 20-25 लाख रूपये

सेक्स मार्केट में सिनेमाई लड़कियां

मुंबई/लखनऊ। हैप्पी न्यू इयर... हैप्पी क्रिसमस की तैयारियों के बीच शहर के पांच तारा होटलों से लेकर इकोनाॅमी होटलों, रेस्टोरेन्टों और खास जगहों पर पोशीदा पार्टियों के इंतजामात अंजाम दिये जा रहे हैं। इनमें शिरकत करनेवालों ने अभी से अपनी बुकिंग करा ली है। इसके लिए तमाम ‘इवेंट एजेंसियां’ सक्रिय हैं। इनके प्रबन्धक ‘सेलीब्रेट-13’, ‘वेलकम-13’ या ‘न्यू इयर नाइट’ के जश्न में शामिल होने वालों से सम्पर्क कर रहे हैं। यहीं ‘इवेन्ट मैनेजर्स’ रात्रि जश्न के लिए इच्छित साथी (पार्टनर) की भी व्यवस्था करा दे रहे हैं। पिछले कुछ सालों से मुंबई के पांचतारा होटलों में बाॅलीवुड की मशहूर सिनेतारिकाएं नाचकर नये साल के इस्तकबाल में सजी महफिल रंगीन करती हैं, तो इनकी हमशक्ल (जो इनके डबल का रोल करती हैं) अपने साथी (ग्राहक) का बिस्तर गरम करती हैं।
    इन दिनों देह व्यापार के धंधे में माॅडल्स फिल्म, टीवी अभिनेत्रियों की हमशक्ल, असफल तारिकाओं, विदेशी लड़कियों और झारखंड, बिहार, उप्र की खांटी देसी लड़कियों की काफी मांग है। इसका खुलासा पिछले साल जुहू के नोवाटेल होटल की पुलिस छापेमारी के दौरान पकड़े गये दलालों व लड़कियों से हुआ। इसके अलावा लखनऊ के चारबाग व गोमतीनगर इलाकों में पुलिस कार्यवाई में पकड़ी गई लड़कियों ने भी पुलिस को इसकी जानकारी दी थी। गौरतलब है पिछले साल ही दिल्ली, मुंबई, पुणे, हैदराबाद में कई सिनेतारिकाएं व उनकी हमशक्ल सेक्स रैकेट में लिप्त पुलिस की गिरफ्त में आई थीं। आंध्र प्रदेश की नाकाम अभिनेत्री तारा चैधरी को हैदराबाद की बंजारा हिल्स पुलिस ने सेक्स रैक्ट चलाते पिछले साल मार्च में पकड़ा था।
    इन नाकाम अभिनेत्रियों व हमशक्लों का नेटवर्क सम्भालने वाले दलाल ‘इवेंट मैनेजर’ या माॅडल कोआर्डिनेटर’ के चमकदार नामों से पहचाने जाते हैं। कई बड़े रैकेट के सरगना काॅरपोरेट आॅफिस की तरह अपना सेक्स कारोबार इंटरनेट से लेकर इंटरनेशनल मंडियों तक फैलाए हैं। ये लोग हर तरह की लड़की व उसके साथ की सभी आवश्यकताओं की आपूर्ति करते हैं। दलाली की एवज में ग्राहक से ‘सर्विस टैक्स’ वसूल करते हैं। इन जगमगाती लड़कियों की एक घंटे की कीमत 25 हजार से लेकर पांच लाख तक होती है। इन्हें अरब देशों से आने वाले ग्राहक बतौर फिल्म/टीवी स्टार अद्दिक पसन्द करते हैं। उन्हें यह भी नहीं मालूम होता है कि जो लड़की उनके बिस्तर पर है वह असली हिरोइन है या डुप्लीकेट। अधिकतर ग्राहक बाॅलीवुड सुन्दरियों के दीवाने होते हैं। इन हसीनाओं के लटके-झटके बिल्कुल असल अभिनेत्रियों जैसे ही होते हैं। ये सुरक्षागार्डाें से घिरी, महंगे जेवरातों, कपड़ों के अलावा सुपर ब्रांडेड परफ्यूम्स से महकती चहकती दिखती हैं। जूहू और बांद्रा इलाके के काॅफी शाॅपस् पर इन लड़कियों का जमघट शाम सात बजे से लगा रहता है। इनमें तमाम तो छोटे शहरों से आईं और फिल्मों/टी.वी. में एक्स्ट्रा के तौर पर काम कर रही होती हंै। इन्हें इनके दलाल ग्राहकों से अधिक न घुलने-मिलने की सलाह बराबर देते रहते हैं। यदि कहीं भी लड़की और ग्राहक के बीच सम्बन्ध प्रगढ़ होने लगते हैं तो इवेंट मैनेजर/कोआर्डिनेटर लड़की को प्रताडि़त करने के तमाम हथकंडे अपनाते हैं। उनमें एक पुलिस के फंदे में पहुंचाने का आसान तरीका सबसे पहले अपनाया जाता है। इसके बाद तो इन हसीनाओं की हिम्मत ही नहीं होती कि वो किसी से रोमांस करने की सोंचे।
    विदेशों से आने वाले अमीर, एनआरआई, बिल्डर्स, व्यापारी, नौकरशाह जो अक्सर भारतयात्रा पर आते रहते हैं, वे इन ‘स्टार्स’ लड़कियों की मांग घंटों के हिसाब से करते हैं। वे पूरी कीमत अदा करने के साथ इन लड़कियों को महंगे-महंगे उपहार भी देते हैं। अक्सर वे इन ‘हिरोइनों’ को अपने साथ विदेश भी ले जाते हैं। अधिकतर दुबई, शारजाह जाने वाली उड़ान में गुरूवार को इन तितलियों को देखा जा सकता है और रविवार को वापसी की उड़ानों में महंगे उपहारों से लदी फंदी दिख जाएंगी। मंुबई, पुणे, लवासा के पांचतारा होटलों के अलावा लखनऊ के तीन पांचतारा होटलों को इनका मुख्य कार्यक्षेत्र माना जाता है। क्योंकि इन्हीं होटलों में असली अभिनेत्रियां आती रहती हैं। इससे भी अधिक चैंकानेवाली खबर लखनऊ के एक ट्रेवेल एजेंट के जरिए निकलकर आई है। कई व्यापारी, नौकरशाह, बिल्डर्स आदि लम्बी दूरी की रेलगाडि़यों के प्रथम श्रेणी एसी के कूपे में माॅडल्स जैसी छात्राओं के साथ रंगरेलियां मनाने के लिए सफर करते हैं। इन यात्राओं में किसी प्रकार का कोई खतरा भी नहीं होता।
    नये साल के स्वागत में शराब, शबाब और कबाब की महफिलों के गुलजार होने के किस्से गोवा, मुंबई के अलावा दिल्ली-लखनऊ से भी सुने जा रहे हैं। कई दूतावासों में भी नाचरंग, सुरा-सुन्दरी की महफिलें सजती हैं। इसके अलावा देह व्यापार के बाजार ने महत्वाकांक्षी और रोमांच में जीने की तमन्नाई छात्राओं को भी अपने धंधे में समेट लिया है। लखनऊ के तमाम एकेडमी/काॅलेजों में पढ़नेवाली छात्राओं ने बेहद पोशीदा ढंग से ‘सेक्स मार्केट’ में अपने जलवे बिखेर रखे हैं। नेट पर तो इनमें से तमामों को नंगा देखा जा सकता है। इनमें अधिकांश छोटे शहरों/कस्बों से आई हैं। गौर से देखा जाए तो इनके ग्रुप के टूर प्रोग्राम से पूरी जानकारी मिल जाएगी। इनके साथ तमाम युवा शिक्षिकाएं भी जुड़ी हैं। जुड़ने को तो इनसे शहर के हिजड़े भी जुड़े हैं।

