Tuesday, December 2, 2014

विज्ञापनों में बेइमानी है पुरानी!

अखबारों में छपने वाले विज्ञापनों के बाजार में सरकारी तंत्र में और दलालों में करोड़ों-अरबों के घपले बरसों से लगातार जारी हैं। दो महीने पहले यूपीटीयू में विज्ञापन देने के नाम पर करोड़ों के घपले का खुलासा लखनऊ से छपने वाले एक हिन्दी दैनिक ने अपने अखबार के पन्नों पर किया था। उस घपले में एक विज्ञापन एजेंसी के साथ दो-तीन छोटे अखबारों के शामिल होने का खुलासा किया गया था। यह नाम खासतौर पर बाक्स में छापे गये थे। खबर दो दिन छपी। इसके बाद जांच के नाम पर सब कुछ शान्त हो गया। दरअसल विज्ञापन के क्षेत्र में बड़े-बड़े चोर दरवाजे हैं और शातिरों के अपने करतब/लखनऊ की कई विज्ञापन एजेंसियों के दफ्तर सूरज ढलने के साथ ही ‘बाॅर’ मंे बदल जाते हैं और देर रात तक ‘जाम’ के साथ ‘जाॅन’ तक छलकते रहते हैं। इन महफिलों में सरकार के बड़े ओहदेदार, एजेंसी के मालिकान/ अधिकारी, अखबार के अधिकारी कभी भी देखे जा सकते हैं।
‘प्रियंका’ ने 1986 के कई अंकों में उप्र राज्य लाॅटरी में हो रहे घपलों में विज्ञापनों के खेल को कई अंकों में उजागर किया था। उस समय ‘पीएसी’ के नाम से मशहूर विज्ञापन कंपनी लाॅटरी निदेशालय से लेकर लगभग प्रदेश के हर विभाग में काबिज थी। खुलासा होने के बाद ‘प्रियंका’ को खरीदने में नाकाम रहने पर विज्ञापन एजेंसी के मालिक की धमकियां, हाथापाई फिर तत्कालीन लाॅटरी निदेशक द्वारा मुकदमा दायर करना। इसमें भी मनचाही सफलता न मिलने पर नौकरशाही व न्यायिक कर्मियों के षड़यंत्र से संपादक को एक दिन के लिए जेल भेज देने का कृत्य किया गया। जब अपने फंसने और जेल जाने की बारी आई तो लखनऊ के तत्कालीन जिलाधिकारी के हस्तक्षेप और ‘प्रियंका’ के संरक्षक व शुभचिंतकों के माध्यम से 9 साल चले मुकदमें में निदेशक द्वारा खेद जताकर न्यायालय में क्षमा याचना कर समझौता कर लिया गया। आज भी उसी विज्ञापन एजेंसी के वारिस बेखौफ उसी राह पर बढ़ रहे हैं। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने उसे तमाम छोटे-बड़े अखबारों में अपने प्रचार का विज्ञापन छपाने का ठेका दिया था। एजेंसी ने खुले हाथों छपवाया भी लेकिन भुगतान के समय असल भुगतान से 50-60 फीसदी तक कटौती कर के छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं को भुगतान किया।
विज्ञापनों के खेल में सूचना विभाग के कारिन्दों का अपना अलग गिरोह है। इसमें विज्ञापन एजेंसियां, अखबार/पत्रिकाओं के मालिकान/अधिकारी पूरी तरह भागीदारी निभाते हैं। टेण्डरों से लेकर सजावटी विज्ञापनों में विज्ञापन दर, आकार व किस अखबार में कौन सा टेण्डर छपेगा तक का खेल बड़े ही सुनियोजित ढंग से चलता आ रहा है। इसी तरह अखबरों के साथ लेन-देन का धंधा जारी है। छोटे-मंझोले अखबारों को जानबूझकर बदनाम किया जाता है जबकि खेल तो बड़े-बड़ों में हो रहे हैं। सूचीबद्धता जैसे नियमों ने विज्ञापन मान्यता समिति का नाम ही दफना दिया।
विज्ञापन के बजट का खेल आंकडों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि उसके लिए काबिल सीए को भी अपना सिर पीट लेने के बाद भी नतीजा निकालना आसान नहीं होगा। इसी तरह कामर्शियल दरों पर दिये जाने वाले विज्ञापनों का अपना अलग जाल-बट्टा है। यह सब बरसों से चल रहा हैं जिसने इसके मुखालिफ आवाज उठाई उसके विरोध में चन्द अखबारवालों का समूह, सूचना विभाग के बेईमान और विज्ञापन एजेंसियां सक्रिय हो जाते हैं। यह एक गंभीर जांच का विषय है, लेकिन कौन करेगा जांच?

नये दौर का नया आन्दोलन ‘अखबार मेला’

छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के सामने आज के लक-दक बाजार की रंगीनियों में हर पल कुछ नये की तलाश में भटकते पाठकों के बीच अपने वजूद को बनाए रखने की सबसे बड़ी चुनौती है। 70-80 करोड़ हिंदी पढ़ने-समझने वाले हिन्दुस्तानी छोटे-मंझोले पत्र/पत्रिकाओं से कैसे जुड़ें? कैस दिली नातेदारी कायम कर सकें? इस पर बातें तो बहुत होती हैं। इनके तमाम संगठन भी सक्रिय हैं। लघु पत्रिका दिवस तक मनाया जाता है, मगर उसमें केवल साहित्यिक पत्रिकाओं की ही भागीदारी होती है। साप्ताहिक/पाक्षिक अखबारों और राजनैतिक, सामाजिक पत्रिकाओं का ऐसा कोई मंच नहीं है, जहां से वे अपना परिचय पाठकों के एक बड़े समुदाय से करा सकें। उन्हें अपनी सचबयानी और आदमी की पीड़ा से कराहते समाचारों-विचारों को पढ़वा सके। न ही कोई अखबार बेचनेवाले या वितरकों को कोई दिलचस्पी है और न ही बचे-खुचे पुस्तकालयों को। ऐसे में इन अखबारों/पत्रिकाओं को अपना दायरा बढ़ाने के लिए गम्भीरता से सोंचना होगा। बाजारीकरण, सरकारी उपेक्षात्मक नीतियों, विज्ञापनदाताओं की बेरूखी और अपनी ही बिरादरी के बेगैरतों के थोथे आरोपों की शाक्तियों को दर किनार कर पाठकों तक छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं की पहुंच कैसे आसान बनाई जा सकती है? खासकर तब जब बड़े अखबार 16-24 रंगीन पन्नों में पूरी दुनिया की नंगई और नेताओं की दबंगई, थियेटर, माॅल और बड़े वितरकों के जरिए बेचने पर बजिद हों। आज हर बड़े अखबार ने तहसील/ब्लाक स्तर पर अपने भव्य कार्यालय बना लिए हैं और उनके जरिए विज्ञापनों, पाठकों पर पूरी तरह काबिज होने का षड़यंत्र जारी है। इसमें उनका भरपूर सहयोग बड़ा कहा जाने वाला महाजनी समाज और सरकारी तंत्र पूरे मनोयोग से कर रहा है। जाने-अन्जाने मध्यम वर्ग व पेट की आग में झुलस रहा गरीब तबका भी शामिल है, व्यावसायिकता का तकाजा भी शायद यही है। छोटे-मंझोले अखबारों को ऐसे हालातों में विज्ञापन जुटाने, पाठक बनाने में बड़े परिश्रम के बाद भी कुछ खास हासिल नहीं होता। नतीजा यह होता है कि अखबार/पत्रिका अनियमित छपते हैं या असमय बंद हो जाते हैं। इसके जिम्मेदार सरकारी तंत्र, विज्ञापनदाताओं और पाठकों से अधिक पत्र/पत्रिकाओं के सम्पादक/प्रकाशक होते हैं। वे विज्ञापनों को हासिल करने के लिए हर जतन करते हैं। सरकारी कारिन्दों की परिक्रमा से लेकर राजनेताओं के यहाँ माथा टेकने व राजनैतिक दल विशेष, सत्तादल के गुणगान तक के पराक्रम में अपनी भरपूर ऊर्जा लगाते हैं। यहां तक जबरन उगाही तक के मामलों में फंसा दिये जाते हैं या फंस जाते हैं। विज्ञापन हासिल करने का यह चक्रव्यूह इतना गजब का है कि इसके भीतर धंसते जाने का लोभ न अभिमन्यु रहने देता है और न ही जयद्रथ। फिर होता वही है जो महाभारत के दोनों योद्धाओं का हश्र हुआ था। अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश पत्र/पत्रिकाएं केवल सांस लेते भर रह जाते हैं। ऐसे हालातों में अखबार/पत्रिका के पन्नों पर पढ़ने लायक सामग्री नहीं छप पाती। कई बार तो हालात इतने हास्यास्पद होते हैं कि विदेशों की खबरें निजी संवाददाता के हवाले से छपी दिखाई दे जाती हैं। मजे की बात है कि अखबार/पत्रिका जिस इलाके से छप रहे होते हैं वहां की खबरें उसके पन्नों पर होती ही नहीं या न के बराबर होती हैं। बड़े अखबारों की तर्ज पर या नकल पर बड़ी खबरें या बड़ों की चिंता में दुबला होने वाली खबरें छपी होती हैं, जिन्हें पहले से ही कई-कई बार टेलीविजन के पर्दे पर देखा और बड़े दैनिक पत्रों में पढ़ा जा चुका होता है। इसके अलावा छपाई, भाषा की अशुद्धियां, कागज और पढ़े जाने लायक गम्भीर सामग्री या खबरों का लगभग अभाव होता है। इसके बाद इंटरनेट या टीवी चैनलों पर आरोप लगाना कि उनके आने से छोटे-मंझोले अखबारों/ पत्रिकाओं के पाठकों को घटाया है, कहां तक तर्कसंगत हैं?
बेशक छोटे-मंझोले पत्र/ पत्रिकाओं के आंदोलन का वह दौर अंग्रेजों के साथ चला गया जब संपादकों को बतौर पारिश्रमिक दो सूखी रोटियां, एक गिलास पानी और उम्र भर के लिए काला पानी का दण्ड मिलता था, फिर भी संपादकों की कतार मौजूद रहती। आज समय बदल गया है, जगर-मगर करते मोबाइल फोन के छोटे पर्दे पर हर जरूरत पूरी करने की क्षमता है। शेयर मार्केट के उतार-चढ़ाव से लेकर
प्रधानमंत्री के हर पल की खबर तक फेसबुक, ट्विटर पर मौजूद हैं, लेकिन लौकी बेचने वाले की घटतौली, परचूनिये की हेरा-फेरी, दरोगा जी की उगाही, मोहल्ले की दादागीरी, शहर-कस्बे-गांव के मेले, पर्व और ठगी के साथ कलेक्टर, पुलिस कप्तान के कामों में आनेवाली दिक्कतें, बिजली, पानी, अस्पताल, सड़क, पुलिया, बेवा-बुढि़या, बन्दर, कुत्ता, सांड़, शोहदे, सफाई के कष्ट जैसी हजारों खबरें हमारे आस-पास हैं। इन्हंें छापने की जरूरत है और आदमी से नातेदारी बनाने की ओर कदम बढ़ाने से शादी डाॅटकाम से लेकर मेटरीमोनियल काॅलमों पर हल्ला बोलने की जरूरत है। एक बार फिर से लघु-मध्यम पत्रों के आन्दोलन को धार देकर प्रधानमंत्री के ‘मेक इन इंडिया’ से जोड़ कर शुरूआत करने जरूरत है। लालू यादव के कुम्हार को रोजी देने की तर्ज पर मोहल्ले की खबरें देने की जरूरत है। महात्मा गांधी के ‘इंडियन ओपीनियन’ या ‘हरिजन’ की तरह अपने ही जिले की पीड़ा, पर्व और प्रेम को अखबार/पत्रिका के पन्नों पर छापकर स्वस्थ और स्वच्छ शहर-कस्बा और जिला बनाने के आन्दोलन से पाठकों, विज्ञापनदाताओं और वितरकों को जोड़ा जा सकता है। इसी सोंच के साथ ‘अखबार मेला’ लखनऊ में लगाया जा रहा है। मेला महज चाय समोसे के साथ ताली बजाने के लिए नहीं वरन् नये दौर में नये आन्दोलन का शंखनाद है।

गांधी, गणेश और गंगाधर की विरासत हैं छोटे अखबार

ईश्वर से या चैरासी करोड़ देवी-देवताओं से मेरी मुलाकात कभी नहीं हुई। मिले तो हमेशा आप लोग। आप ही सहोदर हो, देव हो और बिरादर भी। सुख में, दुख में और अक्षरों के गांव-गलियारे में आपने ही हाथ थामा। आज ‘अखबार मेला’ के मण्डप में आप सभी के चरण पखारते हुए धन्य हुआ। आप सभी का स्वागत करते हुए मैं राम प्रकाश वरमा अपने सहयोगियों सहित प्रणाम करता हूँ। आपका आशीर्वाद पाने के बाद यहां पर बैठे हुए माननीय अग्रज का इस्तकबाल आप सबकी ओर से करता हूँ और चाहुँगा कि इन राजर्षियों, ऋषियों के सम्मान में, खैरमकदम में आप सब इतनी जोरदार तालियां बजायें कि मेला मण्डप और उसके ऊपर का आसमान भी खिलखिला कर हंसते हुए अदब से आदाब करें।..... लखनऊ की तबियत और तरबियत बिलाशक नवाबी है, सो रूआब, शवाब और कबाब को सुर्खियां हासिल हैं, मगर मेले-ठेलों के शायराना ठहाके मजाज की ‘आवारा’ यादें ताजा करते हैं, तो नागर जी की ‘कोठे वालियों’ से भी आपकी मुलाकात कराते हैं। ‘अखबार मेला’ लखनऊ की सरजमीं पर लगाने का हौसला ओर प्रेरणां अपने गुरूवर आचार्य दुलारे लाल भार्गव के ‘कवि-कोविद-क्लब’ की पावन स्मृतियों से मिला। खासकर छोटे और मंझोले अखबारों/पत्रिकओं के प्रति आम सोंच से अलग उनकी असलियत से आमना-सामना कराने के लिए यह मेला आयोजित किया गया है। इसलिए भी कि गांधी, गणेश (शंकर विद्यार्थी) और गंगाधर की विरासत अभी चुकी नहीं है। दो-चार पन्नों के अखबार गली-मुहल्लों की खबरों के अलावा सचबयानी का हलफनामा होते हैं। पत्रिकाएं प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से लेकर के.पी. सक्ेसना के लखनउवा आंगन तक की हकीकत बयां करती हैं। और भी बेलाग कहूं तो दो पन्नों में लोकतंत्र के झूठे दर्प का रोजनामचा छपा होता है। दरोगा से लेकर दागदारों की हकीकत से जलते हुए अक्षर इंसाफ के जयकारे लगाते हुए खबर की शक्ल में पढ़ने को मिलते हैं। कटरों-कस्बों की गंधाती जिंदगी और उनसे पैदा होने वाले कीमती कचरे का नरक से सामना करातीं खबरों की पूरी जमात का दर्द पढ़ा जा सकता है।
गो कि इन अखबारों/पत्रिकाओं में पसीना बेचकर अक्षरों को आलू, नमक और आटे की मंडी के ताजा भाव में बदलने के करतब करने पड़ते हैं। चुनाचे छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं के बेरंग या बेनूर होेने से उसकी गरिमा या पठनीयता कम नहीं होती। और आम पढ़े-लिखे अभिजातों के दिलो-दिमाग में बैठा यह भरम कि छोटे अखबार सरकारी विज्ञापन पाने की गरज से सौ-पचास (फाइल काॅपी) की संख्या में छापे जाते हैं, यह कोरी कल्पना है। सरकारें (केन्द्र/प्रदेश) छोटे पत्र/पत्रिकाओं को विज्ञापन देने के नाम पर तमाम ऐसे नियमों को लादे है जिसे पूरा करने में छोट प्रकाशक/संपादक हलकान रहते हैं। सूचीबद्धता के नाम पर भ्रष्टाचार का, शोषण का पूरा कुनबा जनसम्पर्क विभाग में खा पीकर अघा रहा है। सूचीबद्ध छोटे अखबारों (साप्ताहिक/पाक्षिक मासिक) को भी साल भर में महज तीन विज्ञापन जारी किये जाते हैं, जिनकी अधिकतम दर 6 हजार है। डीएवीपी की दरों पर जारी किए जाने वाले विज्ञापनों की अपनी अलग दास्तां है। ऐसे हालातों में अभावों से प्रतिस्पर्धा करनेवाले भला पीडि़त और शोषितों की आवाज कैसे बनेंगे?
इससे भी खतरनाक हालात पत्रकार मान्यता के हैं। जहां मान्यता समिति का बरसों से कोई अता-पता नहीं, वहीं (लघु-मध्यम पत्रों के) सम्पादकों को पहचान-पत्र तक नहीं जारी किये जाते। मान्यता प्राप्त धमाकाधुनी पत्रकारों की एक लम्बी जमात (अखबारों/इं.चैनलों में छोड़कर) बरसों से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सरकारी सुविधाओं के साथ अर्थ हिंसा के धंधे में अपना ठीहा जमाए है? प्रेस क्लब और दो जंग खाएं 19वीं शताब्दी के संगठन और उनके सरगना इसकी गवाही हैं। वहीं छोटे अखबार वालों को खबरें इकट्ठी करने तक के हक नहीं दिये जाते? यहां एक बात प्रदेश की समाजवादी सरकार, उसके मुखिया और तमाम जनप्रतिनिधियों से कहनी तर्कसंगत होगी कि आये दिन बड़े अखबारों के झूठे और अनर्गल प्रचार से उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ता है, तो क्यों नहीं छोटे-मंझोले अखबारों को बढ़ावा देने की पहल की जाती? यदि ऐसा किया जाये तो सरकारी विकास का सच झोपडि़यों से जंगल तक अपनी पहुंच बना सकेगा। और अन्त में बेटियों की बात, जो कल की मां हैं। नई पीढ़ी का भविष्य हैं। उनकी सुरक्षा के साथ सम्मान और शिक्षा पर बाकायदा जन जागरण अभियान चलाना होगा। दरअसल मानवीय संवेदना की सरस्वती लुप्त हो गई है, उसे तलाशना होगा और उसे पूर्वजों की गंगा, परम्पराओं की यमुना से मिलाना होगा। उस पर सामुहिक सरोकारों के सेतु का निर्माण करना होगा।
इन्हीं संकल्पों के साथ आभार। प्रणाम।

