फिर लौटकर आ गया लाॅटसाहबों की झंडाबरदारी वाला नया साल। पुराना वाला आदमी की आत्महत्या से घबराकर विदा हो गया। मगर अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लम्पट स्वागतम के रतजगे में जनतंत्र-जनतंत्र खेलने में व्यस्त हैं। खबरें छपती हैं, ‘मोहर्रम’ जेल में, अफसरों ने गायब कर दिया भरापुरा गांव, अरे यहां तो पानी लूटा जा रहा है, कर्ज, भूख तो छिपाया ही, उम्र भी सही नहीं बताई, भाजपा को गर्व है कि उसके पास मोदी हैं, उगाही में दो पत्रकार गिरफ्तार।
वकील साहब गरीब मोहर्रम अली को राजू यादव बनाकर जेल भिजवा देते हैं और अफसरान असलियत जान पाये तो भी 83 दिन तक जेल की सलाखों के पीछे मोहर्रम को रोना कलपना पड़ा। साढ़े बाईस बीघा जमीन का जोतदार कर्ज में डूबा किसान कामता प्रसाद कीटनाशक पीकर मई, 2012 में आत्महत्या कर लेता है। बात विद्दायक तिंदवारी तक पहुंची, उन्हें बुंदेलखण्ड के किसानों की बदहाली का हाल पहले ही मिल रहा था। इस घटना से दुखी विधायक दलजीत सिंह ने सरकार को चिट्ठी लिखी। सरकार के मंत्री ने जवाब दिया कि बुंदेलखण्ड के किसी भी किसान ने भूख या कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या नहीं की। यह जवाब सरकारी अफसरों की जांच रिपोर्ट पर आधारित थी। मजा तो यह कि कामता प्रसाद का गांव गोरनपुरवा उप्र के नक्शे से गायब करने का कारनामा भी इन अफसरों ने कर दिखाया। इसी गांव का पानी, पानी माफिया लूट लेते हैं। ठीक ऐसे ही पवई गांव के किसान अमृतलाल की आत्महत्या को भी अफसरान नकार गये। महोबा में सुगिरा गांव के किसान राम कुमार ने 1.80 लाख के कर्ज से परेशान होकर 14 दिसम्बर को फांसी पर लटक कर अपनी जान दे दी। अफसरान चुप? सच को झूठ के ठीहे पर हलाल करने वाले तो अपराधी कहे ही जाएंगे, लेकिन प्रदेश का भरा पुरा, खाया-पिया अघाया विपक्ष जिनमें से किसी के पास मोदी हैं, तो किसी के पास माया, उनमें से किसी ने भी कोई आवाज नहीं उठाई। कोई भी सियासतदां हमीरपुर जाकर सच जानने को बेचैन नहीं हुआ।
सच की तलाश करने की कोशिश की एक अखबार ने, उसके पत्रकार ने, तभी सामने आया आदमी और जरायम पेशा हुक्मरानों के बीच का तल्ख षड़यंत्र। बस यहीं पत्रकारों की पूरी जमात मुल्जिम के कटघरे की ओर धकियाई जाने लगती है। समूचे मीडिया की विश्वसनीयता दांव पर लगा दी जाती है। उसकी कलम को द्रौपदी सा निर्वस्त्र करने के तमाम दुर्योधनी जतन होने लगते हैं। मगर यहीं एक सवाल मुझे लगातार मथ रहा है। पत्रकार क्यों पांडवों के जुआरी आचरण को अपनाने का लोभ कर बैठते हैं?
जी.टी.वी. के दो पत्रकारों को जिंदल ग्रुप से उगाही के जुर्म में पिछले साल पकड़ा गया। उन्हें जेल भेज दिया गया। मीडिया पर भरोसे के संकट का ढोल लगातार पीटा जा रहा है। इसके पीछे वही अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लोग सक्रिय हैं, जो किसी कामता, किसी मोहर्रम को अपना निशाना बनाने के माहिर हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों पत्रकार दूध के धुले हैं या उनके कारनामें को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। अपराध, अपराध है। उसकी सजा बेशक मिलनी चाहिए, लेकिन असल कुसूरवार कौन है? यह तलाशने और उनको दण्ड देने का काम कौन करेगा?
