Sunday, November 6, 2011

कवि कोविद क्लब के जन्म-दाता की आरती

श्री दुलारे लाल भार्गव
की कतिपय कविताएंः समयानुसार
मैं तो आरती उतारूं श्री दुलारे लाल की।
श्री दुलारे लाल की, श्री दुलारे लाल की।।
        मै तो.........................
सुकवि दुलारे लाल की, ब्रजभाषा प्रतिपाल की;
जिनकी दोहावली बनी है बिंदी हिन्दी भाल की।
श्री दुलारे लाल की, श्री दुलारे लाल की।।
        मै तो...........................
हिंदी कवियों के निर्माता, हिंदी के गौरव विख्याता;
हिंदी भाषा के संरक्षक कुंजी कोष विशाल की।
श्री दुलारे लाल की, श्री दुलारे लाल की।।
        मै तो...........................
‘कवि-कोविद-क्लब‘ जीवनदाता, छन्द अलंकारों के ज्ञाता
सत्य धर्म के परम पुजारी, सज्जनता जय-माल की।
श्री दुलारे लाल की, श्री दुलारे लाल की।।
        मै तो...........................
संत संग संतो की चर्चा, ध्यान आचरण ईश्वर अर्चा;
कविता की अविरल सुर सुरिता भक्ति सुरभि सुरमाल की ।
श्री दुलारे लाल की, श्री दुलारे लाल की।
मैं तो आरती उतारूं श्री दुलारे लाल की।।
लखनपुरी के लाड़ले दुलारे लाल की।।
भव्य अवध की वन स्थली ता में त्वं अभिराम।
शुद्ध भारती परिग्रही शत-शत तुम्हें प्रणाम।।
--गिरिजा देवी ‘निर्लिप्त‘-- 

दुलारे दोहावली एक परिचय

लोकनाथ द्विवेदी ‘सिलाकारी’
कविवर पं0 दुलारे लाल जी भार्गव की इस श्रेष्ठ रचना ‘‘दुलारे दोहावली’’ में सब मिलाकर दो सौ आठ दोहे है- (1) गणेश प्रार्थना (2) राधा कृष्ण विनय (3) रमापति विनय (4) मातृ-भूमि वन्दना (5) कवि धर्म (6) वीर रस के लिए कवि प्रार्थना (7) कला और (8) सरस्वती वन्दना। इसके बाद मुख्य ग्रंथ प्रारंभ होता है। इन दोहा रत्नों को कवि ने यत्र-तत्र बिखेर कर रखा है।
    दुलारे दोहावली जिस रचना प्रणाली पर लिखी गई है, उनके अनुसार यह साहित्य शस्त्र की दृष्टि से एक ‘‘कोण’’ है, जिसमें 208 दोहे रत्न यत्र-तत्र अपने ही आप में पूर्ण रहकर अपनी कमनीय कांति प्रदर्शित कर रहे है। साहित्य - शस्त्र में विवेचकों ने एैसे ‘‘पद्म रत्नो’’ को ‘‘ मुक्तक‘‘ कहा है। पत्रात्मक काव्य के प्रधानतया दो भेद हंै। (1) प्रबन्ध-काव्य (2) मुक्तक-काव्य। प्रबंध-काव्य में कवि एक विस्तृत कथानक का आश्रय लेकर काव्य-रचना करने के लिए एक विशाल क्षेत्र चुन लेता है। उसे काव्य को एक विस्तृत क्षेत्र में यथास्थान भर देने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। उसका काम अमिधा से निकल जाता है, और कथानक की रोचकता के कारण उसमें मनोरमता रहती है। मुक्तक कार का क्षेत्र बहुत ही सर्किण रहता है, उसी में उसको अपना संपूर्ण कथानक ध्वनि से गंभीर अर्थ -पूर्ण शब्दों में, झलकाना पड़ता है। जहां प्रबंध-काव्य में छंद श्रंृखला संबद्ध रहने के कारण आगे-पीछे के पद्यों का सहारा लेकर अपनी रचना कर सकते है, वहाँ मुक्तक-छंद को स्वंतत्र रूप से एकाकी रहकर अपना गौरवपूर्ण प्रबन्ध के सामने स्थापित करना पड़ता है। इसीलिए खंड काव्य, महाकाव्य आदि लिखने की अपेक्षा मुक्तक लिखना महत्वपूर्ण है।
    यह सत्य है कि मुक्तक की रचना काव्य-कला कुशलता का चरम आर्दश है। एक पूरे प्रबंध(ग्रंथ) में कवि को विस्तृत कथानक का आश्रय लेकर रस स्थापना का जो कार्य करना पड़ता है, वही कार्य एक छोटे से मुक्तक में कर दिखाना विलक्ष्य काव्य रचना सामथ्र्य की अपेक्षा रखता है। कथानक का विस्तृत वर्णन न करके अर्थात् उसका आश्रय न लेकर एक छोटे से छंद में इतना रस भर देना कि अगली-पिछली कथा का आश्रय लिए बिना ही उसके आस्वादन से तृप्त हो जाय, सचमुच में आसाधरण प्रतिभा का काम है। एक ही स्वतंत्र पद्य में विभाव, अनुभव और संचारी भावों से परि-पूर्ण रस का सागर लहराना, एक सम्पूर्ण आख्यायिका को थोड़े से ध्वन्यात्मक शब्दों में भर दिखाना, कथन-शैली में एक निराला बाँकपन एक निराला चमत्कार पैदा करना, उपमान उपमेयों द्वारा समान दृश्य दिखलाकर भावसाधम्र्य अथवा भाव-वैधम्र्य के आलंकारिक वेश को सजाना और सबके ऊपर दो देश-काल-पात्र के अनुकूल, स्वाभाविक प्रवाहमयी, अलंकारिक और मुहावरेदार, अर्थमयी, नपीतुली, भावानुकुल प्रांजल भाषा का सहज-सुकुमार प्रयोग करना सचमुच भारी क्षमता का काम है। मुक्तक की रचना प्रधानतया व्यंग-प्रधान उत्तम-काव्य में होती है। मानव स्वभाव का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण करना और प्रकृति पर्यवेक्षण एवं प्रकृति की अनुभूति के साथ गहन से गहन निगूढ़ रहस्यों का उद्घाटन करना मुक्तकों की रचना का आर्दश होता है। पं0 पद्मसिंह शर्मा ने ठीक ही लिखा है-
‘‘मुक्तक की रचना कविता शक्ति की पराकाष्ठा है। महाकाव्य, खंड काव्य या आख्यायिका आदि में यदि कथानक का क्रम अच्छी तरह बैठ गया, तो बात निभ जाती है। कथानक की मनोहरता पाठक का ध्यान कविता के गुण दोष पर नहीं पड़ने देती है। कथानक कथा-काव्य में हजार में दस-बीस पात्र भी मार्के के निकल आए, तो बहुत है। कथानक की सुन्दर सघटना, वर्णनशैली की मनोहरता और सरलता आदि के कारण कुल मिलाकर काव्य के अच्छेपन का प्रमाणपत्र मिल जाता है। परंतु मुक्तक काव्य की रचना में कवि को गागर में सागर भरना पड़ता है। एक ही पात्र में अनेेक भावों का समावेश और रस का सानिध्य सन्निवेश करके लोकोत्तर चमत्कार प्रकट करना पड़ता है ...... इसके लिए कवि का सिद्ध सारस्वतीक और वश्यवाक् होना आवश्यक है। मुक्तक की रचना में कवि को रस की अक्षुण्णता पर पूरा ध्यान रखना पड़ता है, और वही कविता का प्राण है।
(सतसई संजीन भाष्य भू0भा0) 
यद्यपि यर्थाथ में रसमय काव्य ही काव्य है, पर कुछ ऐसे काव्य भी लिखे जाते है, जो नीति एवं धर्म आदि के उपदेश को प्रधानतयः प्रतिपादित करने वाले होते है। इनमें वसुधा रस का अभाव रहता है। सुभाषित मात्र इनमें रहता है, जिसमें केवल वास्वैदरध्य का चमत्कार होता है। मुक्तक भी इस पर बहुतायत से लिखे जाते है। ऐसे सूचित प्रधान मुक्तकों की रचना नीति और धर्म आदि के उपदेश देने के उददेश्य से की जाती है। इनमें भी कथन शैली का बाॅझ-पन और शब्द-चमत्कार का समावेश होना आवश्यक होता है, क्यांेकि इनके बिना सुचि प्रदान उषम मुक्तक नही रखें जा सकते। रस को छोड़कर अन्य काव्याँको का समुचित समावेश इनमें अत्यन्त संक्षेप में करना पड़ता है।
    काव्य की अभिव्यत्ति सर्वोत्कृष्टतया व्यंग में होती है, इसलिए अनेक साहित्य रीति ग्रंथकार महापति विवेवकों ने व्यंग प्रधान काव्य को श्रेष्ठता दी है। बहुत से आचार्य और आगे बढ़ गए है, इसकी अभिव्यत्ति के लिए भी सबल होने के कारण ध्वनिमय व्यंग को काव्य की आत्मा घोषित किया है। इस प्रकार की रस-ध्वनि-पूर्ण काव्य रचना करने वाले ही महाकवि कहलाते है। यह व्यंग में ध्वनि से उसी प्रकार झलकता है, जिस प्रकार अंगना का लावण्य उसके शरीर से। धुरंधर काव्य मर्मज्ञ आनंदबर्द्धनाचार्य लिखते है--
    प्रतीयमान पुनरन्वदेव,
धरूत्वाषित वाणीषुँ महाकवीनाम्;
    यतत्प्रसिद्धवयवातिरिक्त,
विभाति लावण्यभिवांगनामु।।

(ध्वन्यालोक)
‘‘महाकवियों की वाणी में काव्य अर्थ एक ऐसी चमत्कार वस्तु है, जो अंगना के अंग मे हस्तपादादि प्रसिद्ध अवयवों के अतिरिक्त लावण्य की तरह चमकती है।’’
दुलारे-दोहावली के मुक्तक
इस प्रकार के मुक्तक और वे भी रस ध्वनि और भावानुगामिनि उत्कृष्ट काव्य-भाषा से युक्त, दुलारे-दोहावली में, यत्र-तत्र बिखरे हुए देख पड़ते है। यद्यपि ऐसा जान पड़ता है कि दोहावली में आदि से अंत तक कोई क्रम नही है, क्योंकि प्रत्येक पद्य मुक्तक होने से स्वतंत्र है, फिर भी विषय विचार की दृष्टि से दुलारे दोहावली में क्रम है, जो ध्यान से देखने पर मालूम हो जायगा। दोहावली के ये दोहे भाषा और भाव की दृष्टि से परमोत्कृष्ट हुए है। ‘सूक्ति’ के दोहे भी बड़े चुटीले और अनूठे काव्य के उदाहरण है। उनमें भी कथन शैली के तीखेपन के साथ माधुर कसक पूर्ण बांकपन पाया जाता है। इस दोहावली को सूक्ष्म तथा गहन दृष्टि से देखने पर गागर में सागर दिखलाई पड़ने लगता है। इतने विषयों को, इतने थोड़े में, इतने अनूठे ढंग से, सरल काव्य में लिखना और उनमें भी एैसा कुछ लिख जाना, जो बड़े-बडे़ विद्वान व्यक्ति भी न लिख सके थे, सचमुच असाधरण प्रतिभा का काम है। हमारे दोहावलीकार ने ऐसा ही किया है।
गागर मे सागर
इस एक ही छोटे काव्य कोष में इतना भर देना यह सिद्ध करता है कि इसके पूर्व  रचयिता ने बहुत कुछ देखा-भाला है, और उसका हृदय असंख्य अनुभूतियों का आगार बन चुका है। इसमें कवि ने जिस विषय को उठाया है, उसका बड़ा ही सच्चा, अनुभूत, हृदयग्राही और भावभायी चित्र, अत्यंत मनोरम, भावानुगामिनी भाषा में उपस्थित कर दिया है। सजीव कल्पना मूर्तियों द्वारा शाश्वत प्रकृति अंतरग और बहिरंग का रमणीय वर्णन साहित्य शस्त्रानुमोदित उत्कृष्ट कवि कौशल से करने में दुलारे-दोहावलीकार को अभिनंदनीय सफलता मिली है। विशुद्ध भारतीय भावनाओं को मानव प्रकृति को ग्राह, विशद कलात्मक रीति से उपस्थित करने में कवि का कौशल देखते ही बन पड़ता है। इस काव्य-कोष में ऐसे अनमोल मुक्तक रत्न हंै, जिनका मूल्य आंकना बडे़-बड़े जौहरियों का ही काम है। इसमें कवि का प्रकृति-पर्यवेक्षण और विशाल अनुभव स्पष्टतया परिलक्षित होता है।
दोहावली के बहुदर्शिता
स्मरण रहे, केवल पद्य लिखने लगना ही कविता करना नही है। कवि का संसार ज्ञान बड़ा विस्तृत होता है। वह मनुष्य स्वभाव का पारखी होता है। उसकी दृष्टि के सम्मुख प्रकृति का रहस्य खुल जाता है। उसकी कल्पना मत्र्य से स्वर्ग और स्वर्ग से मत्र्य तक अबाध गति से विचरण करती है। दुलारे-दोहावली के प्रणेता को अनेक कलाओं और शास्त्रों की जानकारी हमें आश्चर्यचकित करती है।
    इस दोहावली में व्याघिन का मृग को शेर से मारना और जाल में रखकर ले जाना, चंद्रमा के सम्मुख कमल का संकुचित हो जाना, अडि़यल घोड़े को लगाम खीचतें रहने एवं चाबुक चलाते रहने पर भी एक ही स्थान पर अड़े रहना, चंद्रोदय से कुमुदिनी का विकसित होना, चरसे से पानी का रूक रूककर जल देना, झरने का अविश्रांत प्रपात, पराजित नृपति का भागना और दुर्ग में पनाह लेना, आकाश से तारों का टूट कर गिरना और अमंगल की सूचना देना, बंशी डालकर मछली को फंसाना, कूंची चला कर पट पर चित्र चित्रित करना, चकमक पर लोहे की चोट देकर सूत में आग झाड़ना, बरसते हुए बादल को चीरकर ऊपर चढ़ जाना स्वास्थ्य का सम्पूर्ण सुखों का एकमात्र साधन होना, आत्मज्ञान से ‘‘ सर्व खल्विद ब्रम्ह’’ के भाव की प्राप्ति होने पर शाश्वत आनन्द, चुगल-खोरों की काली करतूत, झंझावात से उपवन का नाश, हवा से तरू का उखड़ जाना, खस की टट्टी से लुओं का शीतल-मंद-सुगध होना, रजनी-गंधा का रजनी में ही सुवास देना, अंबर-बेलि से तरू का शुष्क होना, मटके में मछलियों का कूदना और फंसना अंध-बिंदु के सामने पड़ने पर कोई भी वस्त्र का दिखलाई देना, हीरे की बहुमूल्यता उज्जवलता और कठोरता, बिना तार के तार से समाचारों का चुपचाप जाना और आना, मूर्छित स्वर्ण का कुरंड कण से आबदार बनना, भूकंप सुदृढ़ गढ़ का ढह जाना, आयात पर तट कर लगाकर देश की आर्थिक दशा को सुधारना, ज्वार से सिंधु में बाढ़ आना, शत्रु के प्रबल आक्रमण से भय- विह्वल हो नारियों का व्रत-रक्षणार्थ जौहर करना, छली ठगों का मूचर््िछत कर छलना, डाल पर झूला डाल कर पटली पर झूलना, तंत्री का रूधिर राग रागना, आतिशी शीशी का आँच खाकर भी यथापूर्व रहना, कर्ण का दान, भामाशाह त्याग त्रिशंकु की गति, हरिशचन्द्र की सत्यप्रियता, संध्या-समय पथिक का भटियारी के यहां विश्राम, संपूर्ण नगर के दीपकों का बिजली से जल उठना ब्रम्ह होकर अहंकार खो बैठना, आत्मसमर्पण करने वालों का समर्पण केतु दिखलाना, जल अति का घूम-घूमकर चपलता से एक ही ओर तैरना आदि-आदि अनेक वर्णन हैं, जिनसे कवि के व्यापक ज्ञान और पाँडित्य का परिचय प्राप्त होता है।
दोहावली में काव्यांग
दुलारे दोहावली में अनेक काव्यांगांे के बहुत ही आकृष्ट और विशुद्ध उदाहरण पाए जाते है। यहां कुछ का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। निम्नलिखित उदाहरणों से कवि का काव्य-रीति का मार्मिक ज्ञाता होना सूचित होता है। निम्नलिखित उद्धरणों में लाक्षणिक पद्धति का मनोमोहक चमत्कार दर्शनीय है--
पर्वानुरागांतगर्त अनुढ़ा की अभिलाषा दशा--
गुरूजन लाज लगाम, सखि सखि हू निदरि।
टरत न प्रिय मुख ठाम, अरत अरीले दृग-तुरग।
कलहांतरिता:
नाह-नेह-नभ तें अली, टारि रोस कौ राहु
प्रिय मुख चंद दिखाई प्रिय, तिय कुमदिनि बिकसाहु।
व्य-संधि:
नख-सिख देस लायौ चढ़न, इत जोबन-नरनाह
पदीन चपलई उत लई, जनु दृग-दुरग पनाह।
विरह-निवेदन
झपकि रही, धीरै चलौ, लेहु दूरि तें प्यार,
पीर-दब्यौ दरके न उर-चंुबन ही के भार।
प्रवत्स्यत्पतिका
तन-उपवन सहिहै कहा, बिछुरन-झंझावत,
उरयौ जात उर-तरू जबै चलिबे ही की बात।।
आगतपतिका:
मुकुता सुख अंसुआ भए, भयौ ताग उर प्यार,
मन-सूई ते गूंथि जनु, देति हार उपहार।
रूपकातिशयोक्ति-अलंकार
खिलैं अनेक सुभग सुमन, सुमन न नेक पत्याय,
अमल कमल ही पै मधुप, फिरि-फिरि फिरि मंडराय।
व्यतिरेक:
दमकति दरपन दरप दरि, दीपशिखा दुति देह,
वह दृढ़ इकदिसि दिपत, यह मृदु दस दिसनि स-नेह।
मैनंे-ऐन तव नैन, सौहें सरसिज-से सुभग,
ए बिकसित दिन-रैन, वे बिकसित बस दिवस हीं।
तेज तुरंग तुरंग तैं, इतौ कि दुसतर माप,
वह मारंै आगै बढ़ै, यह भागै द्रुत आप।
असंगति:
लरै नैंन, पलकें गिरैं, चित तरपैं दिन-रात,
उठैं सूल उर, प्रीति-पुर अजब अनोखी बात।
उत्प्रेक्षा:
कढि़ सरतें द्रुत दै गई, दृगनि देह-दुति चैंध,
बरसत बादर-बीच जनु, गई बीजुरी कांैध।
दोहावली में अलंकार:

दुलारे-दोहावली में वैसे तो अनेक अलंकारों का वर्णन है, और खूब है, परन्तु कविवर दुलारे लाल का पूर्ण कौशल रूपक अलंकार के उत्कृष्ट वर्णनों में परिलक्षित होता है। स्मरण रहे, उपमा की अपेक्षा रूपक अलंकार का निर्वाह कठिन होता है। इसमें भी परंपरित सावयव सम अभेद रूपक लिखना तो पूर्ण कवित्व-सामथ्र्य की अपेक्षा रखता है। प्रस्तुत दोहावली में कविवर न सावयव सम अभेद रूपक अलंकार की पूर्ण छटा अनेक दोहों में बड़े ही कौशल से छहराई है। किसी विष्रय को उठाकर उसके उचित भाव-साधन्र्य का दूसरा सावयव दृश्य उपस्थित कर उनमें आदि से अन्त तक सम अभेद रूपक का निर्वाह कर ले जाना विलक्षण प्रतिभा, प्रबल कल्पना और व्यापक ज्ञान के साथ-साथ सरस अनुभूति का परिचायक है। अब तक रूपकों की अनुपम छटा के लिए बिहारी-सतसई की ही सर्वापेक्षा अधिक प्रसिद्ध और सम्मान है। पर दुलारे-दोहावली के उत्कृष्ट रूपकों की परंपरित सावयव सम अभेद रहने की काव्य चातुरी देखकर अब विवश होकर यही कहना पड़ता है कि उत्कृष्ट रूपकों की दृष्टि से दुलारे-दोहावली के दोहे बिहारी सतसई के दोहो का सफलता से मुकाबला करते है। वैसे दो-चार रूपक यहां देखिये--
हृदय कूप, मन रहंट, स्मृति-माल माल, रस राग,
बिरह बृषभ, बरहा नयन-क्यौं न सिंचै स्मर बाग?
जोबन-बन बिहरत नयन-सर, सों मन-मृग मारि-
बांधति व्याधिनि केसिनि, केसन-पास संवारि।
नाह-नेह-नभ तें अली, टारी रोस कौ राहु-
प्रिय-मुख-चंद दिखाहु प्रिय, तिय-कुमुदिन विकसाहु।
चितन्वकमक पै चोट दै, चितवन-लोह चलाइ-
हित-आगो हिय-सत् मैं, ललना गई लगाई।
रही अछूतोद्वार-नद छुआछूत-तिय डुबि,
सास्रन कौ तिनकौ गहति क्रांति-भंवर सौं ऊबि।
यौरप-दुःशासन निठुर, खींचत लखि निधि चीर-
जन्मभूमि-कृष्ण करी ‘‘मोहन’’ अभय-शरीर।
दंपति-हित-डोरी खरी, परी चपल चित-डार,
चार चखन-पटरी अरी, झांेकनि झूलत मार।
चख-चर चंचल चार मिलि, नवल-बयस-थल आय-
हित झंपान ते चित-पथिक स्मर-गिरि देत चढ़ाय।

भाषा
    दुलारे दोहावली की भाषा प्रौढ़ साहित्यिक ब्रजभाषा है। स्मरण रहे, प्राचीन काल ही से साहित्यिक ब्रजभाषा में अत्यंत प्रचलित फारसी, बुंदेलखंडी, अवधी और संस्कृत के तत्सम शब्दों का थोड़ा-बहुत प्रयोग होता रहा। ब्रजभाषा के किसी भी कवि की भाषा का बारीकी से अध्ययन करने पर उपर्युक्त बात का पता सहज ही चल सकता है। कुछ प्राचीन कवियों ने तो अनुप्रास और यमक के लिए भाषा को इतना तोड़ा-मरोड़ा है कि शब्दों के रूप ही विकृत हो गये हैं। यद्यपि दोहावलीकार ब्रजभाषा के निर्माता सूर, बिहारी, आदि कवीरवरों द्वारा अपनाए गए बुन्देलखंडी, अवधी और फारसी के अत्यन्त प्रचलित शब्दों का बहिष्कार करना अनुचित मानते है, पर उन्होनें प्रायः ब्रजभाषा के विशुद्ध रूप को ही अपनाया है। दूसरी प्रान्तीय हिन्दी-बोलियों अथवा फारसी के शब्दों का आपने इने-गिने दस-पांच स्थलों पर ही, जहां उचित समझा है, प्रयोग किया है। आपने अत्यन्त प्रचलित अंग्रेजी शब्दों का भी दो-चार दोहों में प्रयोग किया है, परन्तु ऐसे स्थलों में प्रस्तुत अंग्रेजी शब्द वे है, जिनके पर्यायवाची शब्द हिन्दी में नहीं मिलते, और जिन्हें आज जनता भली भांति समझती है। जैसे-
शासन कृषि तै दूर, दीन प्रजा-पंछी रहै,
सासक-कृषकन क्रूर, आर्डिनेंस-चंचै रचै।

इसमें आर्डिनेंस का प्रयोग ऐसा ही हुआ है। एक और भी उदाहरण दर्शनीय है, जिसमें प्रचलित अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग द्वारा कविवर श्री दुलारे लाल ने ‘‘भाषा-समक‘‘ अलंकार रखा है-
सत इसटिक जग-फील्ड लै जीवन हाकी खेलि,
वा अनंत के गोल मैं, आतम बालहिं मेलि।

दोहावली की भाषा में बोलचाल की स्वाभाविक और जबांदानी का चमत्कार सर्वत्र दर्शनीय है। पद-मैत्री का भी सौष्ठव है। अनुप्रास, श्लेष और यमक का बड़ा ही औचित्यपूर्ण, रसानुकूल, सुन्दर प्रयोग किया गया है। माधुर्य, प्रसाद और ओज की अनेक दोहों में निराली छटा आ गई है। यहाँ स्थानाभाव के कारण भाषा-सौन्दर्य के विषय में अधिक न लिखकर मैं दोहावली के शब्दालंकारो की छटा की कुछ झलक दिखलाता हूं-
अनुप्रास
संतत सहज सुभाव सौं सुजन सबै सनमानि-
सुधा-सरस सींचत स्रवन सनी-स्नेह सुबानि।
कियौ कोप चित-चोप सौं-आई आनन ओप,
भई लोप पै मिलत चख, लियौ हियौ हित छौप।
स्याम-सुरंग-रंग-करन-कर रग-रग रंगत उदोत,
जग-मग जगमग, डग डगमग नहिं होत।
गुंजनिकेतन गंुज-जुत हुतौ कितौ मनरंजन,
तुजं-पुंज सो कुंज लखि क्यों न होय मन रंज।
नंद-नंद सुख-कंद कौ, मंद हंसत मुख-चंद,
नसत दंद-छलछंद-तम जगत जगत-आनन्द।।
यमक
बस न हमारौ, करहु बस, बस न लेहु प्रिय लाज,
बसन देहु, ब्रज मैं हमैं, बसन देहु ब्रजराज।
बार बित्यौ लखि, बार झुकि बार बिरह के बार,
बार-बार सोचति-कितै कीन्हीं बार लबार।
खरी सांकरी हित-गली, बिरह-कांकरी छाइ-
अगम करी तापै अली, लाज-करी बिठराइ।
हृदय-सून तै असत-तम हरौ, करौ जौ स्न-
स्न-भरन के हित झपटि झट अवैगो स्न।।
श्लेष
विषय-बात मन नाव कौं भव-नद देति बहाइ,
पकरू नाव-पतवार दृढ़़,चट लगिहै तट आइ।
मन-कानन मैं धंसि कुटिल, काननचारी नैन-
मारत मति-मृगि मृदुल, पै पोसत मृगपति-मैन।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

श्री दुलारे लाल भार्गव की कतिपय कविताएं:समयानुसार

 (1)
यदि भृगु-कुल को सतत समुन्नत लखना चाहें,
बुद्धि, वीर्य, बल केतु बंधुओं, रखना चाहें,
विद्या, कला प्रचार विभव में भरना चाहें,
कलह द्वेष-तम मिटा मोदमय करना चाहें,
तो नभ-सम अनंत, गिरि-सम अटल प्रेम परस्पर अनुसरें,
तज मन्सर-मद, रख दृढ़ एकला वंशोन्नति साधन करें।
(जनवरी 1919)
(2)

वियोग के आंसू
(Sonnet के ढंग पर एक प्यारे दोस्त की मृत्यु पर लिखित चतुर्दशपदी। हिन्दी में लिखित प्रथम Sonnet)
सिंची सहज स्व-स्नेह सलिल से अधखिली
    कली कलित असमय में ही मुरझा गई।
अमल अमोल, सुडौल रत्न की चमक हो
    गई विलीन कालिमा उस पर आ गई।
क्रीड़ा करते हुए बीच बादलों के
    चारू चंचला क्षणिक छटा दिखला गई।
वारि, बंूद छोटी-सी समय-समुद्र में
    खो अपना आकार सगस्त, समा गई।
कोमल कलरव करने वाले कीर को
    सकल - कठं-स्वर सुधा सुमधुर वृथा गई।
आशा के विस्तीर्ण क्षेत्र पर, था जहां
    जरा उजेला, घोर अंधेरी छा गई।
हां। आते ही याद अतुल सुख की घड़ी
    लग जाती आखों से आंसू की झड़ी।
(एप्रिल 1919)
(3)
सिवा, मधुर मधु, तिय-अधर-माधुरी धन्य।
पै नव-रस साहित्य की यह माधुरी (‘माधुरी’ सोद्देश्य) अनन्य।
बस न हमारो, करहु बस, बस अब राखहु लाज,
बस न देहु, ब्रज मैं हमैं बसन देहु ब्रजराज।
(महाकवि देव के कवित के आधार पर)
(जुलाई 1922)
(4)
सज्जन और दुर्जन
स्वावलंब, समदर्षिता, स्वाभिमान, सम्मान,
सुरूचि, सत्य, सेवा सतत सज्जन की पहचान।
अहम्मन्यता, आंतरिक, अहंकार, अज्ञान,
द्वेष, दंभ, दुर्भति दुर्जन की पहचान।
(जनवरी 1923)
(5)
सिंधु मथै सुर ही लही नैकु जु सतजुग मांहि,
सहज सुलभ सोई सुधा सवै समय सब कांहि।
(सुधा सोद्देश्य)
मुरली, मोहन मुंह लागी, अनुचित-उचित न चेति,
आयु पियत मुख-संसि सुधा, पै औरन जिय लेति।
(अगस्त 1927)
(6)
यौवन-प्याला
(गीत चतुर्दशदी)

था छलक रहा यौवन प्याला, पीना जब मैने शुरू किया,
कुछ होश न था, परवाह न थी, सब भय था मैने भुला दिया।
    गलती करती हूं ध्यान न था;
    बस किसी बात पर कान न था।
सब सखी-सहेली गई हार, शिक्षा उनकी वह व्यर्थ हुई,
उस रात स्वर्ग में नए-नए रचने में खूब समर्थ हुई।
    पर रहें घूट जब दो बाकी,
    जा चुकी कहीं नटखट साकी।
संगी सब चलने वाले थे, था बुझने को तैयार दिया,
सब हाय! हाय!! क्या किया!! सोेंचकर कांप अचानक उठा हिया।
    वह मस्ती मेरी हुई चूर,
    वे स्वर्ग जा पडें़ कहीं दूर।
मैं छुई मुई सी लज्जित थी कहती थी --‘‘ प्यारे प्राण प्रिया’’,
इस रूप ज्योति ने आ चुपके इतने में मुझे उबार लिया।
(फरवरी 1962)
(7)
(भारत माता)
देहु देस- हित झर-सरिस झर-झर जीवन-दान,
चरस-सरिस रूकि-रूकि कहा देत निपट नादान।
(नवम्बर 1933)
(8)
बार-बित्यौ लखि, बार झुकि बाल बिरह के बार-
बार-बार सोचति-‘कितै कीन्हीं बार-लबार।
(जुलाई 1934)

(9)
देव पुरस्कार प्रदान किए जाने के अवसर पर तत्काल लिखित दोहे--
मम कृति दोस भरी खरी, निरी निरस जिय जोई--
है उदारता शबरी, करी पुरस्कृत सोई।
आलोचकों के प्रति
संतत मद हूं ते अधिक पद को मद सरसाइ;
वाहि पाइ बौराइ, पै याहि पाइ बौराइ।

तो भी
जे पद-मद की छाकु छकि बोले अटपट बैन,
सोउ जन कृपा करें, भरें नेह सों नैन।
(फरवरी 1935)
(10)
राष्ट्र भाषा
भाषा-जागृति ते जगत निद्रित राष्ट्र-समाज
सहित-जागृति में बसति भारत-मुकति स्वराज
प्रेम, संगठन,एकता भाषा ही सो होय;
जागृति बिन भाषा-प्रगति करत न जग में कोय।
(1939)
(11)
ज्योति प्रवाह
मोह-रजनि में सजनि, जब तम भय होत उछाह;
मानस में तब कीजिए जगमग जोत-प्रवाह।
(12)
राधा गगनांगन मिलै धरापति सों धाय;
पलटि आपुनो पंथ पुनि धारा ही ह्नै जाय।
(फरवरी 1964)

अखिल भारतीय गीता -धर्म-सम्मेलन

स्वागताध्यक्ष-दुलारे लाल का भाषण
(कुंभ मेला संवत् 1992, को पूज्यपाद ब्रह्मनिष्ठ स्वामी विद्यानंद जी महराज ने अखिल भारतीय गीता-सम्मेलन का श्रीगणेश, पवित्र त्रिवेणी तट पर किया था। इस प्रथम अधिवेशन के सभापति रचनामधन्य डा0 गंगानाथ झा थे। एक दिन प्रातः स्मरणीय महामना मदनमोहन जी मालवीय महाराज ने भी सभापतित्व का शुभासन सुशोभित किया था। स्वागत-भार ‘सुधा’-सम्पादक एवं हिन्दी साहित्य-युग-प्रर्वतक दुलारे लाल भार्गव को सांैपा गया था, उसी पद से उन्होंने जो संक्षिप्त भाषण दिया था, उसे यहां पुनः प्रकाशित कर रहे हैं। अंत में प्रार्थना (गीत) परम पठनीय है।)
    श्री राधा-बाधा हरनि
        नेह अगाधा-साथ
    निहचल नैन-निकुंज में
        नाचै निरंतर-नाथ।
    नंद-नदं सुख कदं कौ
        मंद हंसत मुख-चंद,
    नसत दंद-छलछदं तम
        जगत जगत आंनद।

मान्य सभापति जी, देश के भिन्न कोनों से आए हुए प्रतिनिध जन तथा उपस्थित सज्जन-वृंद।
    आपका हम स्वागत करते हंै। आप ही लोगों का यह सम्मेलन है। आप लोगों ने ही हमें यह कार्य करने का भार दिया है, अतः हमसे जो कुछ करते बन पड़ा है किया है, आप अब उसे संभालिए।
    अब हम सब मिलकर एक बार गीतापति श्री कृष्ण का आवाहन् और स्वागत करें। वह आवें और अपनी गीता के प्रचार का हमें उपाय बतावें।
    हमें तो अब कुछ कहना ही नहीं। आप लोग इस प्रकार कृपा करके जब यहां आ गए है। तब फिर चाहिए ही क्या हमारे ऋषिकल्प महामहोपाध्याय डा0 गंगानाथ जी झा अपनी इस पैसठ वर्ष की वृ़द्धा और रूग्ण अवस्था में भी हम लोगों को ‘उत्साह’ और ‘योग’ देने आए हुए है। आप गीता के सौम्य आदर्श जीवन के जीते-जागते उदाहरण हंै। आपको देखकर हम लोग अपना जीवन बना सकते हंै। आप जैसे सभापति को पाकर यह अखिल भारतीय गीता सम्मेलन अवश्य सफल होगा, और अपने निष्काम प्रचार और लोक संग्रह का कार्य कर सकेगा।
    हमने झा जी के उपदेशों तथा अनेक जीवन के कार्यो से दो प्रधान बातें सीखी है- पहली यह की गीता को कठिन समझ कर व्र्यथ डरना नहीं चाहिए। वह तो भगवान की मुरली  की ध्वनि के समान मधुर और मनोहर है। भगवान ने बात ही बात में अपने सखा को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान सिखाया था। तब वह कठिन कैसे हो सकता है। कृष्णा ने वेद, उपनिषद् आदि की कठिन बातों को सरल भाषा में गाकर अर्जुन को समझाया था, इसी से तो इस शास्त्र को ‘गीता’ कहते है।
    हिन्दुओं के लिये वेद सर्वस्वभूत है; तथापि ज्ञान कांड के लिये उपनिषदों का भी सार रहस्य श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादन किया गया है। जैसा कहा जाता है-‘‘सर्वोय-निषदों गावो दोग्धा गोपालनन्दनः पार्थाें वन्सः सुयीभोक्ता दुग्धं गीतामृतः मह्त्।’’ इस उपनिषत्सारभूत गीतामृत पान करके जीवन मरण के द्वंद से विमुक्ति पाकर अमरत्व पद की प्राप्ति की अभिलाषा किसे न होगी? इस देव-दुलर्भ सुधा को वसुधा में सुलभ रूप से उचार करने वाले सज्जन क्यों न अभिनंदनीय समझें जायेगे? यद्यपि उपनिषदों के सारभूत होने के कारण गीता में ज्ञान काड की उत्कर्ष है, तथाति कर्म तथा भक्ति का विवेचन भी अत्यंत मार्मिक है।
    गीता को कठिन समझ कर डरना नहीं चाहिए। गीता का पाठ और प्रचार कठिन काम नहीं।
    दूसरी बात है लोक संग्रह का जीवन। हमारे महामहोपाध्याय जी ने जीवन भर शिक्षा विभाग में कार्य किया। अभी बुढ़ापे में भी विश्वविद्यालय के कुलपतित्व करते रहे, आज दिन भी आप एकेडमी आदि अनेक संस्थाओं में कार्य करते है, पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते और पुस्तकों की रचना तथा सम्पादन करते है। आप अस्वस्थ है, तो भी हम लोगो के प्रार्थना करते ही गीता-सम्मेलन में योग देने के लिए तैयार हो गए। हम आपके इस लोक संग्रह की वृति पर मुग्ध है।
    हमें आपकी इन दोनो बातों को लेकर गीता-प्रचार के क्षेत्र में उतरना है। हम इसे भगवान की कृपा समझते है, जो ऐसा ऋषि हमें प्रथम अखिल भारतीय गीता-सम्मेलन का सभापति मिला।
    हमारे इस सम्मेलन के संयोजक है वीतराग, लोक संग्रही स्वामी विद्यानंद जी। आपका जीवन भी त्याग और निष्काम लोक संग्रह का जीवन है। आपने इस सम्मेलन द्वारा सभी संस्थाओं, विद्वानों, सन्तों और महात्माओं से प्रार्थना की है कि वे इस काम में सहायता करें, और गीता-प्रचार के काम में कोई किसी का विरोध न करे। आपने इसी उद्देश्य से काशी में ‘गीता-धर्म’ नाम का एक मासिक पत्र निकाला है, उसका उद्देश्य हैै गीता सम्बन्धी समस्त प्राचीन वाड्ंमय का और अपने धर्म तथा प्रकृति का प्रतिपादन और प्रचार। इस पत्र की सबसें बड़ी विशेषता है, किसी का विरोध न करना। हम आशा करते हैं, कि आप लोग अपनी-अपनी सम्मति और सहयोग देकर स्वामी जी के इस लोक संग्रह के काम में सहायता देंगे।
    हमारे लिए यह अपार आनन्द की बात है कि इस तीर्थराज में, त्रिवेणी-तट पर इस साधु-संतांे और विख्यात विद्वानों के विराट् गीता-सम्मेलन में हमें ऐसा स्वागत करने का कार्य मिला।
 युधिष्ठिर ने यज्ञ किया था, आप लोग सब जानते है, गीतापति भगवान कृष्ण ने सबका स्वागत करने और चरण धोने का भार अपने ऊपर लिया था। यह भी गीता ज्ञान यज्ञ है। इसका स्वागत अध्यक्ष तो गीता पति जैसा पुरूष ही होना चाहिए, पर यह माननीय संयोजक श्री स्वामी जी महाराज की, मंत्री श्री आचार्य जी की तथा कार्यकारिणी की कृपा है, और हमारा सौभाग्य है, जो हमें यह सेवा करने को मिली।
    हम तो यही कहकर चुप बैठ जाते है कि इस गीता-यज्ञ और सम्मेलन में स्वागताध्यक्ष श्री कृष्ण जी हैं। हम तो निमित मात्र बनकर यहां खड़े हंै, आइए अब हम सब मिलकर उन्हीं गीता-गायक, ज्योतिर्मय, घनश्याम, बंशीधर, दीनदयाल श्री कृष्ण भगवान का आवाहन् करें, जिसमें यह अपने ढंग का अभूतपूर्व सम्मेलन सुचारू रूप से सफल हो--

