Sunday, October 31, 2010

किसी राह में दहलीज पर दिये न रखो...

     2010 की दीवाली कई मायनों में पिछली दीवालियों से एकदम अलग है। यह पहला मौका है, जब उप्र के तख्त पर समूची दलित सरकार मय बाम्हनों के कुनबे समेत काबिज है। हालांकि पिछली तीन दिवालियां बसपा सरकार की अगुवाई में उप्र मना चुका है। इन तीन सालों में उसी के दमखम से हिंदू वोट बैंक, मुसलमान वोट बैंक, पिछड़ा वोट बैंक और माफिया वोट बैंक दीवालिया हो गए। यही वजह है कि मुसलमानों के खलीफा बनने की हसरत पाले समाजवादी साफा बांधे मुलायम सिंह यादव को सबसे पहले भारतीय न्यायपालिका में खोट दिखा। उसके बाद उनके हरकारों ने तास्सुब के जंगल में हांका लगाने जैसी हरकतें शुरू कर दीं। फिर भी कहीं कोई आवाज नहीं बुलंद हुई। तो दिल्ली से आयातित मुसलमानों की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना बुखारी का हिंसक आचरण रावण को फूंके जाने के पारम्परिक पर्व से चार दिन पहले लखनऊ को देखना पड़ा। इस घटना के ठीक पांच दिन बाद लखनऊ के वक़ार को खतरनाक बम से भरे एक थैले से खौफजदा करने की कोशिश की गई। बावजूद इसके मस्जिद की ऊँची मीनारों से ‘अल्लाह-ओ-अकबर’ की पाकीजा आवाज और मन्दिरों से ‘ऊँ जय जगदीश हरे’ की मीठी स्वरलहरी गूँज रही है।
 आदमियत को बरकरार रखने के लिए यह बेहद जरूरी है कि हम अपना मानसिक संतुलन बनाये रखें और धीरज को महज अवसरवादी नपुंसक राजनीति के हाथों सौंपकर राष्ट्रीय अस्मिता को खुलेआम आहत करने जैसा अपराध कतई न करें। खासकर उस वक्त तो कतई नहीं जब आस्था, विश्वास और इंसाफ के मजबूत पेड़ की जड़ों पर किए गए भावनात्मक कुल्हाड़ों की चोट से पैदा हुए जख्म की मरहम पट्टी के साधन तलाशे जा रहे हों। सीधे-सीधे कहें तो महज वोटों की खोज के लिए अनर्गल प्रलाप करके अपनी मां की गोद और जनभावनाओं को शार्मिन्दा करने जैसी नीच हरकत न करें।
अयोध्या में राम मन्दिर और मस्जिद बनाने को लेकर इतनी चीरफाड़ हो चुकी है कि अयोध्या समूची जख्मी है। भाजपा के लठैतों और धर्मनिपरेक्ष तलवारों ने फिर से एक बार उसे नये जख्म देने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। ऐसे हालातों में इनकी अगुवाई करने वाले नेताओं की चैराहों-चैराहों पर निंदा की जानी चाहिए।
 अयोध्या में विवादित भूमि के मालिकाना हक को लेकर जो फैसला उच्च न्यायालय ने किया है, उसे लेकर हाय-तौबा मचाने वाले जहां सुप्रीमकोर्ट जाने का फैसला लगभग ले चुके हैं, तब उच्चन्यायालय की अवमानना करने जैसा अपराध क्यों कर रहे हैं? रही बात सुलह के प्रयासों की तो इतिहास गवाह है कि सन् 1856 में पहली बार हिन्दु-मुसलमानों के बीच समझौता हुआ था कि यह स्थान हिन्दुओं को दे दिया जाए और बगल में मस्जिद बना दी जाए। अंग्रेजों को यह पसंद नहीं आया लिहाजा 18 मार्च 1857 में दोनों पक्षों के नेता बाबा रामचंद्रदास तथा अमीर अली को नीम के पेड़ से लटकाकर सरेआम फांसी दे दी गई। कुछ ऐसी ही हरकतें साइकिल पर बैठकर मुलायम सिंह यादव और भाजपाई रथ पर सवार विनय कटियार करने की कोशिश में लगे हैं। इन प्रयासों को राष्ट्रप्रेम कहा जाएगा?
 ‘सच यह है कि आम मुसलमान भारत की तरक्की में साझीदार हो रहा है। इन तरक्की के जियालों के हाथों में कट्टे का दस्ता या हथगोला नहीं, कलम है। रह गये बुखारी जैसे आतंक के हिमायती तो उन्होंने कलम के बेटे पत्रकार को पीटा है। वे हैं किस मुगालते में, उनसे उन्हीं की जुबान में कलम के जांबाज निपट लेने में सक्षम है। पूरी पत्रकार कौम सक्षम है और हम निपटेंगे भी। उससे पहले बेरोजगार नेताओं (विपक्षी) से मेरा सवाल है। उच्च न्यायालय के फैसले को आस्था आधारित कहकर भले ही वे अपने नंगे सिर को गोल टोपी से ढककर वोट की खोज का रास्ता मान रहे हो, लेकिन समूचा प्रदेश बीमार है। बिजली की किल्लत से हलकान है। दवाई, सफाई नदारद है। झूठे और ढीठ अधिकारी बहरे होकर मनमानी पर उतारूं हैं। मुख्यमंत्री अपने मिशन से लाचार हैं। ऐसे में आदमी के लिए वे क्या कर रहे हैं? क्या मानवीय मूल्यों का ककहरा उन्हें याद है? सिर्फ बातों-बयानों के बताशों से आदमी दीपावली मना लेगा? अकेले राजधानी में डेंगू से दसियों मौतें हो गईं। किसी समाजवादी, भाजपाई, कांग्रेसी की आत्मा मंदिर-मस्जिद मामले की तरह कलपी। उन लाशों के सिरहाने खड़ा होकर कोई नेता रोया या रोने वालों को कोई सांत्वना दी? बिजली मजदूर आये दिन हाइटेंशन लाइन से चिपक कर मर रहे हैं। उनकी जली हुई लाशों पर कफन डालने या उनकी धधकती चिता के आस-पास कोई जनसेवक फटका? इन सवालांे के पीछे मेरी मंशा है कि मंदिर-मस्जिद विवाद उच्चतम न्यायालय में जाना तय है, तो फिर इतनी उछलकूद? अगर यह फिरकापरस्त ताकतों को सक्रिय करने के लिए है, तो फिर यह राष्ट्रद्रोह कहा जाएगा।
 सच सारी दुनिया जानती है और जो नहीं जानने की जिद पर अड़े हैं वे भी जान लेने के लिए ही बड़ी अदालत के भीतर दाखिल होने को बेचैन हैं। ऐसे में आदमी के सुख को रौशन करने के लिए उसी की भाषा में, उसी की आस्था में उम्मीदों का एक चिराग जलाया जाये। दीपावली सिर्फ श्रीराम के राज्याभिषेक की प्रसन्नता के प्रतीक का पर्व भर नहीं है। यह आदमी के अंधियारे से लड़ने की ताकत का पर्व है। यहां सांप्रदायिक आतिशबाजियों की नहीं बल्कि अहंकारी अंधेरे में भटके हुए मुसाफिरों को ईमानदार रास्ता दिखाने के लिए एक प्यारा सा, छोटा सा चिराग जलाने की जरूरत है। और अन्त में बशीर बद्र की ये लाइनें
किसी राह में दहलीज पर दिये न रखो, किवाड़ सूखी हुई लकड़ियों के होते हैं
दीपावली मंगलमय हो। प्रेम और स्नेह से सराबोर हो। छप्पर फाड़ कर सुख व समृद्धि लेकर माता लक्ष्मी आपके घर पधारें और खुशियां आपके घर-आंगन चैबारे में झूम-झूम कर नाचें।    प्रणाम!