सत्य से साक्षात्कार है ‘नचिकेता’

राम प्रकाश वरमा
राम का नाम सत्य है, मृत्यु के समय इकट्ठा होने वाली भीड़ का जयकारा है। और जन्म ‘मातृरूपेण संस्थिता’ का सच। इसी सत्य के संघर्ष का नाम जीवन है। उसे -‘नचिकेता’ का स्वरूप देकर केरल जैसी पावन माटी में जन्में पत्रकार/कवि पी. रविकुमार ने तमाम धार्मिंक ग्रंथों का सारांश चंद पन्नों में समेटने का साहस दिखाया है। ‘नचिकेता’ मूलतः मलयालम भाषा में है, उसका हिन्दी अनुवाद प्रो0 डी0 तंकप्पन नायर ने किया है। अनुवाद पढ़कर सीधे श्री नायर से जुड़ने का आनंद और रविकुमार के दर्शन भरे काव्य की भावगंगा के आचमन की अनुभूति को मैं अपने गुरूवार आचार्य पं0 दुलारे लाल भार्गव के दोहे में व्यक्त करते हुए ‘नचिकेता’ के सत्य से साक्षात्कार कराना चाहुंगा।
राधा गगनांगन मिलै धारापति सौं धाय;
पलटि आपुनों पंथ पुनि धारा ही ह्नै जाय।
    कवि रविकुमार ने लिखा है ‘आत्मविलासम्’ पढ़ने के बाद ‘नचिकेता’ लिखने की प्रेरणां मिली। दरअसल श्रीकृष्ण का यह कहना ‘अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते’ के बाद कई जगह कर्म के अनुसार फल का भी जिक्र श्रीमदभगवदगीता में हैं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक के आनंद भय का हमारे तमाम धर्मग्रन्थों में जिक्र हैं। उसी को काव्य रूप से इतने कम पन्नों में समेट कर पठनीय बनाया गया है। तो भी जन्म के बाद मृत्यु के सत्य को सभी जानते हैं, स्वीकारते हैं, लेकिन मैं, मेरा से मोहग्रस्त रहते हैं। कोई भी यमराज की अगवानी के लिए दो गज कफन खरीद कर पहले से नहीं रखता। ऐसे में सत्य से साक्षात्कार कराता है काव्य ‘नचिकेता’।
    शुक्ल शोणित संघात होकर/द्रवरूप में से लेकर जन्मांतर के पालने में नचिकेता नेत्र खोलता है से आगे काल कहीं नहीं जाता/ पीछे मुड़कर अंतिम बार देखा तो/दो काले भैंसे/ प्रिय पुत्र! तू हमारा सब कुछ था/ महारौरव नामक नरक में गिरता है। मैं ईश्वर से एकात्म हो जाता हूं, तक मनुष्य की वेदना का संघर्ष प्रतिष्ठापित है। जिंदगी की अनसुलझी पहेली और उसकी उत्तेजना में किये गये कर्म एवं उसके अनुरूप दण्ड के भय को उद्घाटित करते हुए ईश्वर के समक्ष खड़े हो जाने का शानदार समापन काव्यमय किया गया है। ‘नचिकेता’ काव्य को पढ़ने के बाद श्री के.जी. बालकृष्ण पिल्लै को द्दन्यवाद दंूगा। वे केरल हिन्दी प्रचार सभा के
अध्यक्ष रहे हैं। ‘प्रियंका’ कार्यालय आये भी हैं, उनका स्नेह बराबर बना रहा। इतनी उम्र होने पर भी उन्होंने प्रो0 नायर और रविकुमार को प्रेरित किया कि जन्म, मरण और अस्तित्व के संघर्ष के सत्य का लयबद्ध आनंद ‘प्रियंका’ के पाठक भी ले सकंे।
    और अन्त में इतना ही, ‘नचिकेता’ आदमी की आत्मा को झिंझोड़ने में सक्षम है। ‘मैं’ को ठोकर मारकर मानव को जगाने का नाम है ‘नचिकेता’। मोटे-मोटे ग्रन्थ सभी नहीं पढ़ सकते, परन्तु इस काव्य की पंक्तियां ग्रन्थों की तरह ही प्रेरणा देंगी।