जगर-मगर मीडिया के बीच लगा अखबार मेला

रविवार का दिन। राजधानी लखनऊ के राजपथ पर लगा ‘अखबार मेला’ का काफी बड़ा विज्ञापन पर्दा (बैनर) हर आने-जाने वाले को रोक रहा था। हर कोई जानना चाह रहा था, ‘यह कैसा मेला है?’ यहां अखबार बेचे जायेंगे?लखनऊ से छपने वाले सारे अखबार यहां मिलेंगे?क्या कोई राजनेता आ रहा है?कोई मनोरंजन का कार्यक्रम हैं?जितने लोग उतनी बातें। भीड़ बढ़ती जा रही थी। ‘अखबार मेला’ बैनर के पीछे लगे शामियाने के नीचे कई मेजों पर तमाम बहुरंगी अखबार/पत्रिकाएं करीने से सजे थे। उत्सुक भीड़ खासी थी। दरअसल तमाम छोटे-मंझोले, नये-पुराने अखबारों/पत्रिकाओं की प्रदर्शनी/मेला का पहला आयोजन राजधानी लखनऊ से छपनेवाली ‘प्रियंका’ हिन्दी पाक्षिक पत्र ने अपने कार्यालय ‘दिलकुशा प्लाजा’ के बाहर, विधानसभा मार्ग, हुसैंनगंज चैराहे पर अपने दो मित्र प्रकाशनों रेड फाईल’ हिन्दी पाक्षिक व ‘दिव्यता’ हिन्दी मासिक/साप्ताहिक के साथ किया था।
‘अखबार मेला’ की मुख्य अतिथि तेरह साल की कक्षा आठ में पढ़नेवाली नवयुग रेडियन्स स्कूल लखनऊ की छात्रा प्रतिष्ठा थी। यह विशेषता ‘बेटी कल की मां है-बेटी बचाओ’ सोंच पर आधारित थी। मेले में कोई मंच या मनोरंजक कार्यक्रम नहीं थे। साधारण से पंडाल के पीछे, ‘प्रियंका’ कार्यालय के बेसमेन्ट में ‘माता सरस्वती’ के चित्र को माल्यापर्ण कर प्रतिष्ठा ने मेले का शुभारम्भ किया। मेले का उद्घाटन दीप जलाकर पूर्वांचल के लोकप्रिय नेता, 25 करोड़ से अधिक भोजपुरी भाषियों के दुलारे ‘‘बाबा’ उप्र के पूर्वमंत्री व ‘प्रियंका’ हिन्दी पाक्षिक के संरक्षक पं0 हरिशंकर तिवारी ने किया। दीप जलाने में साथ रहे सरोजनीनगर लखनऊ के सपा विधायक पं0 शारदा प्रताप शुक्ला, पूर्वमंत्री उप्र डाॅ0 सुरजीत सिंह डंग व सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक पद्यनाभ त्रिपाठी।
‘अखबार मेला’ में आये अतिथियों का स्वागत करते हुए मेला आयोजक राम प्रकाश वरमा बोले,
‘बचपन में सिखाते यही धाम सत्य है
यौवन में लगे अर्थ काम सत्य है
जब राम चले जाते तन की अयोध्या से
तब लोग बताते राम नाम सत्य है
इसी सत्य से मेरा सामाना रोज होता है। राम से मेरी मुलाकात हर कदम पर, हर प्रयास पर और मेरी कलम से लिखे गये हर अक्षर में होती है। सुख में, दुख में मेरे साथ राम ही होते हैं। मेरे राम आप हो। आप ही मेरे प्रेरक हो, पालक हो और पथ प्रदर्शक हो। सखा हो, सगे भाई हो। मैं नहीं जानता ईश्वर को और जानना भी नहीं चाहता। मेरे लिए आदमी यानी आप ही ईश्वर हो। आपको प्रणाम। आपकी प्रेरणा से ही ‘अखबार मेला’ का ख्याल जब मेरे मन में जन्मा तो मैंने आपसे ही इसकी चर्चा की, आपसे इसके आयोजन की सलाह ली और आशीर्वाद की अभिलाषा भी। मेरे साथ मेरे साथी श्री रिजवान चंचल जी, श्री प्रदीप श्रीवास्तव जी और आप सब ‘अखबार मेला’ में मौजूद हैं। खासकर पूर्वांचल की धरती से आये पत्रकारों की मौजूदगी ने मुझे बेहद हौसलामन्द किया है। दरअसल ‘अखबार मेला’ अपने लिए अपनों से संघर्ष है। अपनी पहचान के लिए अपनों के बीच पर्व है। यह ताली बजाऊ या हल्ला-गुल्ला मचाने वाला कार्यक्रम नहीं है बल्कि जगर-मगर करते मीडिया के बीच छोटे-मंझोले अखबारों/पत्रिकाओं और आदमी के बीच संवाद कायम करने की पहल है। इसके अलावा देश की आधी आबादी जो बदलाव का परचम थामे बाजार की साजिशों का शिकार हो रही है के लिए आवाज बनने की कोशिश है। सो ‘बेटी कल की मां’ है के सच को अक्षरों का आन्दोलन बनाने का प्रयास है। बिलाशक यह रास्ता पथरीला है। इसी रास्ते पर गांधी, गणेश शंकर विद्यार्थी और बाल गंगाधार तिलक चले थे। यही रास्ता सरस्वती पुत्र प्रेमचन्द्र ने ‘ईदगाह’ जाने के लिए चुना था। नाम तो बहुत हैं हमारे पुरखों के मगर उनकी विरासत को चार कदम आपके साथ चलकर संजोये रखने की एक छोटी सी कोशिश भर है ‘अखबार मेला’।समय और सम्माननीयों का अदब करते हुए इतना ही कहूंगा-
बैठ जाता हूँ खाक पर अक्सर,
अपनी औकात अच्छी लगती है।’
मुख्य अतिथि प्रतिष्ठा ने बेटी बचाओं पर गंभीर चिंता व्यक्ति की, ‘बेटियों को दान करके अपना परलोक सुधारने के सनातन चलन ने आज बेटियों को महज असुरक्षा के वातावरण में जीने को ही नहीं मजबूर किया है, वरन् माता-पिता के वंश से भी निकाल फेंका है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बेटी के पिता भले ही नहीं थे लेकिन उन्होंने स्वर्गीय इंदिरा गांधी को अपनी दत्तकपुत्री मानकर अपना ‘गांधी’ नाम उन्हें दिया था। आज भी
गांधी वंश का नाम बड़े अदब से भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लिया जाता है। बेटियों को दुलाराएंगे तो देश को बा... मदर टेरेसा और इंदिरा गांधी के सैकड़ों अवतार मिलेंगे।’
‘प्रियंका’ परिवार के संरक्षक पं0 हरिशंकर तिवारी पूर्व मंत्री ने अखबार के सम्पादक के पिछले तीस वर्षाें के संघर्षाें की चर्चा के साथ अखबार और उसके सम्पादक राम प्रकाश वरमा को ‘अखबार मेला’ आयोजन पर बधाई देते हुए कहा, ‘ऐसे अद्भुद आयोजन तो बड़े अखबार के लोग भी नहीं सोंच सके। ‘प्रियंका’ के ‘अखबार मेला’ अंक का लोकार्पण करते हुए श्री तिवारी जी बोले, ‘इसी तरह इनके अखबार ‘प्रियंका’ में भी एकदम अलग खबरें पढ़ने को मिलती हैं, जो इन्हें व इनके अखबार को तमाम बड़े-छोटे-मंझोले अखबारों से अलग खड़ा करता हैं। आप इसी अखबार में पढ़ेंगे तो कई खबरें ऐसी होंगी जो पिछले पन्द्रह दिनों में आपने कहीं नहीं पढ़ी होंगी’ ‘अखबार मेला’ में लगी तमाम अखबारों की प्रदर्शनी देखकर पंडित जी बेहद आचर्य चकित हुए। मेले में मौजूद सरोजनी नगर, लखनऊ के सपा विधायक पं0 शारदा प्रताप शुक्ला ने ‘अख़बार मेला’ के आयोजन को सराहते हुए कहा, ‘पुस्तक मेला सुनाा था, साहित्य मेला सुना था, लिट्रेरी कार्निवाल सुना था, लेकिन ‘अख़बार मेला’ पहली बार सुना, देखा और गुना। गुना यों कि इसके आयोजक मेरे मित्र ही नहीं हैं वरन ‘प्रियंका’ समाचार पत्र को निकालने के लिए नये-नये प्रयोग करते रहे, लड़ाइयाँ लड़ते रहे। आज भी मेला की मुख्य अतिथि बेटी है। इसके अलावा आयोजन का निमंत्रण भी अखबार के पन्नों पर ही छपा हैं एक-दो पन्नों में नहीं साढ़े चार पन्नों में, मैंने आज तक ऐसा कभी नहीं देखा, पढ़ा। राम प्रकाश बधाई के पात्र हैं।
डाॅ0 सुरजीत सिंह डंग ‘अखबार मेला’ देखने के बाद और बिटिया प्रतिष्ठा को मुख्य अतिथि की प्रतिष्ठा दिये जाने से बेहद भावुक शब्दों में बेटियों को शिक्षित किये जाने पर जोर देते हुए बोले, ‘हमें नकल करने की आदत है, इससे परहेज करना होगा। नकल करके पास होने वाला जब शिक्षक बन जाता है तो वह नई पीढ़ी को क्या शिक्षा देगा? आज दुर्भाग्य से हो ऐसा ही रहा हैं हमें अपनी बेटियों को बेटी समझने की ओर कदम बढ़ाने होंगे। प्रतिष्ठा बिटिया ने जो कहा है उस पर अमल करने का संकल्प लेना होगा।
‘अखबार मेला’ में आये अतिथियों, पत्रकारों व पाठकों को लेखक, विचारक व सामाजिक कार्यकर्ता पं0 पद्मनाथ त्रिपाठी, राष्ट्रपति से पुरूस्कृत शिक्षक पं0 ओम प्रकाश त्रिपाठी, भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक डाॅ0 भगवान प्रसाद उपाध्याय, सोनभद्र से प्रियंका परिवार के वरिष्ठ सदस्य/पत्रकार मिथिलेश प्रसाद द्विवेदी, कांग्रेस नेता व प्रियंका परिवार के सदस्य राजेश द्विवेदी ने भी सम्बोधित किया। रायबरेली, उन्नाव, कानपुर, बाराबंकी, हमीरपुर, ललितपुर, बांदा, बनारस, इलाहाबाद, सुल्तानपुर, आजमगढ़, गोरखपुर, सीतापुर, मऊ, फैजाबाद, जौनपुर व राजधानी लखनऊ के पत्रकारों ने व सोनभद्र के वरिष्ठ पत्रकार श्री मिथिलेश द्विवेदी के नेतृत्व में सोनभद्र से 40 पत्र-पत्रिकाओं के तमाम संपादकों- प्रकाशकों ने मेले में सक्रिय भागीदारी निभाई। मेले में लगे अखबार-पत्रिकाओं में जहां हिंदी ‘ब्लिट्ज’ के पुराने अंक थे वहीं उनके संवाददाता रहे प्रदीप कपूर ने अपनी लिखी खबर भी उन्हीं अंकों में खोज ली और उसकी फोटो आयोजक के साथ अपने कैमरे में कैद कर ली। मेले में ‘‘वाह क्या बात’, ‘न्यूज साइट’ व कई अन्य पत्रिकाओं का विमोचन भी अतिथियों ने किया। सुदूर दक्षिण भारत के केरल, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, बिहार व उप्र के 1870 पत्र-पत्रिकाओं को देखकर पाठक, पत्रकार, नेता अभिभूत थे।

झूठा है महंगाई घटने का शोर


राजकोषीय घाटा चिंता का विषय है। कर्ज बढ़ता जा रहा है। टैक्स-मुद्रा स्फीति मामले में देश की हालत सोंचनीय है। बाजवजूद इसके जिन सवा सौ करोड़ की दुहाई देकर तमाम गुल-गपाड़ा मचाया जा रहा है, उन्हें आंकड़े नहीं सस्ती और सुविधाजनक तरीके से रसोई गैस चाहिए न कि कांग्रेस फार्मूले वाले घुमाव-फिराव वाली सब्सिडी का झांसा। विदेशों से वापस आनेवाले कालेधन से करोड़पति बनने की चाहत के सपने में चन्द भारतीय मगन होंगे लेकिन हकीकत में कालाधन तो फुटपाथ से लेकर महलों तक हर किसी की ख्वाहिशें पूरी करने का साधन है। इंटरनेट, मोबाइल सस्ता होने से अधिक अरहर की दाल के सस्ते होने की जरूरत है। आंकड़ों का झूठ कहता है कि खुदरा महंगाई एक प्रतिशत घटी जबकि अंडा एक पांच-छः रूपए में मिल रहा है, मई से अक्टूबर तक चार रूपए में मिल रहा था। मछली मामूली दर्जें की एक सौ चालीस रू0 किलो बिक रही हैं, मई में 60-80 रूप किलो बिक रही थी। ऐसे ही घी-तेल व अन्य सामानों के भाव हैं। डीजल/पेट्रोल सस्ता होने से ट्रांस्पोर्टरों को फायदा हुआ होगा। लेकिन जन सामान्य तो पहले से भी महंगा सामान खरीदने को मजबूर है। सीजन में आने वाली सब्जियों के भाव भी आम आदमी की रसोई की हालत चिंताजनक बनाए हैं।
अखबारों में छापा जा रहा है कि भारतीय शेयर बाजार में इस साल 15.4 अरब डाॅलर का अब तक निवेश हो चुका है और सेंसेक्स 7,246 अंक मजबूत हुआ है। इसका लाभ आम आदमी को क्या मिला? यह तो कागजी हल्ला है। यही कागजी शेर बैंकों का 41 हजार करोड़ से अधिक दबाये बैठे हैं। मोबाइल फोन के बाजार को 40-42 हजार करोड़ का बताया जा रहा है, इसमें 75-80 फीसदी विदेशी कंपनियों के खाते में है।
गौर से देखा जाय तो ईस्ट इंडिया कं0 के नक्शेकदम पर लूट जारी है। ताजी घटना स्टेट बैंक द्वारा अदाणी समूह को एक अरब डाॅलर का कर्ज दिये जाने की है, जबकि पहले से ही किंग फिशर के पास 7,800 करोड़ की रकम दबी है। जनधन योजना के नाम पर खुलवाये गये आठ करोड़ गरीबों के खातों की रकम अमीरों में बांटी जा रही हैं?ये कैसे अच्छे दिन हैं?
यह महंगाई घटने का कौन सा अर्थशास्त्र देशवासियों को पढ़ाया जा रहा है?
सामग्री नवंबर, 2014 मार्च, 14
का भाव का भाव
अरहर दाल 78-85 75
मसूर दाल 72-75 70
उड़द दाल 100 80
चावल मंसूरी 35 30
चावल बांसमती 80 70
आलू 30-40 20
केला 40-50 30-40
प्याज 20-25 25-30
आटा 23-25 20-22
सरसों तेल 120 100
वनस्पति घी 83 82
देशी घी400-425 360-380
दूध फुलक्रीम 70-80 46-48
(सभी दरें प्रति किलो में)