क्या वो जिनकी नजर में नब्बे फीसदी भारतीय मूर्ख हैं? या फिर वे जिनके पांवों में चांदी के जूते हैं और दांतों में सोना जड़ा है? इन दोनों में से किसी की भी हिम्मत आज तक कानून का मजाक उड़ाने वाले, उद्दंड भाषा में मुंबई से छपने वाले ‘सामना’ के मुखलिफ आवाज उठाने तक की नहीं हुई? इसके बाद भी नया साल मुबारक?
वकील साहब गरीब मोहर्रम अली को राजू यादव बनाकर जेल भिजवा देते हैं और अफसरान असलियत जान पाये तो भी 83 दिन तक जेल की सलाखों के पीछे मोहर्रम को रोना कलपना पड़ा। साढ़े बाईस बीघा जमीन का जोतदार कर्ज में डूबा किसान कामता प्रसाद कीटनाशक पीकर मई, 2012 में आत्महत्या कर लेता है। बात विद्दायक तिंदवारी तक पहुंची, उन्हें बुंदेलखण्ड के किसानों की बदहाली का हाल पहले ही मिल रहा था। इस घटना से दुखी विधायक दलजीत सिंह ने सरकार को चिट्ठी लिखी। सरकार के मंत्री ने जवाब दिया कि बुंदेलखण्ड के किसी भी किसान ने भूख या कर्ज से परेशान होकर आत्महत्या नहीं की। यह जवाब सरकारी अफसरों की जांच रिपोर्ट पर आधारित थी। मजा तो यह कि कामता प्रसाद का गांव गोरनपुरवा उप्र के नक्शे से गायब करने का कारनामा भी इन अफसरों ने कर दिखाया। इसी गांव का पानी, पानी माफिया लूट लेते हैं। ठीक ऐसे ही पवई गांव के किसान अमृतलाल की आत्महत्या को भी अफसरान नकार गये। महोबा में सुगिरा गांव के किसान राम कुमार ने 1.80 लाख के कर्ज से परेशान होकर 14 दिसम्बर को फांसी पर लटक कर अपनी जान दे दी। अफसरान चुप? सच को झूठ के ठीहे पर हलाल करने वाले तो अपराधी कहे ही जाएंगे, लेकिन प्रदेश का भरा पुरा, खाया-पिया अघाया विपक्ष जिनमें से किसी के पास मोदी हैं, तो किसी के पास माया, उनमें से किसी ने भी कोई आवाज नहीं उठाई। कोई भी सियासतदां हमीरपुर जाकर सच जानने को बेचैन नहीं हुआ।
सच की तलाश करने की कोशिश की एक अखबार ने, उसके पत्रकार ने, तभी सामने आया आदमी और जरायम पेशा हुक्मरानों के बीच का तल्ख षड़यंत्र। बस यहीं पत्रकारों की पूरी जमात मुल्जिम के कटघरे की ओर धकियाई जाने लगती है। समूचे मीडिया की विश्वसनीयता दांव पर लगा दी जाती है। उसकी कलम को द्रौपदी सा निर्वस्त्र करने के तमाम दुर्योधनी जतन होने लगते हैं। मगर यहीं एक सवाल मुझे लगातार मथ रहा है। पत्रकार क्यों पांडवों के जुआरी आचरण को अपनाने का लोभ कर बैठते हैं?
जी.टी.वी. के दो पत्रकारों को जिंदल ग्रुप से उगाही के जुर्म में पिछले साल पकड़ा गया। उन्हें जेल भेज दिया गया। मीडिया पर भरोसे के संकट का ढोल लगातार पीटा जा रहा है। इसके पीछे वही अशिष्ट ईश्वर की बिरादरी के लोग सक्रिय हैं, जो किसी कामता, किसी मोहर्रम को अपना निशाना बनाने के माहिर हैं। ऐसा नहीं है कि दोनों पत्रकार दूध के धुले हैं या उनके कारनामें को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। अपराध, अपराध है। उसकी सजा बेशक मिलनी चाहिए, लेकिन असल कुसूरवार कौन है? यह तलाशने और उनको दण्ड देने का काम कौन करेगा?
क्या वो जिनकी नजर में नब्बे फीसदी भारतीय मूर्ख हैं? या फिर वे जिनके पांवों में चांदी के जूते हैं और दांतों में सोना जड़ा है? इन दोनों में से किसी की भी हिम्मत आज तक कानून का मजाक उड़ाने वाले, उद्दंड भाषा में मुंबई से छपने वाले ‘सामना’ के मुखलिफ आवाज उठाने तक की नहीं हुई? इसके बाद भी नया साल मुबारक?
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