यदि आज अंगरेज भारत छोड़ दें?

अंगरेज नेता और समाचार-पत्र बहुधा यह धमकी दिखाया करते हैं कि यदि अंगरेज आज भारत को छोड़कर चले जाएं, तो कल ही यहां पर चीन की तरह क्रांति मच जाय और अफगानिस्तान -सरीखा कोई विदेशी आक्रमण कर इस देश पर अपना अधिकार जमा ले; रूस अपना षड्यंत्र अवश्य फैलावेगा और उस समय भारत की सांपत्तिक और नैतिक अवस्था कहीं गिर जायगी। इससे अच्छा तो यही है कि अंगरेज सर्वदा भारत में रहकर भारत की रक्षा करें, और
धीरे-धीरे उसको स्वराज्य की ओर ले चलें (?)
    इधर बड़ी व्यवस्थापिका सभा में इस प्रश्न पर पंडित मोतीलाल नेहरू ने काफी प्रकाश डाला है। गवर्नमेंट की सेना-नीति की कड़ी आलोचना करते हुए आपने रूस का हाल, जैसा स्वयं उन्हांने देखा है, बयान किया। आपका कहना है कि ‘‘रूस स्वयं ब्रिटिश-नीति से डरता रहता है, और सर्वदा आत्मरक्षा में तत्पर रहता है। उसमें इतना साहस कहां, जो भारत पर आक्रमण करें।’’ रही अफगानिस्तान की बात, सेा वह भी अमीर अमानुल्लाह के इधर के व्याख्यानों से ही प्रकट है। अमीर स्वयं अपने देश की उन्नति में ही रत हैं। थोड़ी देर के लिये यह भी मान लिया जाय कि अफगान आक्रमण करेंगे, तो क्या यह विचार में आ सकता है कि भारतवासी उनसे लोहा न ले सकेंगे? जब जर्मनी के छक्के भारतवासियों ने छुड़ा दिए, तो अफगान कौन चीज है।
    खैर, इसको भी जाने दीजिए। क्या भारत छोड़ने से अंगरेजों का कोई नुकसान न होगा? इधर डाॅक्टर तारकनाथ दास ने अमेरिका में व्याख्यान देते हुए सारबोन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एलबर्ट डेमाज्योर की स्पीच उद्धत की है। पाठकों के लिये वह यहाँ पर दी जाती है -
    ‘‘भारत चूसा जाने के लिये अच्छा देश है। बहुत बड़ा धनी और घना बसा हुआ होने के कारण वह अपने स्वामी को धन और आत्म-रक्षा-साधन प्रदान करता है। भारत ही के द्वारा इंगलैंड अपना भाग्य-निर्णय करता हैं। सुदूर पूर्व (चीन, जापान आदि) में ब्रिटिश व्यापार के लिये भारत केंद्र है। वह ब्रिटिश-जहाजी बेड़े को शरण देता है। सेना में सहासी योद्धा भरती करता है; भारतीय सेनाएं इंगलैंड के लिये चीन और दक्षिण अफ्रिका में लड़ती हैं, यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि भारत ने मेसोपोटामिया को जीता और टर्की को हराया। भारत इंगलिस्तान के लिये एक बृहत् मंडी है..... भारत इंगलैंड को सूद के रूप में 13,500 लाख पौंड से ज्यादा वार्षिक धन अर्पण करता है। भारतीय सेना में तमाम ब्रिटिश अफसर और सिपाही अपना पेट भरते हैं, और उनकी बचत ग्रेट-ब्रिटेन को जाती है। वह ब्रिटिश खजाने में अफसरों की पेंशन, इंडिया आफिस के खर्च और सूद के रूप में न जाने कितना धन डालता चला जाता है। 300 लाख पौंड से कहीं ज्यादा रूपया भारत अंगरेज महाजनों को देता है। इसका अंदाज लगाना असंभव है कि और कितना अधिक वह अंगरेज व्यापारियों को और जहाजों के स्वामियों को प्रदान करता है।’’
    ये शब्द एक नामी फ्रेंच प्रोफ्रेसर के हैं। पर इनमें कोई नई बात नहीं है। स्वयं र्लाउ बर्केनाहेड के शब्द उन्हीं के मुखारविंद् से सुन लीजिए-
‘‘भारत इंगलैंड के लिये अमूल्य है। इंगलैंड की व्यापारिक सफलता और संपन्नता भारत ही से है। भारत से नाता टूटना इंगलैंड के लिये एक भयानक अर्नथ होगा।’’ 
    .............‘‘यदि हम भारत छोड़ दंे, तो हमरे साम्राज्य का सत्यानाश प्रारंभ हो जाय; क्योंकि पूर्वी देशों पर भारत ही के कारण हमारा आद्दिपत्य हैं। वे सब हाथ से अवश्य निकल जायंगे।’’
    एक तरफ तो अंगरेजों के ऐसे विचार हैं, दूसरी तरफ वे डरे भी हैं। भारत छोड़ देने पर उनका नाश अवश्यंभावी हैं फिर इतनी मूर्खता क्यों? लेकिन दुःखी और बेडि़यों में जकड़े हुए भारत की अपेक्षा स्वतंत्र और सुखी भारत इंगलैंड को कहीं अधिक लाभ पहुंचा सकता है।