अख़बार मेला सफल

मोबाइल फोन की घंटी बजती है......... स्क्रीन पर 919415081581 नंबर उभरता है.... घंटी लगातार बजती जा रही है। अन्जाना नम्बर था... उठाया... जवाब में उधर से बधाई हो, मैं राजस्थान के लांडनूं से बोल रहा हूँ... ‘अखबार मेला’ की सफलता पर बधाई स्वीकारें। मैं और सुमित्रा जी आना चाहते थे, लेकिन पारिवारिक कारणों से नहीं आ सके। ‘कलम कला’ अखबार मे ंखबर भी छापी है।’ ऐसे ही इन्दौर, भोपाल, मुंबई, अहमदाबाद, गांधीधाम, तिरूवनन्तपुरम् (केरल), मोहाली (पंजाब), नागपुर और उत्तर प्रदेश के कई जिलों से मेले में न पहुंच पाने के मलाल..... मुआफी के साथ बधाइयों के फोन आते रहे। अभी भी आ रहे हैं। और तो और केरल से मलयालम भाषा व हिन्दी की पत्रिकाएं व कुछ किताबें मेला समाप्ति के सप्ताह भर बाद तक आईं।
‘अखबार मेला’ देखने-जानने की ललक देशभर के अखबारवालों में जहंा थी, वहां विधानसभा मार्ग से गुजरने वाले पाठकों में भी खासी थी। मेला शाम पांच बजे जबरन बंद कराया गया। जबरन इसलिए कि पाठकों के आकर्षण में पुराने समाचार-पत्रों के साथ नये पत्र-पत्रिकाओं में रमा रूझान अंधेरे की आमद को भी नकार रहा था।
गौरतलब है ‘अखबार मेला’ आयोजन बगैर किसी सरकारी सहयोग के दशे में पहली बार लखनऊ में लगाया गया था जो बेहद सफल रहा। उससे भी अधिक आश्चर्यजनक था कि मेले में प्रदेश सरकार के कोई मंत्री या मुख्यमंत्री भी नहीं आये थे। उसी दिन लखनऊ मेें राष्ट्रीय प्रेस दिवस पर कई कार्यक्रम पत्रकार संगठनों द्वारा आयोजित किये गये थे। एक पत्रकार संगठन का राष्ट्रीय अधिवेशन भी था, बावजूद इसके मेले में दिन भर भारी भीड़ बनी रही। जिले से आये पत्रकारों में कुछ कवि मन कविताओं के जरिए मेले का गुणगान करते रहे। अजब उत्साह, गजब ऊर्जा से भरपूर पत्रकारों-पाठकों के संगम का नजारा पहली बार सूबे की राजधानी के राजपथ पर देखने को मिला।
‘अखबार मेला’ में पं0 हरिशंकर तिवारी के अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पं0 मार्कण्डेय तिवारी, राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय सचिव अनिल दुबे ने दोपहर में शिकरत कर पत्र-पत्रिकाओं का अवलोकन किया। श्री मार्कण्डेय तिवारी ने सोनभद्र से प्रकाशित पत्रिका ‘वाह क्या बात है’ को जारी भी किया। मेला स्टाल पर ‘प्रियंका’ के अंकों को सराहना मिली तो ‘रेड फाइल’ के अंक पलटे गये। ‘दिव्यता’, ‘पूर्वा स्टार’, ‘माया अवध’ व ‘केरल ज्योति’ की प्रतियों में लोगों की दिलचस्पी दिखी।
‘अखबार मेला’ के पूरी तरह सफल होन पर कई पत्रकार संगठनों ने हैरत के साथ अपनी बधाईयां भेजी हैं। इसके साथ ही उत्साहित भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक ने 30 दिसम्बर को इलाहाबाद में संगम किनारे ‘अखबार मेला’ लगाने की घोषणा की तो सोनभद्र के मिथिलेश द्विवेदी व राजेश द्विवेदी ने सोनभद्र में 17 जनवरी 2015 को ‘अखबार मेला’ के आयोजन का ऐलान किया। बहरहाल अक्षरों के आन्दोलन का प्रथम चरण पूरी तरह सफल रहा।

ताली बजाऊ तमाशा नहीं है ‘अख़बार मेला’

‘अख़बार मेला’ की अभूतपूर्व सफलता के बाद छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं के पत्रकारों को
धन्यवाद देते हुए, बधाई देते हुए राम प्रकाश वरमा ने कहा, ‘मेला आप सबके प्रयासों से सफल हुआ, लेकिन अभी भी कई लोगों के मन में मलाल है कि मंच नहीं था, हाल में आयोजन नहीं था। मेला और भव्य हो सकता था। इसे प्रेस क्लब में आयोजित किया जा सकता था। ऐसी ही कई बातें उठीं। मैंने पहले ही साफ कर दिया था कि मेले में कोई मंच नहीं होगा, कोई वीआईपी मुख्य अतिथि नहीं है और मेला किसी हाल में नहीं होगा। भव्यता से अधिक पाठकों की भागीदारी की आवश्यकता थी, जो भरपूर मिली। यही कारण था कि मेला समाप्ति के पूर्व लखनऊ से छपनेवाले कई प्रतिष्ठित दैनिक समाचार-पत्रों ने अपनी प्रतियां मेला स्टाल पर खड़े पाठकों/पत्रकारों को वितरित की। हाल में पाठकों की पहुंच न के बराबर हो पाती और सड़क पर जो दृश्य था वो सबने देखा। रहा प्रेस क्लब में आयोजन करना सो वहां का बखान करने से अच्छा होगा कि हम आगे की बातें करें।’
बात को आगे बढ़ाते हुए वरमा जी ने कहा, ‘अख़बार मेला’ पाठकों, विज्ञापनदाताओं और अख़बारों/ पत्रिकाओं के बीच नये रिश्ते बनाने की ओर पहला कदम है। जो बेहद सफल रहा। लोगों ने बड़े ही उत्साह से पत्रिकाएं/अख़बार देखे, उन्हंे खरीदने की पेशकश की और जब निराशा हाथ लगी। तो कोई पत्र/पत्रिकाएं चुपके से उठा ले गये। यही मेले की सबसे बड़ी सफलता है। ठेके के मंच  और किराये के हाल में पत्रकार संगठनों के
अधिवेशन होते हैं, सांठ-गांठ वाले सम्मान समरोह या ताली बजाऊ नपंुसक तमाशे। उनकी सार्थकता पर दसियों सवाल भी खड़े होते हैं। छोटो-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं के प्रति समाज में भ्रम की स्थिति है, उन्हें बदनाम करने के तमाम जतन किये जाते हैं। इसी भ्रम को दूर करने और सच को सामने लाने का प्रयास है ‘अख़बार मेला’।’ ‘अख़बार मेला’ की सफलता पर मिल रही बधाइयों के बीच ‘प्रियंका’ सम्पादक ने बताया कि 2015 में भी इसी जगह पर मेले का आयोजन इससे बड़ा होगा। कई नवीनताएं भी होंगी। एक पत्रकार को सम्मनित भी किया जाएगा। यह सम्मान हिन्दी के पितामह आचार्य पं0 दुलारे लाल भार्गव के नाम से होगा। पत्र-पत्रिकाओं के विमोचन को भी प्रमुखता दी जाएगी। मेले में देश के कई हिस्सों से छपने वाले पत्र-पत्रिकाएं दिखेंगे साथ ही उनके संपादकों/प्रकाशकों व अन्य भाषाई पत्रकारों को भी आमंत्रित किया जायेगा। ‘अख़बार मेला-2015’ का मुख्य अतिथि भी कोई वीआईपी नहीं होगा और कोई मंच भी नहीं होगा। हामरे पुरखों के द्वारा छापे गये पत्र/पत्रिकाओं की प्रदर्शनी अलग से लगाई जायेगी। जिलों से छपने वाले पत्रों और उनके पत्रकारों की भागीदारी सुनिश्चित करने के प्रयास किये जायेंगे। ‘अख़बार मेले’ में आप आये धन्यवाद। आप किन्हीं कारणों से नहीं आ सके तो 2015 के मेले में आने की अभी से तैयारी कीजिए और अंत में इतना अवश्य कहुंगा कि हर आयोजन की शुरूआत में कमियां रह जाती हैं, गलितयां हो जाती हैं, अन्जाने में अपनों का अपमान हो जाता है, ऐसी किसी भी परिस्थिति का सामना करने वालों से मैं माफी चाहुंगा और चाहुंगा कि वे अपने सुझाव अवश्य दें जिससे मेला और अधिक सफल हो सके।

आधी बीबी से बलात्कार!

डाॅक्टर ने शादी का झांसा देकर छात्रा से रेप किया.... युवक ने तीन साल तक यौन शोषण किया या शादी का वायदे के साथ दो साल साथ रहने के दौरान यौन शोषण। उसके बाद बलात्कार का मुकदमा लिखाया। ऐसी तमाम खबरे रोज अखबार की सुर्खियां बन रही हैं। इन खबरों के पीछे की हकीकत क्या है? इसकी तहकीकात कौन करेगा? उससे भी बड़ा सवाल है कि एक ही पक्ष अपराधी कैसे हो सकता है? जबकि दोनों पक्ष लगातार उसी अपराध में लिप्त रहते हैं और आपस में विवाद होने पर एक पक्ष धोखा और बलात्कार का आरोप जड़कर दूसरे पक्ष को अपराधी बना देता है। मजे की बात कानून की अपनी धाराएं हैं उनमें मुकदमें दर्ज हो जाते हैं। लेकिन सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों को धता बताने वाले दोनों पक्षों को जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाता? ताजी एक खबर के अनुसार बरेली की रहने वाली 28 साला युवती का मोबाइल पर प्यार हुआ, रेस्त्रां में परवान चढ़ा और हास्टल के कमरे में आठ-दस महीने पहले यौन
संबंध बने, फिर लगातार यौन संबंध जारी रहे। इस बीच शादी के लिए मामला वायदों के बीच लटका रहा। लड़की यहां मडि़यांव में किराए के मकान में अपने परिवार से दूर अकेली रहती है।
आरोपी पेशे से डाॅक्टर है। उस पर लड़की व उसके परिवार ने आरोप लगाया है कि शादी के लिए करोड़ों का दहेज मांगा उससे पहले लगातार उससे दुराचार करता रहा। लड़की कानून की स्नातक है, प्रतियोगी परीक्षा की तैयार कर रही है। सीधी सी बात है लड़की कानून जानती है। ऐसे में क्या इन संबंधों में भावनात्मकता और विवाद का उलझाव नहीं है? यदि है तो दुराचार का अरोप क्यों? रहा दहेज या अश्लील फोटो/मैसेज भेजने का आरोप तो वह अदालत में सुबूत दिये ही जायेंगे लेकिन यह मामला सीधे-सीधे प्रेम-प्यार फिर इन्कार का नहीं है? देश में ऐसे सैकड़ों बल्कि करोड़ों बलात्कार के मुकदमें अदालतों में लंबित हैं, जिनमें लड़कियां सालों लिव-इन-रिलेशन में रहीं, बाद में विवाद होने पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज करा चुकी हैं। ऐसे ही एक मामले पर शिवसेना अध्यक्ष उद्वव ठाकरे की टिप्पणी आई थी, ‘बलात्कार के आरोप लगाना फैशन हो गया है।’ सवाल फैशन से कहीं बड़ा है।
पढ़ी-लिखी या पढ़-लिख रहीं लड़कियों के लिए ‘ब्वाय फ्रंेड’ प्रतिष्ठा (स्टेटस सिंबल) बन गया है।
राजधानी के किसी भी कोचिंग या कालेज जिसमें लड़के/लड़कियां साथ पढ़ते हों के आस-पास का माहौल देख लीजिए। वहां साइबर कैफे, रेस्त्रां, चाऊमीन-कबाब के ठेले, मोबाइल/सीडीशाप खासी तादाद में दिख जाएंगे। इसी के आस-पास खुली सड़क पर लड़कियों/लड़कों की बेहूदा हरकतों का प्रदर्शन आम राहगीर रोज देखते हैं। कई बार उनके पड़ोसी की लड़की उनमें शामिल होती है, लेकिन वे उसे या उन लड़कियों/लड़कों को टोक नहीं सकते। इसे बदलाव नहीं कहा जा सकता। न ही यह आधुनिकता के खाते में डाला जा सकता है। और न ही इसे पितृसत्तात्मक समाज से बगावत की झंडाबरदारी कहा जा सकता है। यह बाजार का षड़यंत्र है जिसे राजनीतिक और सामाजिक साझेदारी हासिल है।
सवाल यह है कि सालों तक यौन शोषण बिना सहमति, बिना अपेक्षा, बिना लोभ या बगैर आनंद के कैसे संभव है? उससे भी बड़ा सवाल ऐसे बलात्कार के मुकदमें पुलिस/ अदालतों का समय व पैसा नही ंखराब करतीं? जबकि उच्चतम न्यायालय ने भी सहमति से दो वयस्कों द्वारा बनाए गये शारीरिक संबंधों को बलात्कार नहीं माना है। क्या इस तरह के बढ़ते मामलों को सामजशास्त्रियों को नजर अंदाज करना चाहिए? यहां एक बात गौर करने लायक है कि जब सालों तक यौन शोषण या यौनाचार कर्म में लड़की/लड़का लिप्त रहे, तो लड़की ‘आधी पत्नी’ का दर्जा हासिल नहीं किये रही? फिर ‘आधी पत्नी’ से बलात्कार का मुकदमा? कानून में तो पत्नी से भी बलात्कार अपराध है लेकिन उनके कितने मुकदमें आते हैं? समस्या गंभीर है। समाज को ही इसका हल खोजना होगा।

अक्षरों का गुस्सा नहीं... सचबयानी है....