प्रार्थना गीत
स्वागत! स्वागत! सुज समामिलित सुरस सुधा सरसाए,
गुन-गाहक! गीता-गुन-गन की गौरव गुनि-गुनि गाए।
ज्योतिरमय! जगि जगन ज्योति में करू अंग जग-मग जगमग;
भगति-सकति मरू रग-रग पग-पग होत जनन डग-डगमग।
जन घनश्याम ! जु सरस दरस कौं पाप-ताप तपि तरसें;
धाॅय धाॅय धधकत, धरहरि-हित धाय  धरम-रस बरसें।
बंसीधर! धर अधर बांसुरी मंजु मधुरी सरसें;
‘रूनझुन-रूनझुन‘ धुनि-सुनि मन मुन उनमन जन-गन हरसें।
दीनदयाल! दया दीनन द्रवि दीजै, दीनन दरसें;
तन-मन-धन-जन-जीवन अरपन करि प्रिय प्रभु-पद परसें।

मेरे अग्रज

-ज्योति लाल भार्गव
ज्येष्ठवर दुलारेलाल भार्गव जी का जन्म माघ शुक्ल 5, संवत 1956 को, बसंत पंचमी के दिन, लखनऊ में हुआ था। पूज्य पिता प्यारेलाल की प्रथम संतान होने के नाते संपूर्ण  नवल किशोर रेजिडेंस, जहां हमारा एक प्रकार से संयुक्त परिवार में निवास था, प्रफुल्लित हो उठा। पूज्य पितामह मुंशी प्रयाग नारायण व नवल किशोर रायबहादुर वंशोद्धव सभी शाखाओं के अभिभावक एवं प्रद्राय प्रश्रय थे। लक्ष्मी उन पर कृपालु थी, जिसका वरद्हस्त किंचित हम पर भी था। उन्होंने बड़े लाड़ से नाम रखा ‘दुलारे’ हो गया दुलारे लाल। पूज्य पिता एक प्रकार से इंजीनियर थे। उनकी क्षमता एवं कार्य कुशलता से लखनऊ में सर्वप्रथम, निजी प्रयास से नवल किशोर रेजीडेंस विद्युत प्रकाश से जगमगा उठा। पुरानी ‘फोर्ड’ मोटर के मालिक भी प्रथमतः वही थे।
    दुलारे लाल जी की शिक्षा-दीक्षा सर्व सुलभ सुविधाओं के मध्य राजसी ठाठ से हुई। वे अत्यन्त मेधावी छात्र थे। मैट्रिक में, अंग्रेजी में प्रांतभर में सर्वप्रथम आने के कारण, उन्हें ‘नेस्फील्ड स्कालरशिप’ मिली। इस रूपये को वह अपने निर्धन सहपाठियों को सहायतार्थ वितरित कर देते थे। उस समय हमारे बाबा, पिता, चाचा आदि सब उर्दू-फारसी में शिक्षा प्राप्त थे। परिवार में प्रथम बार दुलारे लाल जी, मुंशी विशन नारायन आदि की पीढ़ी में हिन्दी का प्रवेश एवं पठन पाठन हुआ। इस सन्दर्भ में पितामह प्रयाग नारायण एवं मातेश्वरी श्रीमती रामप्यारी की विशेष प्रेरणा थी। भाभी गंगा देवी ने कुछ ही समय साथ रहकर हिन्दी की पौध दुलारे लाल जी के हृदय में रोपित की और, वह आई0सी0एस0 की परीक्षा भूल कर पत्नी के दिवंगत होने पर, तन-मन से हिन्दी सेवा में लग गए।

गंगा पुस्तकमाला का प्रारम्भ
सन् 1917 में दुलारे लाल जी ने अपनी सहधर्मिणी गंगादेवी के नाम पर ‘गंगा पुस्तक माला’ को स्थापित करके अपनी प्रथम कृति ‘हृदय-तरंग’ प्रकाशित की। प्रथमतः ‘भार्गव’ पत्र निकालकर, बाद में ‘भार्गव’ पत्रिका का सम्पादन-भर सम्भालकर उन्होंने परम-पिता परमेश्वर से प्रार्थना की।
घनश्याम, गुणधाम हरे,
करें हमें सुखधाम हरे।
मन में भव्य भक्ति भर दें,
तन में भव्य शक्ति कर दें।

    इस आरंभकालीन पद ने उनका पग-पग पर समर्थन किया।
    दुलारे लाल जी जब 21 वर्ष के नवयुवक थे तब ‘गंगा पुस्तक माला’ से लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित कर चुके थे। इन सुसम्पादित, सुसज्जित प्रारंभिक प्रकाशनों ने हिन्दी को नया आयाम देना शुरू कर दिया था। फलतः श्रावण शुक्ल 77, शुभ तुलसी-संवत् (1979 वि0) ता0 30 जनवरी, 1922 ई0 को ‘माधुरी’ का जन्म हुआ। दुलारे लाल जी भार्गव और रूप नारायण पाण्डेय इसके संयुक्त सम्पादक थे।
    निःसंदेह ‘माधुरी’ को सर्वश्रेष्ठ लेखकों व कवियों का जो सहयोग मिला, वह दुलारे लाल जी के सानुरोध निरंतर आग्रह का ही चमत्कार था। उन्हें सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध और देवीदत्त शुक्ल से आशीर्वाद भी प्राप्त होता रहा।
प्रतिभाओं की पहचान: उस समय के साहित्यकार साधक थे; निर्धन रहकर भी वे लगन से लेखन-कार्य करते थे। ‘माधुरी’ की यह विशेषता रही है कि उसने नवयुवक लेखकों को भरपूर प्रश्रय दिया, उनको प्रोत्साहित किया। इस वर्ग में नवयुवक ‘निराला’, ‘पंत’, भगवतीचरण, गोविन्द बल्लभ पंत, इलाचन्द्र जोशी आदि आते हैं। निराला जी की कविता ‘जूही की कली’ आचार्य द्विवेदी ने वापस कर दी थी। श्री बख्शी जी ने एक अन्य कविता को, समझ में न आने के कारण, छापने से इनकार कर दिया था। तब आचार्य शिव पूजन सहाय ने दुलारे लाल जी को लिखा कि वह निराला जी की सहायता करें। फलस्वरूप ‘माधुरी’ के अप्रैल 1923 के अंक में निराला जी की कविता ‘अधिदास’ प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई। इस प्रकार दुलारे लाल जी ने उन्हें उच्च साहित्यिक महाराथियों के समकक्ष विराजमान कर दिया।
    इन प्रतिभाओं की पहचान में आज के वे अधिकांश मूर्द्धन्य साहित्यकार आते हैं, जिनकी तरूण भाषा को सुधारकर, ‘माधुरी’-‘सुधा’ में प्रकाशित किया गया तथा उनके चित्र छाप कर उन्हें हिन्दी जगत के समक्ष समुपस्थित किया। आज ये ही साहित्यकार अपने प्रथम प्रदाता को भूलें बैठे हैं; वे जान-बूझकर उस युग के प्रवर्तक की सेवाओं को विस्मृति के गढ़ में डालने का प्रयास कर रहे हैं। विधि की विडम्बना।
मुक्त हस्त व्यय: दुलारे लाल जी स्वभावतः दयालु, सहृदय और दूसरों के दुःखों से द्रवित हो जाने वाले व्यक्ति थे। वे सब की सहायता को सदा तत्पर रहते थे। जिस किसी साहित्य-सृजन में लगे लेखक या कवि ने आर्थिक सहायता की याचना की, उसकी उन्होंने (यदाकदा धनाभाव होने पर भी) मदद की। अनेक नवोदित साहित्यकार वृति की तलाश में आए और ‘माधुरी’, ‘सुधा’ के सम्पादकीय विभाग में सहकारी नियुक्त कर लिए गए, चाहे आवश्यकता हो चाहे न हो। कदाचित् ही कोई कथाकार, उपन्यासकार अथवा कवि हो, जिसकी प्रथम कृति या पुस्तक को गंगा पुस्तक माला में न गूंथा गया हो। पारिश्रमिक भी उस समय के अनुरूप यथेष्ठ दिया गया। आज भी किसी एक ग्रंथ पर 2,000/- रु0 का पुरस्कार प्राप्त करना दुर्भभ है; उस काल में 2000/- रु0 वाला धनी समझा जाता था। यह वह समय था जब हिन्दी पुस्तकों की बिक्री नगण्य थी। फिर भी ‘माला’ की प्रकाशन गति निरंतर बढ़ती गई; परिवार का निजी धन व्यय करके भी वस्तुतः यह पोषण था; शोषण नहीं।
‘सुधा’ का प्रकाशन: दुलारे लाल जी घोर राष्ट्रवादी थे। टण्डन जी, लाल बहादुर शास्त्री जी, रफी साहब आदि का उनसे प्रगाढ़ नित्य का सम्पर्क था। ‘माधुरी’के माध्यम से उन्होंने कांग्रेस का खुलकर समर्थन किया था; यह भी एक कारण था। फलस्वरूप दुलारे लाल जी और रूपनारायण पाण्डये ‘माथुरी’ से अलग हो गए। उन्होंने पुनः संयुक्त सम्पादकत्व में ‘सुधा’ को श्रावण 305 तुलसी संवत (1984 वि0) के दिवस जन्म दिया। प्रथम अंक में दुलारे लाल जी ने लिखा: ‘‘अब हम ‘सुधा’ को भी हिन्दी-संसार की सबसे उत्कृष्ट, उपयोगी और लोकप्रिय पत्रिका बनाने की चेष्टा करेंगे। हमने अपना निजी प्रंस-गंगा फाइन आर्ट प्रेस भी कर लिया है। चित्रकला के विशेषज्ञ चित्रकार तो हमारे यहां पहले ही से थे।’’
    ‘सुधा’ को प्रथम अंकसे ही समस्त मुर्द्रन्य साहित्यकारों का सहयोग मिला। विविध विषयों से विभूषित ‘सुधा’ न केवल साहित्यिक, वरन् पारिवारिक पत्रिका बन गई। उसकी ग्राहक संख्या 6000 से ऊपर हो गई। हिन्दी मासिक साहित्य में यह अभूतपूर्व था। एक अंक की तो, अत्याधिक मांग होने के कारण, पुनः मुद्रण कराना पड़ा है। प्रशस्त्रियों एवं सराहनाओं का ढेरा लग गया। विश्व प्रसिद्ध डाॅ0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा:- ‘दुलारे लाल जी उत्तरीय भारत में ‘सुधा’ जैसे उच्च कोटि की पत्रिका के सम्पादक की हैसियत से सुप्रसिद्ध है’’
सम्पादकाचार्य दुलारे लाल भार्गव: ‘सुधा’ छपाई-सफाई ले-आउट एवं अभिकाव्य में सर्वश्रेष्ठ थी। उस समय जो तिरंगे चित्र उसमें प्रतिमास छपे, वे न केवल कला की दृष्टि से, बल्कि मुद्रण-कला के दृष्टिकोण से भी अनुपम थे। ‘सुधा’ में प्रफरीडिं़ग और भाषा के गठन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। आचार्य शिवपूजन सहाय हेड प्रूफ-रीडर थे और ख्याति-प्राप्त पं0 गौरीशंकर द्विवेदी उनके सहयोगी। अन्तिम प्रूफ व भाषा संशोधन दुलारे लाल जी की कुशलता लेखनी से होता था। क्या मजला कि एक भी अशुद्धि या भूल रह जाए। फार्म के छपते-छपते भी, भूल पकड़ी जाने पर, मशीन रूकवा कर संशोधन करा दिया जाता था। पं0 रूपनारायण पाण्डेय भाशा की शुद्धता एवं प्रांजलता के तथा, दुलारे लाल जी शैली, वर्तनी एवं विराम-चिन्हांकल के लिये उत्तरदायी थे। निराला जी ने लिखा था: - ‘‘माधुरी के सम्पादन से सम्मानित आप लोगों की योग्यता ‘सुद्दा’ में और चमकी है, मैं निस्संदेह कहंूगा ‘सुधा’ प्रथम संख्या से ही प्रथम श्रेणी की पत्रिका बन गई। आपका अध्यवासाय संचालन शक्ति तत्परता और सौदर्य ग्राहिक आदि प्रशंसनीय हैं।
आचार्य शिव पुजन सहाय जी ने लिखाः
सुस्वर लहरी प्लावित वह पुण्य प्रदेशः सुधा वहां लहरा रही है।
सद् गं्रथो का सम्पादन - प्रकाशनः  
अपने जीवन काल में दुलारे लाल जी ने लगभग 700 गं्रथों का सम्पादन प्रकाशन किया। हिन्दी में यह एक मानक है। उन्होने कतिपय गं्रथों के सम्पादन में अभूतपूर्व परिश्रम किया। और अपनी अनन्य क्षमता प्रतिभा का प्रदर्शन किया। ‘रंगभूमि’ के लेखन प्रकाशन में उन्होने विशेष रूचि ली।
दुलारे लाल जी का सर्वश्रेष्ठ सम्मानित ग्रंथ ‘‘बिहारी रत्नाकर’’ है। जिसमें एक वर्ष से भी अधिक समय लगा। नेस्फील्ड स्कालरशिप प्राप्त दुलारे लाल जी ने अपने  व्याकरण ज्ञान का ‘बिहारी रत्नाकर’ के सम्पादन में भरपूर उपयोग किया है। इस सुसम्पादित ग्रंथ में कामा, कोलन, सेमीकोलन, कोष्टक, बड़ा कोष्टक डैश आदि के इस्तेमाल की अद्भुत छटा है। हिन्दी के किसी ग्रंथ में आज तक इतना कौशल पूर्ण सम्पादन नही हुआ। 700 दोहों के शुद्ध रूपांकन में वह और रत्नाकर जी घण्टों विचार विमर्श करते रहते थे तभी ग्रंथ शुद्ध छप सका। रत्नाकर जी सदैव दुलारे लाल जी को इस क्षमता की दाद देते थे। इस सुसम्पादित ग्रंथ के बारे में डा0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा हैः
‘‘माला (सुकवि माधुरी माला) की इस शुभ पुस्तक के प्रारंभ के लिये प्रकाशक तथा प्रधान सम्पादक (दुलारे लाल) बधाई के पात्र है। आशा है, और ग्रंथ भी, जो इस माला में गूंथे जायेगें, विद्धता में इसी दर्जें के होेंगे।
    संक्षेप मे हम निस्संदेह कह सकते है कि सर्वश्री प्रेमचन्द्र, निराला, मिश्रबधु, वृन्दावन लाल वर्मा, गोविंद वल्लभ पंत, कौशिक आदि सैकडो़ लेखकों व कवियों एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे सम्पादकों की कृतियों पर दुलारेलाल जी की अनुभवी सम्पादन-कला की दृढ़ छाप हैं। अशुद्धियों से रहित ‘माधुरी-सुधा’ एवं सैकड़ो पुस्तकांे की छपाई-सफाई-मुद्रण में अनन्य, हिन्दी साहित्य को दुलारे लाल जी की अनुपम भेंट है। वस्तुतः दुलारे लाल जी हिन्दी के सर्वकालीन सम्पादकाचार्य कहे जा सकते है।

कवि सम्मेलनांे व साहित्यिक गोष्ठियों की परम्परा के जनकः श्री दुलारे लाल जी कवि सम्मेलनों एवं काव्य गोष्ठियों के बेहद शौकीन थे। कराची से लेकर लाहौर तक, कलकत्ता से लेकर गुरूकुल कांगड़ी तक, उन्होने सैकड़ांे कवि सम्मेलनो एवं गोष्ठियों का सभापत्वि किया होगा। फरवरी 1937 में उन्होनें यू0पी0 इण्डस्ट्रियल एवं एग्रीकल्चर एक्जिवीशन में सर्वप्रथम अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें अनेक देशी नरेश एवं अवध के राजा तथा लगभग 67 मूर्द्धन्य कवि उपस्थित थे। 3000 से ऊपर भीड़ सुसज्जित पण्डाल में घंटों कवियों का काव्य-पाठ होता रहा। इतने विशाल स्तर पर कवि-सम्मेलन फिर कभी न हुआ। उत्तर प्रदेश शासन में दुलारे लाल जी भार्गव और मुझे (मंत्री, कवि-सम्मेलन) को एक-एक शासकीय ‘सनद’ प्रदान की। 1972 में दुलारे लाल जी प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को रवीन्द्रालय में आयोजित कवि सम्मेलन में ले आये। वे आधा घंटे के लिए पधारी थीं, परन्तु उत्सुकता और दिलचस्पीवश लगभग डेढ़ घंटा बैठी रहीं।
वस्तुतः उस जमाने में ‘कवि कुटिर’ हिन्दी साहित्यकारों का तीर्थ-स्थल था, और दुलारे लाल जी उनके केन्द्र बिन्दु थे।
कला पारखी दुलारे लालः
दुलारे लाल जी कला -पारखी थे। ‘माधुरी’ के प्रकाशन में उन्होनें चित्रों के समावेश पर अधिक ध्यान दिया, सभी प्रदेशों से उच्चकोटि के चित्र मंगाकर प्रकाशित किये। ‘माधुरी’-‘सुधा‘ के प्रत्येक अंक में तीन-तीन रंगीन, चित्र छपते थे। हिन्दी पत्रिकाओं के लिए यह अभूतपूर्व था। राय कृष्णदास ने इस विषय में दुलारे लाल जी को अनेक बधाई पत्र लिखे अनेक चित्र भी मांग कर प्रकाशनार्थ भेजें। सुप्रसिद्ध चित्रकार मुहम्मद हकीम को रू0 150 मासिक पर रखा। वे नित्य नए चित्र बनवाते रहते थे। ‘सुधा’ में चित्रकला पर गंभीर लेख प्रकाशित होते थे, विशेषकर डा0 हेमचन्द्र जोशी (बर्लिन) द्वारा लिखित। उनके द्वारा लिखित फ्रेंच चित्र कला के गत 100 साल, ऐतिहासिक कृति है।
चित्रों पर कविताः
बिहारी लाल के दोहों पर बाद में अनेक चित्र बने हैं। परन्तु दुलारे लाल जी ने यह परंपरा सबसे पहले कायम की। चित्र बन जाने पर दोहे लिखे और खूब लिखे। बिना चित्र देखे इनके दोहों को पढ़कर समक्ष चित्र खिंच जाता है, हमारे सामने समां बंध जाता है।
काव्य प्रतिभा के धनीः
दुलारे लाल जी के काव्य पर अन्यत्र विश्लेषणात्मक लेख दिए गए है। वें आशु-कवि तो न थे, परन्तु चलते-फिरते कविता रचने में पटु थे। काशी में द्विवेदी मेला में उन्होंने जो कतिपय दोहे तुरन्त रचकर सुना दिए, उनकी सराहना उपस्थित साहित्यकारों ने तुरन्त ही की; वे खिल उठे। कलकत्ता में भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सुअवसर पर नाहर म्यूजियम के संस्थापक श्री पूरन चंद नाहर, दुलारे लाल जी और रत्नाकर को म्यूजियम अवलोकनार्थ ले गए थे। उस समय दुलारे लाल जी ने तत्काल एक दोहा रचकर सुनायाः
    सत साहित्य सुधांसु-सुधि,
        कलित कला कुमुदेस-
    उमगत ‘पूरन चंद’ लखि,
        ‘रत्नाकर‘ उर देस।