Tuesday, October 12, 2010

खुदा से भी धोखा

नई दिल्ली। इस्लाम में पांच लाजिमी (अनिवार्य) इबादतों में एक हज केवल अपनी मेहनत की कमाई से ही जायज हैं। इसका मजाक उड़ाते हुए मेहनतकाश भारतीयों की कमाई से हज करने वालों की लिस्ट में हर साल इजाफा हो रहा है। भारत का विदेश मंत्रालय हर साल हज यात्रा पर जाने वालों के साथ सरकारी प्रतिनिधिमंडल भेजता है। इस प्रतिनिधि मंडल का गठन 1966 में पांच सदस्यों से हुआ था। आज इसकी संख्या 70 है, क्योंकि इन सरकारी नुमाइंदों के साथ उनके रिश्तेदार भी सरकारी खर्च पर जाते हैं। यह जानकारी भारत के विदेश मंत्रालय ने सूचना के अधिकार के तहत अफरोज आलम एक्टिविस्ट द्वारा मांगे जाने पर दी है।
 हज यात्रियों की नुमाइंदगी के लिए सरकारी प्रतिनिधिमंडल में मंत्रियों, राजनेताओं और नौकरशाहों को शामिल किया जाता है। इनमें कई तो बार-बार प्रतिनिधिमंडल में शामिल होकर हज यात्रा का लुत्फ उठाते हैं। इन पर भारत सरकार ने करदाताओं का लगभग 6 करोड़ रूपए का बजट तय कर रखा है। विदेश मंत्रालय ने 2000 से 2008 के बीच हज यात्रियों के साथ गये प्रतिनिधि मंडल की संख्या में उन पर होने वाले खर्च का ब्यौरा तो दिया है, लेकिन प्रतिनिधिमंडल में शामिल किये जाने वाले सदस्यों के लिए किन नियमों का पालन किया जाता है, बताने से परहेज किया। दरअसल प्रतिनिधिमंडल के चुनाव में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जाता है। इसके कई उदाहरण हैं, रेलवे राज्यमंत्री इ. अहमद तीन बार 2000, 2004 व 2006 में, भाजपा नेता सै0 शाहनवाज हुसैन दो बार 2000 व 2003 में, राज्य-सभा सदस्य अहमद सईद मलिहाबादी दो बार 2001 व 2007 में, लोकसभा सदस्य शफीकुर्रहमान बर्क दो बार 2005 व 2007 में, सेवानिवृत आइएएस लुत्फुर रहनाम लशकर दो बार 2000 व 2007 में हज कर आये।
 अल्लाह की राह पर सर झुकाए नेक बन्दों को जहां हज यात्रा के लिए पासपोर्ट तक आसानी से नहीं मिल पताा, वहीं हराम के पैसों से हज का पुण्य कमानेवाले मंत्रियों, नेताओं, नौकरशाहों और पुलिस के उच्चाधिकारियों को प्रतिनिधिमण्डल में हाथों हाथ लिया जाता है। इन सरकारी हजयात्रियों पर सरकार लगभग आठ लाख रूपया हर प्रतिनिधि पर खर्च करती है। यह रकम आम हज यात्री के खर्च से चार-पांच गुना अधिक बैठती है। विदेश मंत्रालय द्वारा खर्च की जाने वाली यह रकम 2008 में बढ़कर औसतन 13 लाख हो गई है। जरा खर्च की गई रकम और सदस्यों के आंकड़ों पर गौर फर्माइए। 2005 में 34 सदस्यों पर खर्च आया 2.8 करोड़ रुपए। उसके अगले साल दो प्रतिनिधि मंडल भेजे गए, पहले भेजे गये 24 लोगों पर 2.8 करोड़ व दूसरे भेजे गये 27 लोगों पर 2.39 करोड़ का खर्च आया था। 2007 में 29 लोगों पर खर्च आया 2.5 करोड़ व 2008 में 34 लोगों पर 4.37 करोड़ खर्च हुआ। भारत के महालेखा नियंत्रक (कैग) ने जनता के पैसे से हर साल इतने बड़े प्रतिनिधि मण्डल को सऊदी अरब भेजे जाने की भूमिका पर एतराज जताते हुए इसकी संख्या कम करने को भी कहा था। इसके बाद भी भारी भरकम रकम लगातार खर्च की जाती है। कैग की रिपोर्ट बताती है कि हज यात्रियों के साथ जाने वाले भारी भरकम प्रतिनिद्दिमण्डल में शामिल सदस्यों के परिवार (पति/पत्नी) के लोग भी सरकारी खर्च पर जाते हैं। इन लोगों को इस प्रतिनिधिमण्डल में कैसे और किस नीति के तहत शामिल किया जाता है को भी आडिट जांच में नहीं बताया गया। आडिट के दौरान पूछताछ में मंत्रालय द्वारा संदेहास्पद जवाब दिया गया कि देश के सभी हिस्सों व फिरकों के हिसाब से आने वाले आवेदनों को देखकर प्रतिनिधियों को नामांकित किया जाता है।
 जरा-जरा सी बात पर फतवा जारी करने वाले देश के मौलाना इस्लाम के आदर्शों की खुलेआम धज्जियां उड़ाने वाले इन नुमाइंदों के लिए क्या सजा तजवीज करेंगे? कुरान तो धर्मार्थ के विषय में यहां तक कहती है कि सत्कर्मी वह है जो यह माने कि ‘उसकी संपत्ति में मांगनेवाले और जो न मांग सके उसका भी अद्दिकार है। (51.19) और कुरान के दूसरे पारे (अध्याय) की आयत 196 से 200 तक हज के लिए साफ हिदायतें दी गई हैं। उनको दरकिनार करते हुए सरकारी हाजी दूसरों की मेहनत की कमाई से पुण्य खरीदने का हराम काम कर रहे हैं?