पिटती पुलिस


लखनऊ। पुलिस का खौफ अपराधियों में पहले ही नहीं रह गया, अब जन सामान्य में भी उसका इकबाल घट रहा है। पिछले दस महीनों में प्रदेश के छः जिलों में सात पुलिसवालों पर सरेआम हमले हुए जिसमें चार की मृत्यु हो गई। मेरठ में 7 दिसम्बर को छात्रों के दो गुट्टों में हुए झगड़े को सुलटाने के दौरान पुलिस उपनिरीक्षक आनन्द पाल सिंह को इंजीनियरिंग के छात्र पंकज शर्मा ने गोली मार दी। इससे पहले 15 मई को मेरठ में दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबिल संजीव और उसके साथी को सरेआम सड़क पर गोली मार दी गई थी, जिसमें संजीव ने मौके पर ही दम तोड़ दिया था।
    लखनऊ में नवम्बर महीने में मुख्यमंत्री की सुरक्षा में तैनात पुलिस उपाधीक्षक की पिटाई सरेआम हो गई थी। लखीमपुर में 29 अक्टूबर को कांस्टेबिल उमेश कुमार को गोलीमार कर हत्या कर दी गई। 24 अक्टूबर को इलाहाबाद के दुबावल गांव में मध्य प्रदेश वायरलेस पुलिस में कार्यरत एक सब इंस्पेक्टर की जमीनी विवाद में गोली मारकर हत्या कर दी गई। बदायूं के नदौलिया गांव में स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को उस समय गोली मार दी गई जब वह अपराद्दियों का पीछा कर रहा था। 30 मार्च को कानपुर के नौबस्ता थाने के एसओ देवेन्द्र सिंह की पुलिस स्टेशन के भीतर गोली मारकर हत्या कर दी गई। इसी तरह यातायात सिपाही भी आए दिन पिट रहे है। (देखें बाॅक्स)
    पुलिस पिट रही है लेकिन एडीजी कानून-व्यवस्था अरूण कुमार कहते हैं, ये घटनाएं अपराधियों द्वारा नहीं अंजाम दी जा रहीं, बल्कि अचानक घट रही हैं, इन्हें हादसों की तरह देखा जाना चाहिए। फिर भी पुलिस का इकबाल कम हो रहा हैं, सवाल जस का तस है।
पिछले दो महीने में हुए ट्रैफिक पुलिस पर हमले
ऽ    14 दिसम्बर को चैक में कन्वेंशन सेंटर तिराहे पर लाल बत्ती पार करते हुए बाइक सवार विजय कुमार को रोकने पर उसने ट्रैफिक सिपाही पर रिवाल्वर तान दी।
ऽ    11 दिसम्बर को टेढ़ी पुलिया चैराहे पर तैनात दरोगा अम्बिका प्रसाद यादव पर एक इंडिका सवार युवक ने अपनी कार चढ़ाने का प्रयास किया।
ऽ    16 नवम्बर को डालीगंज पुल पर टैªफिक सिपाही राजेश यादव से मंत्री के करीबी दो युवकों ने हाथापाई की थी।
ऽ    9 नवम्बर को शराब तस्कर परमजीत सिंह ने आलमबाग में चेकिंग के दौरान सिपाही को कुचलने की कोशिश की थी।
ऽ    06 नवम्बर को साउथ सिटी पुलिस चेक पोस्ट के पास दो युवकों ने सिपाही राजू निगम पर हमला कर दिया था।
ऽ    02 नवम्बर को निशातगंज पुलिस चैकी के पास ट्रैफिक हेड कांस्टेबिल एचसी कुशवाहा को तीन छात्रों ने पीटा।
ऽ    02 नवम्बर को ही आलमबाग के पास सिटी बस में दो छात्रों ने एटीएस के सिपाही संजय यादव को पीटा।
ऽ    01 नवम्बर को हजरतगंज में रायल होटल चैराहे के पास दो युवकों ने सिग्नल तोड़ने का विरोध कर रहे ट्रैफिक सिपाही दशरथ प्रसाद की पिटाई की थी।