भारतीय मीडिया के आलीशान दफ्तरों की जगमगाती दीवारांे पर शुभ-लाभ लिखकर उसके सामने कीमती लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां सजाकर उन्हें प्रणाम करने का चलन आम है। माता सरस्वती, गांधी, पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसों के चित्र खास-खास मौकों के लिए ‘मोर्ग’ (अख़बार के स्टोर) में बंद कर रखे जाते हैं। हिंदी पत्रकारिता के मंगल नक्षत्र आचार्य दुलारे लाल भार्गव व आर0के0 करंजिया का नाम भी बाजारवाद की कोख से जन्मा नवमीडिया नहीं ही जानता होगा। इसी मीडिया उद्योग की काॅलोनी में सम्पादक/महाप्रबन्धक की नाम पट्टिका कमाऊपूत के नाम से कुख्यात है। इन्हीं कुख्यातों की साजिश ने भारतीय राजनीति, आस्था, आध्यात्म, सामाजी ताने-बाने, रिश्तों के मूल्य, आदमी की पीड़ा के सरोकार को झूठ के चैराहे पर खड़ा कर दिया है। इसी चैराहे पर अपराध के आतंक, महिलाओं की नाप जोख, महाजनों की लूट-खसोट, खून और खुराक के रोने पीटने के साथ नव खबरचियों का बेसुरा हल्ला-गुल्ला बेढंगा जाम लगाए है।
वक्त आ गया है कि हर छोटा-मंझोला अख़बार/पत्रिका खुल्लमखुल्ला आदमी की पीड़ा उजागर करना और अपने आस-पास टहलते झूठ का खुलासा करना शुरू कर दे। हर पत्रकार गांधी, गणेश के सच का प्रचार करने पर लग जाये, क्योंकि अब हमारे सामने सिर्फ दो ही रास्ते हैं। सामने फैला जगमगाता बाजार या निश्चल मौत। दोनों में से एक को चुनना ही होगा। उससे पहले दोनों को समझना भी होगा। विज्ञापनों पर, पाठकों के दिलो-दिमाग पर रंग-बिरंगे अखबारों वाले बड़े घरानों के अलावा नए उग आए कुबेरों का कब्जा बेहद मजबूत है। इनके साथ सरकारी तंत्र भी अपना दोजख भरने की जल्दी में है। दोनों कुनबों के किस्से मुलाहिजा हों।
‘अख़बार मेला’ के मौके पर आपके अख़बार ‘प्रियंका’ का विशेषांक छापा जा रहा था। पांच-सात हजार करोड़ का व्यापार करनेवाले बिल्डर्स से एक रंगीन विज्ञापन की मांग की गई। सीधे फोन पर जवाब मिला, ‘हम पर बेहद दबाव होता है सभी के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है। हमने आपको हर साल एक विज्ञापन देने का अपना वायदा हमेशा निभाया है। अब मजबूर न करें।’ इसी कंपनी के रंगीन विज्ञापन बड़े अखबारों में आये दिन छपते रहते हैं। करोड़ों रूपया फिजूलखर्ची में भी उड़ता है, लेकिन आपके अखबार को टरका दिया गया। इसी तरह एक करोड़ से लेकर चार-पांच सौ करोड़ के व्यापार करनेवालों ने हमारा फोन उठाना बंद कर दिया या हजार-पांच सौ का विज्ञापन देने की पेशकश की। सरकारी तंत्र का हाल पहले से ही बेहाल है। एक सरकारी विभाग में तैनात एक उच्च अधिकारी ने हमारा फोन लगातार काटा तो मैं खुद जा धमका उनके  दफ्तर, वे अपना दफ्तर छोड़कर पीछे से निकल गये शायद सीसी टीवी कैमरे में उन्होंने मुझे देख लिया था। ऐसे ही सूचना निदेशक से मुलाकात में उन्होंने आश्वासन दिया और विज्ञापन मांग-पत्र पर अपने नीचे वालों को लिखा, लेकिन वहां किसी नये शासनादेश का रोना, फिर सीए प्रसार, व आरएनआई प्रमाण-पत्र की मांग उसके बाद फाइल चलने लगी अभी तक चल रही है। कब तक चलेगी? विभागीय बेईमान जाने। यह आरोप नहीं सच्चाई है और गहरी जांच का विषय है। और यह विज्ञापन न मिलने पर खिसियाहट मिटाते हुए अक्षरों का गुस्सा भी नहीं है, बल्कि बाजार और सरकार की हकीकत है। हमें इसे बड़ी गम्भीरता से ईमानदारी से समझना होगा। दरअसल हमारी पहचान पाठकों से सीमित संख्या में है या सीमित क्षेत्र में है। वह भी सीरिया, अमेरिका, पाकिस्तान या मोदी सरकार की चिंता से ग्रस्त छपे पन्नों से है। हम अपने आस-पास से बेखबर रहते हैं। हमारे अख़बार हरहू-निरहू-घुरहू के लगातार शराब खाने जाकर बर्बाद होने को नजर-अंदाज कर जाते हैं। शराबखाने की बदगुमानियों को खबर नहीं बनाते। मोहल्ले में, गली में शोहदे अच्छी खासी भली लड़की को इलाके की कीमती औरत बना डालते हंै। हम अपने अख़बार में उस घटना को सुर्खियों में नहीं ला पाते। दरोगा, सफाईकर्मी, दूधवाले, छुट्टा जानवर, गंदगी, पानी, बनिया कोई भी हमारे अख़बार में जगह नहीं पाता। हम सिर्फ विज्ञापनों के पीछे भागते हैं। हमारी शोहरत विज्ञापन मांगने वाले भिखारियों मंे शुमार है।
‘अख़बार मेला’ आयोजन के दौरान मेरी मुलाकातें हर तबके के लोगों से हुईं। अधिकतर लोगों ने ‘प्रियंका’ देखे बगैर ही कह दिया अच्छा वो छोटे पन्नोंवाला या फाइल काॅपी छापने वाला या फिर वो तो सरकारी विज्ञापनों के लिए छपते हैं। शर्मिन्दगी भी हुई और अपनी असलियत से सामना भी हुआ। सच कहूं तो हमारे बीच भी कलम से महरूम, खबर के व्याकरण से अपरिचित, अक्षरों के जोड़-घटाने से अंजान और आसुरी शक्तियों की घुसपैठ हो गई है। इन्हें आदमियत की,मानवीयता की पीड़ाओं से और बाजार में युद्धरत कौरवों से परिचित कराना होगा। इसी परिचय के परचम का नाम है, ‘अख़बार मेला’। यह कोई संगठन नहीं है वरन् पाठकों के बीच अपनी पहुंच बनाने का साधन है। हमारा मानना है, इसे हर जिले में, हर मण्डल में सक्षम अख़बार आयोजित करे तो झूठ का संहार किया जा सकता है। फिर पत्रकार तो भरोसे की सीटी बजाने वाला चैकीदार है। हमें पूरी ईमानदारी से चैकीदारी करते हुए पाठकों के बीच भरोसा कायम करना होगा। पहचान बनानी होगी। भिखारियों के मोहल्ले से बाहर आना होगा। वरना... मौत... निश्चित है।

Saturday, September 20, 2014

akhbarmela

अखबारमेला लखनऊ में नवंबर के दूसरे सप्ताह में विधानसभा मार्ग पर हो रहा है ,सभी से अ नुरोध है कि अपने अख़बार के अंक प्रदर्शनी में रखने के लिए भेजे। संपर्क करे : 09839191977 या ईमेल editor.priyanka@gmail.com पर। मेले में छोटे ,मंझोले अखबारों \पत्रिकाओं वा उनके संपादकों का पहला समागम है ,मुफ्त प्रवेश ले धन्यवाद।
राम प्रकाश वरमा
संपादक
प्रियंका हिंदी पंद्रह रोजा
लखनऊ    

Monday, June 23, 2014

बलात्कारी मध्य प्रदेश

सरकारी आंकड़े तो यही बताते हैं कि देशभर में हो रहे बलात्कारों के अपराधों में मध्य प्रदेश अव्वल है। भले ही राजनीति के मुहल्ले में झूठ का भोंपू उप्र सरकार को बदनाम करने के लिए लगातार चीख रहा हो। सियासी झूठ के सुर में सुर मिलाकर ‘मीडिया’ भी भयादोहन के शातिराना खेल में शामिल दिखाई देता है। शायद यही वजह है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के पिछले आठ साल के आंकड़ों को दरकिनार किया जा रहा है। इन आंकड़ों में 2004 से 2012 तक लगातार बलात्कार के अपराधों में मध्यप्रदेश नंबर एक पर दर्ज है। यहाँ बताते चलें कि मध्य प्रदेश में पिछले दस सालों से भाजपा सरकार राज कर रही है और मुख्यमंत्री है लड़कियों के ‘मामा’ के नाम से ख्यातिप्राप्त शिवराज सिंह चैहान।
    उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जून के पहले हफ्ते में अपनी प्रेसवार्ता के दौरान कहा था, ‘प्रदेश मंे कोई भी घटना होती है तो उसका प्रचार ज्यादा होता है। सभी प्रदेशों में घटनाएं होती हैं लेकिन उनका उतना प्रचार नहीं होता। जबकि बदायूं कांड में सरकार ने कड़ी कार्यवाही की। हर मामले में कड़ा कदम उठाया। उस समय पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा था कि मुख्यमंत्री व सपा प्रमुख बचकानी बातें बंद करें। अखबार और टीवी भी कुछ इसी अंदाज में हलक फाड़ते रहे, जबकि बदायूं कांड के साथ ही राजस्थान में भी इसी तरह की वारदात घटी थी लेकिन उसे देश क्या समूचा राजस्थान भी नहीं जान पाया?
    नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरों के अनुसार साल 2004 में बलात्कार की घटनाएं मध्य प्रदेश में 2875 तो 2012 में बढ़कर 3425, वहीं 2004 में उप्र. में 1394, 2012 में 1963 हुईं। साल 2003 से लेकर 2007 तक बलात्कार मामलों में दूसरे नंबर पर बंगाल और तीसरे नंबर पर उप्र था। यही हालात कमोबेश आज भी हैं। 2012 में राजस्थान 2049 वारदातों के साथ दूसरे नंबर पर था, तो बंगाल 2046 के आंकड़े पर व उप्र 1963 वारदातों के साथ चैथे नंबर पर था। यही नहीं नाबलिंग बच्चियांे से दुष्कर्म के अपराधों में भी वर्ष 2012 में
मध्य प्रदेश 1632 घटनाओं के साथ पहले नंबर पर था, जबकि उप्र में 1040 घटनाऐं हीं थीं। गो कि पिछले आठ सालों के आंकड़े गवाह हैं मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार बलात्कार की घटनाओं को रोकने में नाकाम रही है। उसकी नाकामयाबी पर पर्दा डालने के अपराध का दोषी भाजपा के साथ-साथ मीडिया को भी नहीं माना जाना चाहिए? अच्छे दिन आने वाले हैं का नारा बुलंद करने वाले क्या मध्य प्रदेश की महिलाओं के बुरे दिनांे के लिए कुछ करेंगे?   और देशभर से बोले जा रहे झूठ पर माफी मांगेगे।

Monday, March 31, 2014

शिंगार बिंदी बेचती हैं सीता!

मंुबई। सीता के लापता हो जाने या अपह्रत हो जाने या त्यागे जाने की कथा समग्र विश्व जानता है, लेकिन रामानन्द सागर की रामकथा में सीता का अभिनय करने वाली दीपिका चिखलिया को बाॅलीवुड और आस्थावान क्यों भूल गये? वह भी तब जब बुद्धू बक्सा, बुद्धि बक्सा होता जा रहा है। सास-बहू से लेकर महाभारत, रामायण का धमाल एनीमेटेड व कार्टून तक में देखने को मिल रहा है।
    रामानन्द सागर की रामायण की सीता के पैरों पर फूल चढ़ाने वाले भक्तों की बड़ी संख्या बुढ़ापे के दौर से गुजर रही है, फिर भी सीता (दीपिका) की याद जस की तस है। आज सीता अपने टिप्स एण्ड ट्वायस कास्मेटिक्स के व्यवसाय व अपनी बेटियों जूही व निधि की परवरिश में व्यस्त हैं। उनकी एक बेटी काॅलेज में व दूसरी दसवीं कक्षा की छात्र हैं। उनका कहना है कि अब उनकी बेटियां बड़ी हो गईं हैं और अपना ख्याल रख सकती हैं तो बाॅलीवुड में वापसी की जा सकती है। पिछले दिनों उन्हें निर्माताओं ने वापसी के लिए प्रेरित भी किया है। वे सास-बहू या किसी भी धार्मिक चरित्र को निभाने में सक्षम है बशर्तें वह जनसामान्य से जुड़ाव रखनेवाला हो। वैसे भी यह दौर पुरानी अभिनेत्रियों की वापसी का है।
    दीपिका ने जब सीता का अभिन्य स्वीकारा था तब वे महज 18 साल की थीं और उन्हें स्टारडम का लाभ भी मिला। इसी वजह से भारतीय जनता पार्टी ने उन्हंे बड़ोदरा से लोकसभा का चुनाव लड़ाया। वे अपनी सीता की छवि का लाभ पाकर सांसद हुई। इसी बची उनकी शादी हेमंत टोपीवाला से हो गई जो शिंगार बिन्दी व टिप्स एण्ड ट्वायस काॅस्मेटिक्स के स्वामी हैं। विवाह के बाद उन्होंेने अपने को आदर्श पत्नी के रूप में ढाल लिया। इसके लिए वे अपने सीता के रोल को श्रेय देती हैं। आज उनका पूरा समय आदर्श गृहिणी की तरह गुजरता है। वे प्रातः योगा करने के अपनी बच्चियों को स्कूल भेजने, नाश्ता बनाने से दिन की शुरूआत करती हंै। दस बजे सुबह से शाम पांच बजे तक अपने पति की फर्म में जी लगाकर काम करती हैं।
    ‘रामायण’ सीरियल शुरू होते ही ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ की गूंज मानो कफ्र्यू की घोषणा होती। शहर-गांव-कस्बे की सड़कें, गलियां सांय-सांय करने लगतीं, यातायात थम सा जाता था। कुछ विद्धानों ने ‘रामकथा’ के इस आधुनिक रूप में साम्प्रदायिकता को भी तलाशने की कोशिशें की थी, लेकिन वे अपने ही गरम शब्दांगारों से झुलसे गये। लोकप्रियता के तमाम पायदानों को पार कर ‘रामायण’ के पात्र सचमुच भगवान का दर्जा पा गये थे। राम-सीता (अरूण गोविल-दीपिका चिखलिया) की जोड़ी की सर्वत्र पूजा होती थी। उनकी इसी छवि ने उन्हें दूसरे चरित्र में स्वीकार भी नहीं किया। आज नई पीढ़ी के सामने दीपिका को खास परेशानी नहीं होगी। बहरहाल सीता (दीपिका) की वापसी शायद जल्द ही टीवी के पर्दे पर होगी।