ओ...शिट...कुत्ता का टट्टी!


लखनऊ। आदमी खुले में शौच करे तो अपराध! कुत्ता, गाय-सांड़, भैंस दम्पत्ति राजपथ पर खुलेआम फारिंग हों तो साहब-मेम-साहब सहित समूचा सरकारी अमला इनाम का हकदार! यह कैसा इंसाफ है? हाल ही में पंचायती राज कानून में (न्यूसेंस) अवांछित गतिविधियों के तहत ग्राम प्रधानों को निर्वाचित होने के छः माह  के बाद खुले में शौच करते पाये जाने पर अर्थ दण्ड दिया जाने का प्रावधान किया जा रहा है। इसी तरह सार्वजनिक स्थानों पर लघुशंका करना भी दण्डनीय अपराध है। राजपथ से लेकर गली-मोहल्लों, काॅलोनियों से लेकर जनपथ और खूबसूरत पार्कों तक हर सुबह अपने प्यारे ‘पपी’ को टहलाते, फारिग कराते लाखांे बाबू-बबुआइन दिख जाएंगे। ये ‘प्यारे’ आपके मकान के गेट के सामने, बीच रास्ते में, कार पर या उसके दरवाजे के पास नित्यकर्म से निबटते दिखाई दे जाएंगे। इनको प्रेरित करने वाले यह जानते हैं कि वे गलत कर रहे हैं फिर भी अपने कुत्तों को सार्वजनिक स्थलों पर नित्यकर्म कराते हैं। यही लोग ‘धरती बचाने’ के सेमिनारों में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। पर्यावरण असंतुलन पर भाषणों सहित अखबरों में अपना ज्ञान बघारते हुए चिंता जताते हैं। जबकि कुत्ते द्वारा किया गया मैला इ.कोली वैक्टीरिया के जरिये प्रदूषण फैलाने का काम करता है। कुत्ते के एक ग्राम मल में दो करोड़ से अधिक इ.कोली सेल होते है। और लाखों कुत्तों का मल जमीन को दूषित कर भूजल के जरिये व वातावरण में उससे पैदा होने वाले कार्बन के जरिये शहर के वाशिन्दों की सेहत को लगातार नुकसान पहुंचा रहा हैं। यही लोग एयरकंडीशनर (एसी) चलाकर खुद तो गरमी में ठंड का मजा लेते हैं और उससे पैदा होने वाले कार्बन से आम शहरियों के साथ अपनी सेहत से भी खिलवाड़ करते हैं।
 कुत्तों के सार्वजनिक स्थलों पर मल त्याग करने को लेकर पशुप्रेमी या पशुओं की रक्षा-सुरक्षा के लिए चिंतित सक्रिय संगठन भी इस ओर सोचने की जहमत नहीं उठाते। जबकि राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने अपने समय में खुले में शौच पर नारा दिया था ‘टट्टी पर मिट्टी’ डालों। कुत्ता पालकों को अपने प्यारे ‘पपी’ के मल को सुरक्षित स्थान पर फेकने या फिकवाने की ओर कदम बढ़ाने ही होंगे। विदेशों में कुत्तों के मल को उठाकर कूड़ेदान में फेंकना अनिवार्य है। जब कुत्ता पालक उसके खाने, पीने, स्वास्थ्य व मनोरंजन  के नाम पर रिसार्ट होटल, अस्पताल, ब्लडबैंक तक खोलकर मोटी रकम खर्च करते हैं तो उसके लिए शौचालय पार्क की व्यवस्था क्यों नहीं कर सकते? हाल ही में केन्द्र सरकार ने पशुपालकों के लिए नए दिशा निर्देश तैयार किये है, जिन्हें शीघ्र ही कानूनी रूप दिया जाएगा। इसके साथ ही पालतू पशु या पक्षी रखने का लाइसेंस शुल्क 5000 रु. व हर साल नवीनीकरण शुल्क 2000 रु. देना होगा
 एनिमल वेलफेयर बोर्ड आॅफ इंडिया (एडब्ल्यूबीआई) के दिशानिर्देश के अनुसार पालतू पशु व पक्षियों को प्रत्येक सप्ताह पशु चिकित्सक को दिखाना और उनके रहने के लिए पर्याप्त जगह की व्यवस्था करना अनिवार्य होगा। कुत्ते के रहने के लिए 24 स्क्वायर फुट और बिल्ली के लिए 12 स्क्वायर फुट जगह रखनी होगी। पालतू पशुओं  को कम से कम 25 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखना होगा।
 उक्त दिशानिर्देश का उद्देश्य देश में पालतू पशु और पक्षियों पर होने वाले अत्याचार को रोकना है। इस कानून में कहीं भी उसके सार्वजनिक स्थलों पर मलत्याग को प्रतिबंधित नहीं किया गया हैं सरकार पशुआंे के स्वास्थ्य के प्रति बेहद चिंतित है लेकिन इंसानों के स्वास्थ्य के प्रति बेपरवाह?
 गली के सुल्तानों की तारीफ में सैकड़ों बार लिखने पर भी नगर निगम/जिला प्रशासन अंधों बहरों की तरह बड़ी ढिठाई से उतर देता है, अभियान चलाया जाएगा या अपनी शिकायत लिखा दीजिए। हर गली में, हर सड़क पर एक ‘दाऊद’ का आतंक है। इनका मल-मूत्र जहां वैक्टीरिया फैलाता है, वहीं इनके काटने पर वैक्सीन के इंजेक्शन तलाशने पड़ते है। लखनऊ नगर-निगम ने 2010 के अपने बजट में आवारा पशुओं (कुत्तों) को पकड़ने आदि के लिए किसी रकम का प्रावधान नहीं किया है। जबकि गौशाला-नंदीशाला के लिए 1.20 करोड़ और पशु-पक्षी उपचार के लिए 50 लाख खर्च करने का एलान किया गया है। नगर निगम के पास आवारा कुत्तों और पले हुए कुत्तों की कोई संख्या नहीं है। इसी तरह अन्य पशुओं के भी आंकड़े नहीं हैं। इस साल कुत्तों और पशुपालकों की गणना कराए जाने का फैसला लिया है लेकिन यह काम कब शुरू होगा, यह कोई नहीं जानता। हर साल की तरह इस साल भी इनके खौफ से निजात पाने का कर्मकांड हो चुका और आवरा कुत्ते सड़कों पर बिल्ली से लेकर नवजात बच्चों की हत्या सरेआम कर रहे है। सूबे के कई जनपदों में हिरन का शिकार  तक कर रहे हैं।
 पंजाब में कुत्तों के आतंक से निबटने में लाचार राज्य सरकार को केन्द्र से मदद की दरकार है। वहीं कई सालों से विधानसभा में गली के इन सुल्तानों के आंतक से निजात दिलाने का शोर मचता है। राज्य सरकार ने जहां केन्द्र को प्रस्ताव भेजा है वहीं एनीमल वेलफेयर बोर्ड आॅफ इंडिया से भी पिछले दो सालांे से कोई पैसा नहीं मिला लेकिन इस साल पंजाब की वार्षिक योजना के तहत योजना विभाग से 50 लाख रूपया पशुपालन विभाग को मंजूर हुआ है। गौरतलब है कि पंजाब में आवारा कुत्तों की संख्या 3 लाख से ऊपर है जबकि पालतू कुत्ते 3.50 लाख के लगभग है।
 उ.प्र. की राजधानी लखनऊ की गंदी सड़कों-गलियों के अंधेरे में पड़े गोबर या कुत्ते के मल में पांव पड़ते ही ओ..शिट.. कुत्ते/गाय का टट्टी कहकर मुंह बिचकाते हुए या रपट कर गिरने वाले अपने हाथ-पैर आये दिन तुड़वा कर नगर निगम को कोसते रह जाने को मजबूर है। इस ओर नगर निगम का ध्यान शायद इसलिए नहीं जा पाता क्योंकि उसके हाकिम या सभासद विदेश जाकर इससे निजात पाने का कोई प्रशिक्षण अभी तक नहीं ले सके होंगे। बहर-हाल प्रदेश के गाजियाबाद नगर निगम की महापौर ने जो कदम उठाए है, फिलहाल उनसे कोई सीख नहीं ली जा सकती है? उप्र के नगर निगमों को एनीमल वेलफेयर बोर्ड से कितना पैसा मिलता है और कैसे खर्च होता है? यदि कम पड़ता है तो गुहार लगानी चाहिए और कुत्ता पालकों को सार्वजनिक स्थलों को गन्दा करने पर दण्डित करने का अभियान चलाना चाहिए। शहर को, राज्य को साफ करने की जिम्मेदारी नगर निगमों की है उससे वे बच नहीं सकते। इस अभियान मंे सभासदों के जरिए नागरिकों की हिस्सेदारी भी ली जा सकती है।