आज सडे है, लखनऊ गंदा रहेगा

लखनऊ। राजधानी में सफाई अभियान के साथ कूड़ा उठवाने और आवारा जानवरों को पकड़ने में नगर निगम ने पिछले दिनों खासी दिलचस्पी ली। हालांकि इसी बीच पुराने लखनऊ के तोप दरवाजे पर आवारा सांड़ ने एक युवक को बुरी तरह घायल कर दिया। पूरे शहर में दसियों लोग इन साड़ों की दबंगई का शिकार हो रहे हैं। नगर विकास  मंत्री भी बार-बार गंदगी देख नाराज होते हैं। वहीं सफाईकर्मी शहर को गंदा रखने की कसम खाकर आन्दोलन और धरने का सहारा ले मजे कर रहे हैं। 30 लाख की आबादी वाला शहर लखनऊ रविवार और सार्वजनिक अवकाशों को बेहद सुस्त हो जाता है। सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है। कई प्रमुख बाजार बन्द रहते हैं। सड़कों पर यातायात का दबाव बेहद कम होता है। ऐसे में सफाईकर्मी भी छुट्टी मना लेते हैं। सफाईकर्मियों की छुट्टी का नतीजा शहर के लिए गंदगी का तोहफा हो जाता है। गलियों, सड़कों पर कूड़ा फैला रहता है, तो नालियाँ भरी हुई बजबजा रही होती हैं। आमतौर पर सफाईकर्मी कूड़ा आधा-अधूरा उठाते हैं, नालियों की सिल्ट खाली ही नहीं करते, इसी कारण महज 24 घंटे में शहर कूड़े से पट जाता है। इसमें आवारा जानवर और समझदार नागरिक भारी इजाफा करने में बढ़-चढ़कर कर हिस्सा लेते हैं। ये सभ्य लोग अपने को राजधानी का वाशिन्दा नहीं मानते या सरकारी कर्मचारी आसमान से आएंगे सोंचते हैं? इसी तरह की सोंच के लोग एक बार सरकारी सेवा में आने के बाद काम न करने का जेहाद जारी रखते हैं। पिछले दिनों स्मारकों पर तैनात सफाई कर्मचारियों ने नगर निगम के सफाई अभियान मंे काम करने से न केवल इन्कार किया बल्कि जिस काम के लिए तैनात हैं वह भी बंद करके धरना प्रदर्शन करते रहे, अधिकारियों के खिलाफ नारेबाजी करते रहे। उनका तर्क है कि उन्हें केवल स्मारक व कैम्पस में साफ-सफाई के लिए नियुक्ति किया गया है। यह तर्क उचित नहीं है। इस तरह चुनावों के दौरान चुनावों में काम करने वाले शिक्षक, राज्य कर्मचारी, न्यायिक अधिकारी तर्क दें, तो क्या चुनाव संपन्न हो सकेंगे? स्मारकों में तैनात कर्मियों का काम न करने का एलान अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए? इन पर बाकायदा कार्रवाई की जानी चाहिए? यदि राज्य सरकार दण्डात्मक कदम नहीं उठाती तो उच्च न्यायालय को स्वतः इस प्रकरण को संज्ञान में लेकर इन सफाईकर्मियों पर चेतावनी स्वरूप कार्रवाई करनी चाहिए? यूं भी उच्च न्यायालय समय-समय पर स्वतः संज्ञान लेकर राज्य सरकार को शहर में सफाई करने, अतिक्रमण हटाने के आदेश देता आया हैं। इन सवालों को उठाने का मतलब है, अधिकार और कर्तव्य की परिभाषा कौन समझाएगा, कैसे समझाएगा या हम कैसे समझेंगे?
    गौरतलब है कि पिछले बरस पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने सफाई और पीने के पानी की व्यवस्था करने में उप्र को फिसड्डी घोषित किया था। ये ऐसे ही नहीं घोषित किया गया बाकायदा प्रदर्शन के आधार पर रैकिंग दी गई थी। लखनऊ तो गंदगी के मामले में काफी लम्बे समय से अव्वल रहा है। इसके पीछे जरूरत से आद्दे सफाईकर्मियों की तैनाती और उसमें भी आधे काम करने आते ही नहीं। इसके अलावा दलित राजनीति ने इन कर्मियों को ‘वोट’ में तब्दील कर दिया है। कमोबेश हर बालिग नागरिक ‘वोट’ में बदलकर मुट्ठियां भींचे हाथ हवा में लहराते हुए इंकलाब जिंदाबाद का नारा बुलंद किये हैं। तो फिर कौन करेगा अपने-अपने कत्र्तव्य?

बंदर भी हैं शोहदे!