पूरन चन्द और रत्नाकर जी बहुत हंसे। दुलारे लाल जी ने अपने बारे में लिखा है;
    चहत न धन, मान, सुख
        मुकति ध्यान हूं नाहि;
    उर उमंग जब-जब उठत,
        उकति उदित कहि जाहि।

अपने अंतिम 10 वर्षो में वे रामायण दोहों में लिखने की योजना साकार कर रहे थे। उन्होंने बहुत से दोहे लिख भी लिए थे, जिन्हें वे बड़े चाव से सुनाते थे। खेद है, अव्यवस्थित चित होने के कारण वे इस शुभ कार्य की पूर्ति न कर सके। उनके लिखे वे सुन्दर दोहे भी परिवार-जनों के अधिकार में पड़े विनिष्ट हो रहे है।
काश, इन्हें प्रकाश में लाया जाता। क्या सुयोग्य श्रीमती जी इस ओर ध्यान देंगी।
अंतिम कालावधिः
    दुलारे लाल जी का अंतिम समय कुण्ठा, निराशा, साहित्यकारों की अकृतज्ञता-जनित क्षुद्रता में व्यतीत हुआ। परिवार-जनों ने व्यापार को शिथिल कर दिया और उनकी योजनाओं को आगे न बढ़ाने दिया। वह भावुक और अततः धार्मिक हो उठे। संत कृपाल सिंह का उन पर प्रभाव पड़ा। वे अनहद नाद सुनने लगे। इन दस वर्षों का पूरा समय उन्होने परोपकार तथा बीसियों नवयुवकों को सहायता, सहारा एवं प्रोत्साहन में व्यतीत किया। उनके हित वे मीलों साइकिल पर अथवा पैदल चले जाते थे। उनके प्रभाव से अनेक नवयुवक आज भी सरकारी सेवाओं व अन्य धंधों में लगे हैं। उस समय उन्होने जो दार्शनिक व धार्मिक दोहे लिखे वे स्तुत्य है, यथा-
राधा गगनांगन मिलै धारापति सौं धाय,
पलट आपुनों पंथ पुनि धारा ही ह्नै जाय,
महान दुखः और पश्चाताप की बात है कि हम उस महान आत्मा का समादर न कर सके, आज भी परिवार के लोग, बंधु-बांधव एवं साहित्यकार उनके प्रति कर्तव्य से अचेत हैं। क्या इस घोर व्यथा का परिमार्जन होगा?
हमें उनके अन्तिम संदेश को साकार करना है, उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करना हैं
    समुझि धरम करि करन,धरि
        न फल-चाह मन माँह,
    दिवस-रात तरू देत ज्योै,
        प्रभा, अेधरी छाँह।

श्री दुलारे लाल भार्गव

 - ठाकुर प्रसाद सिंह
हिन्दी के नवीन साहित्य से परिचित होने के क्रम में मेरा परिचय ‘गंगा पुस्तक माला’ तथा उसके यशस्वी व्यवस्थापक श्री दुलारे लाल भार्गव से बचपन में ही हो गया था। दुलारे लाल जी के सम्बन्ध में कितने ही कहानियां और प्रवाद तभी सुनने को मिले थे फिर भी हिन्दी के प्रकाशन क्षेत्र में उनकी सेवाओं की विशिष्टता का जादू मेरे ऊपर बना हुआ था, वैसे ही उस समय हिन्दी के प्रसिद्ध रचनाकारों की रचनाओं के प्रकाशन का श्रेय भी श्री दुलारे लाल भार्गव को ही था।
    लखनऊ के विषय में मेरे मन में कई तरह के सपने थे लेकिन मैंने अपने प्रारभिंक जीवन में सोचा तक नहीं था कि मुझे अपनी जिन्दगी का लगभग आधा हिस्सा लखनऊ में बिताना पड़ेगा। लखनऊ मेरे लिए उस समय तक श्री दुलारे लाल भार्गव, श्री यशपाल, श्री अमृत लाल नागर और श्री भगवती चरण वर्मा का नगर था तथा जहां नये लेखकों का एक बड़ा समुदाय निवास करता था। एकाएक लखनऊ आने का निश्चय किया और एक दिन दो कमरों के एक मकान में आकर लखनऊ का निवासी हो गया। प्रारंभिक व्यस्तता कम होने पर धीरे-धीरे लखनऊ से परिचय बनने लगा और तभी अमीनाबाद पार्क में हनुमान जी के मंदिर के निकट फुहारे के पास में नए सिरे से श्री दुलारे लाल भार्गव के परिचय में आया। तब तक उनका प्रकाशन उखड़ चुका था और स्वयं भार्गव जी प्रकाशन के व्यस्त जीवन से विश्राम ले चुके थे। 1937-38 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के समय जिस दुलारे लाल भार्गव को देखा था, यह भार्गव जी उसकी छाया मात्र थे फिर भी उनकी आंखों में पुरानी चमक कुछ हद तक बनी हुई थी। समय और परिस्थितियां आदमी को क्या से क्या बना देती हैं, भार्गव जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे। मेरे साथ वे वहीं घास पर बैठ गए और धीरे-धीरे उनका आत्म विश्वास लौट आया। वे संस्मरण की दुनिया में खो गए और फिर काफी देर तक वहीं रहे। मैंने जानबूझ कर उन्हें छेड़ा नहीं। मुझे उनको सुख से वंचित करने का साहस नहीं हुआ। उनके पास कुल मिलाकर सुखद संस्मरण ही बचे थे, मुझे उनके स्वप्नलोक से खींच लाने का कोई अधिकार नहीं था।
    ‘दुलारे दोहावली’ के कितने ही दोहे उन्होंने सुनाये तथा रस लेकर उनके संदर्भ से मुझे परिचित करवाया। फिर वे देव और बिहारी को लेकर उठानेवाली स्पर्धा पर आ गये। बहुत सी बातें मुझे पहले से ही मालूम थीं पर उनके मुंह से उन्हें सुनने का सुख कुछ और ही था।
    लखनऊ उर्दू का गढ़ था पर श्री दुलारे लाल जी ने लखनऊ में ही हिन्दी प्रकाशन की मार्यादा स्थापित करके हिन्दी की ऐतिहासिक सेवा की थी। यह बात उन्हें बताने पर वे चुप हो जाते थे तथा उनकी आखें स्वप्न देखने लगती थीं। लेखकों के प्रति उनके व्यवहार को लेकर तरह-तरह की रचनाएं होती हैं पर सच तो यह है कि उनके कारण ही लेखकों की एक बड़ी संख्या प्रकाश में आयी। श्री वृन्दावन लाल वर्मा, श्री निराला तथा प्रेमचन्द उनकी लेखक मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य थे, जिनकी कितनी ही महत्वपूर्ण रचनायें श्री दुलारे लाल जी ने प्रकाशित की। प्रेमचन्द जी उनके साहित्यिक सलाहकार भी थे। उनके अतिरिक्त कितने नये लेखक उनके सम्पर्क में आये, जिनकी प्रारम्भिक कृतियां श्री भार्गव ने साहस के साथ प्रकाशित की। उदय शंकर भट्ट, कृष्णानन्द गुप्त, प्रताप नारायण श्रीवास्तव, चतुरसेन शास्त्री, सहित यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
    उस समय सरकारी खरीद का कोई प्रश्न ही नहीं था। भार्गव जी ने अपने  अध्यवसाय से अपना प्रकाशन विकसित किया था तथा पूरे देश में स्थायी ग्राहकों की एक बड़ी संख्या खड़ी की थी। सच पूछिए तो ब्रिटिश प्रकाशनों की पद्धति का अनुसरण करके उन्होंने बिल्कुल अपनी तरह से ‘गंगा पुस्तक माला’ का गठन किया था। बड़े ही आत्म-विश्वास से उन्होंने कितने ही साहसपूर्ण प्रयोग किये थे और उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली थी।
    आज हिन्दी पूरे देश की राजभाषा है, तथा उत्तर प्रदेश की तो यह भाषा है ही। हर प्रकार के राजकीय संरक्षण की घोषणा के बाद भी लखनऊ में हिन्दी प्रकाशक नाम की कोई चीज कहीं दिखायी नहीं पड़ती। पाठ्य पुस्तकों की छपाई का बाजार गर्म है। पर अच्छी साहित्यिक पुस्तकें छपनी कब ही बन्द हो चुकी हैं। लखनऊ ही क्यों, इलाहाबाद, वाराणसी और आगरा की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है। सारे प्रकाशक दिल्ली में केन्द्रित हो गये है, सारे साहित्यकार दिल्ली में एकत्र होकर धन्य हो रहे हैं, ऐसी हालत में श्री दुलारे लाल जी के कार्य का महत्व और उभर कर सामने आता है।
    श्री दुलारे लाल जी को उनकी स्थिति का लाभ भी कम नहीं मिला। ‘दुलारे दोहावली’ को ‘देव पुरस्कार’ मिलने पर हिन्दी जगत में विरोद्द प्रतिक्रियाएं हुईं तथा लेखक दो खेमों में बंट गये, पर जानने वाले जानते हैं कि उन्होंने यह पुरस्कार साहित्यिक महारथियों के विरोध के बावजूद प्राप्त करके दिखा दिया था। हरिऔध जी की प्रसिद्ध रचना ‘प्रिय प्रवास’ की तुलना में प्राप्त इस पुरस्कार का महत्व और भी बढ़ जाता है।
    श्री दुलारे लाल जी के प्रयत्न से लखनऊ में जो साहित्यिक वातावरण बना था वह बाद में बना नहीं रह सका। आज लखनऊ मासिक पत्रिकाओं, प्रकाशनों तथा साहित्यिक संस्थाओं की दृष्टि से जैसा सूना है उसे देखकर श्री दुलारे लाल जी का युग हिन्दी का स्वर्ण युग ही लगता है।
    लखनऊ में रहते समय श्री भार्गव जी के साथ कितनी ही बार देर तक बातें करने का अवसर मिला। कभी-कभी वे मेरे कार्यालय में मुझसे मिलने आते और न मिलने पर चिट पर एक दोहा लिखकर चले जाते, ऐसी चिटें खोजने पर अभी भी मेरे पास मिल जायेंगी। बाद के वर्षों में एक साइकिल लिए सड़कों पर चलते उन्हें देखकर क्लेश होता था। वे किसी न किसी के साथ अक्सर रास्ते में मिल जाते और रास्ते पर ही खड़े-खड़े वर्तमान से सरक कर भूत की गोद में चले जाते थे।
    श्री दुलारे लाल जी के कृतित्व का सही मूल्यांकन होना अभी शेष है। लखनऊ की नयी पीढ़ी ने यह उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाया, यह शुभ संकेत है।
(लेखक साहित्यकार व सूचना निदेशक उ.प्र. हैं)

श्री दुलारे लाल भार्गव- कैलाश नाथ कौल
श्री दुलारे लाल भार्गव 1920-30 ई0 में हिन्दी के सम्पादकों और प्रकाशकों की अगली लाइन में थे। उन्होंने पहले लखनऊ के नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ का सम्पादन किया और फिर खुद ही अपनी मासिक पत्रिका ‘सुधा’ का प्रकाशन और सम्पादन किया। उनकी ब्रज भाषा में लिखी ‘दुलारे दोहावली’ पर देव पुरस्कार दिया गया था। श्री भार्गव जी से मेरे सम्बन्ध उस समय कायम हुए,जब 1929 ई0 में मैंने लखनऊ जिले में ग्राम सुधार के लिए गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में चरखा प्रचारक संघ कायम किया था। उसी मौके पर, प्रेमचन्द जी और उनके खानदान वालों से भी मेरा सम्बन्ध कायम हुआ। कुछ ऐसा हुआ कि श्री भार्गव से  मेरा सम्पर्क बढ़ता ही गया और हम लोग भिन्न-भिन्न कामांे में लगे थे। लेकिन ऐसा लगता था कि हम दोनों एक ही काम कर रहे हैं। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि हम दोनों ने जो काम लिया था, उसको दिलोजान से कामयाब बनाने की लगन थी। मैं मुख्तलिफ काम करता हुआ देश से बाहर चला गया और जब वापिस आया तो ऐसा लगा कि हम जैसे कभी अलग न हुए हों। उन्होंने सिर्फ हिन्दी साहित्य की सेवा ही नहीं की, बल्कि ऐसे बहुत से हिन्दी प्रेमियों को भी पनाह दी जो हिन्दी साहित्य की सेवा के दौरान अपनी जीविका चलाने के लिए मुसीबत में फंसे हुए थे। उनका मुस्कराता हुआ चेहरा अभी तक मुझको याद हैं।
(लेखक भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू की पत्नी के सहोदर हैं व राष्ट्रीय वनस्पतिउद्यान के निदेशक रहे हैं)

स्मृति के सुमन

(पद्मभूषण)  डाॅ0 रामकुमार वर्मा
श्री दुलारे लाल भार्गव- जब इस नाम का स्मरण आता है तो आधुनिक हिन्दी साहित्य का एक सम्पूर्ण युग साकार हो उठता है। स्वामी कार्तिकेय केवल रण-कुशल ही नहीं, देवताओं की सेना का संचालन करने में भी प्रवीण थे, उसी प्रकार श्री दुलारे लाल स्वयं कवि और पत्रकार ही नहीं थे, अनेक कवियों और लेखकों को साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर करने की क्षमता भी रखते थे। मुझे ज्ञात है, उनकी ‘कवि-कुटीर’ में कितने ही कवि और लेखक उनके समीप रह कर प्रेरणा और स्फूर्ति ग्रहण करके यशस्वी हुए है।
    श्री दुलारे लाल के प्रथम दर्शन मुझे आज से 55 वर्ष पूर्व सन् 1925 में कानपुर में हुए थे। वहां श्रीमती सरोजनी नायडू के सभापतित्व में इंडियन नेशनल कांग्रेस का अधिवेशन होने जा रहा था। तभी श्री दुलारे लाल भार्गव ने वहां अखिल भारतीय हिन्दी कवि सम्मेलन का आयोजन किया। उस समय मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी0ए0 का विद्यार्थी था। कविताएं लिखने लगा था और कवि-सम्मेलनों में उत्साह से कविताएं पढ़ता भी था। दारागंज के पं0 लक्ष्मीधर बाजपेयी के अनुरोध से मैं भी श्री भार्गव द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में भाग लेने के लिए कानुपर गया। देखा कि एक वृहत् पंडाल में दूर-दूर से आये हुए कवि एकत्र हुए हैं। श्री दुलारे लाल भार्गव के दर्शन हुए, मध्यम कद के सुदृढ़ व्यक्तित्व के पुरुष (जिनके तेजस्वी मुखमंडल से साहित्यिक गरिमा की किरणें विकीर्णित हो रही हैं) कवि-सम्मेलन का संचालन कर रहे हैं। सभापति के आसन पर पं0 अयोध्या सिंह उपाध्याय-समीप ही श्री जगन्नाथदास रत्नाकर, श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन और कितने ही लब्ध प्रतिष्ठ कवि थे जिनसे पं0 लक्ष्मीधर बाजपेयी ने मरा परिचय कराया। मैंने भी बड़े उत्साह से काव्य-पाठ किया। श्रोताओं से प्रशंसा प्राप्त हुई। दुलारे लाल जी बहुत प्रसन्न हुए। इसी क्षण से मैं उनका कृपा-पात्र हो गया। समय बीतता गया और हिन्दी पत्रकारिता का युग समुन्नत होता गया। श्री दुलारे लाल भार्गव ने लखनऊ से ‘सुधा’ मासिक पत्रिका का सम्पादन आरंभ किया और उसका साहित्यिक स्तर इतना शिष्ट, कलापूर्ण और मर्यादित रखा कि हिन्दी साहित्य का बड़े से बड़ा लेखक और कवि उसमें अपनी रचना के प्रकाशन से गर्व का अनुभव करता था। अपने स्नेह के कारण दुलारे लाल जी ने मुझसे भी ‘सुधा’ में कविताएं भेजने का आग्रह किया और मैंने बड़े उत्साह से उनके आग्रह की पूर्ति करते हुए अनेक रचनाएं ‘सुधा’ में प्रकाशनार्थ भेजी। परिणाम यह हुआ कि आधुनिक छायावादी कवियों में उन्होंने मेरा नाम सम्मान के साथ सम्मिलित कर ‘सुधा’ में प्रकाशित किया।
    यह तो मेरे काव्य जीवन का मंगलाचरण था। इसके बाद का इतिहास और भी रोचक है। हिज हाइनेस श्रीमान सवाई महेन्द्र महाराजा वीर सिंह देव (ओरछा नरेश) ने सन 1934 में दो हजार मुद्रा वार्षिक का ‘देव पुरस्कार’ स्थापित किया था जो वर्षा काल से ब्रज भाषा और खड़ी बोली काव्य के सर्वश्रेष्ठ नवीन ग्रन्थ पर दिया जाता था। सन् 1935 में यह पुरस्कार ‘‘निर्णायकों’’ द्वारा लखनऊ निवासी श्रीयुत् पंडित दुलारे लाल भागर्व जी को उनके ‘‘दुलारे दोहावली’ नामक उत्तम ग्रंथ के कारण समर्पित किया गया।’’
    मैंने जब दुलारे लाल जी को इस पुरस्कार पर बधाई दी तो उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि अगले वर्ष सन् 1936 में यह पुरस्कार खड़ी बोली काव्य पर दिया जाने वाला है, इसलिए मैं अपनी कविता की कोई नयी पुस्तक पुरस्कारार्थ केशव साहित्य परिषद ओरछा राज्य को भेज दूं। उसी वर्ष मैं कश्मीर यात्रा पर गया था और अपने कश्मीर -प्रवास में मैंने प्रकृति सौन्दर्य पर 44 कविताएं लिखी थीं। भार्गव जी का परामर्श पाकर मैंने उन 44 कविताओं का संग्रह ‘चित्रेरखा’ नाम से चांद प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित कराकर पुरस्कार के लिए भिजवा दिया। चार महीने बाद सूचना मिली की खड़ी बोली का दो हजार रुपयों बाला ‘देव पुरस्कार’ निर्णायकों द्वारा ‘चित्ररेखा’ पर घोघित किया गया हैं, श्री दुलारे लाल भार्गव ने तुरन्त ‘द्वितीय देव पुरस्कार विजेता’ शीर्षक देकर मेरा ‘चित्र सुधा’ में प्रकाशित किया। काव्य-क्षेत्र में उनके उत्साह-दान का यह फल था।
    मेरे हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा श्री दुलारे लाल जी के सहपाठी थे। उनसे मिलने के लिए दुलारे लाल जी प्रायः इलाहाबाद आया करते थे। एक बार सन् 1936 में वे इलाहाबाद आये और डाॅ0 धीरेन्द्र जी से मेरे सम्बन्ध में पूछा। धीरेन्द्र जी ने एक विद्यार्थी को साथ कर दिया और वे मेरे निवास स्थान साकेत पर चले आये। उनके आने से ही हर्ष-विभोर हो गया। मैंने उनका यथोचित स्वागत सत्कार किया और उनका कार्यक्रम जानना चाहा। उन्होंने कहा कि सिर्फ तुमसे मिलने आया हूं। मैं तुम्हारी एक पुस्तक ‘गंगा-पुस्तक माला’ में छापना चाहता हूं। कोई काव्य-संग्रह या लेख संग्रह हो तो उसे मुझे दो। मैं तुरन्त छापूंगा।’
    उस समय मैं अपना एकांकी संग्रह ‘पृथ्वीराज की आंखे’ तैयार कर रहा था। उसकी पाण्डुलिपि उन्होंने देखी और देखकर कहा कि ‘‘हिन्दी साहित्य की यह एक नयी विधा है। इसे मैं ले जा रहा हूं। फौरन छाप दूंगा ‘ऐसा कहकर उन्होंने मेरे एकांकियों की पाण्डुलिपि अपने बैग में रख ली।’ एक महीने बाद उन्होंने ‘पृृथ्वीराज की आंखे’ का प्रकाशन किया और पुस्तक के आरंभ में स्वयं एक ‘वक्तव्य’ लिख -........ ‘एकांकी नाटकों का हिन्दी में यही सर्वश्रेष्ठ संग्रह है। इनमें से किसी भी नाटक में अश्लीलता नहीं है, इसलिए यह संग्रह सरलता से विद्यार्थियों के लिए पाठ्य पुस्तक के रूप में रखा जा सकता है। कहना न होगा कि साहित्यिक दृष्टि से सुन्दर एकांकी नाटकों का निर्माण सबसे पहले रामकुमार जी ही ने किया है। इस क्षेत्र में पथ प्रदर्शक का पद आप ही का है।’’ आदि।
    ‘पृथ्वीराज की आंखे’ के प्रकाशन के बाद मेरी रूचि एकांकी लेखन में अधिकाधिक होती गयी और मैंने शताधिक एकांकियों की रचना कर डाली। एकांकी लेखन में भी श्री दुुलारे लाल भार्गव की प्रेरणा सर्वोपरि रही है।
    धीरे-धीरे दुलारे लाल जी से आत्मीयता बढ़ती गयी। जब कभी मैं लखनऊ जाता था तो उन्हीं के पास ठहरता था और उनका प्रेम-पूर्ण आग्रह ऐसा होता था कि हफ्ते, डेढ़ हफ्ते से पहले वे मुझे इलाहाबाद न आने देते। उनके परिवार से भी अपनापन बढ़ता गया और उनके भाई श्री मोती लाल, ज्योति लाल, आंेकार, सोहन मुझे अपने परिबार के स्वजन जैसे ही हो गये। दुलारे लाल जी के अनेक पत्र मेरे पास आते जिनमें वे मुझसे लखनऊ आने का आग्रह करते। मेरे साहित्य लेखन पर भी उनका विश्वास बहुत दृढ़ हो गया था।
    उनका 28.11.74 का एक पत्र है जिसमें अपने परिवार का समाचार लिखने के बाद वे लिखते हैं ...... मेरे भाई-भतीजे समझना नहीं चाहते या समझ नहीं पाते एक मासिक पत्र निकालना है, यदि आप अपना टेलीफोन नम्बर लिख देने की कृपा करें तो मैं आपसे आवश्यक बातें कर लूं।
    साहित्य का काम हम और आप कैसा कर सकते हैं, यह आप खूब जानते है। यह समझाना है किन्तु श्रीमान डालमिया जी और श्री शांति प्रसाद जैन और रमा जी जैन को भी मिलकर समझा देना है।
शुभचिंतक - दुलारे लाल
दुःख है कि उनकी यह आकांक्षापूरी नहीं हो सकी।
    इलाहाबाद के व्यवसायी श्री निरंजन लाल भार्गव उनके फूफा थे। वे एक बार यहां इलाहाबाद आये। निरंजन लाल भार्गव के चार सिनेमा भवन है। शायद उन्होंने दुलारे लाल जी से सिनेमा देखने के लिए कहा। लेकिन दुलारे लाल जी अकेले कैसे सिनेमा देखते। उन्होंने तुरन्त मुझे एक दोहा लिखकर भेजा:- प्रियवर रामकुमार जू, कब ऐहो मो पाहिं।
आवो तो हम आज मिलि, संग सिनेमा जांहि।। - दुलारे लाल
    मैं तुरन्त निरंजन लाल भार्गव जी के स्थान ‘गोविन्द भवन’ गया और दुलारे लाल जी के साथ सिनेमा देख कर उनके साथ खाना खाकर घर लौटा।
    मैंने ऊपर ‘दोहे’ की बात कही है, ‘गंगा पुस्तक माला’ के 151 वें पुष्प के रूप में जब ‘दुलारे दोहावली’ प्रकाशित हुई तो हिन्दी संसार में जैसे दुलारे-युग का प्रादुर्भाव हो गया। ‘सुधा’ में प्रकाशित होने वाले चित्रों के नीचे परिचायक पंक्तियां दोहों के रूप में लिखकर दुलारे लाल भार्गव ने विशेष ख्याति अर्जित कर ली थी। बाद में दोहों की निरन्तर रचना के रूप में ‘दुलारे दोहावली’ तैयार हो गयी जिसे अनेक निर्णायकों ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मंगला प्रसाद परितोषिक के लिए भी संस्तुति किया। यह सर्वमान्य है कि ‘दुलारे दोहावली’ की मधुरता आधुनिक हिन्दी में ब्रज भाषा की धरोहर समझी जानी चाहिए।
    आज दुलारे लाल भार्गव नहीं है। मैं उनकी पवित्र स्मृति में अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं।
(लेखक वष्ठि साहित्यकार व इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष भी रहे)