मचा है बवाल बिजुरी अस भौजाई आन्हर...!

लखनऊ। संसद से लेकर शौचालय तक बिजली गुल है। सड़कों पर लोग बवाल काट रहे हैं। पुलिस उन्हें लठिया रही है। मुखिया से लेकर सुखिया तक बिजली की बर्बादी और चोरी के खेल में मोटी कमाई करके ऊर्जा क्षेत्र को खोखला कर रहे हैं। सरकार अपना वोट बैंक मजबूत करने के चक्कर में रोज नये और लुभावने वायदे कर रही हैं। बिजलीकर्मी पूरी ठिठाई से उपभोक्ता को तिगनी का नाच नचा रहे हैं। सूबा उप्र की सरकार ‘दलिततीर्थ’ को जगमग उजाले में रखने में इस कदर बजिद है कि उसे अंधेरे में डूबा, समूचा सूबा और भयानक गर्मी से बिलबिलाते उसके करोड़ों लोग दिखाई नहीं दे रहे हैं। पूरे सूबे में बिजली को लेकर जहां हाहाकार मचा है, वहीं शान्ति भंग के नाम पर आईपीसी की धारा 151 के तहत सैकड़ों लोगों को पुलिस प्रताड़ित कर रही है। इसके बावजूद बिजली दरें बढ़ाने की कवायद की जा रही है।
 इससे भी आगे साल की शुरूआत से लेकर मार्च के अन्त तक राजस्व वसूली के नाम पर छोटे उपभोक्ताओं की बिजली काटी गई और उनके केबिल तक पोल से उतारकर बिजलीकर्मी अपने साथ ले गये जबकि यह उपभोक्ता की संपत्ति है। इसी तरह बिजली चोरी में छोटे-मोटे उपभोक्ताओं को ही परेशान किया गया, लेकिन राजकीय निर्माण निगम और चिकित्सा विश्वविद्यालय में लाखों रूपये की बिजली सरेआम चोरी की जाती रही। इस चोरी के जिम्मेदारों पर आज तक कोई कार्यवाई नहीं हुई। इसी तरह मुजफ्फरनगर की फैक्ट्रियों में पकड़ी गई बिजली चोरी के मामले में भी लीपापोती कर दी गई। समूचे सूबे में चलने वाले एसी में अधिकतर चोरी की बिजली से चलाए जा रहे हैं। बिजली की किल्लत पर मची तमाम हाय तौबा के बाद शाम को एसी न चलाने का फरमान जारी करके वापस ले लिया गया जबकि सूबा आज भी अंधेरे में है। बिजली चोरी में आम नागरिक से लेकर नौकरशाह, राजनेता तक शामिल है।
 ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक 2009-10 में पाॅवर कारपोरेशन को 8700 करोड़ का घाटा हुआ है। यह घाटा विद्युतकर्मियों की लापरवाहियों और बिजली चोरी से हुआ मनवाया जा रहा है। इसमें सूबे के मुफ्तखोरों का हिस्सा नहीं जोड़ा गया। पाॅवर कारपोरेशन के लगभग 45 हजार कर्मचारियों और इतने ही संविदाकर्मियों के घरों में लगभग मुफ्त जलनेवाली बिजली को क्यों नहीं इस घाटे में जोड़ा जाता? एक करोड़ नौ लाख उपभोक्तओं को दी जाने वाली बिजली और सरकारी कारिन्दों व महकमों में जलनेवाली बिजली का अलग-अलग हिसाब दर्शाने से हमेशा परहेज क्यों किया जाता है? इसी बजट सत्र में विधानसभा के पटल पर रखी गई सीएजी की रिपोर्ट ने विद्युत उत्पादन निगम की कलई खोली है।
 समूचा सूबा अंधेरे में जीने की जहां आदत डाल रहा है, वहीं ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े धन्नासेठों ने हजारो करोड़ का बिजली बेचने का नया कारोबार खड़ा कर लिया है। आमतौर पर पूरे उप्र में शाम को विद्युत आपूर्ति नहीं होती। ग्रामीण क्षेत्रों में तो बिजली आने-जाने का कोई समय नहीं है, लिहाजा डीजल से चलने वाले जेनरेटर सेटों के जरिये बाजार और घरों में रोशनी रहती है। कहीं प्रति सीएफएल 20 रूपए प्रति सप्ताह है, तो कहीं इससे अधिक। इसी तरह इन्वेर्टरों का कारोबर भी खूब चमक रहा हैं बताने वाले बताते हैं, इसके पीछे बिजली महकमें के बड़े और सरकार के आला हाकिमों का वरदहस्त है।
 बहरहाल सरकार बिजली महकमा और उपभोक्ता के बिजली-बिजली के खेल में ऊर्जा शक्ति से होने वाली हजारो करोड़ की आमदनी से सूबा महरूम हो रहा है। वहीं उपभोक्ताओं का दर्द ये लाइने बयान करती रही हैं:
बाऊ आन्हर, माई आन्हर और सगा सब भाई आन्हर।
कके-केके दिया देखाई, बिजुरी आस भौजाई आन्हर।।