लखनऊ। बंदरों की शोहदई और गुण्डई के लगातार बढ़ने से सूबे के लोग बेहद भयभीत हैं। वाराणसी, इलाहाबाद,
अयोध्या, कानपुर, आगरा, मथुरा, गाजियाबाद, विध्यांचल, बलरामपुर, चित्रकूट और नैमिष्यशारण व गोला गोकर्णनाथ आदि जगहों से बंदरों के आतंकी हमलों की भयावह खबरें आ रही हैं। यहाँ आपको बताते चलें कि पिछले दिनों दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल की अंत्येष्टि से लौट रहे भारत के राष्ट्रप्रति प्रणव मुखर्जी को बंदरों के उत्पात के चलते लगे जाम के कारण अपना रास्ता बदलना पड़ा। बंदरों की शोहदई का हाल यह है कि खुलेआम युवतियों से छेड़छाड़ और उनके कोमलांगों में काटकर उन्हें घायल कर रहे हैं। गुण्डई का आलम यह कि छतों पर लगी पानी की टंकियों का पानी प्रदूषित करने के साथ पाइपलाइन तोड़ रहे हैं। बच्चों का काॅलर पकड़ने से लेकर लोगों की हत्याएं तक कर रहे हैं। अपने झुंड में वर्चस्व की खूंखार जंग में अपने ही साथियों की हत्या कर उनके शव यहां-वहां फंेक देते हैं। खुलेआम छतों पर, छज्जों पर मैथुनक्रियारत बन्दर ‘पोर्न स्टारांे’ जैसी हरकतें अंजाम दे रहे हैं, तो युवा पीढ़ी उनके एमएमएस बनाने का खतरा उठाकर रोमांच जीने की ललक में घायल हो रही है।
    लखनऊ के नगराम में गांव केवली के कृष्णपाल बंदरों के दौड़ाने पर छत से गिरकर मर गये। गोसांईगंज के अमेठी में बंदरों ने 65 साल की बानों के घर की कच्ची दीवार गिरा दी जिसके नीचे दबकर वृद्धा बानों की मौत हो गई। मोतीनगर से सटे नेहरूनगर इलाके में बंदरों के झुंड में भयानक जंग देखकर लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंदकर लिये। घंटों बाद जब शान्ति हुई तो लोगों ने घर की छतों पर दो बंदरों के क्षत-विक्षत शव और तमाम खून के छींटे देखे। चारबाग रेलवेस्टेशन पर तो और बुरा हाल है, यात्रियों से खाने पीने का सामान छीन लेना विरोध करने पर काट लेना आम हैं। प्लेटफार्म पर ट्रेन का इंतजार करने वाले यात्रियों में महिलाओं की बड़ी सांसत है। उन्होंने खाने-पीने का सामान खोला नहीं कि बन्दर हाथ से छीनकर भाग जाते हैं। इसी तरह मंदिरों और घरों की छतों पर छीना-झपटी के साथ शोहदई जारी हैं। गणेशगंज में एक मकान की छत पर बच्चे खेल रहे थे, अचानक बंदरों का झुंड आ गया, बच्चे डरकर भागे, एक बच्चा पीछे रह गया। एक मोटे से बन्दर ने लपक कर उसका काॅलर पकड़ लिया। बच्चा बेहद डर गया, बमुश्किल वह छुटकारा पा सका। ऐसे ही ऐशबाग में छत पर कपड़े सुखाने आई एक युवती को बन्दरों के झुंड ने घेर लिया, वह डरकर बेहोश हो गई। होश आने पर उसने अपने कपड़े कई जगह से फटे व अपने शरीर पर काटे जाने के घाव पाये। यही हाल आगरा के कलेक्ट्रेट परिसर में है, जहां वकील, पैरोकार से लेकर दुकानदार तक हलकान हैं। इनकी हरकतों को कैमरे में कैदकर स्थानीय अखबारों ने छापा भी है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नवीन छात्रावास परिसर में घुसकर बंदरों का शरारती झुंड छात्राओं को काफी समय से परेशान कर रहा है। उन्हें दौड़ा कर काटने, उनके कपड़े फाड़ने जैसी हरकतें करते हैं। छात्राएं अपने कमरों को बन्द रखती हैं, फिर भी ये शोहदे लगातार उन्हें डराते रहते हैं।
    युवतियों को परेशन करने, उन्हें काटने की घटनाओं के बीच हैरतनाक खबरें भी हैं कि यदि कोई युवती उन्हें खाने-पीने का सामान देती है तो उसे चुपचाप लेकर ये चलते बनते हैं। कई बार बंदर इन युवतियों को दुलराते हुए भी देखे गए हैं। हाल ही में स्विट्जरलैण्ड में नयूचाटेल विश्वविद्यालय की बायोलाॅजिकल टीम ने दक्षिण अफ्रीका के लोस्कोप बांध नेचर रिजर्व में जंगली वेर्वेट प्रजाति के बंदरों के छह समूहों के अध्ययन के दौरान पाया कि ये बंदर महिलाओं के प्रति आकर्षित होते हैं। यदि कोई महिला इन बंदरों को किसी काम के लिए प्रेरित करे तो उसे ये बेहतर ढंग से समझते हैं। यह निष्कर्ष पत्रिका कार्यवाही की रायल सोसायटी बी में वर्णित है।
    युवतियों को शोहदों से बचाने के लिए ‘उप्र सरकार ने ‘वूमन पाॅवर लाइन’ तो उच्चतम न्यायालय ने गाइडलाइन तय की है, लेकिन इन बंदरों की शोहदई, गुण्डई से निजात दिलाने के लिए कौन फैसला लेगा?