अरे... बिक तो रहे हैं गोलगप्पे

लखनऊ। चार फरवरी बीत गई, लेकिन गोलगप्पे भी ठेले पर बेचे जा रहे हैं। चाउमीन और कबाब पराठे भी सड़क किनारे बिक रहे हैं। बिरयानी, छोला-भटूरा कार्नर भी गुलजार हैं। कहीं कोई गुणवत्ता या मिलावट की जांच नहीं और न ही खाद्य सुरक्षा एवं गुणवत्ता प्राधिकरण की 4 फरवरी, 2014 तक हर हाल में लाइसेंस बनवा लेने की चेतावनी का कोई असर दिखाई दे रहा है।
    गौरतलब है पिछले साल फूड सिक्योरिटी एण्ड स्टैंडर्ड अथाॅरिटी आॅफ इंडिया ने खाने-पीने का सामान बेचने वाले खोमचे-ठेले वालों को 4 फरवरी, 2014 तक हर हाल में लाइसेंस बनवा लेने के दिशा-निर्देश जारी किए थे। जो दुकानदार ऐसा नहीं करेगा और सामान बेचता हुआ पाया जायेगा तो उसे 6 माह की सजा या पांच लाख रूपयों का जुर्माना भुगतना होगा। दरअसल खोमचे-ठेलों की बेतहाशा बढ़ोत्तरी और खाने-पीने की चीजों की गुणवत्ता में सुधार लाने के नजरिये से यह कदम उठाया जा रहा है। खाद्य सुरक्षा के उच्चाधिकारियों की माने तो इससे जहां उपभोक्ता को सही सामान मिलेगा वहीं प्रदूषण पर भी नियंत्रण होगा और  सरकार को राजस्व भी मिलेगा।
    यह कब होगा? अभी तो लोकसभा के चुनाव हैं। खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण जब अपना डंडा चलाएगा तब चलाएगा। ब्रांडेड कंपनियां तो अभी ही सब कुछ डब्बे में बंद करके बेच रही हैं। नारे भी लुभाने वाले हैं, मिलिये शहर के ‘बेस्ट’ पानी पुरी वाली ‘मेरी मम्मी से या मम्मी की बनायी पानी पुरी के साथ’। पानी पुरी और उसका मसाला घर में बनाने के लिए डब्बाबंद आम दुकानों पर बिक रहा है। इसी तरह सांभर, इडली, बड़ा, कचैड़ी से लेकर चाट, बिरयानी तक के सभी मसाले बाजार में उपलबध हैं। यही हाल जूस का भी है। गृहणियां इनका इस्तेमाल भी खूब कर रही हैं। इसके पीछे उनका तर्क भी वजनदार है, पानी पुरी का पानी बाहर अशुद्ध होता है और पूरी भी मिलावटी तेल में तली जाती है। इससे पेट तो खराब होता ही है, कई बार डायरिया और वायरल के वायरस लम्बी परेशानी में डाल देते हैं। इसके विपरीत घर में पानी भी शुद्ध होता है और तेल भी। जूस निकालने वाले जार की सफाई न बराबर दुकानदार करते हैं, जिससे बाजार के जूस से फायदा कम नुकसान अधिक होता है।
    मांसाहार बेचने वाले सड़क किनारे ठेलों पर बिरयानी, कबाब-पराठा, अंडा रोड, कलेजी खुले मंे बनाते हैं। उनमें घूल के साथ मक्खी-मच्छर पड़ जाना मामूली बात है। यही सब चाउमीन और चाट के ठेलों पर भी होता है। मेलों व पर्वाें पर खोमचे, ठेलेवालों की खासी भीड़ होती है। जहां पानी तो बोतलबन्द इस्तेमाल करने वाले उसे हाथ में पकड़े दिख जाते है, लेकिन गोलगप्पे ठेलों पर ही खाते दिखेंगे। मांसाहार का तो और बुरा हाल है। इनके ठेलों पर तो बाकायदा मयखाना खुला होता है, लोगबाग वहीं शराब पीते हैं और वहीं खाते भी हैं। इनकी ओर खाद्य सुरक्षाकर्मी कतई ध्यान नहीं देते? हां, पुलिस इन पर खासी मेहरबान रहती है। इनसे घंटे व दिन के हिसाब से वसूली होती है। कई व्यस्ततम पटरियांें पर तो वर्गफुट के हिसाब से पुलिसवाले पैसा वसूलते हैं। नगर निगम भी इस वसूली अभियान में साझीदार होता हैं। मेलों व साप्ताहिक बाजारों की वसूली करोड़ों रूपयों की होती। पिछले दिनों लखनऊ मध्यक्षेत्र से समाजवादी पार्टी के विधायक रविदास मेहरोत्रा ने लखनऊ पुलिस पर आरोप लगाया था कि पुलिस पटरी दुकानदारों से रोज 50 लाख रूपए की वसूली करती है। ऐसे हालात में यदि दुकानदार के पास लाइसेंस होगा तो उसे किसी तरह की वसूली का शिकार नहीं होना पड़ेगा। इसके अलावा खाद्य सामग्रियों की गुणवत्ता में भी सुधार आएगा।
    खाद्य सुरक्षा एवं गुणवत्ता प्राधिकरण के चेयरमैन के दिशा-निर्देशों के अनुसार खोमचे, ठेले वालों के लाइसेंस बनवाने की तारीख 4 फरवरी, 2014 निकल गई है लेकिन अवैध ठेले-खोमचे की जाँच के लिए कोई सघन अभियान नहीं चलाया जा रहा है शायद लोकसभा चुनावों को देखते हुए यह सुस्ती है। बहरहाल अभी धड़ल्ले से बिक रहे हैं गोल-गप्पे और चाट!

लखनऊ बन रहा लाक्षागृह

लखनऊ। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन और गांद्दार नरेश शकुनी के षड़यंत्र ने हस्तिनापुर से दूर वार्णाव्रत में पाण्डवों को माता कुन्ती समेत जीवित जला देने के लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया था। हम अपने ही जीवित शरीर को जलाने के लिए बहुमंजिली इमारतों व सघन बाजारों का निर्माण बेखौफ  कर रहे हैं। कहीं कोई हिचक नहीं जबकि हर साल गरमी के दिनों में अग्निकांडों से होने वाली दुर्घटनाओं में तमाम जानमाल का नुकसान होता है। फिर भी आग से बचाव के साधनों का इस्तेमाल करने से परहेज किया जाता है।
    राजधानी लखनऊ में धड़ाघड़ बन रही बहुमंजिली इमारतों में हर दूसरी इमारत और इनमें बने बाजार सरासर अग्नि का ईंधन हैं। इन इमारतों व बाजारों में अग्निरोधी संयंत्र व स्मोक सेंसर नहीं लगाये जा रहे हैं। यही हाल अमीनाबाद, यहियागंज, चैक, नक्खास, चारबाग, आलमबाग जैसे बाजारों व गल्ला मंडियों का भी है। गरमी की आमद के साथ ही पिछले महीने अलीगंज की नवीन गल्लामण्डी में भीषण आग लगी थी, जिसमें करोड़ंो का माल स्वाहा हो गया। हादसे के खौफ से एक व्यापारी मोहम्मद खलील को दिल का दौरा पड़ गया। आग पर बारह घंटे जूझने के बाद काबू पाया जा सका। हालात बताते हैं कि मंडियों में आमतौर पर आग से सुरक्षा के प्राथमिक उपकरण तक नहीं होते। ऐसे ही बिजली के तारों व उपकरणों से बाकायदा ठिठोली की जाती है। तारों का उलझा हुआ जाल तो सभी ने देखा होगा लेकिन कूलर, पंखे और एसी का दुरूपयोग जिस तरह होता है, वह यमराज की खिल्ली उड़ाने जैसा लगता है। खुले मैदान में, टीन शेड के नीचे, फुटपाथों पर लगी दुकानों में चलते पंखे/कूलर व सघन बाजारों की दुकानों में चलते एसी की गरम हवा की निकासी की बदइंतजामी के साथ इनकी काम चलाऊ वायरिंग/फिटिंग अग्निकांडों के लिए काफी होती है।
    बहुमंजिली भवनों में तो इससे भी बदतर हालात हैं। बिजली के तारों का उलझा जाल, हवा-गैस की निकासी का पर्याप्त इंतजाम नही। अग्निरोधी यंत्रों का कोई नामोंनिशान नहीं। उचित सेवादार भी नहीं। इमारत के बेसमेंट गैस चैंबर की शक्ल में बनाये जाते हैं। फिर भी अग्निशमन, नगर निगम, विकास प्राधिकरण, जलकल विभागों से अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी हो जाते हैं। सैकड़ों भवन ऐसे हैं जिनका नक्शा केवल तीन मंजिलों का स्वीकृत हुआ लेकिन उनका निर्माण हुआ है छः मंजिल तक और इन भवनों में बाकायदा बिजली के कनेक्शन स्वीकृत लोड से अधिक के मौजूद हैं। विद्युतकर्मी भी इन पर न कोई आपत्ति करते न ही जलकल विभाग इनसे पूछता है कि इमारत में पानी कहां से आता है? और तो और ये इमारतें नगर निगम को भवन कर तक नहीं देतीं, क्यांेकि उनका कर निर्धारण करने की दिलचस्पी मेयर, नगर आयुक्त से लेकर किसी पार्षद या कर्मचारी में नहीं है।
    राजधानी के अधिकतर इलाकों में बिजली की बदइंतजामी, बिजली चोरी आम है। उनमें बहुखण्डी इमारतें सबसे आगे हैं और यह सब सरकारी कर्मचारियांे के बगैर मिलीभगत के संभव है? होटलों, रेस्टोरेन्ट व अन्य व्यावसायिक केन्द्रों में भी कमोबेश यही हालात हैं। इससे भी बदतर हालात घरों की चहारदीवारी के भीतर हैं। गरमी के दिनों में राजधानी का एक बड़ा इलाका बगैर बिजली के गुजारा करता है। जिससे उस इलाके के लोग पानी, हवा को जहां तरसते हैं, वहीं सूर्यदेव के प्रकोप से लोहे व सीमेंट से निर्मित घरों में अधजले से रहने को मजबूर होते हैं।
    उस पर मच्छरों, चूहों, बन्दरों का हमला उन्हें बीमार बना देता है। डायरिया, मलेरिया, डेंगू जैसे रोगों का फैलाव अच्छी खासी आबादी में कहर बन जाता है। गो कि समूची राजद्दानी ही लाक्षागृह साबित हो रही है चुनांचे खुदा न खास्ता कोई भीषण अग्निकांड का हादसा हो जाय तो बीस लाख पाण्डवों (मनवों) को कौन और किस तरह बचायेगा? इस सवाल की भयावहता को समझकर क्या लखनऊ का नागरिक प्रशासन कोई समझदारी भरा कदम उठाना पसन्द करेगी?

और यज्ञशाला में नेताजी

लखनऊ। राम राम जय सियाराम। ऊँ नमः सिवाय। ऊँ त्रयंबकम् यजामहे...। ऊँ एंे ह्नीं क्लीं चामुण्डाए विच्चै। इन मंत्रों के जाप बाकायदा हवन, यज्ञ के साथ ऊँचे स्वरों से गूंज रहे हैं नेताओं के बंगलों, मंदिरों में विशिष्ट पूजा के आयोजन भी हो रहे हैं। वहीं कुण्डलियों में ग्रहदशा देखकर देव स्थानों में दर्शन पूजन के कार्यक्रम हो रहे हैं। कहीं अखण्ड दीप जलाने की तो कहीं अखण्ड पाठ की विद्दियों को बखाना जा रहा है। खरमास है तो उसकी काट नवरात्र में विशेष पूजा है।
    इस वर्ष नवरात्र 31 मार्च, 2014 सोमवार से रेवती नक्षत्र में शुरू होकर पुष्य नक्षत्र में 9 अप्रैल, 2014 बुधवार को परायण है। पूरे नौ दिन की नवरात्र है जो अति शुभ मानी जा रही है। प्रतिपदा के दिन सूर्याेदय प्रातः 6.52 बजे और सूर्यास्त 6.08 बजे सायं होगा अर्थात दिन 44 मिनट कम बारह घंटे का होगा। इस घटी को भी ज्योतिषी शुभ मानते हैं। ऐसे में विशेष पूजा के आयोजन भी शुभ फलदायी होते हैं।
    ज्योतिषियों के अनुसार राजनीति के विशिष्ट कारक ग्रह हैं बुध, गुरू, शुक्र व शनि और इन राशियों की कृपा रहने से कल्याण होता हैं। इन्हीं की महादशा व अंतरदशा भी लाभकारी होती है। ज्योतिषाचार्य श्रीकांत शास्त्री के अनुसार चुनाव लड़नेवाले प्रयत्याशियों की कंुडली देखकर उसके ग्रह नक्षत्रों पर पूर्ण विचार कर ही कोई पूजा या यज्ञ होना चाहिए। इसी तरह किसी मंदिर या दरगाह में दर्शनार्थ जाना भी तभी फलदायी हो सकता है जब ग्रह, नक्षत्र उस ओर संकेत कर रहे हों व मन में ईमानदारी हो।
    राजनैतिक क्षेत्र में अंधविश्वास और टोटको का विधिवत बोलबाला है। बारहों राशियों व सातों वार के मेल मिलाप और काल गणना का बही खाता लिए ज्योतिषियों के मोबाइल पर जहां लगातार घंटी बज रही है, वहीं उनके लैपटाॅप में पूजन सामग्री से लेकर जम्बूद्वीप की सभी नदियों के जल की समूची सूची रेट सहित उपलब्ध है।
    पूर्वांचल के एक दिग्गज नेता के घर हरिद्वार से आये 11 पंडितों का दल विशेष पूजा, जप में पिछले पखवारे से व्यस्त हैं। इन्हीं के साथ एक ज्योतिषी जी भी डेरा जमाये हैं, जो नेताजी के घर से बाहर निकलने का समय तय करते हैं। और तो और किस व्यक्ति से कब नहीं मिलना है तक ज्योतिषी जी ही तय करते हैं। ज्योतिषी जी के अनुसार 14 अप्रैल के बाद चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को भीषण गर्मी, उमस, आंधी का सामना करना पड़ेगा। कहीं-कहीं वर्षा भी तेज हवाओं के साथ रहेगी।

ज्योतिष की ओपीडी में आईलवयू...!

लखनऊ। पंडित जी मेरा ‘लिव इन ...’ पिछले छः महीने से न आया है, न ही मेरा फोन उठाता है! महाराज मेरा प्रेम एक इंजीनियर लड़के से है, क्या उससे विवाह हो सकेगा? गुरूजी मेरी बेटी गैर बिरादरी के लड़के से प्यार करती है, शादी करना ठीक होगा? गुरूदेव मेरा प्रेम सफल होगा या मेरी नौकरी कब तक लगेगी जैसे सवालों से पत्र-पत्रिकाओं के भविष्य चर्चा वाले पन्नों का भरा रहना या टीवी चैनलों पर ज्योतिष कार्यक्रम में इन्हीं सवालों का बोलबाला आम है। ज्योतिषीय वेबसाइटों पर भी प्रेमी जोड़े ‘आई लव यू... मी टू’ के फलीभूत होनेे पर अटके दिखाई देते हैं। राजधानी लखनऊ की गलियों, बहुमंजिले बाजारों में खुले ज्योतिषियों की ओपीडी में प्रेमरोग से पीडि़तों की भीड़ लगातार बढ़ती जा रही है। कई ज्योतिषियों ने तो अपनी ओपीडी को बेहद आधुनिक बना रखा है। कम्प्यूटर, एलईडी बड़े पर्देवाली, फोन, वाद्ययंत्र, ग्रह/कुण्डली चक्र के साथ फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली लड़कियों का दल, चमकते दमकते रत्नों, मालाओं की भव्यता ज्योतिषी महोदय के विद्वता-व्यापार को आकर्षक बनाते हैं। इन ज्योतिषाचार्याें या गुरूओं की सलाह को अक्षरशः पालन करनेवाले युवक-युवतियों के हाथों में पकड़े स्मार्ट फोन वाली कलाई पर बंधा लाल-पीला मोटा सा कलावा (रक्षासूत्र) इसका गवाह बन रहा है।
    कई तो बुधवार को गाय को पालक, गुरूवार को चने की दाल खिलाते या केले के पेड़ की पूजा करते दिख जाएंगे। शनि मंदिरों में व पीपल के पेड़ के नीचे दीपक जलाते बढ़ती भीड़ और स्फटिक, रूद्राक्ष व मोती, मूंगे की माला पहने या मंहंगे रत्नों जड़ी अंगूठियां पहने युवक-युवतियों की बड़ी जमात ज्योतिषीय सलाहों पर बेहद गम्भीर दिखाई देती है। कम्प्यूटर से कुंडली बनाकर प्रेमी जोड़े प्रेम की सफलता, विवाह के योग, भविष्यफल, रोजी-रोजगार और भाग्य लक्ष्मी या कुबेर प्राप्ति की संभावनाएं या राजयोग जैसे तमाम मसलों पर सैकड़ों टोटके बताने वाली ज्योतिषीय ओपीडी में कहीं मोटी फीस वसूली जाती है, तो कहीं बिल्कुल मुफ्त सलाह दी जाती है। दोनों ही जगहों पर रत्न, अंगूठी, माला, यंत्र, पूजन सामग्री व पूजा में उपयोग आने वाले बर्तन, हवन कुंड तक बेचे जा रहे हैं। इसमें ग्राहक की सुविधानुसार किराये पर भी कई वस्तुएं या डिस्काउन्ट उपलब्द्द है।
    ऐसा नहीं है कि केवल आईलवयू... के ही पीडि़त ज्योतिषीय ओपीडी में भीड़ बन रहे हैं, बल्कि गंभीर बीमारियों से ग्रस्त, संतानहीन, अवसादग्रस्त, छात्र-छात्राएं व नेतागण भी अपनी ग्रहदशा जानने के लिए आ रहे हैं। इस तरह की ओपीडी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भी पिछले सालों में खोली जा चुकी है। वहां भी खासे पीडि़त आते हैं। वैसे भी बनारस, इलाहाबाद, मथुरा, अयोध्या, कानपुर, कन्नौज में ज्योतिषियों की भरमार है। लखनऊ के एक प्रसिद्ध गुरूजी के अनुसार 31 मार्च, 2014 से शुरू हो गये नवसंवत् 2071 (प्लवंग संवत्सर) के स्वामी ब्रह्मा और राजा व मंत्री दोनों ही चन्द्र हैं।
    ब्रह्मा जी को मानव की उत्पति का श्रेय है अर्थात जनसंख्या वृद्धि का कारक और चंद्रमा रोमांस का, प्रेम का कारक ग्रह है, इसलिए इस वर्ष मंगल कार्य, सुख-शांति व प्रेम व्यवहार अधिक दिखाई देगा।
    मंगलमय और समृद्धिशील जीवन के सपने बेचने वाले देश में ही नहीं विदेशों तक पांव पसारे हैं। इन महानुभावों के पास लैपटाॅप से लेकर गंगाजल तक शुद्ध है, तो शहद, गोरस, गोमूत्र, पंचनद जल, अभिमंत्रित जल, श्मशानी भभूत, सिद्ध यंत्र, श्रीयंत्र और न जाने क्या-क्या है। इनका एस्ट्रोलाॅजी एण्ड स्प्रीचुअल साइंस का चमत्कार शुद्ध उच्चारण न कर पाने के बावजूद सफल है। एक ज्योतिषी/ वास्तुशास्त्री विदेशों तक अपना कारोबार फैलाये हैं, लेकिन बोलने में बेतरह हकलाते हैं, फिर भी देश में उनकी फीस पांच हजार और विदेश में पचास हजार अन्य सुविधाओं के साथ है। हालात इतने अधिक संवेदन आस्था की चपेट में हैं कि अक्षय तृतीया, धनतेरस, एकादशी व पूर्णिमा के दिन भी खरीद बिक्री का शुभ मुहूर्त निकाला जाने लगा है। ऐसे ही प्रेमी जोड़े मन्दिर दर्शन से लेकर शादी की तारीखें 5, 7, 9, 11, 21, 29 को शुभ मानकर ज्योतिषियों/कर्मकांडियों से जिद करते हैं। बहरहाल होलाष्टक के बाद 14 मार्च से खरमास चल रहे हैं जो 15 अप्रैल को समाप्त होंगे। इस एक महीने में शादी-विवाह नहीं हो सकते, फिर भी 14, 15 मार्च को ढेरों शादियां हुईं थीं। 16 अप्रैल से पुनः विवाह शुरू होंगे। लेकिन इसी दौरान लोकसभा चुनाव भी होंगे और चुनाव आचार संहिता का ग्रहण भी लोगों को खासा परेशान करेगा। लोग नकद रकम, कारें, हाथी, घोड़ा, बैंडबाजा, लाउडस्पीकर आदि के लिए पूर्व अनुमति लेने को बाध्य होंगे। 8 जुलाई से हरिशयन दोष लग जायेगा। 25 नवम्बर से पुनः शुभलग्न शुरू होंगे। इसी शुभ के बीच फंसा है आई लव यू!
शुभ विवाह मुहूर्त
अप्रैल 16, 17, 18, 19, 20, 21, 22, 26, 27
मई 1, 2, 7, 8, 10, 11, 13, 15, 17, 19, 23, 24, 25, 29, 30
जून 4, 6, 7, 8, 9, 10, 11, 12, 13, 14, 15, 19, 20, 21, 24, 25, 26
जुलाई 1, 2, 3, 4, 5 के बाद हरिशयन दोष है
नवंबर 25, 26, 30
दिसंबर 1, 5, 6, 7, 12, 14, 15, 16