Sunday, October 10, 2010

अखबार, आदमी और शुभ-लाभ वाली पत्रकारिता

हिंदी वर्णमाला के पहले अक्षर अ से अखबार और दूसरे आ से आदमी। इन दोनों के बीच स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर शुभ-लाभ लिखनेवालों पर समूची पत्रकारिता टिकी है। यही वजह है कि पत्रकार बाकायदा ठोकपीट कर बनाए जा रहे हैं। मजा तो यह कि बनाने वाले खुद फर्जी डिग्रीधारकों की जमात से ताल्लुक रखते हैं। इससे भी बड़ी अराजकता बड़े कहे जाने वाले अखबारों से जुड़े पत्रकारों का कुनबा छाती ठोककर फैलाने में गर्व महसूस करता है? सबसे पहले पत्रकारों के सरकारी दामाद होने की बात करते हैं। पत्रकारो को सरकार से शासकीय क्षेत्र में खबरों का संकलन करने के लिए मान्यता दी जाती है। इसके साथ ही रेल-बस यात्रा में छूट, टेलीफोन, डाक में छूट के साथ सस्तीदरों पर सरकारी आवास की सुविधा मिलती है। यह कहां तक उचित है? उस पर तुर्रा यह कि ये पत्रकार मिशन भावना से काम करते हैं। यहां यह जिक्र करना जरूरी होगा कि ब्रिटिश इंडिया राज में भारतीय अखबारों के पत्रकारों/संपादकों को सरकार से कोई विशेष सुविधा नहीं मिलती थी। खासकर मिशन यानी आजादी के लिए लिखनेवालों को तो प्रताड़ना व जेल जैसी सुविधाएं थीं। वर्तमान पत्रकारों के पास शुभ-लाभ की भावना के तहत ही काम करने की प्राथमिकता है। ऐसे में अपने लिए आचार संहिता की बात बेमानी नहीं है?
 अखबार और आदमी के बीच पुल का काम करनेवाले पत्रकारों/संपादकों को ‘उलट-पुलट’, ‘चांदी का जूता’, ‘डम डम डिगा-डिगा’, ‘किंग कोबरा’ जैसे नामों से छपने वाले अखबार सौदेबाजों नजर आते हैं। इन्हीं छोटे पत्रों से सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग सम्हालने वालों, मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, राजनेताओं, नौकरशाहों को भी तकलीफ है। जबकि यह नाम भारत सरकार के समाचार पत्र के रजिस्ट्रार के कार्यालय से पंजीकृत किये जाते है। इन सबों की यह आपत्ति केन्द्रीय सूचना-प्रसारण मंत्री, राज्यों के सूचना मंत्रीगणों व शीर्ष संपादकों-प्रकाशकों की पिछले साल हुई एक बैठक में खुलकर जाहिर हुई। वहीं प्रकाशनों/संपादकों की न्यूनतम योग्यता तय किये जाने की बात भी उठी। घिसे पिटे 1867 में बने प्रसे अद्दिनियम में भी बदलाव पर चर्चा हुई। केन्दीय सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने इसमें व्यापक संशोधनों के प्रारूप को कानून में बदलने की प्रक्रिया की बावत भी बताया। यह सच है कि नामों के पंजीकरण, मान्यता, विज्ञापन-मुद्रण, प्रसार आदि के कानून लचर हैं, जिसके चलते भ्रष्टाचार का मकड़जाल बेहद मजबूत है। इनमें बदलाव बेहद आवश्यक है जिससे आदमी के लिए लड़नेवालों को सच में लाभ मिल सके। जो बात मैंने ऊपर कही है कि ‘चांदी का जूता’ सौदेबाज कहा जाता है, लेकिन ‘सामना’ या ‘दोपहर का सामना’ का नाम हम भूल जाते हैं, जो छाती ठोकर राष्ट्रद्रोही खबरों से लेकर सम्पादकीय तक लिखकर हिंसा का कारण बनता आ रहा हैं उस पर मौजूदा कानूनों के तहत भी कोई कार्रवाई नहीं होती और न ही प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक कोई कार्रवाई करने के लिए किसी अधिकारी को निर्देशित नहीं करता और न ही छोटे अखबरों पर उंगली उठाने वाले सजग प्रहरी न्यायालय तक जाने की हिम्मत दिखाते हैं। यहीं ‘राष्ट्रवादी’ पत्रिका में ‘चीनी न खाने से मर नहीं जाएंगे’ जैसी खबर छपने पर कोई नोटिस तक नहीं जारी होती। क्या इस खबर से नागरिक भावनाओं का हनन नहीं होता? अपमान नहीं होता? ऐसे और भी उदाहरण हैं।
 इन बातों को लिखने के पीछे बड़ी मानसिकता को यह बताना भर है कि हर छोटा अखबार जिसका नाम कुछ भी हो सकता है, सौदेबाज नहीं होता। यदि सौदेबाजी करेगा भी तो कस्बा, तहसील, स्तर पर बेहद छोटी। ‘बड़े’ कैसी सौदेबाजी करते हैं यह केन्द्रीय/राज्य सचिवालयों या किसी भी सरकारी दफ्तरों में देखी जा सकती है। इससे भी अधिक देश की राजधानी दिल्ली सहित राज्यों की राजधानियों में पत्रकारों की कालोनियों के कार गैरेजों और प्रेस क्लबों के बाॅरों पर नजर डाली जा सकती है। यहां किसी पर कोई आरोप लगाने की मंशा नहीं हैं वरन सच का आइना दिखाने भर की है।
 सूचना क्रांति के इस दौर में सैकड़ों गांवों के करोड़ों लोगों को टीवी/इंटरनेट से जोड़ने में दुबले होने वाले इन ग्रामीणों की झोपड़ी में पिछले 62 सालों में पीली रोशनी फेंकने वाला एक छोटा सा बल्ब नहीं जला सके। यह सब बेइमान श्रद्धा और भ्रष्टाचार में आस्था के चांेचले हैं। इनसे बाहर निकलकर ग्रामीण पत्रकारों की पूरी जमात खड़ी करने की जरूरत है। छोटे अखबारों को लघु उद्योग के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है। जब बड़े अखबार के चमचमाते दफ्तरों में बड़ी सी श्रीगणेश-लक्ष्मी की मूर्ति रखकर ‘शुभ-लाभ’ के जगमग टाइल्स लगाकर ‘अखबार’ को उद्योग की शक्ल में बदला जा सकता है, तो उसी तरह छोटे अखबारों के लिए भी सुविधाओं की वकालत क्यों नहीं की जा सकती? जिससे वे भी उद्योग में बदल सकें या छोटे अखबारों  के पत्रकारों/संपादकों के ‘बाल ठाकरे’ जैसों से दीक्षित होने का इंतजार है?
 छोटे अखबारों को ग्रामीण पत्रकार आसानी से गांव-गांव तक पहुंचा सकते हैं। सहज ढंग से ग्रामीण समस्याएं भी उठा सकते हैं। खेती, छोटे व्यापार और महाजनों, सूदखोरों के अत्याचार की खबरें ग्राम्य बोलचाल की भाषा में छपेंगी तो ग्रामीण पाठको के साथ अधिकारियों को भी निराकरण मे ंआसानी होगी। इसके सुबूत में बांदा जिले के कर्बी से छप रहे ‘खबर लहरिया’ अखबार को देखा जा सकता है। ऐसे नाम और भी हैं। बेशक कानून कायदे और योग्यता का निर्धारिण हो मगर छोटे अखबारों के सफाये की शर्त पर कतई नहीं।
 अखबार और आदमी के बीच पुल का काम करनेवाले पत्रकारों की नई कौम विकसित करने की आवश्यकता पर बल देना होगा। ये कौम पीड़ित और पीड़क के फर्क को समझ सके ऐसी शिक्षा, ऐसे संस्कार देने का माहौल बनाने का प्रारूप बनाना होगा। सिर्फ कानून बना देने भर से कुछ नहीं होने वाला है। और अंत में अपनी बात कर लेते हैं। ‘प्रियंका’ 31 वें वर्ष में पहुंच गई है। इसकी गवाही में यह वार्षिकांक आपके हाथों में है। आपके दुलार ने ही ‘प्रियंका’ को इतनी उम्र दी है। वार्षिकांक, 2010 में होली-ठिठोली के साथ हिन्दी पत्रकारिता के फटे हुए एक पृष्ठ के साथ बहुत कुछ पठनीय है। होली, नवसंवत्सर आपका मंगल करे, यही कामना है। प्रणाम!