सेल! सेल!! सेल!!! सेल!!!! बोलो बच्चा खरीदोगे

नई दिल्ली। कोख से लेकर कब्र तक बाजार में खुले आम बिक रही है। मुर्दा बिक रहा है, जिन्दा बिक रहा है। बीबी बिक रही है। मियां बिक रहा है। बच्चा बिक रहा है। खरीदने वालांे की भीड़ भी बढ़ रही है। एक साल के बच्चे की कीमत 50 हजार, तो चार महीने के मुस्कराते बच्चे की कीमत एक लाख.... क्या ज्यादा है? और जो अभी पेट में है उसकी कीमत दो लाख। गर्भ में आने वाले की कीमत तीन से पांच लाख के बीच मोल-भाव में जो तय हो जाय।
    राजधानी दिल्ली के तैमूरनगर, न्यू फ्रेंड्स काॅलोनी के पास ओखला की रहीमा ‘बच्चा उद्योग’ का जाना-पहचाना नाम है। अंग्रेजी अखबार ‘दि संडे गार्जियन’ ने हाल ही में एक खबर छापी है कि, रहीमा अपने आस-पास के इलाके के बड़े-बड़े घरों में घरेलू नौकरानी के साथ दाई (बच्चा पैदा कराने वाली नर्स) का काम करती है। उसका दावा है कि उसने यह काम 15 साल की उम्र से शुरू किया था और अब तक पांच हजार बच्चे पैदा कराने में उसकी भूमिका रही है। कई बार तो उसे एक ही रात में तीन से चार औरतों को अस्पताल तक पहुंचाने की मदद करनी पड़ी। वह उन औरतों की खास मददगार है जो गर्भधारण नहीं कर सकतीं और जो गरीबी की मार झेल रही हैं। उसका कहना है जो औरत न खुद अपना पेट भर सकती है, न ही अपने बच्चे को पाल सकती है उसकी मदद करती हूँ। दस दिन से जिस औरत के पेट में अन्न का एक दाना न गया हो, उसका बच्चा बीमार हो और उसे उचित देखभाल की जरूरत हो तो कोई उस बच्चे को गोद लेकर 50 हजार रूपये देकर उनका जीवन बचा ले वह भी कानून का पालन करते हुए तो क्या गलत है? ऐसे ही उसके पास कोख में पल रहे बच्चों और किराये की कोख में पाले जाने वाले बच्चों के साथ जरूरतमंद औरतों की खासी लिस्ट है। उसके ताल्लुकात राजधानी के तमाम प्राइवेट नर्सिंग होमों से हैं जहां वह आगरा, जयपुर तक से आने वाली लड़कियों को गर्भधारण कराने व उनके बच्चों को गोद दिलाने व विदेशी दम्पत्तियों को किराए का गर्भ दिलाने का काम धड़ल्ले से कर रही है। उसे अपने काम के खतरों से भी कोई भय नहीं है। उसका कारोबार महंगे सेलफोन के जरिए खूब फल-फूल रहा है। उसके एक कमरे के मकान के दरवाजे पर ग्राहकों और जरूरतमंद औरतों की आवाजाही देखी जा सकती है।
    यह कोई पहली खबर नहीं है। ऐसी खबरें आए दिन छपती रहती हैं। इससे पहले ‘संडे टेलीग्राफ’ अखबार ने छापा था कि ब्रिटिश दम्पत्तियों के लिए भारत ‘बच्चा फैक्ट्री’ बनकर उभर रहा है। उस खबर में दावा किया गया था कि पिछले साल अकेले दो हजार ब्रिटिशर्स ‘सरोगेसी’ के लिए भारत आए थे। जबकि देश में किराए की कोख से पैदा होने वाले बच्चों की संख्या डेढ़ करोड़ हो सकती है। यहां बताते चलें कि ब्रिटेन में किराए की कोख पर प्रतिबंध है। एक अनुमान के मुताबिक गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली आंध्रप्रदेश में हजारों आईवीएफ क्लीनिक ‘बेबी फैक्ट्री’ के नाम से जाने जाते हैं। इनमें अकेले हैदराबाद में 250 तो दिल्ली में अनगिनित नर्सिंग होम इस धंधे में लिप्त है।
    गुजरात के शहर आनंद को दूध उत्पादन में जहां अव्वल दर्जा हासिल है, वहीं किराए की कोख (ैनततवहंबल) के मामले में दुनिया की राजधानी कहा जाने लगा है। यहां अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान, इसराइल, फिलीपीन्स, टर्की, जर्मनी, आइसलैण्ड आदि से निःसंतान दम्पत्ति आते हैं और किराए की कोख खरीद कर अपना बच्चा ले जाते हैं। इस छोटे से शहर की ख्याति किराए की कोख को लेकर इतनी हुई कि नेशनल जियोग्राफिकल टीवी चैनल ने इस पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘द वाॅम्ब आॅफ दि वल्र्ड’ बना डाली है।
    किराए की कोख के कारोबार में यहां के एक नर्सिंग होम ने बाकायदा एक तीन मंजिला हास्टल बना रखा है, जहां गर्भवती महिलाओं को रखकर उनकी देखभाल की जाती है। कई बार इस हास्टल में एक साथ चालीस-पचास गर्भवती स्त्रियां रहती हैं। यहां किराए की कोख की कीमत 12-25 लाख है, जबकि अमेरिका में 80-90 लाख। वहीं बच्चा जननेवाली गरीब औरत को महज 5-7 लाख मिलता है। कृत्रिम प्रजनन अस्पतालों के जरिये किराए पर कोख लेने, डिंब या शुक्राणु बेचने के धंद्दे में केवल गरीब औरतें ही नहीं वरन् कुंआरी युवतियां भी शामिल हैं।
    गौरतलब है हिंदी फिल्म ‘विकी डोनर’ फिल्म भी इसी मुद्दे को लेकर बनाई गई थी। इसके प्रमोशन के दौरान अभिनेता जाॅन अब्राहम ने स्पर्म डोनेशन पर जब अपनी बेबाक राय जाहिर की थी, तब उनका शुक्राणु मांगने वाली महिलाओं की खासी संख्या सामने आई थी। इससे भी आगे ूूूण्इमंनजपनिसचमवचवसमण्बवउ साइट खूबसूरत बच्चा पाने वालों के लिए पिछले दस सालों से सक्रिय है। इस वेबसाइट के दुनिया भर में लाखों सदस्य हैं। इसी तरह लंदन के एड हाबेन प्रोफेशनल बेबी मेकर के रूप में पूरे यूरोप में प्रसिद्ध हैं। अप्रैल 2012 तक वे 82 बच्चों के पिता बन चुके थे, इनमें 45 बेटियां और 35 बेटे हैं। हाबेन अपना शुक्राणु बेचने के साथ ही बच्चा चाहने वाली महिला के साथ यौन सम्बन्ध बनाने के लिए भी मशहूर हैं।
    भारत में किराए की कोख कारोबार में उप्र व बिहार की महिलाओं की भी बड़ी संख्या है। यह पूरा कारोबार गोद लेने व प्रजनन कानूनों को धता बताकर खुलेआम हो रहा है। दुःख तो इस बात का है कि इसी मुल्क में कन्या-भ्रूण की हत्याएं हो रहीं हैं, तो खुलेआम नवजात कूड़ाघरों, सड़कों पर फंेके जा रहे हैं और दो करोड़ से अधिक अनाथ बच्चे देश की सड़कों पर जीने को मजबूर हैं। इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है और बच्चा बेचने-खरीदने का धंधा फल-फूल रहा है?