श्री दुलारे लाल भार्गव

श्री श्रीनाथ सिंह
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी के पितामह कहे जाते हैं। उनके पश्चात हिन्दी में प्रगति का युग प्रारम्भ हुआ। उसके मूल स्रोत पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। आधुनिक हिन्दी के सृजन, प्रकाशन, विस्तार के उस युग को द्विवेदी-युग कह सकते है। द्विवेदी जी ने आधुनिक हिन्दी को पद्य रचना के क्षेत्र में भी समर्थ बनाया। कविवर मैथलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय जैसे ख्याति-प्राप्त कवियों को सामने लाने का श्रेय स्वर्गीय द्विवेदी जी को ही है।
    द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी में और भी बड़े पैमाने पर जिस युग का प्रारम्भ हुआ, उसे ‘दुलारेलाल युग’ कहा जा सकता है।
    श्री दुलारेलाल भार्गव ने हिन्दी रचना के क्षेत्र में गद्य-पद्य दोनों के लिए आधुनिक हिन्दी को सक्षम बनाया, परन्तु स्वयं अपनी पद्य रचना में ब्रज भाषा का ही सहारा लिया। उनकी यह पद्य रचना ‘दुलारे दोहावली’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस पर उन्हें ‘देव-पुरस्कार’ और ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ मिला; यह पुरस्कार उस समय के सर्वोत्तम पुरस्कार थे।
    ‘दुलारे दोहावली’ को प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर डाक्टर गंगानाथ झा ने उत्तम काव्य घोषित किया। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में इसकी बड़ी चर्चा हुई। समालोचकों ने इस पर बड़े-बड़े लेख लिखे। इसे ‘गागार में सागर’ कहा। महाकवि निराला ने, जो समझते थे कि ब्रजभाषा युग बीत गया है, इसे ब्रजभाषा की सर्वोत्तम कृति कहा अनेक समालोचकों ने स्वीकार किया, कि ‘दुलारे दोहावली’ बिहारी सत्सई से टक्कर ले सकती है।
    यह सब होते हुए भी, यह समझ में नहीं आता कि आधुनिक हिन्दी के लेखन और प्रकाशन के अपने समय के सबसे बड़े प्रेरक श्री दुलारे लाल भार्गव नेे पद्य रचना में दोहे ही क्यों चुने? और उन्हें भी ब्रज भाषा में क्यों लिखा? शायद इसलिए कि आधुनिक हिन्दी में गद्य-पद्य के सृजन, सम्पादन और वितरण में इतने व्यस्त रहते थे कि अपने कवि हृदय की तृप्ति के लिए बहुत थोड़ा समय निकाल पाते थे।
    कविवर दुलारे लाल के व्यक्तिगत परिचय का सौभाग्य मुझे सन 1926 में कानपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस महाअधिवेशन के अवसर पर होने वाले अखिल भारतीय हिन्दी कवि सम्मेलन में प्राप्त हुआ। कवि सम्मेलन शाम को सात बजे ही प्रारम्भ हो गया था परन्तु बड़ी रात तक चला। उस समय के प्रायः सभी लब्ध-प्रतिष्ठ कवि इसमें पधारे थे। दर्शक मण्डली भी बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित थी। सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि ‘सनेही’ कविता पाठ करने वाले कवियों के नाम की घोषणा कर रहे थे और बीच-बीच मे दुलारे लाल अपनी पसन्द के कवियों को स्वर्ण पदक प्रदान करने की घोषणा कर रहे थे। उस समय मैंने इतना ही समझा कि श्री दुलारे लाल भार्गव कोई धन-सम्पन्न व्यक्ति है, जो इस प्रकार स्वर्ण पदकों की वर्षा कर रहे हैं। यद्यपि मैं कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में कानपुर गया था, तथापि इस कवि सम्मेलन मंे भी अपनी छोटी सी रचना सुनाई। मुझे बड़ा हस्तोत्साह हुआ जब श्रोताओं की गगनभेदी वाह-वाह के बावजूद श्री दुलारे लाल भार्गव ने मेरे लिए एक रजत पदक की भी घोषणा नहीं की। खैर, कवि सम्मेलन के अन्त में श्री दुलारे लाल जी मुझसे मिले और मुझे लखनऊ आने का निमंत्रण दिया।
    श्री दुलारे लाल जी के निकट सम्पर्क में आने का अवसर मैं गंवाना नहीं चाहता था, इसलिए शीघ्र ही समय निकालकर मैंने लखनऊ जाकर उनके दर्शन किए। उनसे मुझे इतना स्नेह और आतिथ्य मिला कि मैं भी अपने आपको कुछ समझने लगा और जब मैं ‘सरस्वती’ का सम्पादक बना तब श्री दुलारे लाल जी से बधाई का पत्र पाकर और भी गर्वित हुआ। उन दिनों श्री दुलारे लाल भार्गव ‘सरस्वती’ के जोड़ की पत्रिका ‘माद्दुरी’ के सम्पादक थे और अपने गिर्द हिन्दी के प्रायः सभी स्वनामधन्य कवियों और लेखकों को इस सीमा तक जमाकर लिया था कि स्वयं मुझे ही ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’ के मुकाबले में पिछड़ी हुई सी प्रतीत होने लगी और मुझे अच्छी तरह याद है, इस अभाव को दूर करने के लिए मैंने ‘सरस्वती’ को राजनैतिक मंच पर उतारा।
    पता नहीं क्यों श्री दुलारे लाल भार्गव ने एकाएक ‘माधुरी’ से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया और अपनी ‘गंगा पुस्तक माला’ से ‘सुधा’ नाम की स्वतंत्र साहित्यिक पत्रिका निकाली और हिन्दी जगत में वे अत्यन्त दीप्तिमान नक्षत्र के रूप में चमक उठे। भारत की कृषि और औद्योगिक प्रगति कैसे हो सकती है, इस बारे में मुझे उन्होंने एक बड़ा सा उपन्यास लिखने के लिए कहा, उसके ‘प्लाॅट’ के बारे में उनसे काफी वाद-विवाद के बाद मैंने उसे लिख डाला। हिन्दी में मेरा यह तीसरा उपन्यास था, जो ‘जागरण’ के नाम से ‘गंगा पुस्तक-माला’ से श्री दुलारे लाल जी ने प्रकाशित किया था। छपने के बाद अपने उस उपन्यास को जब मैंने पुनः पढ़ा तब मुझे लगा कि श्री दुलारे लाल भार्गव कोरे प्रकाशक ही नहीं, हिन्दी के  उच्च कोटि के रचनाकार, लेखक और सम्पादक है। मुझे यह भी लगा कि श्री दुलारे लाल पुस्तकों का प्रकाशन व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, हिन्दी जगत में घाटा सहकर भी श्रेष्ठ ग्रन्थ प्रस्तुत करने की दृष्टि से करते हैं।
    कानपुर कांग्रेस के अवसर पर मैंने बृहत् कवि सम्मेलन देखा था, उससे भी बड़े कवि सम्मेलन का लखनऊ में श्री दुलारे लाल जी ने एक आयोजन किया था। यह कवि सम्मेलन यद्यपि लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रांगण में हुआ था तथापि आगन्तुक कवियों में अधिकांश श्री दुलारे लाल भार्गव के निवास-‘कवि कुटीर’ में ही ठहरे थे। श्री दुलारे लाल जी की यह ‘कवि कुटीर’ दो प्रांगणों वाला भव्य भवन था जिसमें बड़े-बड़े बरामदे, कमरे, खुली छतें थीं और आधुनिकतम निवास की सभी सुविधायें प्राप्त थीं। इस कवि सम्मेलन के महिला विभाग को संगठित करने के लिए श्री दुलारे लाल भार्गव ने हिन्दी की तत्कालीन कवियत्री सावित्री एम.ए. को आमंत्रित किया था और इस तरह दोनों की साधन-सम्पन्नता, सम्मिलित छवि से यह कवि सम्मेलन-‘छवि-गृह दीप-शिखा जय बरइ’ के समान जगमगा उठा था। इस कवि सम्मेलन ने, सावित्री देवी और दुलारे लाल को इतना करीब ला दिया था कि अन्त में दोनों का अन्तर्जातीय विवाह हो गया। इस विवाह की रोक-थाम में दोनों तरफ के कट्टर परिवार असफल रहे। उसके बाद तो हिन्दी के सभी प्रकार के उल्लेखनीय समारोह में मुझे श्री दुलारे लाल और श्रीमती सावित्री दुलारे लाल के एक साथ दर्शन होने लगे। मैंने देखा कि श्री दुलारे लाल जी ने जहां श्रीमती सावित्री दुलारे लाल के ठाठ-बाट से रहने के लिए समस्त साधन जुटाये थे, वहां स्वयं एक साधारण लेखक और पत्रकार के रूप में रहते थे। दिल्ली में जब भी मैं जाता था दोनों ही मेरा बड़ा स्वागत सत्कार करते थे और उनकी बदौलत मैं नई दिल्ली की सड़कों पर ठाट-बाट से चाहे जहां उनकी मोटर-कार से आ जा सकता था।
    श्री दुलारे लाल भार्गव अब नहीं है तो लगता है कि हिन्दी लेखकों और कवियों का सबसे बड़ा मित्र खो गया है, कदाचित  ही कोई हिन्दी का लेखक अथवा कवि हो जिसे श्री दुलारे लाल जी से मुंह मांगी धन राशि न मिली हो। जो कोई भी लेखक या कवि श्री दुलारे लाल जी से मनचाही रकम नहीं पाता था वह श्री दुलारे लाल जी को अपशब्द तक कह बैठता था, परन्तु उसका जरा भी बुरा न मानकर वे उसको सब प्रकार से तृप्त करने की चेष्टा करते रहते थे। कांग्रेस के क्षेत्र में जहां वे पं0 जवाहर लाल नेहरू, राजर्षि टंडन जी, लाल बहादुर शास्त्री  आदि के निकट सम्पर्क में रहते थे, और वहीं हिन्दी में मैथलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द्र, निराला आदि के अच्छे सहकर्मी थे, वहीं धन कुबेरों में सेठ रामकृष्ण डालमिया आदि के निकटतम सम्बन्धी भी थे। परन्तु वे जितने धन सम्पन्न थे उतने ही बड़े निराभिमानी थे, और एक साधारण लेखक और पत्रकार का जीवन उन्हें प्रिय था। दिल्ली-लखनऊ की सड़कों पर वे अपने सम-कालीन लेखकों को सुविधा प्रदान करते थे कि वे मोटर पर ठाट बाट से चलें परन्तु स्वयं बाइसिकिल पर अथवा कभी-कभी तो पैदल ही बहुत दूर तक आते-जाते थे; किंतु जहां भी वे बाईसिकिल पर या पैदल दिखाई पड़ जाते थे वहीं लेखकों, कवियों, विद्यार्थियों आदि का समूह उनके साथ लग जाता था और बिना किसी भेदभाव के सबको अच्छे से अच्छे होटल या रेस्टरां में ले जाकर खिलाते-पिलाते थे। एक बार हम लोग कोई आठ-दस साहित्यकार दिल्ली में दुलारे लाल जी के साथ चल पड़े। वे सबको एक प्रसिद्ध होटल में ले गए। पकवानों की सूची मांगी और सबको दिखलाते हुए कहा-‘‘गाओ जिसको जो पसन्द आए।’’ एक-एक करके अनेक डिशें आने लगी और उनकी समाप्ति पर बैरा जब बिल लेकर आया, दुलारे लाल जी ने बिल हाथ में लेते हुए हम सबसे पूछा-‘‘और कुछ’’ मैंने कहा-‘‘काफी है’’ बैरा बजाए दुलारे लाल जी से पैसे लेने के उल्टे पावों भागा और सबके सामने लाकर काफी भरे प्याले उपस्थित कर दिये। दुलारे लाल जी बहुत जोर से हंसे, बोले ‘‘श्री नाथ सिंह यह तुमने कभी सोचा भी न होगा कि इस होटल वाले हिन्दी साहित्यकारों को ‘काफी’ का श्लेष सिखा रहे हैं।’’
    दुलारे लाल जी साहित्यकारों की लम्बी यात्राएं आयोजित करते थे और कभी-कभी तो सबके लिए रेलगाड़ी का पूरा एक डिब्बा रिजर्व करा लेते थे। एक बार उन के मन में आया, हिन्दी के साहित्यकारों को राजस्थान की वीर भूमि देखनी चाहिये और फिर कोई 30-35 साहित्यकारों की एक बड़ी टोली को राजस्थान के समस्त ऐतिहासिक नगरों के भ्रमण करवाए। उदयपुर में हम सब लोग महाराणा के और कांकरोली में वहां के प्रसिद्ध महन्त के मेहमान हुए। हम सब लोगों ने दुलारे लाल जी की कृपा से नागद्वारा, चितौड़गढ़, हल्दी घाटी आदि इतिहास प्रसिद्ध स्थान देखें।
    श्री दुलारे लाल भार्गव के अनेक संस्मरण हैं जिनको यदि मैं लिखू तो इस लेख का कलेवर बहुत बढ़ेगा अतएव मैं लेख को समाप्त करने से पहले उनके दो-एक संस्मरण यहां सुनाता हूं। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जब विधानसभा के अध्यक्ष हुए तब श्री दुलारे लाल जी उनके निवास स्थान पर नित्य ही आने जाने लगे क्योंकि दुलारेलाल जी की तरह टण्डन जी भी हिन्दी वालों के लिए आकर्षण के केन्द्र थे। टण्डन जी के पास एक दिन एक आशु कवि ने दुलारे लाल जी पर व्यंग करते हुए एक दोहा सुनाया। दोहा लिखने की प्रेरणा उन्हें बुद्ध देव की मूर्ति से मिली थी, जो टण्डन जी के ड्राइंग रूम में एक मेज पर सजावट के तौर पर रखी थी। बुद्ध देव की मूर्ति के पास ही एक घडि़याल की मूर्ति सजा कर रखी गई थी। आशु कवि ने सुनाया - बुद्ध देव के पास यों, शोभित है घडि़याल, टण्डन जी के पास ज्यों बसे दुलारे लाल
इस पर टण्डन जी ने आपत्ति की तब उस आशु कवि ने अपने उस दोहे को तत्काल सुधारा और कहा - बुद्ध देव की मूर्ति ढिग रखी है बरमाल, टण्डन जी के पास ज्यों बसे दुलारे लाल।
    इस पर सभी लोग बहुत हंसे और दुलारे लाल जी तो और भी अधिक हंसे।
    एक कवि सम्मेलन में दुलारे लाल जी ने अपने दोहे सुनाए परन्तु किसी ने बाह-वाह की ध्वनि न की उसके बाद ही श्रमती सावित्री दुलारे लाल ने अपने कविता सुनाई और उस पर श्रोताओं ने बड़ी हर्षध्वनि की तब उन्हीं आशु कवि महोदय ने यह पद्य सुनाया - होड़ मर्दो में व औरतों में है भारी, मिनिस्टर तक बनने लगी है नारी, एक कविताई बची थी दुलारे लाल के लिए, उसमें भी सावित्री ने बाजी मारी।
    पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में श्री दुलारे लाल द्वारा आयोजित अन्तिम कवि सम्मेलन मैंने रवीन्द्रालय में देखा। उसके सभापति श्री दुलारे लाल जी स्वयं थे और उसमें प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी उपस्थित थीं। इस कवि सम्मेलन का संचालन और दायित्व ‘प्रियंका परिवार’ ने ही निभाया था।
    दुलारे लाल जी की जन्म तिथि के इस अवसर पर हम श्रद्धा से उन्हें नमस्कार करते हैं और ‘प्रियंका’ का यह अंक निकालने वालों को हार्दिक बधाई देते हैं।
(लेखक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष व ‘सरस्वती’ के पूर्व सम्पादक हैं)