मुसलमान भी तरक्की पसन्द... इंशा अल्लाह

इक्कीसवीं सदी की दस सीढ़ियां चढ़कर मुस्लिम युवा मस्जिद और मदरसे में गजब का तालमेल बनाये हुए अपने मुल्क हिन्दुस्तान की तरक्की में शामिल होकर तेज रफ्तारी से आगे बढ़ रहा हैं। उसे अपने लिए अल्पसंख्यक कहा जाना नागवार लगने लगा है। युवतियां पर्देदारी के एहतराम के साथ कारपोरेट जगत में गोरे अंग्रेजों की जुबान फर्राटे से बोलती हुई भारतीय लोकशाही में अपनी जबर्दस्त पहचान दर्ज करा रही हैं। इन युवाओं को अब सियासीदल बरगला नहीं सकते। उनमें फैसला लेने की ताकत में एक बड़ा इजाफा हो चुका है।

मुसलमान वोटों की राजनीति का वो खास मोहरा रहे हैं, जिसका इस्तेमाल देश के सियासतदानों से कही अधिक मौलाना, इमाम या उलेमा नाम की संज्ञा ने अपने जाती फायदे के लिए बखूबी किया। आज भी दीनी तालीम या अपने तईं बनाये गये मजहबी कट्टरता के कानूनी ख़ौफ के मजबूत फंदे में आम मुसलमानों को लटकाए हैं और इन्हीं का एकमुश्त सौदा सियासीदलों से हर चुनावों में किया जाता है। मगर नई पीढ़ी ने मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ते-उतरते तरक्की की ताजी हवा में सांस लेेते हुए देश के हर मोर्चे पर अपनी भागीदारी तय करने की ओर कदम बढ़ा दिये है। अब वे अपने को अल्पसंख्यक कहे जाने से आहत होते हैं। फिरकापरस्तों की गाली ‘मुसलमानों का मुल्क है पाकिस्तान’ को दर-किनार करते हुए मुस्लिम युवा अपने सुनहरे भविष्य के प्रति बेहद सतर्क है। कम्प्यूटर, मोबाइल, बाईक, कार से लेकर जींस-टाॅप इन युवाओं की पहली पसंद बन गये हैं। यही वजह है कि काॅरपोरेट जगत में इनकी भागीदारी पिछले दस सालों में बढ़कर आज 24 फीसदी और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी तक हो गई है।
मुस्लिम युवा देश की मुख्यधारा से जुड़ने को बेताब है, तभी तो इस साल स्नातक कक्षाओं व रोजगारपरक पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वालों में इनकी तादाद काफी अधिक हैं। इन युवाओं का मानना है कि दीनी तालीम नमाज, कुरान, हदीस जहां मोहम्मद की हिदायत है, वहीं अंग्रेजी, हिन्दी, कम्प्यूटर का ज्ञान आज की जरूरत। नौकरी से निकाह तक शिक्षा की अनिवार्यता की अहमियत बढ़ी है। राजधानी लखनऊ के पश्चिमी कोने में बसे गली-मुहल्लों में अम्बरगंज जहां पुरानी रवायतों की पाकीजगी में जिंदगी सांस लेती है; वहीं के एक पुराने दड़बेनुमा मकान से एम.ए. पास लड़की शाहीन सिद्दीकी तीन बसें बदलते हुए गोमतीनगर के एक काॅलसेन्टर में नौकरी करने रोज आती है। पूरे सफर में उसका चेहरा नकाब से ढका होता है। आफिस पहुंचते ही बुर्का बैग में पहुंच जाता है और जींस टाॅप में चहकती हुई शाहीन अपने काम में मसरूफ हो जाती है। इस एक उदाहरण को नवाबों की विरासत सम्भाले इलाकों के घर-घर में देखा जा सकता है। लखनऊ के नदवा काॅलेज को कौन नहीं जानता। शिया डिग्री काॅलेज, मुमताज गल्र्स काॅलेज, सुन्नी स्कूल व काॅलेज और कई मदरसे तरक्की के रास्ते में रौशन हैं।
 सूबे के तमाम शहरों में कमोबेश मुस्लिम युवा एमबीए, बीबीए, बीसीए, पीजीडीसीए, बीटेक, एमटेक जैसे कोर्सों के साथ मीडिया के पाठ्यक्रमों में बढ़ रहे हैं। रामपुर जनपद के फुर्कानिया गल्र्स काॅलेज में निम्न मध्यम वर्गीय मुस्लिम लड़कियां शिक्षा पाती हैं। यहां की एक शिक्षिका का कहना है कि लड़कियों को पढ़ाने का नजरयिा इधर बदला है क्योंकि अब पढ़े-लिखे लड़के शिक्षित लड़की से ही निकाह करना चाहते हैं। यहीं जामिया-तुस्-सालेहात मदरसे ने हमदर्द युनिवर्सिटी से तालमेल करके लड़कियों के लिए बीबीए, बीसीए कोर्स शुरू किये हैं। फीस में भारी छूट भी दी जा रही है। आजमगढ़ जनपद के शिब्ली नेशनल पीजी कालेज में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों से सारा देश परिचित हैं। मऊ और गोरखपुर में चलने वाले मदरसों ने भी नई तकनीक को खुले दिल से अपनाया है। पश्चिमी उप्र के मदरसों ने भी जामिया मिलिया दिल्ली की देखरेख में लड़कियों को उच्च शिक्षा के साथ रोजगारोन्मुख शिक्षा देने की ओर बेहतर कदम उठाए हैं।
 हरियाणा के बेहद पिछड़े व मुस्लिम बाहुल्य जिले मेवात में हरियाणा वक्फ बोर्ड ने वहां के विधायक आफताब अहमद के प्रयासों से एक इंजीनियरिंग काॅलेज खोला है। महर्षि दयानन्द युनिवर्सिटी, रोहतक से सम्बद्ध है व एआईसीटीइ से मान्यता प्राप्त है। यहां मुस्लिम छात्रों के लिए 42.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं। दाखिलों का जोर और पढ़ने वालों का उत्साह देखते हुए मास्टर डिग्री व एमबीए के कोर्स शुरू करने की भी तैयारी है। यहां कई मदरसे व काॅलेज भी हैं जिन्हें वक्फ बोर्ड द्वारा संचालित किया जाता है। यहीं नूह में 650 करोड़ की लागत से एक मेडिकल काॅलेज भी बन रहा है।