अमां मियां... वोट डालने मंे भला कैसी कोताही

यकीनन वोट डालना राजनैतिक धर्म हैं। स्वाभिमान की रक्षा का ताकतवर शस्त्र है। दुखियारों का शास्त्र है। समाधान का सामथ्र्य है। और लोकतंत्र के मानचित्र पर जाति, धर्म, लिंग भेद, आर्थिक असमानता, असुरक्षा, लूट, हिंसा के लगातार फहराते परचम को उखाड़ फेंकने का संकल्प है। तो जनाब अपना वोट जरूर डालिये। बेशक लोकतंत्र को सत्य के राजमार्ग पर सरपट दौड़ते रहने के लिए आपका वोट डालना जरूरी है। इससे भी अधिक जानना जरूरी है जलती हुई मोमबत्ती के पिघलने से पहले ही ‘ओह... गाॅड...’ कहकर गूंगे इंकलाब के साझीदारों की हकीकत।
    आंकड़े उठाकर देख लीजिए 2009 के लोकसभा चुनाव में विजयी 543 सांसदों में केवल 120 सांसदों के ही चुनाव क्षेत्रों के पचास फीसदी मतदाताओं ने अपने मत का इस्तेमाल किया था। गो कि 423 सीटों पर जीते सांसदों को आधे से भी कम मतदाताओं की मान्यता प्राप्त थी। चुनाव में जितने वोट पड़ते हैं, उनमें सर्वाधिक वोट पाने वाला ही विजयी घोषित होता है। लेकिन संसदीय क्षेत्र में कितना वोट था, उसमें कितना डाला गया कोई नहीं देखता? और विजयी प्रत्याशी को कितना वोट मिला? आमतौर से एक संसदीय क्षेत्र में कितना मतदाता है, उसमें कितना पुरूष, कितना महिला है कि जानकारी सार्वजनिक रहती हैं। इस साल 84 करोड़ से अधिक मतदाता 543 सांसद चुनेंगे यानी एक सांसद 15.5 लाख मतदाताओं का संसद में प्रतिनिधित्व करेगा। सच में ऐसा होगा? आमतौर से आम चुनावों में औसतन 35-40 फीसदी ही मतदाना हो पाता है। उसमें भी 11-12 फीसदी का ही वोट विजयी प्रत्याशी को मिलता है। यह हालात 1951-52 से अब तक जस के तस हैं। खासकर शहरी क्षेत्रों में मतदान को अवकाश का दिन मान लिया जाता है। पढ़ा-लिखा समाज उस दिन मनोरंजन के साधन तलाशता है या बिस्तर पर निरोध पर शोध करने में अपनी ऊर्जा खर्च करता है। कमोबेश गांवों में भी यही हालात हैं। इसके पीछे कई वजहें हैं।
    पहली और सबसे अहम वजह है, चुनाव कराने के तरीके की जिसमें पैसा, पौरूष और प्रपंच का तमाशा या दुरूपयोग खुलकर होता है। फिर भी 15.5 लाख मतदाताओं में आधे से अधिक मतदाता उदासीन रहेंगे। इनमें भी पचास फीसदी वोट देने के मायने जानते ही नहीं या उन्हें चुनाव का अर्थ ही नहीं पता होता। इन्हीं में सत्तर फीसदी मतदाताओं को प्रत्याशियों व राजनैतिक दलों की जानकारी तक नहीं होती। कहने को मोबाइल और टीवी की पहुंच आम है लेकिन जिससे इन्हें चलना है, वह बिजली लापता रहती है। जब आती है तो सास-बहू, महादेव, नाच-गाने, सिनेमा का वर्चस्व हो जाता है।
    दूसरा कारण है, चुनाव आयोग ने एक संसदीय क्षेत्र में खर्च की सीमा बढ़ाकर 70 लाख कर दी लेकिन प्रत्याशियों के मतदाताओं तक पहुंचने के तमाम रास्तों पर अवरोध खड़े कर दिये। अनुशासन के नाम पर अवैज्ञानिक फैसले थोप दिये गये। नौ चरणों में चुनाव होने हैं, अधिकतर उम्मीदवारों को नामंकन करने के बाद अपना प्रचार करने के लिए लगभग पन्द्रह दिन ही मिल पायेंगे। इतने कम समय में एक आदमी 15.5 लाख लोगों तक अपनी पहुंच कैसे बना पायेगा? वह भी सीमित पोस्टर, बैनर, मोटर गाडि़यों, समर्थकों, चुनाव सभाओं व अन्य संसाधनों के बगैर, अखबार, टीवी, मोबाइल का प्रचार भी उसके खर्चाें की जद में होता है।
    तीसरा कारण है, राजनैतिक दलों की प्रतिस्पर्धा में जिताऊ प्रत्याशी की तलाश में अंतिम समय में प्रत्याशी का चयन। दलबदलुओं के इंतजार में भावी उम्मीदवारों के बीच असमंजस का महौल बनाये रखना। कई बार उम्मीदवारों का चयन हो जाना फिर उन्हें बदल कर दूसरे प्रत्याशी का एलान कर देना। ऐसे में दोनों ही अपना प्रचार नहीं कर पाते और मतदाता भी असमंजस में अपनी पसंद के नेता को न पाकर वोट नहीं करने जाता। या फिर जिसे परिवारवाले, गांववाले, दबंग कार्यकर्ता कहते हैं उसे अपना वोट दे आता है। अब सबसे अहम बात भ्रष्टाचार की कर ली जाय। सांसद के चुनाव में विजयी हो जाने के बाद भी एक सांसद अपने सभी मतदाताओं से रू-ब-रू नहीं हो पाता। यह संभव भी नहीं है। मतदाता उसके पास तक काफी तादाद में पहुंचते हैं। उनमें भी वर्गीकरण होता है। कुछ अपने सांसद का दर्शन भर कर पाते हैं, कुछ पैर छू पाते हैं। कई अपनी समस्या जबानी या प्रार्थना पत्र के जरिए बता पाते हैं, तो कई बाकायदा चाय, खाना आने-जाने का किराया तक के हकदार हो जाते हैं। जरा गौर करिये 15.5 लाख मतदाताओं में 150 मतदाता रोज चाय, नाश्ता, खाना और किराये के खर्च का बोझ सांसद की जेब पर डालेगा तो पांच साल में क्या खर्च आयेगा? यदि औसत सौ रूपया प्रति व्यक्ति खर्च माना जाय तो पांच साल में यह खर्च 2.70 करोड़ रूपया बैठता हैं। कार्यकर्ताओं पर खर्च अलग, चुनाव लड़ने का खर्च अलग और उसकी अपनी व अपने परिवार की आवश्यकताओं के खर्चे अलग हैं। इससे भी खतरनाक स्थिति तब होती है जब मतदाता कहता है, ‘सांसद जी आप चाह लेंगे तो कुछ भी हो सकता है।’ यानी लोग यह मानकर चलते हैं कि सांसद जी सभी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हैं। वे लोग यह मानने या समझने को कतई तैयार नहीं कि समस्याओं के समाधान की प्राथमिकताएं हो सकती हैं या स्थानीय, प्रांतीय, केंद्रीय समस्याओं के निवारण के लिए अलग-अलग प्रतिनिधि होते हैं। ऐसे हालात में वायदों से मुकर जाने का आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? तो जनप्रतिनिधि को भ्रष्ट कौन बना रहा हैं?
    तो फिर इसे कौन बदलेगा? इस सवाल का जवाब है, आपका मतदान। आप अपने वोट का इस्तेमाल करिये और चुनी हुई सरकार पर दबाव बनाइये कि वह चुनाव कराने के तरीकों में बदलाव लाये। मतपत्र की जगह इलेक्ट्रानिक मशीन ने ले ली, तो उसकी जगह ‘एटीएम’ क्यों नहीं ले सकते? जगह-जगह पोलिंग बूथ, सुरक्षाबल, चुनाव अधिकारी-कर्मचारियों की फौज का खर्च? आपको भी सोंचना होगा कि हमारी भूमिका क्या है और हमारा लोभ क्या ठगों को नहीं पैदा करता? अपने अधिकार का सच और अपने कर्तव्य की हकीकत जाननी होगी। इस पर संजीदा होकर ईमानदारी से सोंचने की आवश्यकता है। बहरहाल खालिस लखनऊ की जुबान में यही कहूंगा, अमां मियां वोट डालने में भला कैसी कोताही!

पचास हजार करोड़ का सट्टा!

लखनऊ। सट्टा बाजार में इन दिनों आईसीसी वल्र्डकप टी-20 पर खूब दांव लग रहे हैं, लेकिन बनारस से नरेन्द्र मोदी, आजमगढ़ से सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव व लखनऊ से राजनाथ सिंह के लोकसभा-2014 के चुनाव लड़ने का एलान होते ही सटोरिये उत्तर प्रदेश की सीटों पर रेट तय करने लग गये हैं। सट्टा खिलाडि़यों के सूत्रों के अनुसार अकेले उप्र में 50 हजार करोड़ का सट्टा लगने के आसार हैं। इतनी बड़ी रकम सिर्फ पूर्वांचल की सीटों के दिलचस्प मुकाबले को देखते हुए सट्टा बाजार में लगाई जाएगी।
    सटोरियों का अनुमान है कि नरेन्द्र मोदी के बनारस से लड़ने पर पूर्वांचल और बिहार की 72 सीटों पर हेरफेर हो सकता है। सपा का गढ़ माना जाता है पूर्वांचल, वहां की आजमगढ़ सीट मुलायम सिंह के खाते में अभी से मानकर सट्टेबाजों की ऊँचे रेट पर बोली लग रही है। सटोरियों का अनुमान है मोदी बनाम मुलायम में सपा कतई कमजोर नहीं पड़ सकती। पूर्वांचल की 32 सीटों में 12 सपा के खाते में 10 भाजपा 7 कांग्रेस के खाते में जाने के अनुमान लगाकर सटोरिये पैसा लगा रहे हैं। इसके पीछे उनका वजनदार तर्क है गोरखपुर में गोरखनाथ व बनारस में विश्वनाथ धाम होने के बाद भाजपा कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाती फिर अकेले मोदी सबको धकेल कर पूर्वांचल से 20-25 सीटें नहीं ला सकते, तो भी सटोरियों के सूत्रों का कहना है कि पहले, दूसरे चरण के मतदान के बाद बाजार के भाव और समीकरण बदलेंगे। सटोरियों का आकलन है कि प्रधानमंत्री पद नरेन्द्र मोदी के हिस्से में जाएगा, क्योंकि भाजपा 200 सीटें लाएगी। अन्य दलों के समर्थन से उसकी सरकार बन सकती है। वहीं लखनऊ में राजनाथ सिंह व रीता बहुगुणां पर डबल रेट तय किया जा रहा है। मुलायम सिंह की जीत दोनों सीटों पर मजबूत मानकर खासा पैसा लगने की उम्मीद जता रहे हैं सटोरिये। जया प्रदा, हेमा मालिनी,-जयंत चैधरी, श्री प्रकाश जायसवाल-डाॅ0 जोशी, वरूण गांधी-अमिता, नगमा, वी0के0 सिंह-राजबब्बर जैसे बड़े नामों पर खासा पैसा लगाये जाने से सट्टाबाजार की चमक बढ़ रही दिखती है।
    देशभर के सट्टेबाज उप्र की ओर निगाहें जमाए हैं। उनका आकलन है कि उप्र की 80 सीटों में अकेले भाजपा के खाते में 25-30 सीटें जा सकती हैं। सपा, बसपा 20-22, कांग्रेस 10-15 सीटें पा सकती हैं। ‘आप’ या अन्य पार्टियों में सटोरियेां की कोई दिलचस्पी नहीं है। सटोरियों का मानना है कि वोटों का ध्रुवीकरण हालात बदल भी सकता है। लाॅटरी के दौर में एक सट्टेबाज हजरतगंज में खासे जाने जाते थे, उनका कहना है, अभी रेट तीन-चार गुना नहीं हो सकता। अप्रैल के आखिरी व मई के पहले हफ्ते में भाजपा, कांग्रेस व तीसरा मोर्चा के प्रदर्शन को देखते हुए ही भाव चढ़ेगा। वैसे तीसरा मोर्चा सबसे पीछे चल रहा है। अनुभव बताते हैं कि सट्टा लगाने वाले कांग्रेस को कभी कम करके नहीं देखते, वहीं नए खिलाड़ी भाजपा पर दांव लगाने को लेकर बेहद उत्साह में हैं, लेकिन यह सारी हलचल बेहद पोशीदा है।