अब लाल दुलारे के हैं मुखरित अमर बोल

कृष्ण मुरारी लाल ‘मधुकर’

वह बेगमयी साहित्य-सरिता का पटु खेवट!
हो गया प्रवासी तोड़ जगत के
मोह पाश!!
नीरवता चहुं दिशि फैली लुटी बसन्त श्री!
बुझ गया अठत्तर वर्षों से
दीपित प्रकाश!!
घन घोर प्रलय के उमड़े-गरजे-यूं बरसे!
साहित्यांगन में बिजली सी
पड़ी टूट!!
है कौन कि जिसने सुरभित-सरस-सुमधुवन से
‘माधुरी’, ‘सुधा’ की मृदुता को भी लिया लूटा!!
‘दोहावली’ को भी दुख मिला भीषण अपार!
हिन्दी पर संकट पड़ा अचानक
दुर्निवार!!
मुस्कान खो गई ‘गंगा-पुस्तक-माला’ की!
अब कौन बहायेगा कविता में
सरस धार!!
वह सौम्य सरल व्यक्तित्व कलित साहित्य खम्भ!
उठ गया धरा से दे कर संचित निधि अमोल!!
फिर खोया कविता ने है अध्याय एक!
अब लाल दुलारे के हैं मुखरित अमर बोल!!-

बसंत

-कविवर पं0 श्रीरत्न शुक्ल
कवि! सुनते हैं, राशि-राशि मधु
लेकर आया है ऋतुराज;
प्याले भर-भर सुमन पी रहे
होकर मतवाले - से आज।
जहां ‘सदावृत’ - सा बंटता है
लूट रहा सारा उपवन;
छलके-छलकाए से भी क्या
वंचित होगा यह जीवन?
समझ बसंतश्री को केवल
अपनी ही सम्पत्ति ललाम,
गाती है गर्विता कोकिला
निज सौभाग्य - गीत अविराम।
भूली राग निराशा में रट
मेरी आशा की कोयल
गाने की वासना जग उठी,
पर क्या गावे वह विह्नल!



हिन्दी अनुरक्त दुलारे लाल

-मुंशी विजय कुमार सक्सेना

‘गंगा-पुस्तक-माला’ शाला,
कवि-कोविद क्लब’ जीवट वाला,
तिमिर-ग्रस्त को किए प्रकाशित
‘ब्रजभाषी-कवि’ कहें निराला
सूर्य-चन्द्र नित करे परिक्रमा, ‘तारक’ नहीं बदलते चाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
‘हृदय-तरंग’, ‘सुधा’-रस सरसा,
कर माधुर्य ‘माधुरी’ वर्षा,
अगणित कवि-कोविद को स्वर दे-
स्वयं चल दिए हर्षा-तरसा;
उनके ‘फूल’ मिले ‘गंगा’ में, जो थे स्वयं भावना-ज्वाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
‘सद्-व्यय’, ‘सकल-प्राप्ति’ का करिए
‘साहित-सत्यालोक’ न तजिए,
‘सुसम्परक’ ऐसा अपनाएं-
स्वस्थ रहें ईश्वर को भजिए;
‘पंच-सुजीवन’ अंग यही बस, हरते सारा जग-जंजाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
शब्द-शब्द में कथा पिरोए,
नयी-उमर का अणु-अणु रोए,
कहां समस्या समाधान हो।
साहित्यिक - जग जन मुंह जोए;
‘साहित’ के सत्यं-शिवं-सुन्दरं, वंदनीय स्वप्नों - से लाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
‘कवि-सम्राट’, ‘देव-यश’ मंडित,
वंदनीय चिर - चिर अभिनंदित,
परिजन - स्वजन समान इकाई
‘दोहों के कवि सदा प्रशंसित;
‘मातृ-स्नेह में ‘मातृभूमि’ का, रहा हृदय में अद्भुत ख्याल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।

बसंत की दस्तक

-नरेन्द्र मिश्र
आज जब बसंत ने
फिर दरवाजे पर दस्तक दी है
हरे हरे खेत और पीले पीले फूल
रेशमी हो उठे हैं
तब जानी पहचानी
कोयल की सुधा सिंचित लय के साथ
स्मृतियों के सागर से उभर आया है
अपने बनाये हुये खिलौनों से बिसराया हुआ
टूटा, नीलकंठी, अनथका एक आदमी
तमतमाया परशुराम
साइकिल पर सवार
शेरवानी, चूड़ीदार पायजामा
और टोपी पहने
अपराजित भीष्म
काव्य माधुरी को संवारता हुआ
एक अभिनव तुलसी
एक अभिनव बिहारी
भरत, शकुन्तला से दूर खड़ा दुष्यन्त
कभी एक शिशु, कभी एक संत
आदि से बिल्कुल विलोम
नगराज का अन्त
फिर भी कितना जीवन्त था वह व्यक्ति
तभी सागर के ऊपर से गुजरता है
हवा का तीव्र बहाव
कपोतों की भांति फड़फड़ा उठते हैं
एक पुस्तक के पृष्ठ
प्रथम पृष्ठ पर अंकित है
‘दुलारे दोहावली’ कवि - ‘दुलारे लाल भार्गव’
यकायक ट्यूब लाइट से लिखे गये बोर्ड की भांति
वार बार आंखों के सामने आ जाती हैं पंक्तियां
‘‘राधा गगनांगन मिलै, धारापति सौं धाय।
पलटि आपनो पंथ पुनि, धारा ही ह्नै जाय।।’’


बृज भाषा की सर्च लाइट

डा. शम्भुनाथ चतुर्वेदी
साहित्य-देवता! वीणापाणि के अर्चन के फूल!
तुम्हारी जन्म - तिथि, हिन्दी की रूपरेखा है
तुमने जो रचा-रचाया वही इतिहास का लेखा है।
तुम थे कलश निष्ठा के, साधना की सरिता थे
टिमटिमाते तारों बीच, तुम भास्वर सविता थे।
ए मनु- पुत्र!
श्रद्धा और इड़ा को अन्विति के सेतु थे
नाज, ‘माधुरी’ को स्वयं ऐसे तुम केतु थे
आधुनिकता और भारतीयता के मिलन-बिन्दु!
संशय के अजगर की गुंजक से दूर
अनास्था की गलियांे में तुम नहीं भटके
हिन्दी की हर्डिंल-रेस की अनवधि गति
अटके, अटके ही रहे, तुम नहीं अटके।
पीड़ा और क्लेश के अगत्स्य!
रोग-जरा, जरा से थे, तुम अथाह सागर थे
बूंद जिसकी चुके नहीं, कविता की गागर थे।
अभिनव बिहारी, दोहावली के रचनाकर
शब्दों से किन गढं़ू तुम्हारी मूर्ति मूर्तिकार।
ए ब्रज- भाषा की सर्च - लाइट
बिहारी के कुंजों में गुंजन करने वाले अलि
पकड़कर उंगली तुम्हारी खिली राधा-कलि।
कन्हैया बांसुरी को दिये कुछ ऐसे स्वर
गति-विहग उड़ गये पाकर रंगीन पर
हिन्दी के ठेले को ढोने वाले भीम!
‘वादों’ को दोहों का बनाया नित नया थीम।
हिन्दी-स्कूटर का घुमाते रहे हैण्डिल
इसी में घिस गये अवस्था के सैण्डिल।
युवा पीढ़ी की मशाल।
तुमसे कहे कोई कुछ किसकी इतनी मजाल।
तुम आत्महत्या के विरूद्ध बने पुल थे
परकीय स्वजन बने, बाहर वाले कुल थे।
कितने युवजनों के घर कर नित उजाला
दिया मतवाला तुमने बना हर निराला।
प्रेम की थालियां लगाई थीं तुमने चन्द
परिमल भर उनमें फिर खोल दिये बन्ध छन्द।
अब न रहे कोष किसी मधुबन का खाली।
वृक्ष को संवार गये, कविता के माली।


साहित्यिक कतरनें

मार्ग दर्शक दुलारे लाल
सन् 1921 की बात होगी। उन दिनों मैं बम्बई में प्रैक्टिस करता था, तभी  मैंने सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारे लाल भार्गव को लखनऊ  भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था- आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही है। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।   
अतः कार्ड का मैने तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाये तो मुझे किसी हालत में उसको भेजा जाना नागवार न गुजरेंगा।’’ कुछ दिन बाद ही 5/- रु0 का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपनिक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रुपयों का हम लोगों को नशा-सा रहा।
    उसके बाद ही श्री सहगल ने पहले 2/- फिर 4/- रु0 पृष्ठ का निख मुकर्रिर कर दिया और मेरी कहानियां, मेरी एक आंशिक कमाई का जरिया बन गई। मैंने भी अब कहानी ही लिखने की ओर अपना ध्यान दिया। कुछ वर्षाें में श्री सहगल ने सबसे प्रथम ‘लौह लेखनी का धनी’ नाम से अलंकृत किया।
    (‘मुझे लेखक बनाया मेरे पाठकों ने’ -- आचार्य चर्तुसेन शास्त्री से सभार)
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का अभिनन्दन
विश्व कवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर 5 मार्च, 1923 को ‘विश्व भारती’ की स्थापना के लिए आर्थिक सहयोग प्राप्त करने के लिये लखनऊ पद्दारे थे। पं0 दुलारे लाल उन दिनों लखनऊ की साहित्यिक गतिविधियों के सूत्रधार थे। गुरूदेव के प्रति उनके हृदय में असीम श्रद्धा थी। उन्होंने ‘विश्व भारती’ के लिए धन एकत्रित करने में सहयोग दिया। इस सम्बन्ध में ‘माधुरी’ में प्रकाशित टिप्पणी के कुछ अंश यथावत् प्रस्तुत है:-
माधुरी-- वर्ष 1, खंड 2, संख्या 3, मार्च 1923
लखनऊ में डाॅ0 रवीन्द्र नाथ ठाकुर
सर्वमान्य साहित्यरथी स्वनामधन्य श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर महोदय 5 मार्च को लखनऊ पधारे। सायंकाल को आपका एक व्याख्यान हुआ। अपने ‘विश्व भारती’ (बोलपुर के शांति निकेतन में स्थापित संस्था) के लिये चंदे की अपील की। अवध के ताल्लुकेदारों की तरफ से राजा सर रामपाल सिंह जी ने आपको 1000/- की थैली अर्पण की।
    7 मार्च की शाम को श्रीयुत् ए.पी. सेन के बंगले पर कवि-सम्राट का अभिनंदन करने का प्रबंध किया गया। स्थानीय हिन्दी सभा के सदस्य, अनेक बंगाली सज्जन और दर्शक उपस्थित थे, प्रथम, बालिकाओं ने हार-चंदन से कवि-सम्राट की संबर्द्धना की। फिर बालक-बालिकाओं ने ‘स्वागतं, स्वागतं, स्वागतं, हे कवि’’। गान से स्वागत किया। ‘माधुरी’ के ‘हिन्दी सभा’ की ओर से अभिनन्दन पढ़ा। फिर कान्य कुब्ज हाई स्कूल के हेड मास्टर पं0 श्री नारायण चतुर्वेदी एम0ए0 ने एक स्वाग कविता पढ़ी। कवि-सम्राट पहले हिन्दी में और फिर बंगला में बोले ।’’
उर्दू के गढ़ लखनऊ में हिन्दी का प्रवेश
उर्दू साहित्य के गढ़ लखनऊ में हिन्दी साहित्य को प्रविष्ट कराने की ही नहीं, उसे अपनी गरिमा के अनुकूल स्थान दिलाने में दुलारे लाल भार्गव की अविस्मरणीय भूमिका रही है। इसके साथ ही उन्होंने उर्दू-हिन्दी का पूर्ण समन्वय भी रखा। यही कारण है कि ‘माधुरी’ में हिन्दी के साथ ही उर्दू साहित्य पर भी अनेक लेख छपते थे, श्री रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी सहित लखनऊ में भार्गव जी के इर्द-गिर्द युवा साहित्यिकों का जमघट रहता और बाहर से पधारने वाले साहित्यकार तथा साहित्य प्रेमियों का निवास-स्थान दुलारे लाल जी का कवि कुटरी ही था।
    आज कदचित् यह आश्चर्यजनक लगे कि आकाशवाणी जब लखनऊ में संस्थापित हुई, तो उसमंे हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यलाय में हिन्दी संस्थापित हुई, तो उसमें हिन्दी के साहित्यक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना के लिए दुलारे लाल जी ने अथक सक्रिय एवं सफल प्रयास किया। व्यक्तिगत स्तर पर ‘माधुरी’ में तर्कपूर्ण लेख प्रकाशित करके उन्होंने इस जनपयोगी कार्य को पूर्ण किया। ये सारे लेख एक स्थान पर एकत्रित किए जाएं। तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का इतिहास स्वतः स्पष्ट हो जायगा किस प्रकार भार्गव जी के सुतर्काें के समक्ष विश्वविद्यालय-प्रशासन को झुकना पड़ा। फिलहाल एक समाचार ‘माधुरी’ के वर्ष 3 खंड 1 संख्या 4 मंे छपा प्रस्तुत किया जा रहा है:-
    ‘‘जब से यह विश्वविद्यालय खुला है तभी से बी0ए0 परीक्षा के लिए हिन्दी, उर्दू, बंगला या मराठी में एक परीक्षा पास कर लेना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अनिवार्य है, परन्तु भारत के अन्य प्रधान विश्वविद्यालयों के समान बी0ए0 की परीक्षा में इतिहास, अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, गणित, संस्कृति इत्यादि के समान हिन्दी या उर्दू को एक स्वतंत्र विषय के रूप में अभी तक नहीं रखा गया। कलकत्ता, बनारस, और प्रयाग के विश्वविद्यालयों में तो हिन्दी में एम0ए0 की डिग्री तक प्राप्त की जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय की यह कमी यहां के हिन्दी प्रेमी सज्जनों को पहले ही से खटकती थी। इस वर्ष मार्च में इस विश्वविद्यालय के कोर्ट के अधिवेशन में पं0 ब्रजनाथ जी शर्मा ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि बी0ए0 में हिन्दी और उर्दू भी स्वतंत्र विषय के रूप में हो। इसके समर्थन में उन्होंने एक सारगर्भित, भाषण दिया। कुछ सज्जनों के भाषणों के बाद एक पादरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े जोरदार शब्दों में समर्थन किया। उसका इतना असर हुआ कि शर्मा जी का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ। यह प्रस्ताव एक सिफारिश के तौर पर था। उसका यहां के आर्ट्स फैकल्टी और एकेडेमिक कौंसिल में पास होना आवश्यक था। इस वर्ष वह इन दोनों सभाओं में भी पास हो गया और आगामी वर्ष से बी0ए0 की परीक्षा के लिए हिन्दी और उर्दू भी ‘स्वतंत्र विषय होंगे। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात है यह प्रस्ताव पास कराने में सुदूर मद्रास-प्रांत के रहने वाले प्रोफेसर शेषाद्री और डाॅ0 बी0एस0 राम ने बड़ा परिश्रम किया। इनका हिन्दी-प्रेम सराहने योग्य है। हमें लज्जा के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि इन्हीं सभाओं के कुछ अन्य भारतीय सदस्य ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रस्ताव के समर्थन में भाषण देना तो दूर रहा, उसके पक्ष में आपना मत तक नहीं दिया। क्या हम आशा कर सकते हैं कि शीघ्र ही लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी एम0ए0 की परीक्षा के लिए भी एक स्वतंत्र विषय के रूप में रखी जायेगी।’’
    इस संदर्भ में यह भी लिखना समीचीन और उपयुक्त होगा कि दुलारे लाल जी के पश्चातवर्ती परिश्रम से तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष (बाद में उपकुलपति) डाॅ0 सुबzहमण्यम् ने विषय को स्वतंत्र रूपेण संस्कृत विभाग का ही एक अंग बनाना स्वीकार किया। इस प्रकार हिंदी का लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ और भार्गव जी के अनन्य मित्र श्री बद्रीनाथ भट्ट सर्वप्रथम हिन्दी के प्रथम प्राध्यापक नियुक्त हुए।

‘वाग्देवी के दुलारे लाल’

बसन्त लाल ‘विशेष’
‘जाने बिनु न होय परतीती, बिन परतीति होय नहिं प्रीती’
बिना प्रदर्शन (परिचय) के प्रभाव नहीं होता, लोग मजाक बनाते हैं। हमारी बातों को अतिश्योक्ति मान लेते हैं। इसीलिए कहना ही पड़ता है-
ललकत ललचत लाल की, लखन लालिमा लाल।
गंगा पुस्तक माल, सुधा-माधुरी, चाकरी करी दुलारे लाल।