 मेवात देश की राजधानी दिल्ली से महज 50 किमी. दूर है और आठ लाख की कुल आबादी में सत्तर फीसदी मुसलमान है। इनमें 44 फीसदी लोग शिक्षित हैं। यहां के लोग शिक्षा की ओर बहुत पहले से ही कदम बढ़ा चुके थे। अब उच्च व रोजागारपरक शिक्षा पर उनका जोर है, क्योंकि वे जान चुके हैं, शिक्षा ही उनका जीवन सुधार सकती है और वे मान रहे हैं कि शिक्षा ही सम्पत्ति है।
 हैदराबाद, आंध्र प्रदेश की राजधानी जहां चारमीनार के लिए जाना जाता है। वहीं बीस साल पहले तक अरब शेखों द्वारा मुस्लिम लड़कियों के खरीदे जाने व निकाह करके गुलाम बनाकर ले जाने की खबरों से व गरीब मुसलमानों की गुरबत के किस्सों से पहचाना जाता था। आज हैदराबाद ‘कम्प्यूटर हब’ कहा जाता है। यहां के निम्न मध्यम वर्गीय युवा डिग्री द्दारक हैं और अच्छी नौकरियांे में हैं। बुर्के के भीतर सहमकर चलने वाली युवतियां जीन्स-शर्ट पहने सिर पर स्कार्फ बांधे बसों-आॅटों व दो पहिया वाहनों पर सवार फर्राटा भरते देखी जा सकती हैं। फल-सब्जी बेचने वाले से लेकर मजदूरी करके पेट पालने वाले भी अपने बच्चों को पढ़ाने का जज्बा पाले दिखाई देते हैं।
 मुंबई में पिछले महीने एक मुस्लिम एनजीओ ने तरक्की के लिए बातचीत का आयोजन किया था। इस आयोजन में डाक्टर, इंजीनियर, व्यापारी, उद्योगपति, नौकरशाह, प्रोफेसर, तकनीशियन, साइंसदा सभी ने शिरकत कर मुसलमानों की नई पीढ़ी को रोजगारोन्मुख शिक्षा की ओर बढ़ने को सराहा। वहां आये 31 साल के इमरान खान, 18 करोड़ की वेस्टर्न इंडिया मेटल प्रोसे. लि. के प्रबंध निदेशक ने जहां अपने अनुभव बांटें, वहीं भाभा रिसर्च सेन्टर के रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट विंग में तैनात साइंटिफिक आफिसर 36 वर्षीय मेहर तबस्सुम तमाम युवतियों के लिए रोल माॅडल रहीं। उन्होंने वहां कहा ‘आमतौर से लड़कियां होम साइंस की ओर ही जाती रही हैं लेकिन ग्लोबलाइजेशन ने तमाम नये अवसर उपलब्ध करा दिये हैं।’ मेहर तबस्सुम 85 हजार रूपए प्रतिमाह तनख्वाह पाती हैं।
 युवा मुसलमानों की आंखों में नये सपने और नये आसमान में उड़ने की ललक साफ देखी जा सकती हैं। इसी मुंबई में तीन दशक पहले तक इन युवाओं का इस्तेमाल ‘अंडरवल्र्ड’ करता था तो युवतियों के लिए वेश्यालयों के दरवाजे और शेखों के हरम खुले थे। आज अंजुमन-ए-इस्लाम के सौ शिक्षण संस्थानों में एक लाख छात्र-छात्राएं शिक्षारत हैं। इन्हीं में डिप्लोमा इंजीनियरिंग के एक छात्र ने महाराष्ट्र में टाप किया है। यहां के इंजीनियरिंग व कैटरिंग के छात्र शत-प्रतिशत नौकरियों पा रहे हैं।
 देश में मुसलमानों को बरगलाने वाले सियासतदानों को मुंह चिढ़ाते हुए अशिक्षित या तकनीकी ज्ञान वाले युवा खाड़ी देशों में जाकर अच्छी कमाई कर अपनी माली हालात सुधार रहे हैं। कई परिवार तो पीढ़ियों से खाड़ी देशों में हैं और उनके परिवार यहां विभिन्न व्यवसाय करके मुख्यधारा से जुड़े हैं। हर साल रमजान के महीने में शुरू होने वाले ‘उमरा’ के नाम पर लाखों की तादाद में युवा सऊदी अरब जारकर चोरी छिपे कमाई करके देश वापस आते हैं। हज के दौरान इन्हीं में सैकड़ों नाई जाते हैं जो केवल हाजियों के सिर मूंडकर अच्छी खासी कमाई कर लाते हैं। इन ‘पेट्रोे मुस्लिमो’ में भी शिक्षा का बढ़ता असर साफ देखा जा सकता है। इनके बच्चे मदरसों से लेकर कान्वेंट स्कूलों, युनिवर्सिटियों में शिक्षा पा रहे हैं। सियासत के अढ़तिये और सरकारी कमेटियां गलत आंकड़े देकर अपना उल्लू सीधा करती रही हैं और करने में लगी हैं। आज तक मुसलमानों के हालातों का सही व ईमानदार आकलन करने की कोशिश की ही नहीं गई। हां उनकी कौम को, उनके गांव को, उनके शहर को आतंक से, अंडरवल्र्ड से जोड़ने की तमाम कोशिशें जरूर हुई है।
 भारत का सच्चा मुसलमान अपने सिर पर गोल टोपी लगाकर ऊँचा पायजामा पहने मस्जिद की ऊँची मीनार पर चढ़कर अल्लाह-ओ-अकबर पुकराते हुए अपने ईमान को बरकरार रखें हैं, तो बाइक पर सवार उसके बेटे-बेटी कम्प्यूटर से जूझते हुए देश की तरक्की में साझेदार हैं। इंशाअल्लाह! मुसलमानों की नई पीढ़ी के सुनहरे सपने सच होंगे।