लालकिला एक्सप्रेस-2014 में मचा है बवाल

लखनऊ। अब यह सच्चाई आम हो गयी है कि ‘लालकिला एक्सप्रेस-2014’ को साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की पटरियों पर दौड़ाकर देश बचाओं का जयकारा लगाते हुए दिल्ली के लालकिले की छाती पर अपना अंगदी पांव रखने को बेचैन हैं सभी सियासी दल और उनके महत्वाकांक्षी सरदार। इस शातिराना चाल के फंदे में युवा शक्ति और महिलाओं को लोभ की रस्सी से जकड़ने के तमाम तमाशाचारी जतन जारी हैं। इससे आगे गरियाऊ आतंक के बलबूते और छाती कूटकर तैयार किये गये झूठे तर्काें के सहारे जनशक्ति को बरगलाने का प्रयोग किया जा रहा है। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो देश की युवाशक्ति अब ऐसे किसी नेतृत्व को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं रह गया है, जो किसी भी तरह की विशिष्ठता का जामा पहनकर सिर्फ सपने लेकर सामने आये। उसके कंधों का इस्तेमाल करते हुए इतिहास पुरूष बनकर उसे आतंकित करे। और महिलाएं जिन्हें एक सोंची समझी साजिश के तहत जोर-जुल्म का भय दिखाकर या गृहस्थी की जटिलताओं का महंगा मानचित्र उनके घर-आंगन में फैलाकर उन्हें बाजार के हवाले करने की कलाकारी को बखूबी समझ रही हैं। इन तर्काें की गवाही में मतदान के गिरते हुए प्रतिशत के आंकड़े रखे जा सकते हैं।
    इसके अलावा देश के मौजूदा निजाम की बेईमानों, धन्नासेठों की सरपरस्ती और राजनैतिक सभ्यता का गिरता हुआ चरित्र न केवल सामान्य जनजीवन को प्रभावित कर रहा है, बल्कि पुलिस के एक अदना सिपाही से लेकर प्रशासनिक सेवा के बड़े अधिकारी तक परेशान हैं। अपने सर पर बैठे अयोग्यों के तुगलकी फरमानों से उनकी नाक में दम हो गया है। नतीजा यह कि समूचे राष्ट्र की जनशक्ति एक ऐसे नेतृत्व की तलाश में बेचैन है जो उनकी योग्यता का मूल्य समझे और देश को वैज्ञानिक सोंच के आधार पर दुनिया के सामने पूरी जिम्मेदारी से उभार सके।
    हाल-फिलहाल तो यह सपना पूरा होता दिखाई नहीं देता। ‘लालकिला एक्सप्रेस-2014’ में सवार प्रतीक्षारत प्रद्दानमंत्री पद के ग्यारह दावेदारों में क्षेत्रीयता का प्रभाव इस कदर गहरा है कि नई सरकार की भावी शक्ल तक द्दंुद्दली दिखाई दे रही है। इससे इस बात की ताईद नहीं होती कि ‘अमूल बेबी’ और ‘मौत के सौदागर’ का कोई विकल्प नहीं होगा। देश की बेहतरी के लिए वैकल्पिक तौर पर सक्रिय ताकतों को जनसमर्थन जुटाने के लिए जूझते हुए देखकर लगता है कि एक अघोषित पृष्ठभूमि तैयार हो रही है।
    स्वामी विवेकानन्द ने कभी कहा था, ‘भारतीय जनमानस में धर्म इतनी गहराई से पैठा हुआ है कि अगर आप उसे भौतिक या समाज विज्ञान भी पढ़ाना चाहते हैं और आप उसे धर्म की भाषा में पढ़ा सकते हैं, तो आपकी बात वह बेहतर ढंग से समझ सकेगा।’ इस कथन के मर्म का अक्षरशः पालन करने में पहले भारतीय जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी अगली कतार में खड़े दिखते हैं। दीनदयाल उपाध्याय की ‘पदयात्रा’, डाॅ0 मुरली मनोहर जोशी की ‘एकता यात्रा’, लालकृष्ण अडवाणी की ‘रथयात्रा’ और अब मोदी की ‘चाय चैपाल’ का उबाल सामने है। राममंदिर से विश्वनाथ मंदिर तक बोले जाने वाले लोक लुभावन नारे और देश में शौचालय कम देवालय ज्यादा पर मचा बवाल, उस पर भाजपा नेता सुशील मोदी की ढिठाई ‘भगवान ने हर-हर महादेव का कोई पेटेंट थोड़े ही कराया था’ साबित करता है कि मंदिर निर्माण के लिए ‘जय राम जय जय राम’ मंत्र जारी रहेगा, भले ही अयोध्या व गुजरात दंगों के बाद लगातार बम विस्फोट होते रहें, आतंकवादी हमले जारी रहें, हत्याएं होती रहें।
    नरेन्द्र मोदी गुजरात के विकास का चमकदार वृत्तचित्र दिखाकर महज शहरी 250 सीटों पर पूरा जोर लगा रहे हैं। इन्हीं सीटों पर टीवी, मोबाइल और इंटरनेट (सोशल मीडिया) का फैलाव है। इसी पर भाजपा के प्रचार का दारोमदार टिका है। इसके अलावा 293 सीटों पर वह दूसरे दलों पर भरोसा कर रही है। उप्र व बिहार की 120 सीटों में 100 पर ही उसके उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, उनमें भी के साठ-सत्तर सीटों पर ही वे जंगजू हैं। ऐसे में मोदी और उनकी भाजपा कैसे देश बनाएगी या देश बचाएगी? दूसरी ओर उनके सामने उप्र की देहाती मिट्टी में खेल खाकर बड़े हुए और दंगलों में कुश्ती लड़कर मजबूती हासिल करने वाले मुलायम सिंह यादव राजनीति के अखाड़े में भी गरीबों की हिमायत का अंगौछा अपने सर पर बांधे पूरी ताकत से अपनी साइकिल दौड़ा रहे हैं। उससे भी खतरनाक हालात भाजपा के अपने ही घर में है। जानकार बताते हैं कि बागवत का झंडा बुलंद करने वालों या बूढ़े नेताओं से बेपरवाह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की चाहत महज 150 सीटों पर विजय पाने की है, जिससे सरकार बनाते समय घटकदल उन्हें प्राथमिकता दें। इसी योजना को मूर्तरूप देने की गरज से पं0 अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सचिव रहे शिवकुमार को साथ लेकर लालजी टंडन (सांसद) के कंधे पर हाथ रखे पिछले हफ्ते लखनऊ के राजपथ पर टहल गये। इसकी गवाही में उन्हीं जानकारों का बड़ा वजनदार तर्क है, उप्र में कल्याण सिंह की सरकार बनावते हुए खुद मुख्यमंत्री बन बैठे थे, कांग्रेस के 22 बागियों की लोकतांत्रिक कांग्रेस का समर्थन हासिल करके। यहां मुझे ‘शोले’ फिल्म के जय-वीरू की याद आ रही है, जिसमें जय हर बात का फैसला एक सिक्का उछालकर करता है। वीरू हर बार उसे ही हेड लेने पर कोई एतराज नहीं करता मगर हर बार आता हेड ही था। डाकुओं से मुठभेड़ में जय की मौत के बाद खुलासा होता है कि सिक्के में दोनों ओर हेड ही था। कुछ ऐसा ही मोदी.... मोदी या नमो... नमो भी हैं?
    भाजपा अध्यक्ष के मंसूबे के सामने राम मनोहर लोहिया के परमभक्त समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्द्दियों, हजारों करोड़ की भावी योजनाओं, सफल कुंभ स्नान आयोजन, युवाओं को बांटे गये 15 लाख लैपटाॅप, कर्नाटक में जीती एक सीट, किसानों, बुनकरों और मुसलमानों की हिमायत के साथ भारतीय राजनीति के शीर्ष पर पांव रखने को बेताब पूरी शिद्दत से चुनाव मैदान में है। जिनका जीवन और चिंतन विवादास्पद होने के साथ-साथ समाजवादी जनतंत्र का कायल रहा है। यह बात दूसरी है कि उनके मर्म-कथन की व्याख्या हर कोई अपने-अपने ढंग से करता रहा है। मैनपुरी के साथ आजमगढ़ की सीट पर उनका चुनाव लड़ना उनकी कथनी से अधिक अंतिम महत्वाकांक्षा की परिणीति है। यह सच है कि आजमगढ़ मुस्लिम, यादव बाहुल्य सीट है। उसी तरह बनारस हिन्दू बाहुल्य सीट है। जो लोग देश की आम जनता के सीधे संपर्क में हैं वे इस लड़ाई का नक्शा साफ-साफ देख पा रहे हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि वोट को हिन्दू-मुसलमान के खाने में बांटा जा रहा है। इससे यह साफ जाहिर है कि दोनों दलों के नेताओं को सिर्फ राज करने की चाहत है। देश के फैसले या उसकी समस्याओं को सुलझाने में उनकी कोई रूचि नहीं है।
    कांग्रेस एक खानदानी कारोबार की तरह बंद होने की राह पर चल रही है। राहुल गांधी दलितों की झोपड़ी को अपनी राजनैतिक प्रयोगशाला बनाने में जहां नाकाम रहे, वहीं युवाओं, महिलाओं बड़े-बूढ़ों की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरे। उनके अपने दल में ही कई अंधेरी गुफाएं खुल गई हैैं। इनमें से जो आवाजें निकल रही हैं उनमे ंबगावत से अधिक अस्तित्व बचाने की हैं। उनकी पार्टी के सहयोगी दल कई तरह से बेइज्जत करने के बाद भी उनकी पीठ पर लदे हैं और आगे भी लदे रहने को बजिद हैं। यही उनकी ताकत साबित हो सकते हैं। सरकारी लूट, महंगाई और प्लास्टिक बेबी की चीख-चिल्लाहट के बावजूद, शालीनता, शिष्टता भरी मुस्कराहट और बहन प्रियंका की सलाह के साथ मां सोनिया के त्याग-तपस्या की चाणक्य नीति यह साबित करती है कि नेता भले ही सड़क पर बनते हों लेकिन नीतियां सड़कों पर नहीं बन सकतीं। पिछले करीब 150 दिनों में उनके कदमों की आवाज राजनीति की संकरी गलियों में फंस गयी है। इन्हीं गलियों में तास्सुब की नालियों से दुर्गंध उठती है। यह एक खतरनाक संकेत है।
    अखबारी दुनिया और टीवी न्यूज चैनलों के ‘हुल्लड़ दस्ते’ अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, अरविंद केजरीवाल और मोदी के प्रचार का तामझाम फैलाकर देशवासियों को जहां गुमराह करने का काम करते रहे, वहीं ‘निर्भया’ जैसी चटखारेदार खबरों से लोगों को गरम करने का खेल भी खेलते रहे। इसी दस्ते ने ‘आसाराम बापू’ को भगवान बना दिया था। यही ‘हुल्लड़ दस्ता’ आज भी एक बड़े जमघटे का अगुआ है, जो यह बताने में एड़ी से चोटी का जोर लगाए है कि मोदी की छत्रछाया मे ंदेश के 80 करोड़ वोटर खड़े हैं और ‘लालकिला एक्सप्रेस-2014’ में 10 जनपथ की महाबली विधवा सोनिया गांधी, 12-13 माल एवेन्यू में मौजूद काशीराम की तेजस्विनी शिष्या मायावती के लिए कोई जगह नहीं बची है। जबकि हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। यादव वीर मुलायम की रणनीति, मायावती की अपने वोट बैंक पर पकड़ और सोनिया गांधी की अपनी छवि का जादुई आकर्षण अभी चुका हुआ दिखाई नहीं देता।

Wednesday, March 12, 2014

लखनऊ में लगेगा ‘अखबार मेला’

लखनऊ। नये साल के प्रथम सप्ताह में सात अखबारवालों ने मिल बैठकर की गई बहस में कई सवाल और जावब के बीच एक सवाल उठाया कि ‘हमारा परिचय कैसे और व्यापक हो?’ तमाम जद्दोजहद के बीच जवाब आया स्वाभिमान, सम्मान, सम्बन्ध, सहभागिता एवं सत्य के पंच पथ के शक्तिशाली निर्माण के लिए ‘अखबार मेला’ का आयोजन लखनऊ में किया जाय। तारीख तय हुई हिन्दी पखवारे के बीच 28 सितम्बर, 2014। अब बड़ी समस्या है इसके लिए धन, जन और मन के ताकत की, तो मन में मशाल जलाने का काम तो सोशल मीडिया और अखबारों, पत्रिकाओं में जारी है। पत्रकार संगठन, पत्रकार और सामान्यजनों के उत्साही उत्तर मिल रहे हैं। रह गया धन तो देश में भामाशाहों की कोई कमी नहीं है।
    ‘अखबार मेला’ जैसा आयोजन सम्भवतः देश में पहली बार होने जा रहा है। इस मेले की विशेषता यह होगी कि इसमें अखबार/पत्रिका व उनके सम्पादक-प्रकाशक/संवाददाताओं के साथ पाठक, विज्ञापनदाता, प्रसारकर्ता, मनोरंजन के अभिलाषीजन, प्रतिष्ठित उद्यमी और विशिष्ट राजनयिकों की भागीदारी एक साथ होगी। मेले में हजारों अखबार एवं पत्रिकाओं को एक साथ एक ही पंडाल में देखा जा सकेगा। सम्भवतः कई भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं से भी सामाना होगा। एक दिनी मेले में प्रिंटमीडिया के छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं की विविधिताओं के साथ कई तकनीकी पहलुओं का भी प्रदर्शन होगा।
    ‘अखबार मेला’ स्थल पर कई अखबारों/पत्रिकाओं के अलावा विशेष स्मारिका ‘अखबार मेला’ का विमोचन भी होगा। ‘अखबार मेला’ स्मारिका अपने आपमें अनूठी होगी। इसके पन्नों पर तमाम अखबारों का हू-ब-हू प्रकाशन होगा। परिचय और परचम का समागम होगा। अखबारों के स्टालों पर ग्राहक बनने, बनाने की सुविधा व पत्र-पत्रिका मुफ्त प्राप्त करने की व्यवस्था भी होगी। पत्र-पत्रिकाओं के विस्तार के लिए जिला/तहसील स्तर के संवाददाता आदि के लिए वार्ताकक्ष का भी आयोजन होगा। विज्ञापनदाताओं से भेंट और राजनेताओं/उद्यमियों से साक्षात्कार के अवसर भी होंगे। इस हेतु अलग से पंडाल बनाया जायेगा। एक महत्वपूर्ण सवाल ‘छोटे-मंझोले पत्र-पत्रिकाओं और उनके पत्रकारों की खबरपालिका में क्या हैसियत व भागीदारी है? पर एक सेमिनार भी होगा। इस सेमिनार में जाने-माने विद्वतजनों के साथ गंवई पत्रकारों की बड़ी भागीदारी होगी।
    ‘अखबार मेला’ में तमाम पत्रकार संगठनों के अलावा आॅन लाइन न्यूज पोर्टल, दक्षिण भारतीय पत्रकारों व सोशल मीडिया के लोगों की भारी जुुटान होगी। अभी से ही मीडिया से सम्बन्धित लोगों को आमंत्रित किया जा रहा है। मेला संयोजक राम प्रकाश वरमा, सम्पादक, ‘प्रियंका’ हिन्दी पाक्षिक ने छोटे-मंझोले व गंवई पत्रकारों को खुले मन से मेले में भागीदारी के लिए आमंत्रित करते हुए कहा, ‘बाजार की मांग है कि छोटे-मंझोले अखबार/पत्रिका आम आदमी के हाथों में पहुंचे और थैलीशाहों का वर्चस्व टूटे। यह तभी संभव है जब चार-आठ पेजी अखबार व तीस-चालीस पेजी पत्रिकाएं देश के हर क्षेत्र व साक्षर तक कम दामों में अपनी पहुंच बना सकें।’’
    ‘अखबार मेला’ के अध्यक्ष प्रदीप श्रीवास्तव, सम्पादक ‘दिव्यता’ हिन्दी मासिक ‘अखबार मेले में लखनऊ चलो’ अभियान के प्रचार के लिए बहुत शीघ्र ही दक्षिण भारत की यात्रा पर जा रहे हैं। मेला महामंत्री रिजवान चंचल, सम्पादक, ‘रेड फाइल’, हिन्दी पाक्षिक इसी अभियान को आगे बढ़ाते हुए पत्र-पत्रिकाओं पत्रकारों के पंजीकरण के लिए अपने साथियों महेन्द्र शुक्ल, सम्पादक-लखनऊ ब्यूरो, अनिल सेठ, सम्पादक-सिटी मैनेजमेंट त्रैमासिक, खुर्शीद अहमद, सम्पादक-माया अवध हिन्दी मासिक, राजेन्द्र कु. पाण्डे, सम्पादक- चक्रीयकाल हिन्दी पाक्षिक के साथ लगातार सक्रिय हैं।
    ‘अखबार मेला’ के संरक्षक श्री राम सजीवन पाण्डेय, सम्पादक, ‘संग्राम बटोही’ हिन्दी साप्ताहिक ने देश भर से छपने वाले छोटे-मंझोले पत्रों के सम्पादकों/प्रकाशकों/संवाददाताओं व गंवई पत्रकारों से अपील की कि वे अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए मो.ः 09839191977 ई-मेल मकपजवतण्चतपलंदां/हउंपसण्बवउ पर सम्पर्क करें। फेसबुक पर ‘अखबार मेला’ का विज्ञापन ंिबमइववाण् बवउ/तंउअंतंउं पर मौजूद है, इसे अधिक से अधिक शेयर करें। मेरा विश्वास है कि ‘अखबार मेला’ पाठकों, विज्ञापनदाताओं और पत्र-पत्रिकाअें के लिए एक मजबूत पुल साबित होगा।
बंधुवर,
’कृपया इसे अन्य अखबार, पत्रिका व पोर्टल को भी प्रकाशनार्थ फारवर्ड करें।

पांव लागी अपराध है?