इसके बाद भी नया साल मुबारक?

फिर लौटकर आ गया लाॅटसाहबों की झंडाबरदारी वाला नया साल। पुराना वाला आदमी की आत्महत्या से घबराकर विदा हो गया। मगर अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लम्पट स्वागतम के रतजगे में जनतंत्र-जनतंत्र खेलने में व्यस्त हैं। खबरें छपती हैं, ‘मोहर्रम’ जेल में, अफसरों ने गायब कर दिया भरापुरा गांव, अरे यहां तो पानी लूटा जा रहा है, कर्ज, भूख तो छिपाया ही, उम्र भी सही नहीं बताई, भाजपा को गर्व है कि उसके पास मोदी हैं, उगाही में दो पत्रकार गिरफ्तार।
    वकील साहब गरीब मोहर्रम अली को राजू यादव बनाकर जेल भिजवा देते हैं और अफसरान असलियत जान पाये तो भी 83 दिन तक जेल की सलाखों के पीछे मोहर्रम को रोना कलपना पड़ा। साढ़े बाईस बीघा जमीन का जोतदार कर्ज में डूबा किसान कामता प्रसाद कीटनाशक पीकर मई, 2012 में आत्महत्या कर लेता है। बात विद्दायक तिंदवारी तक पहुंची, उन्हें बुंदेलखण्ड के किसानों की बदहाली का हाल पहले ही मिल रहा था। इस घटना से दुखी विधायक दलजीत सिंह ने सरकार को चिट्ठी लिखी। सरकार के मंत्री ने जवाब दिया कि बुंदेलखण्ड के किसी भी किसान ने भूख या कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या नहीं की। यह जवाब सरकारी अफसरों की जांच रिपोर्ट पर आधारित थी। मजा तो यह कि कामता प्रसाद का गांव गोरनपुरवा उप्र के नक्शे से गायब करने का कारनामा भी इन अफसरों ने कर दिखाया। इसी गांव का पानी, पानी माफिया लूट लेते हैं। ठीक ऐसे ही पवई गांव के किसान अमृतलाल की आत्महत्या को भी अफसरान नकार गये। महोबा में सुगिरा गांव के किसान राम कुमार ने 1.80 लाख के कर्ज से परेशान होकर 14 दिसम्बर को फांसी पर लटक कर अपनी जान दे दी। अफसरान चुप? सच को झूठ के ठीहे पर हलाल करने वाले तो अपराधी कहे ही जाएंगे, लेकिन प्रदेश का भरा पुरा, खाया-पिया अघाया विपक्ष जिनमें से किसी के पास मोदी हैं, तो किसी के पास माया, उनमें से किसी ने भी कोई आवाज नहीं उठाई। कोई भी सियासतदां हमीरपुर जाकर सच जानने को बेचैन नहीं हुआ।
    सच की तलाश करने की कोशिश की एक अखबार ने, उसके पत्रकार ने, तभी सामने आया आदमी और जरायम पेशा हुक्मरानों के बीच का तल्ख षड़यंत्र। बस यहीं पत्रकारों की पूरी जमात मुल्जिम के कटघरे की ओर धकियाई जाने लगती है। समूचे मीडिया की विश्वसनीयता दांव पर लगा दी जाती है। उसकी कलम को द्रौपदी सा निर्वस्त्र करने के तमाम दुर्योधनी जतन होने लगते हैं। मगर यहीं एक सवाल मुझे लगातार मथ रहा है। पत्रकार क्यों पांडवों के जुआरी आचरण को अपनाने का लोभ कर बैठते हैं?
    जी.टी.वी. के दो पत्रकारों को जिंदल ग्रुप से उगाही के जुर्म में पिछले साल पकड़ा गया। उन्हें जेल भेज दिया गया। मीडिया पर भरोसे के संकट का ढोल लगातार पीटा जा रहा है। इसके पीछे वही अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लोग सक्रिय हैं, जो किसी कामता, किसी मोहर्रम को अपना निशाना बनाने के माहिर हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों पत्रकार दूध के धुले हैं या उनके कारनामें को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। अपराध, अपराध है। उसकी सजा बेशक मिलनी चाहिए, लेकिन असल कुसूरवार कौन है? यह तलाशने और उनको दण्ड देने का काम कौन करेगा?
    क्या वो जिनकी नजर में नब्बे फीसदी भारतीय मूर्ख हैं? या फिर वे जिनके पांवों में चांदी के जूते हैं और दांतों में सोना जड़ा है? इन दोनों में से किसी की भी हिम्मत आज तक कानून का मजाक उड़ाने वाले, उद्दंड भाषा में मुंबई से छपने वाले ‘सामना’ के मुखलिफ आवाज उठाने तक की नहीं हुई?  इसके बाद भी नया साल मुबारक?