Thursday, October 7, 2010

खटमलों के लिए भी कंडोम?


लखनऊ। चाॅकलेट बेचने या कंडोम की उपयोगिता बताने के प्रचार का तरीका अपनाने वाले बाजार ने बीमारियों का खौफ पैदा करने के लिए भी उसी तकनीकी को अपना लिया है। इसके नतीजे बेहद खतरनाक हो रहे हैं। आम आदमी उन बीमारियों से भी डरा-सहमा रहता है, जो पूरी तरह इलाज के बाद ठीक हो जाती हैं।
 पिछले दिनों लखनऊ में टी.बी. की बीमारी पर एक कार्यशाला हुई थी। उसमें मौजूद लखनऊ चिकित्सा विश्वविद्यालय में पल्मोनरी विभाग के प्रो0 सूर्यकान्त ने जहां टी.बी. को उचित इलाज से ठीक होनेवाली बीमारी बताया वहीं, उन्होंने बताया दरअसल पश्चिमी देशों में यह बीमारी इधर काफी जोर पकड़ रही हैं, इसके कारण निवारण पर भी विशेष जोर दिया जा रहा है।
 डाॅ. सूर्यकान्त की बात की ताईद करती हुई एक खबर पिछले दिनों अखबारों में छपी ‘खटमल दुनिया के लिए खतरा।’ यह खटमल विकसित देशों में बड़ी समस्या बन गये हैं। अमेरिका के न्यूयार्क शहर मंे खटमलों के खौफ से कई सिनेमाघरों, दुकानों, कार्यालयों को बंद कर दिया गया है। इस शहर ने इससे निपटने के लिए कानून तक बना डाला है। ब्रिटेन में कई होटलों के मालिक खटमलों से बेहद परेशान है, उनका व्यवसाय बंदी के कगार पर है। उन्हांेने खटमल तलाशने के लिए स्निफर कुत्ते पाले हैं।
 दरअसल पिछले दस सालों से खटमलों ने विकसित देशों में फिर से अपनी फौज खड़ी कर ली है। अमेरिकी संस्था युनिवर्सिटी आॅफ केंटकी व नेशनल पेस्ट मैनेजमंेट एसोसिएशन (एनपीएमए) के सर्वेक्षण के मुताबिक दुनिया खटमलों की तादाद के कारण महामारी के कगार पर खड़ी है। खटमलों की बढ़ती तादाद के लिए पर्यावरण में बदलाव, कीटनाशकों का बेअसर होना व अंतर्राष्ट्रीय यात्राओं में बढ़ोत्तरी को जिम्मेदार मान रहे हैं विशेषज्ञ वैज्ञानिक।
 गौरतलब है भारत, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन, लंका जैसे विकासशील देश लगभग तीस वर्ष पहले खटमलों की समस्या से बेहद परेशान थे। उस समय किसी विकसित देश ने इससे छुटकारा पाने के लिए कोई आवाज नहीं उठाई। इसी तरह लगभग 50-60 वर्ष पहले प्लेग ने महामारी का रूप ले रखा था जो ब्रिटिश नागरिकों के जरिये भारत में आई थी। उस समय जन भागीदारी के जरिए चूहों को मारने का अभियान चलाया गया था। एक चूहा मारकर नगर पालिका के स्वास्थ्य अद्दिकारी आदि के पास जमा करने वाले को चारआने ईनाम में दिये जाते थे। लब्बो-लुआब यह कि जन भागीदारी से किसी भी बीमारी पर काबू पाया जा सकता है और यह भी सच है कि विकसित देश विकासशील देश के नागरिकों को कीड़े-मकोड़ों से अधिक नहीं समझते। अब सवाल यह है कि खटमलों की बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या से निजात पाने के लिए भी पश्चिम के वैज्ञानिक खटमलों के लिए किसी ‘कंडोम’ की तलाश करेंगे या जहरीले कीटनाशक की?