पुलिस कप्तान ने पत्रकार को ‘पांव लागी’ कहने पर क्यों पीटा?
-राम प्रकाश वरमा
‘पांव लागी’ शब्द भारतीय दण्ड विधान (प्च्ब्) की किस धारा के तहत जुर्म माना जायेगा? यह सवाल मेरी दाल-भात-तरकारी में कंकर-बालू की तरह पिछले दो महीनों से मुझे लगातार पीड़ा दे रहा है। इसका जवाब तलाशने के लिए सियासी मोहल्लों के संस्कार और नौकरशाही की शाहाना रवायतों पर भरपूर नजर डाली लेकिन वहां भी ‘पांव छुआई’ संस्कृति का सम्मान और दुलार देखने को मिला। रामायण, गीता, महाभारत जैसे महान ग्रंथों से भी पैर छूकर आशीर्वाद लेने की सीख, संस्कार मिले हैं। आज तो हिन्दुओं के अलावा अल्पसंख्यक समुदाय भी पैर छूने से गुरेज नहीं कर रहा। समूची भारतीय संस्कृति का शिष्ट आचरण ही है अपने से बड़ों का पैर छूठकर आशीर्वाद लेना। पांव छूना अति सम्मान का परिचायक है। फिर एक पुलिस अधिकारी ‘पांव लागी’ कहने पर किसी को कैसे पीट सकता है? अपने बालिग पुलिसवालों से कैसे पिटवा सकता है? समझ से परे है, लेकिन है सच।
    सच कुछ यूं है, 3 जनवरी, 2014 की सुबह सोनभद्र जिले के पुलिस कप्तान अपने पांच सिपाहियों के साथ रौप प्राथमिक विद्यालय के पास मुख्यमार्ग पर ‘मार्निंग वाॅक’ पर थे। उसी रास्ते से विनय कुमार यादव ‘दैनिक जागरण’ हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र के संवाददाता/अभिकर्ता अपने समाचार-पत्र को बांटते हुए साइकिल से गुजर रहे थे। पुलिस कप्तान को विनय यादव का साइकिल पर सवार होकर पास से गुजरना नागवार लगा। उन्होंने बाकायदा उसकी पिटाई खुद की, अपने सिपाहियों से पिटवाया फिर भी अहं नहीं संतुष्ट हुआ तो विनय यादव को चुर्क चैकी भेज दिया।
    पत्रकार पिटा था। अभिकर्ता पिटा था। कई लोग उस दिन का अखबार नहीं पा सके, पढ़ सके। स्वाभाविक है खोजबीन हुई। चश्मदीदों ने कई अखबारवालों को बताया। पत्रकारों की जमात पुलिस चैकी पहुंची फिर ‘दैनिक जागरण’ के ब्यूरोचीफ सहित कई पत्रकार पुलिस कप्तान से मिले तब कप्तान ने पत्रकारों से कहा, ‘यह एसपी साहब पांय लागी कह रहा था।’ यहां गौर करने लायक है कि पत्रकारों ने घटना का विरोध करने की जगह विनय यादव से एक माफीनामा लिखवाकर पुलिस चैकी से छुड़ा लिया। किस बात का माफीनामा लिखाया गया? जबकि विनय यादव को गम्भीर चोटें पैर व आँख पर आई हैं, ऐसा चिकित्सा प्रमाण पत्र में दर्ज है। यहां गौरतलब है कि विनय विकलांग भी है।
    पत्रकार का पिटना, वह भी पुलिस से पिटना कोई अनहोनी नहीं है। पत्रकारों की बाकायदा हत्याएं हो रही हैं। पिछले साल देश भर में आठ पत्रकार मारे गए। पिटनेवालों की संख्या खासी है। पीटने वालों में पुलिस, साधु-संत, राजनेता सभी हैं वह भी जो पत्रकारों की लेखनी के मोहताज रहे हैं। वह भी जो मीडिया की गणेश परिक्रमा के लिए जाने गये। कई बार तो महज सवाल पूछने भर से पत्रकार को जेल की सजा भुगतनी पड़ी, मनहानी के मुकदमें तो आम बात है। अखबारों के मुखालिफ फतवे तो आये दिन दिये जाते हें। सरकारें अपनी आलोचना किये जाने पर बेतरह नाराज होती रहती हैं।
    उप्र सरकार मीडिया से गाहे-बगाहे इसलिए नाराज हो जाती है कि वह सैफई पर सवाल उठा देता है, वह मुजफ्फरनगर दंगे पर सवाल उठा देता है, वह माधुरी दीक्षित पर सवाल उठा देता है, वह विधायकों, मंत्रियों के दल की विदेश यात्रा पर सवाल उठा देता है, यही नहीं चुनावी दौर-दौरे में भाजपा के ताजा चेहरे मोदी को अखबार के पन्नों व टीवी के पर्दे पर अधिक तरजीह मिलने पर सत्तादल के मुखिया खफा हो जाते हैं। तो स्वस्थ आलोचना अपराध की श्रेणी में दर्ज की जायेगी? यह सवाल बरसों से जस का तस है। इस बीच देश के जगमगाते शहर मुंबई में फोटो पत्रकार लड़की के साथ बलात्कार हो जाता है। सुकुमा, छत्तीसगढ़ के पत्रकार नेमीचन्द्र जैन की हत्या कर दी जाती है। मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान पत्रकारों से बदसलूकी की जाती है। सुल्तानपुर में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में जिले के कप्तान पत्रकार को पीटने व शिकायती फोटो छीनने की बदतमीजी करते हैं। ऐसी सैकड़ों घटनाएं आये दिन पत्रकारों के साथ घटती हैं। गो कि पत्रकार को सच्चाई से अपना काम करना बेहद कठिन है।
    पत्रकार, अखबार और आदमी के बीच उम्मीदों का पुल है और अखबार समस्या, पीड़ा, पर्व और सूचना का वेद है। दोनों के बगैर लोकतंत्र की ताकत कमजोर होगी। खासकर तब और भी जब दुर्योधनी ताकतों के लाखों ‘प्रिंट आउट’ सभ्यता की दीवारों पर चस्पा हों। ऐसे हालातों में पत्रकार पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों से, सच से कैसे मुंह मोड़ सकता है? यह सच है कि अखबारों की बड़ी जमात सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर है और उनके पत्रकार सरकारी सुविधाओं के मोहताज। जाहिर है, इन हालातों में सरकार के या नौकरशाही के मुखालिफ लिखना या समीक्षा करना कठिन है। छोटी जगहों पर तो हालात और भी तकलीफ देह हैं, वहां अद्दिकारी, अपराधी और नेता का स्वाभाविक दबाव होता है। इससे भी बड़ा दबाव नये अखबार मालिकों का होता है जो सिर्फ अपने फायदे के लिए प्रेस को परचून की दुकान में तब्दील करने को बाजिद हंै। इनका साथ देने में तमाम छोटे अखबार और उनके संपादक-प्रकाशक भी गुरेज नहीं कर रहे हैं। फिर पत्रकारों की बिरादरी भी अपने मालिकों के प्रति वफादारी दिखाने में पीछे नहीं है, तब भला आलोचना या सच की बात करना कितना नैतिक हैै?
    इसका यह मतलब कतई नहीं है कि सच के नातेदारों और आदमी के पैरोकारों की जमात से समाज का भरोसा उठ गया है, भरोसा आज भी बरकरार है, यदि ऐसा नहीं होता तो यह लाइने लिखते समय क़लम की रौशनाई सूख जाती। फिर उसी सवाल पर आते हैं कि पुलिस कप्तान ने विनय यादव को क्यों मारा? क्या वे किसी तनाव में थे या उनका दिमागी संतुलन कुछ क्षणों के लिए बिगड़ गया था? हिंसा पुलिस महकमें का बड़ा हथियार है या रोग? इसकी जाँच होनी चाहिए। इस पर शोध की आवश्यकता है।
    सरकार को इस ओर गम्भीरता से सोंचने की जरूरत है। हालांकि मुख्यमंत्री उप्र ने पिछले दिनांे खुद कहा है कि पुलिस ही बनाती बिगाड़ती हैं सरकार की छवि/पुलिस अपनी छवि सुधारे। इससे भी बड़ा प्रश्न है कि जिले के पत्रकारों ने महज धरना प्रदर्शन और मोमबत्ती जुलूस के बीच विनय की पीड़ा, अपमान और सुरक्षा को दरकिनार कर दिया? तो क्या यह खुद पर हमला कराने का दावतनामा तैयार कर रहे हैं पत्रकार बन्धु? जो भी हो पुलिस कप्तान के हिंसात्मक आचरण को कतई नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

कुर्सी एक ग्रह है

कुर्सी एक ग्रह है
इसका भूगोल
महज चार टांगों पर
टिका हुआ है?
जी नहीं!
कुर्सी को ग्लोब
की भांति घुमाईये तो
चारो ओर
घूर्तता, बेईमानी, झूठ
भ्रष्टाचार, शिष्टाचार
के छोटे-बड़े द्वीप
और
धुंध में नहाया हुआ
ईमानदार मोहल्ला
सत्य की अक्षांश रेखाओं व
शीतोष्ण कटिबन्ध के बीच
छोटे से, बहुत छोटे से बिन्दु
की शक्ल में दिख जायेगा।

लेकिन अखबार पहले पढ़ेंगे हम!


    हम सुबह उठते हैं। अखबार पढ़ते हैं, हालांकि कोई नियम नहीं है, और न ही समाज के प्रति, साहित्य के प्रति बेहद संवेदना है। यह तो एक प्याली चाय के साथ एक पूरा दिन काटने, सौदेबाजी के लिए कच्चेमाल की तलाश और दुर्घटनाओं पर चटखारे लेने भर का ‘काउंटर’ है। सच कहा जाय तो अधिकतर लोगों की ‘क्राइम डायरी’ है। और ‘क्राइम’ उधार की जमीन पर तेजी से फलता-फूलता है। अखबार के साथ ‘क्राइम’ शब्द जोड़ने का मतलब? दरअसल अखबार, पत्रिका या पुस्तक मांगकर पढ़ने वाले को मैं अपराधी मानता आया हूं। क्योंकि यहीं मंगते व्यवस्था में होते हैं। सच कहूं तो नपुंसक।
    अखबार मांगकर पढ़ने वाले पूरे देश में और हर वेश में पाए जाते हैं। उनका नारा है, ‘अखबार तुम्हारा, अधिकार हमारा।’ यानी पैसे तुम खर्च करो लेकिन अखबार पहले पढ़ेंगे हम।
    सबसे पहले अखबार पढ़ने वालों की बात करते हैं। ये पाठक, आपसे पहले बिस्तर त्याग देते हैं और आपके घर के आगे चहल-कदमी करते रहते हैं। अखबार वाले के आते ही वे बड़ी बेहयाई से आपकी घंटी बजाते हैं ओर ‘दो मिनट’ के लिए अखबार मांग लेते है। उनके ‘दो मिनट’ खत्म होते-होते दो-एक घंटे तो बीत ही जाते हैं। यदि इस बीच आपकी अखबार पढ़ने की इच्छा जोर मारती है और आप अपना अखबार उनके घर से मंगवा लेते हैं तो वे सारे मुहल्ले को यह बताने से नहीं चूकते कि पड़ोंसियों के प्रति आपका आचरण कितना अशोभन है। ऐसे पाठकों को अखबार देते रहना, आपके धैर्य की चरम परीक्षा है, क्योंकि जब तक आपका अखबार वापस आता है, उसकी वर्ग पहेली भरी जा चुकी होती है, खिलाडि़यों और अभिनेत्रियों के चित्र काटे जा चुके होते हैं और अक्सर अखबार के दो-एक पन्ने भी गायब हो चुके होते हैं।
    कुछ अति बुद्धिमान लोग, अखबार ले जाने की जगह, उसे आपके घर में ही बैठकर पढ़ना पसंद करते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि उन्हें मुफ्त के अखबार के साथ-साथ मुफ्त की चाय भी प्राप्त होती रहती है। वे इस बात को जानते हुए भी अन्जान बने रहते हैं कि उनके जाने के बाद घर में कैसा कोहराम मचता है। अखबार मांगने वालों का दूसरा वर्ग ट्रेनों तथा बसों में उपस्थित रहता है। आपने अखबार खरीद कर सीट पर रखा नहीं कि मांगने वाले हाजिर। अगर एक बार अखबार इनके हाथ में चला गया तो उसका भगवान ही मालिक है। पहले आपका अखबार कई हिस्सों में बंटेगा और कई मांगने वाले एक-दूसरे से अपना हिस्सा प्राप्त करते रहेंगे। फिर पूरे डिब्बे में या बस में फैल जाएगा। अगर आप खुद अपना अखबार पढ़ना चाहते हैं, तो दौड़-दौड़कर उसके पन्ने एकत्रित करने का प्रयास करते रहिए। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि दौड़-भाग के बाद  आपको अखबार के सभी पन्ने मिल जाएंगे। उनमें से कुछ से बच्चों की नाक साफ हो चुकी होगी, कुछ पर खाना खाया जा चुका होगा और कुछ हवाई जहाज के रूप में इधर से उधर तैरते नजर आएंगे।
    सबसे आनंददायी स्थित तब आती है जब आप ही का अखबार पढ़ने के बाद, आपको वापस करते समय पढ़ने वाला नसीहत देता है कि जब पैसा खर्च किया जा रहा है, तो केाई बेहतर अखबार खरीदा जाना चाहिए। ऐसे में मन तो करता है कि सलाह देने वाले से कहा जाए कि पंसद-नापसंद का इतना ही ख्याल है तो अपना अखबार खुद क्यों नहीं खरीद लेते, लेकिन आप कुछ कहंे इससे पहले ही वे किसी दूसरे सज्जन से लिए हुए अखबार के पन्नों मंे डूब चुके होते हैं।
    अखबार पढ़ने की तरह ही एक शौक है, पत्रिकाएं पढ़ने का। जो लोग पैसे खर्च कर पत्रिकाएं खरीदते हैं, वे अपनी पत्रिकाएं पढ़ने में कम और उन्हें पड़ोसियों से वापस प्राप्त करने में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं। नयी पत्रिका के घर में आते ही पड़ोसियों का पे्रम भाव अचानक बढ़ जाता है और हम असहाय देखते रहते हैं। पे्रम के मुखालिफ कोई तर्क आज तक गढ़ा नहीं जा सका है।                                                            ’1996 में छपा संपादकीय एक बार फिर पढ़े