भार्गव जी विशिष्ट साहित्यकारों की नजर में -
बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’
‘माधुरी’ तथा ‘गंगा’ पुस्तक माला’ के संपादक, हमारे मित्र श्री दुलारे लाल जी भार्गव ने ‘बिहारी रत्नाकर’ को प्रकाशित करने में बड़ा उत्साह प्रदर्शित किया और इसके संशोधन में बहुत बड़ी सहायता दी।
पं0 कृष्ण बिहारी मिश्र -मिश्रबंधु’
आपसे हिन्दी का उपकार हुआ और हो रहा है। वैसा भारतेन्दु हरिश्चंद्र के पश्चात केवल इने-गिने महानुभावों द्वारा हो सका है। आशा है कि आगे चलकर आप हिंदी का विशेष हित कर सकेंगे। ‘दुलारे-दोहावली’ आपकी उत्तम तथा श्रेष्ठ कृति है।
आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी
बहुत-सी महत्वपूर्ण तथा मनोरंजक पुस्तकें ‘गंगा पुस्तक माला’ के माध्यम से प्रकाशित कर हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि में विशेष सहायक हुए। उनके पुस्तक प्रकाशन का यह क्रम यदि इसी तरह चलता रहा तो निश्चय ही भविष्य में यह अभिवृद्धि अधिकाधिक होगी।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
लखनऊ जैसे उर्दू के गढ़ में हिंदी का विशाल स्वरूप समक्ष रखकर जन-जागरण की रूचि बदलने में दुलारे लाल जी अग्रणी है। उनकी हिंदी सेवाओं का मूल्य निर्धारित करना मेरी शक्ति से परे है। यह कोई साधारण बात नहीं है।
शेक्सपियर की शैली में कोई जन्मजात महान होते हैं और महत्ता के भारवाहक बना दिए जाते हैं।
ैवउम ंतम इवतद हतमंजए ैवउम ंबीपअम हतमंजदमेे ंदक ैवउम ींअम हतमंजदमेे जीतनेज नचवद जीमउण्श्   
भार्गव जी कुशल, कुशाग्र कलाकार तुल्य उन आलोचकों से प्रंशसा पाने को अधीर हो उठते थे, जो हर किसी की रचना पर श्लाधा के पुल नहीं बांधता। जैसे- डाॅ. रामचन्द्र शुल्क, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मिश्रबंधु, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, पं0 अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, डाॅ. राम शंकर शुक्ल ‘रसाल’, पं0 नाथू राम शंकर शर्मा ‘शंकर’, डाॅ0 गंगानाथ झाॅ, डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा, फिराक गोरखपुरी आदि।
    नीति काय कला के क्षेत्र में स्वस्थ विचारों को भार्गव जी विशेष महत्व देते थे। उन्हीं के शब्दों में -Highest quality not in quantity
‘अधिक चले जो बीर न होई’
महाकवि निराला ने लिखा है- आप थोड़ा, किंतु अच्छा लिखने की नीति के कायल हैं।
‘पर-हित सरिस धर्म नाहिं’
विचारों से भार्गव जी हिन्दी तथा जनमानस की सेवा निरन्तर 68 वर्षों तक अटूट मनोबल के संग करते रहे। कहते थें यह हमारा कत्र्तव्य है, इससे हमें आनन्द मिलता है कि लोग हमसे फायदा उठाकर लाभ लें। हमारे नाम सम्बन्धों, सम्पर्काें से उपयुक्त लाभान्वित हो सके।
‘बिना अध्ययन जीवन शून्य है’
    काम कम हो या न हो, तो मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर, उनके उच्च विचारों व आदर्शो को अर्जित करो।
    वे अपनी बातों को जोरदार शब्दों में बार-बार कहते थे। उनका कहना था- ‘सुन लो, समझ लो समझाने की पद्धति यदि पक्ष में हो, हितकर हो। अवश्य ग्रहण करो अन्यथा विचार कर त्याग दो अवश्य कुछ न कुछ शिक्षात्मक या प्रेरणाप्रद रहेगी।
‘सादा जीवन उच्च विचार’
जीवन का परम लक्ष्य था, जो उनकी दिनचर्याओं से सहज ही मिलता है। 78 वर्ष की आयु में 8-10 घण्टे नित्य साइकिल चलाना, बिना ऐनक अध्यवसाय करना तथा निरोगी रहना आदि। जीवन के अंतिम दौर में वे एक पुष्ट साहित्य ‘ब्रजभाषा रामायण’ जनमानस को भेंट करना चाहते थे। हार्दिक अभिलाषा साधनों की तंगी, मानसिक परेशानी तथा पारिवारिक गृह-विवाद के मध्य उलझ कर अपूर्ण रह गई।
जीवन का स्वर्णिम शिखरः भार्गव जी के जीवन में 22 से 44 वर्ष की अवस्था की अवधि स्वर्णिम थी। इसी मध्य उन्होंने सभी ऐतिहासिक  महत्वपूर्ण कार्य किए तथा साहित्य की विशिष्ट सेवा कर जनमानस को असमंजस में डाल दिया। जिससे वह समकक्ष साहित्यिकों, व्यवसायिकों में प्रतिस्पर्धा के स्रोत बने। यही नहीं छिद्रान्वेषी लोगों ने तरह-तरह के आरोप उन पर लगाये।
प्रकाशन के दौरान लेखकों, कवियों को प्रोत्साहन: प्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर ‘धर्मयुग’ के एक लेख में लिखते हैं कि निराला के खर्चों की कोई सीमा न थी। वे बहुत ही उदार प्रकृति थे, अपने खर्चों की चिन्ता न करते थे।
अंतिम जीवन के दौर, सामिप्य का एक संक्षिप्त परिचय: उन्हीं की मधुर वाणी में ‘जाने क्या बात है? सुबह 9 से 11 के मध्य नींद काफी आती है। सुस्ती आती है। ऐसा ही चतुरसेन शास्त्री के साथ भी होता था, उन्हें भी इसी वक्त नींद आती थी यद्यपि वे काफी जल्द कम उम्र 68 वर्षों में परलोक सिधारे।
    महात्मा गांधी भी बीच-बीच काम करते-करते जब थक जाते, सो जाया करते थे। ऐसा शयद थकान की वजह से होता था। ठीक उसी तरह 77-78 वर्षों में हमे भी जब थकान अनुभव होती है, या बढ़ जाती है। तो अक्सर बैठे-बैठे नींद आ जाती है। 5 मिनट (थोड़ी देर) के लिए सो लिया करता हूँ। जिससे काफी शिथिलता भी दूर होती है।
        क्या पता था? उनकी वाणी में अटूट सत्यता है, यद्यपि वे 22 वर्ष, और जीना चाहते थे। निश्चय ही वे जीवन की कलह से विक्षिप्त हो थककर टूट गए। एक युग को अपने साथ ले गए वह था- ‘दुलारे-युग’
डाॅ0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के शब्दों में-- ‘आप सचमुच बाग्देवी के दुलारे लाल है। ऐसे मानीषी युगप्रवर्तक के चरणांें में श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं।

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के पथ-प्रदर्शक

बंसतलाल
    हिन्दी जगत् में लोगों का प्रलाप है कि भार्गव जी ने साहित्यकारों का शोषण किया तथा परिवारी जनों के साथ अत्याचार किया। कुछ प्रमाण इन अनर्गल आरोपों को असत्य सिद्ध करेंगे तथा भार्गव जी के साहित्यकारों के पोषक होने का प्रमाण देंगे।
उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद के पत्रों के संग्रह सन् 1930 द्वारा प्रमाणित होता है -
1.    रंगभूमि के लिए 1800/ रु0 दुलारे लाल जी ने दिये और संग्रहों के लिए सौ दो सौ मिल गये।
2. ‘काया-कल्प’, ‘आजाद-कथा’, ‘प्रेमतीर्थ, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘प्रतिज्ञा’ मैने खुद छापी पर अभी तक मुश्किल से 600/ रु0 वसूल हुए हैं और प्रतियाँ पड़ी हुई हैं।
3.    फुटकल आमदनी लेखों से शायद 25/ रु0 माहवार हो जाती है; मगर कभी इतनी भी नहीं होती। मैं अब इस ओर ‘माधुरी’ के सिवा कहीं लिखता ही नहीं।
4. 800/रु0 में रंगभूमि और प्रेमाश्रम का अनुवाद दे दिया था। कोई छापनेवाला न मिलता था।
प्रेमचन्द पर किये गये आक्षेपों का निराकरण

मुंशी जी की रंगभूमि तथा थैंकरे के ‘वैनिटी फेयर’ के साम्य को श्री अवध उपाध्याय ने सरस्वती के सन् 26 के अंकों में ‘गणित के समीकरणों, द्वारा प्रमाणित करने की चेष्ट की थी। प्रेमचन्द्र ने ‘अपनी सफाई’ में इसका स्पष्टीकरण स्वयं कर दिया था। फिर भी वह लेखमाला निकलती ही रही थी। बाद में, श्री रुद नारायण अग्रवाल ने एक विस्तृत लेख द्वारा श्री उपाध्याय के आरोपों का पूर्णतः खंडन किया था।
    उपाध्याय जी के आरोप
1.    एक से अधिक नायक-नायिकाओं का समावेश।
2.    वैनिटी-फेयर की अमेलिया, रंगभूमि की सोफिया से, जिसमें कुछ भाग ‘वैनिटी फेयर’ के दूसरे नारी पात्र रेबेका का भी है, काफी मिलती-जुलती है।
3.    रेबेका का, संभवतः सोफिया के साम्य से बचे हुए अंश का, इंदु के साथ साम्य है।
4.    जार्ज आसवर्न का विनय से साम्य है।
श्रीमती गीतालाल एम0ए0पी0एच0डी0:
रंगभूमि पर थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ का प्रभाव उसके नाम के चुनाव अथवा विस्तृत पट की दृष्टि से पड़ा है। पर नारी पात्र्रों पर तो अवश्य नहीं है।
    इसी प्रकार एक लेख से शिलीमुख ने प्रेमचन्द्र की ‘विश्वास’ कहानी को हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर पूर्णतः अवलम्बित बताया था (सुद्दा 10/27), यह कहानी पहले ‘चांद’ में छपवायी थी। फिर ‘प्रेम-प्रमोद’ नाम कहानी-संग्रह में उसने पहली कहानी का स्थान पाया, शिलीमुख का कहना था कि ‘एटर्नल सिटी’ एक उपान्यास है और ‘विश्वास’ एक कहानी, इसलिए प्रेमचंद की रचना उस पर अवलम्बित होने पर भी तर्कयुक्त और संगत नहीं हो सकी है, बल्कि विकृत और अविश्वास हो गई है। इस लेख के साथ ही ‘प्रेमचंद जी का प्रतिवाद’ शीर्षक से, सुधा-संपादक श्री दुलारे लाल भार्गव के नाम, प्रेमचंद का पत्र भी छपा था। उन्होंने ‘शिलीमुख’ के आरोपों को इन शब्दों में स्वीकार किया था।
    ‘‘प्रिय दुलारे लाल जी!
    हमारे मित्र पं0 अवध उपाध्याय तो ‘कायाकल्प’ को ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित बता रहे थे। मि0 शिलीमुख ने उनको बहुत अच्छा जवाब दे दिया। मैं अपने सभी मित्रों से कह चुका हूं कि ‘विश्वास’ केवल हालकेन रचित ‘एटर्नल सिटी’ के उस अंक की छाया है। जो वह पुस्तक पढ़ने के बाद मेरे हृदय पर अंकित हो गया।... छिपाने की जरूरत न थी और न है। मेरे प्लाट में ‘एटर्नल सिटी’ से बहुत कुछ परिवर्तन हो गया, इसलिए मैंने अपनी भूलों और कोताहियों को हालकेन जैसे संसार-प्रसिद्ध लेखक के गले मढ़ना उचित न समझा। अगर मेरी कहानी ‘एटर्नल सिटी’ का अनुवाद, रुपांतर या संक्षेप होती, तो मैं बड़े गर्व से हालकेन को अपना प्रेरक स्वीकार करता। पर ‘एटर्नल सिटी’ का प्लाट मेरे मस्तिष्क में आकर न जाने कितना विकृत हो गया है। ऐसी दशा में मेरे लिए हालकेन को कलंकित करना क्या श्रेयकर होता?.... फिर भी मेरी कहानी में बहुत कुछ अंश मेरा है, चाहे वह रेशम में टाट का जोड़ ही क्यों न हो?- ‘प्रेमचंद’

    साहित्यकाराों के आरोप-प्रत्यारोप को साहित्य का कीचड़ करार कर वास्तविकता को भार्गव जी ने सन् 1924-25 में परखा उचित दाम व गर्व के साथ सम्मानित कर ‘रंगभूमि’ ‘काया-कल्प’ जैसे सशक्त उपन्यासों को हिन्दी जगत की अमूल्य निधि बनाया। इतना ही नहीं मुंशी जी के अन्य उपन्यासों का भी यथावत् महत्वपूर्ण प्रकाशन व सम्पादन, गंगा पुस्तक माला के माध्यम से किया तथा ‘सुधा’, ‘माधुरी’ मासिकों में महत्वपूर्ण स्थान देकर उच्चतम कोटि ‘उपन्यास सम्राट’ घोषित कराने की प्रमुख पहल की, इसे नकारा नहीं जा सकता-

प्रेमचन्द से मेरी पहली भेंट - दुलारे लाल जी भार्गव
प्रेमचन्द्र ने हमें लिखा ‘हमारे पास जरिया मास नहीं है।’
    यद्यपि इससे पूर्व वे उर्दू तथा गल्प लिखा करते थे। उनका प्रारम्भ में एक ‘सोजेवतन’ विद्रोहात्मक उपन्यास छप चुका था। जमाना-सम्पादक दयानारायन निगम से निकटस्थ थे, परन्तु 1923 के मध्य काफी अस्त-व्यस्त थे।
    हमने उन्हें लखनऊ आने तथा गंगा पुस्तक माला के सम्पादक-मंडल में शामिल होने का आमंत्रण दे दिया। अतिशीघ्र वे लखनऊ आकर मुझसे मिले। मैंने उन्हें कुछ काम देने हेतु ‘बाल-विनोद-वाटिका’ का सम्पादक नियुक्त किया तथा रहने हेतु मेक्सवेल प्रेस, लाटूश रोड की इमारत के पीछे हिस्से, जिसे अपने प्रेस हेतु ले रक्खा था। अस्थाई रूप से 60 रु0 मासिक पर प्रबंध कर दिया। काफी समय प्रारंभ में वे वहीं रहे, फिर गणेशगंज चले गये।
    ‘बाल विनोद वाटिका’ के अन्तर्गत काफी उच्चकोटि का बालोपयोगी साहित्य निकलता था। इसके अतिरिक्त भी प्रसिद्व काव्य मर्मज्ञों विद्वानों के साहित्य का सम्पादन तथा ‘सुधा’ सम्पादन कार्य में भी हमें सहयोग दिया। वे केवल हमसे 100/- मासिक लिया करते थे। सन् 24-25 में करीब दो वर्ष हमारे साथ रहे। सन् 24 में ही हमने उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति रंगभूमि भी छापी। वे लिखते तो अच्छा थे, भाषा गलत होती थी। हिन्दी-उर्दू मिश्रित, उसे शुद्ध कर देता था। हर बात की काफी इतिवृत्तात्मक और शुलभ शैली में लिखते थे, जिनका जन-साधारण पर प्रभाव पड़ा।
    इसके बाद वे सन् 25 के अंत में बनारस चले गये थे। अधिक पैसा मिलने से फिर सन् 27 में ‘माधुरी’ में आ गये। 3-4 वर्ष, सन 30 तक वहां कार्यरत रहे। अधिक पैसे का सदुपयोग न कर सके। बाद में उन्हें मदिरा आदि का शौक हो गया था, यद्यपि वे कभी मेरे सामने न पीते थे। जबकि निराला, सामने ही खोलकर पीने में मशगूल हो जाते थे। वे आदर के पात्र थे। ‘माधुरी’ कार्यालय में तो वे समय पर नित्य 10 बजे प्रातः आ जाते थे। यही स्थिति पं0 कृष्ण बिहारी की भी थी कि वे कार्यालय काम पर 10 बजे नित्य ही आ जाते थे। जबकि पं. रूपनारायण पाण्डेय जी का कोई समय निश्चित न था। कभी 12 बजे आते थे, तो कभी 1-2 बजे।
    मैंने सुना है कि प्रेमचन्द फिल्म में 700) रु0 मासिक कमाते थे। सन् 37 सितम्बर में हमारे पास आए थे। जैसा उन्होंने हमारे चित्रकार हकीम मोहम्मद खां को बताया- भार्गव जी के पास मैं यहां इलाज कराने आया था। पर वे नहीं हैं, नहीं तो कुछ सहूलियत मिलती।’ अतएव वे 32 नं0 में चित्रकार महोदय के साथ ही ठहरे। फिर मोहन लाल सक्सेना, जो उस समय प्रमुख राजनीतिक थे, से मिले। उन्होंने मदद से इन्कार कर दिया, कहा- मैं इस तरह की उलझन में पड़ना नहीं चाहता। बाद में यहां से जाकर 8 जुलाई को उनका स्वर्गवास हो गया- जिसका निश्चय ही हमको मालूम पड़ने पर बेहद सदमा सा रहा कि हमारा एक महकता सितारा हमसे दूर हो गया। हम मदद कर भी सहयोगी न बन सके।
    उन्हें शिखर पर पहुंचाने का श्रेय ‘सुधा’, ‘माधुरी’ परिवार तथा उर्दू में जमाना-सम्पादक दयानरायन निगम को है। प्रेमचन्द ने यह स्वीकारा है कि ‘हंस’ और ‘जागरण’ के प्रकाशन से हमें दो-सौ मासिक का घाटा होता रहा है।

अभिनव बिहारी श्री दुलारे लाल भार्गव

राम प्रकाश वरमा
    ब्रजभाषा सैकड़ों वर्षों तक अधिकांश भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा और काव्य भाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ रही है। इस भाषा में सूर, बिहारी, देव आदि अनेक कवियों ने अपनी रचनाएं लिखकर इसे इतना परिपूर्ण बना दिया है कि इसे शिक्षित वर्ग द्वारा बहिष्कृत करने पर अपमान का बोध होता है। आधुनिक काल में हमने खड़ी बोली को (स्टैन्डर्ड) मर्यादित भाषा मान लिया है, और इसका विस्तार हरिऔध, पंत, गुप्त आदि अनन्य कवियों ने किया है। परन्तु ब्रजभाषा का सर्वथा परित्याग प्राचीन हिन्दी काव्य-ग्रन्थों का परित्याग होगा। आधुनिक काव्य में सनेही जी, रत्नाकर जी, सिरसजी, उमेश जी तथा पं0 दुलारे लाल जी आदि कवियों ने अपनी रचनाओं से अलंकृत करके ब्रजभाषा को मृतप्राय होने से उबार लिया है। परन्तु खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि आज अनेक व्यक्ति हिन्दी साहित्य से ही विमुख होते जा रहे हैं। अश्लील साहित्य का प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। ऐसे ही कुछ व्यक्तियों ने धारणा बना ली है कि हिन्दी भाषा अन्य भाषाओं से तुच्छ है। ये लोग न तो हिन्दी साहित्य का अध्ययन करना चाहते हैं और न हिन्दी साहित्य विशारदों और विद्वानों से उसके विषय में जानकारी प्राप्त करते हैं। आज अधिकांश व्यक्ति पढ़ लिखकर उच्च पद पर आसीन होना चाहते हैं। अपना देश क्या है? अपनी भाषा क्या है? इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं।
    किसी देश या जाति को जीवित रखने में भाषा और साहित्य कहां तक सहायक है, इसे जानने के लिए हिन्दी के प्राचीन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। हिन्दी के समान विशाल साहित्य अन्य प्रान्तीय भाषाओं में होना दुर्लभ हैं क्योंकि इसमें ही तो हिन्दू-जाति के गत 900 वर्षों के उत्थान तथा पतन का भावनामय वर्णन अंकित है।
    ब्रजभाषा हिन्दी की प्रधान शाखा है, और इसी में हिन्दी का गौरवपूर्ण साहित्य है। इसी भाषा में अनेकानेक महाकाव्य हैं, जो सर्वथा प्रसंशनीय हैं। इनमें सैकड़ों विद्वान और प्रतिभाशाली महाकवि हुए हैं, मीरा, सूर, केशव, मतिराम, बिहारी, रहीमदास, सेनापति और हरिश्चन्द्र आदि। कवि बिहारी लाल हिन्दी संसार के सर्वश्रेष्ठ कलाकार हैं, ‘बिहारी सत्सई’ लिखकर अटल कीर्ति उपलब्ध की है।
    दोहा हिन्दी जगत में इतना प्रचलित रहा है कि कभी-कभी अपढ़ स्त्रियों, निरक्षर कृषकों के मुख से सुना गया है। सतसई के दोहों तथा तुलसी कृत रामायण के विषय में कहा जाता रहा है कि ऐसी कृति आगे सम्भव न होगी। परन्तु आधुनिक हिन्दी काव्य सर्जक ‘माधुरी’, ‘सुधा’ के सम्पादक स्व0 आचार्य पं0 दुलारे लाल जी भार्गव द्वारा रचित ‘दुलारे दोहावली’ बिहारी सतसई के टक्कर की 1932 में बताई जा चुकी हैं। लोगों की द्दारणा मिथ्या साबित हो चुकी है। उसकी कुछ बानगी यहां प्रस्तुत है:-
तिय-रतननि हीरा यहै, यह सांचै ही सौर।
जेती उज्जल देहि-दुति, तेतो हियो कठोर।।
हरी-हरी प्रिय बंसरी, बहरावति बर-बैन।
हामी भरि नाहीं करति, हंसति तरेरति नैन।।

    उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है, दोहावली में श्रेष्ठ और गम्भीर वर्णनों का आगार है। ‘दुलारे-दोहावली’ के कुछ दोहे तो ‘बिहारी-सतसई’ से भी बढ़कर हैं। इसका ज्ञान, ओरछा नरेश की ओर से प्रदान किये गये प्रथम देव-पुरस्कार (अयोध्या सिंह जी उपाध्याय ‘हरि-औद्य’ द्वारा रचित ‘प्रिय-प्रवास’ के टक्कर में) से होता है।
    काव्य-मर्मज्ञों एवं हिन्दी विद्वानों ने आपको अभिनव बिहारी तक की पदवी दे डाली है। कुछ एक ने तो ‘बिहारी लाल’ तथा ‘दुलारे लाल’ नामों की मात्रा तथा अक्षर की समता को देखकर कह डाला कि सम्भवतः बिहारी का ही पुर्नजन्म श्री दुलारे लाल जी हों।
    राजघराने में पैदा हुए इस लाडले लाल को विज्ञान का बड़ा शौक था। दादा की अभिलाषा थी कि पौत्र आई0सी0एस0 होकर बड़ा अधिकारी बने। पिता की इच्छा थी पुत्र विलायत जाकर विज्ञान का स्नातक होकर लौटे। पर हिन्दी के इस सपूत से तो हिन्दी की सेवा सुनिश्चित थी।
    पं0 दुलारे लाल जी भार्गव का जन्म सम्वत् 1956, नवल किशोर रेजीडेन्स, महात्मा गांधी रोड, लखनऊ में बसंत पंचमी के शुभ-दिन हुआ था। आप स्व0 श्रीमान प्यारे लाल जी भार्गव के ज्येष्ठ पुत्र थे। आपका लालन-पालन धनी-मानी स्व0 मुशी नवल किशोर जी सी0आई0ई0 के यहाँ ही हुआ था। आप प्रतिभाशाली विद्यार्थी रहे। अंग्रेजी में प्रान्त भर में प्रथम आने पर नेस्फील्ड स्कालरशिप मिला। आपका विवाह श्री फूलचन्द जी भार्गव, एक्स्ट्रा असिस्टेन्ट कमिश्नर की सुपुत्री श्रीमती गंगा देवी से 15 वर्ष की अल्प आयु में ही हो गया था। पत्नी का साथ अल्प समय ही रहा था।
    हिन्दी सेवा व्रतधारी सरस्वती पुत्र ने अपने प्रिय मित्र और चाचा श्री विष्णु नारायण जी भार्गव के सहयोग से ‘माधुरी’ निकाली। उसी समय से हिन्दी साहित्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। जिसका श्रेय आचार्य पं0 दुलारे लाल जी भार्गव को है। ‘माधुरी’ को योग्य हाथों में सौंप कर हिन्दी के इस महारथी ने ‘सुधा’ मासिक पत्रिका को जन्म दिया। यह पत्रिका हिन्दी संसार में अग्रगण्य रही। उस समय ‘सरस्वती’ की हालत नाजुक हो चुकी थी। इसे श्री पदुमलाल पुन्नालाल  जी बख्शी (1920-21 ई0 के ‘सरस्वती’ सम्पादक) ने स्वयं स्वीकार किया। ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ के माध्यम से आप महिला लेखिकाओं को प्रोत्साहन देते रहे। नये लेखकों को प्रोत्साहन देकर बढ़ावा देते रहे। जहां स्वयं हिन्दी की सेवा की वहां दूसरों को भी प्रेरित करते रहे, इतनी सेवा अन्यत्र दुर्लभ है। आपका ही एक दोहा सेवा के विषय में उदाहरणार्थ प्रस्तुत है:...
सेवा ही संसार में सब सुख, स्रोत-सुजान, सेइ भानुकुल-भानु-पद भे हनुमान महान।
सेवा ही उनके जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई, आखिरी सांसों तक वे हिन्दी की सेवा तथा जन-मानस की सेवा में लीन रहे। हिन्दी साहित्य का ऐसा सच्चा हितैषी बिरले लोगों में ही मिलेगा।
    हिन्दी पुत्र के चरणों में हमारे श्रद्धा-सुमन अर्पित है।

भारतीय प्रकाशन-व्यवसाय के कीर्ति-स्तम्भ दुलारे लाल भार्गव

श्री क्षेमचन्द्र ‘सुमन’
प्रथम ‘देव पुरस्कार-विजेता’ एवं हिन्दी के मूर्धन्य प्रकाशक श्री दुलारे लाल भार्गव हमको छोड़कर 6 सितम्बर 75 को चले गए, विश्वास नहीं होता। हिन्दी साहित्य में इतना बड़ी दुर्घटना हो गई और कहीं भी कोई हलचल या चहल-पहल नहीं। न तो कहीं कोई शोक सभा हुई और न किसी हिन्दी पत्र-पत्रिका में यह समाचार ही छपा। कितनें कृतघ्न हैं हम कि जिस व्यकित ने ‘हिन्दी साहित्य’ को विश्व साहित्य के मंच पर प्रतिष्ठित करने का गौरव और यश प्रदान किया, उसके चले जाने पर भी ज्यों-के-त्यों अपने कार्य-व्यापार में इस प्रकार संलग्न रहे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
    सरस्वती के पावन मन्दिर में इतनी बड़ी दुर्घटना से कहीं तो कोई हलचल हुई होती। जिस व्यक्ति ने ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का नया मानदंड स्थापित किया, जिसने ‘गंगा पुस्तक-माला’ की स्थापना करके हिन्दी-प्रकाशन की दिशा में एक अभूतपूर्व क्रांति की, जिसने हिन्दी मुद्रण क्षेत्र में अपने, गंगा-फाइन आर्ट प्रेस’ से ऐसी-ऐसी मुद्रित पुस्तकें निकाली, जिन्हें देखकर आज भी आश्चर्य तथा कौतूहल होता है; उस दिवंगत आत्मा की स्मृति में दो आँसू भी न बहा सके, विडम्बना ही तो है। जब हिन्दी के लेखक स्वयं पैसा लगाकर अपनी रचनाओं का मुद्रण और प्रकाशन करवाने के लिए लालयित घूमा करते थे, तब श्री दुलारे लाल भार्गव ने उनमें यह चेतना जागृत की थी कि लेखन से भी मनुष्य अपनी आजीविका चला सकता है।
    आज यह कल्पनातीत लगेगा कि सन् 1928 में भी कोई प्रकाशक किसी लेखक को 2100 रु0 की राशि उसकी एक रचना पर दे सकता था। आज इस राशि का मूल्य आँकें तो वह एक लाख से अधिक का बैठेगा। श्री भार्गव जी ने यह साहसिक पहल करके उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का ‘रंगभूमि’ नामक विशालकाय (लगभग 900 पृष्ठ) उपन्यास दो भागों में प्रकाशित किया और प्रत्येक भाग का मूल्य केवल 2.50 रु0 रखा। प्रेमचन्द जी का हिन्दी में मूलतः लिखा हुआ कदाचित यह पहला ही उपन्यास था।
    हिन्दी-जगत को श्री भार्गव जी का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने उसे प्रेमचन्द्र जैसा उपन्यासकार दिया। प्रेमचन्द्र ही क्या, यदि भागर्व जी ‘गंगा-पुस्तक-माला’ द्वारा प्रकाशन का यह साहसिक अभियान न छेड़ते, तो आज हिन्दी को श्री वृन्दावन-लाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा, विश्वम्भर नाथ शर्मा, चतुरसेन शास्त्री, गोविन्द बल्लभ पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, रूप नारायण पांडेय, बेचन शर्मा ‘उग्र’, बदरी नाथ भट्ट, प्रताप नारायण श्रीवास्तव और चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’ जैसे उपन्यासकार, नाटककार, कवि और कथाकार  कैसे प्राप्त होते? यहां तक कि पुराने साहित्यकारों में बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, कृष्ण बिहारी मिश्र और ज्वालादत्त शर्मा प्रभूति की अनेक रचनाएं प्रकाशित करने के साथ-साथ उन्होंने समस्त प्राचीन काव्य-साहित्य को सुमुद्रित करके हिन्दी में उपलब्ध करवाया। उस समय की उनके द्वारा प्रकाशित ‘मिश्र बंधु विनोद’, ‘हिन्दी-नवरत्न’, और ‘सुकिव-संकीर्तन’, आदि पुस्तकें पाठकों की साहित्यिक जानकारी बढ़ाने में ‘संदर्भ’ का कार्य करती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा लिखित ‘आरोग्य-शास्त्र’ नामक विशालकाय ग्रंथ को प्रकाशित करना भार्गव जी जैसे उत्साही व्यक्ति के ही बूते की बात थी। वह ग्रंथ मुद्रण, साज-सज्जा और सामग्री की दृष्टि से आज भी अपना सानी नहीं रखता।
    भार्गव जी जैसे उदार, मिशनरी तथा सतर्क प्रकाशक यदि हिन्दी में दो-चार और भी होते तो आज हमारी भाषा और साहित्य की दशा कुछ और ही होती। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे अभूतपूर्व प्रतिभा के धनी साहित्यकार को हिन्दी में प्रतिष्ठित करना भार्गव जी का ही काम है। ‘निराला’ जी की ‘तुम और मैं’ तथा ‘जूही की कली’ आदि रचनाएं ‘माधुरी’ के प्रथम पृष्ठ पर भार्गव जी ने ही छापी थीं। ‘निराला जी’ का पहला कहानी संग्रह ‘लिली’ और सबसे पहला उपन्यास ‘अप्सरा’ भी उन्होंने ही अपनी ‘गंगा पुस्तक माला’ की ओर से प्रकाशित किया था। उन्होने सर्वश्री वृन्दावन लाल वर्मा के ‘कुण्डली-चक्र’ और विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक के ‘माँ’ उपन्यास को ‘सुधा’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित करके बाद में ‘गंगा-पुस्तक माला’ की ओर से छापा। श्री भगवती चरण वर्मा के ‘पतन’ तथा ‘एक दिन’ नामक पहले दो उपन्यासों को छापने का श्रेय भी उन्हीं को है। ‘माधुरी’ के सम्पादन के दिनों में उनके साथ जहां आचार्य शिवपूजन सहाय, प्रेमचन्द, रूप नारायण पांडेय और भगवती प्रसाद बाजपेयी प्रभूति साहित्यकारों ने कार्य किया था, वहां ‘सुधा’ के सम्पादन के दिनों में श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, इलाचन्द्र जोशी, और गोपाल सिंह नेपाली जैसे कवि और साहित्यकार भी उनके सहयोगी रहे थे।
    साहित्य की सेवा उन्हें विरासत में मिली थी। भार्गव परिवार के प्रतिष्ठित प्रकाशक एवं मुद्रक मुंशी नवलकिशोर ने अपने प्रेस के द्वारा हिन्दी तथा उर्दू की 4000 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित नहीं कीं, प्रत्युत वहां से ‘माधुरी’ का प्रकाशन करके हिन्दी साहित्य को दुलारे लाल भार्गव जैसा साहसी तथा उत्साही व्यक्तित्व प्रदान किया। वैसे तो छात्र जीवन से ही भार्गव जी में लेखन-सम्पादन की अभूतपूर्व प्रतिभा थी और वे अपने जीवन के सोलहवें वर्ष तक आते-आते ‘भार्गव पत्रिका’ का सम्पादन भी करने लगे थे। ‘माधुरी’ के प्रकाशन ने उनकी प्रतिभा को द्विगणित करने में प्रचुर प्रेरणा प्रदान की। ‘भार्गव पत्रिका’ पहले उर्दू में प्रकाशित होती थी, पर आपने सम्पादन भार ग्रहण करते ही उसे हिन्दी में कर दिया।
    अभी वे नवीं कक्षा में ही पढ़ते थे कि उनका विवाह अजमेर के सुप्रसिद्ध रईस श्री फूलचन्द जी जज की सुपुत्री गंगादेवी के साथ हो गया। वे कुछ समय ही अपने पति श्री दुलारे लाल भार्गव के साथ रह पाई थीं कि 1916 की 19 सितम्बर को अचनाक उनका देहावसन हो गया। इतने थोड़े से समय में ही गंगादेवी ने उर्दू संस्कारों से आक्रांत इस परिवार में हिन्दी के प्रति जो निष्ठा जागृत की, उसी के परिणामस्वरूप प्राणेश्वरी की इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने आजीवन हिन्दी की सेवा करने का महान ब्रत किया व उसे अक्षरशः सही चरितार्थ करके दिखा दिया। अपने इस संकल्प की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1922 में ‘माधुरी’ का सम्पादन प्रारम्भ किया। ‘माधुरी’ के सम्पादन-काल में उन्होंने जहां हिन्दी लेखकों, कवियों और साहित्यकारों का सहयोग लिया वहां अनेक कवि और साहित्यकार भी हिन्दी जगत को दिए। सर्व प्रथम ‘तुलसी संवत्’ का प्रचालन और ब्रज भाषा काव्य की पुर्नप्रतिष्ठा ‘माधुरी’ के द्वारा ही उन्होंने की। यही नहीं, अपितु अनेक कवियों को ब्रज भाषा की रचना करने की ओर उन्होंने प्रवृत किया।
    उन्होंने अपनी पहली पत्नी श्रीमती गंगा देवी की पावन स्मृति को चिरस्थायी रूप देने के लिए ‘गंगा-पुस्तक-माला’ प्रारम्भ कर अपनी पहली काव्य कृति ‘हृदय तरंग’ प्रकाशित की 1927 में इसी दिन ‘सुधा’ पत्रिका को जन्म दिया। ओरछा के हिन्दी प्रेमी अधिपति महाराजा श्री वीर सिंह देव की ओर से प्रारम्भ किया गया दो हाजर रूपये का ‘देव पुरस्कार’ भी आपको इसी दिन ‘दुलारे दोहावली’ पर मिला। इस पुरस्कार की प्राप्ति पर भार्गव जी ने अपने उद्गार एक दोहे में इस प्रकार प्रकट किये थे:-
मम कृति दोस-भरी खरी, निरी निरस जिय जोई;
है उदारता रावरी, करी पुरसकृत सोइ।

‘दुलारे-दोहावली’ पर पुरस्कार मिलने पर हिन्दी जगत में उन दिनों जो चहल-पहल मची थी, वह भी लोगों की मनोवृत्ति की द्योतक थी। किसी ने उन पर यह आरोप लगाया था कि यह कृति उनकी है ही नहीं, और किसी ने उसकी मौलिकता को प्रश्न चिन्हांकित किया था। इस संबंध में महाकवि निराला की ये पंक्तियां ही भार्गव जी की काव्य-प्रतिभा को परखने का सुपुष्ट प्रमाण है:-
    ‘‘विद्वान समालोचकों का मत है कि बिहारी लाल हिन्दी के सर्व प्रथम श्रेष्ठ कलाकार हैं। उनके बाद आज तक किसी ने भी वैसा चमत्कार पैदा नहीं किया? परन्तु अब यह कलंक दूर होने को है... ब्रज भाषा में अब पहले की सी कविता नहीं लिखी जाती, ‘दुलारे लाल दोहावली’ ने इस कथन को ‘बिल्कुल भ्रम साबित कर दिया।.. कविवर दुलारे लाल जी के दोहे महाकवि बिहारी लाल जी के दोहों की टक्कर के होते हैं, और बाज-बाज तो खूबसूरती में बढ़ भी गए हैं।’’
    श्री भार्गव जी ने जहां भारतेन्दु के बाद धीरे-धीरे सूखती जाने वाली ब्रजभाषा काव्य की माधवी लता को अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा से सींच-सींचकर पल्लवित एवं पुष्पित किया वहां ‘सुधा’ ‘माधुरी’ और ‘गंगा-पुस्तक माला’ के द्वारा खड़ी बोली साहित्य की अभिवृद्धि में भी अभूतपूर्व योगदान दिया। हिन्दी-प्रकाशनों को सूरुचि पूर्वक बढि़या मोटी एंटिक पेपर पर कपड़े की जिल्द में छापकर हिन्दी- प्रकाशकों के सामने आदर्श प्रस्तुत करने वाले कदाचित वे पहले ही व्यक्ति थे। हिन्दी के अन्य व्यवसायी प्रकाशकों की भांति जैसी भी पांडुलिपि लेखक से उन्हें मिल गई वैसी ही छाप देने वाले भार्गव जी नहीं थे। उनकी भाषा का एक ऐसा सर्वथा नया मानदंड था कि अच्छे-अच्छे धाकड़ लेखक को भी उनके द्वारा प्रवर्तित ‘वर्तनी’ को मानने के लिए विवश होना पड़ता था। भाषा संबंधी उनकी जागरूकता का लोहा अन्तः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को भी मानना पड़ा। उसी बर्तनी के अनुसार उनकी ‘अद्भुत-अलाप’ तथा ‘सुकवि-संकीर्तन’ आदि पुस्तकें ‘गंगा पुस्तक माला’ से प्रकाशित हुई। हिन्दी-प्रकाशन के क्षेत्र में प्रत्येक पुस्तक का ‘राज-संस्करण’ और ‘साधारण संस्कारण’ अलग-अलग तैयार करने वाले कदाचित वे पहले ही व्यक्ति थे। उनका प्रत्येक प्रकाशन देश के कोने-कोने में फैलकर सभी पाठकों और पुस्तकालय तक सस्ते-से-सस्ते मूल्य में पहुंचे इसके लिए उन्होंने ‘पुस्तक-प्रचार’ की योजना भी चलाई थी। बच्चों के लिए सुरुचिपूर्ण साहित्य तैयार करने की दिशा में जहां वे प्रयत्नशील रहे वहां उन्होंने ‘बाल-विनोद’ नामक एक बालोपयोगी पत्र का प्रकाशन करके अनेक लेखक तैयार किये।
    हमारा हिन्दी साहित्य एवं भारतीय प्रकाशन व्यवसाय युगों-युगों तक भी दुलारे लाल भार्गव को न भुला सकेगा।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)