Friday, November 15, 2013

महंगाई के अनुष्ठान का अर्थशास्त्र...!

महंगाई और भ्रष्टाचार का नगाड़ा इस कदर ऊँची आवाज में बज रहा है कि देश का भूगोल लांघकर यह पूरी दुनिया में हैरतअंगेज शोर में बदल गया है। बुलंद आवाज में हलक फाड़नेवाले सियासतदां और मीडिया की जुगलबंदी 125 करोड़ आदम की औलादों को गुमराह करने के षड़यंत्र में दिन-रात एक किये हैं। सच का दामन थामने से हर एक को परहेज हैं। एकतरफा आंकड़ों का पहाड़ा याद कराने की कामयाब कोशिश में कौटिल्य के अर्थशास्त्र को धता बताया जा रहा है। और तो और चाणक्य की सियासी सलाहों की पुस्तकें दीमक का भोजन बन चुकी हैं, शायद मुगल शासक अकबर के शूरा-ए-गुल का सर्वधर्म समभाव जातीय राजनीति के चक्रव्यूह में दम तोड़ गया है। नेहरू का समाजवाद वंशवाद के राजमहल मे ंचाकरी को मजबूर है। भ्रष्टाचार के सियासी गणित पर ‘नमो’ और ‘राहु’ की गणना करके आमजन को ठगने की साजिश की जा रही है।
    पहले बात करते हैं बढ़ती महंगाई के हल्ला मचाओं अनुष्ठान में शामिल न किये जाने वाले 35 करोड़ इंसानों की, जो ‘सस्ता’, ‘महंगा’ दोनों शब्दों से अंजान हैं। न इनका तन ढका है, न मन। न पेट भरा है, न इनके पास सर छुपाने के लिए पांच वर्गफुट जमीन का टुकड़ा है। श्रम के बदले औरतों को नंगा करके धूप, बारिश में खुले आसमान के नीचे मुर्गा बना दिया जाता है और मर्दाें को कुत्ता! भोजन के नाम पर जूठन और वो प्राकृतिक वनस्पति जो जानवरों तक से बच जाती है। कहीं-कहीं तो ये इंसान मरे हुए जानवरों के मांस पर जीवित हैं। अब तो जूठन का भी बाजार तरक्की कर रहा है। पहले मुंबई में ही जूठन बिकते देखा था, आजकल लखनऊ से भी आगे छोटे शहरों में जूठन का कारोबार बड़ी तेजी से अपने पांव पसार रहा है। इस सच से सामना करने से हर कोई भाग रहा है। कोई भी इन मजलूमों की बात नहीं करना चाहता। वोटों के लिए पाखण्डी कर्मकाण्ड मीडिया के कैमरों के सामने बड़ी गंभीरता से किये जा रहे हैं लेकिन हकीकत की द्दरती पर इनका पांव धरना भी इन्हें अपवित्र कर जाता है। चुनाचे इनकी सद्गति के लिए झूठ और भ्रष्टाचार की चिता हमेशा धू...धू करके जलती रहती हैं।
    नब्बे करोड़ में लगभग दो करोड़ देवगण सोने के गिलास में ‘मिनरल वाइन’ फूंक-फूंक पर पीते हैं। इन्हें असत्य, महंगाई और भ्रष्टाचार के पौधारोपण कार्यक्रम चलाने में महारत हासिल है। इन्हीं से प्रशिक्षण प्राप्त बाकी के 80 करोड़ को महंगाई डायन खाय जात है। भ्रष्टाचार इनकी जड़ों और जोड़ों में मजबूती लाने की अचूक दवा है। यही कैंडिलमार्च से लेकर हिंसा के तमाम नातेदारों के साथ सड़क जाम, तोड़-फोड़, आगजनी, लूट के आयोजक एवं कार्यकर्ता होते हैं। इन्हीं का छोटी-छोटी बातों से धर्म भ्रष्ट या खतरे में पड़ जाता है। ये ही जमीन कब्जाने से लेकर बिजली चोरी जैसे कर्मकांड में लिप्त या ताली बजानेवाले तमाशाई होते हैं। यही शोहदई और फसाद के निर्माता हैं। इनको प्याज का रेट याद है। दाल का भाव याद है। मांस की कीमत में हुआ इजाफा याद हैं, दूध में हुई वृद्धि की गिनती जुबानी याद है। साग-सब्जी की बढ़ी दर याद है। इसी जमात को तेल, चीनी, रसोई गैस, पेट्रोल-डीजल की बढ़नेवाली कीमतों पर सरकार को गाली देने की आदत है। इन्हीं के सुर में सुर मिलाकर तुष्टीकरण करता मीडिया भी चीखता है कि पिछले 10 वर्षाें में देश में खाने-पीने की चीजे 100 से 16 सौं फीसदी तक महंगी हुई हैं। पिछले दो महीने से फल-सब्जियों खासतौर पर प्याज की बढ़ी हुई कीमतों को लेकर बड़ा हल्ला-गुल्ला मचा हुआ है। हर साल बरसात के मौसम में बाजार में सब्जियों की आवक में कमी से भाव बढ़ जाते हैं। इसके और भी कई कारण हैं, उनमें बाढ़ प्रमुख है। कई पर्व भी इसी दौरान पड़ते हैं, जमाखोरों का अधिक मुनाफा कमाने का लोभ भी है। यह हाल केवल भारत में ही नहीं है पड़ोसी देशों में भी है। दक्षिण अफ्रीका जैसे देश में भी धार्मिक मान्यताओं और आपूर्ति में कमी होने के चलते हर साल सितम्बर-अक्टूबर में फल-सब्जी 50-60 फीसदी तक महंगे हो जाते हैं।
    अगर महंगाई नहीं बढ़ती है तो शराब, कास्मेटिक्स, कवाब, पिज्जा, ड्रेसेस, मोबाइल, लैपटाॅप, चार -दो पहिया वाहन, यौनवर्धक दवाओं, कंडोम, सेक्सशापी और मनोरंजन मस्ती जैसे तमाम लग्जरी आइटमों पर, इनकी बिक्री में लगातार इजाफा होता जा रहा है। महंगाई का शोर मचाने वाला वर्ग 50 हजार रूपयों के टमाटर की होली खेलकर मस्ती करने में आगे हैं? इन्हीं का बाजार तय करता है कि आप पितृपक्ष में क्या खरीदेंगे? ब्रांडेड हो जाती है सत्यनारायण कथा! एनआरआई हो जाते हैं बकरीद पर बकरे तक! मंदिरों में स्वर्णदान अगर नहीं बढ़ता तो अरबों-खरबों की संपति के मालिक कैसे हैं देश के तमाम मंदिर? हाल ही में मुंबई के सिद्धनाथ मंदिर में गणेशोत्सव के दौरान चढ़ावे में चढ़े सोने-चांदी की नीलामी हुई है। किसी अखबार में नहीं छपता कि 2004 में आम आदमी की तन्ख्वाह क्या थी? कोई टीवी चैनल नहीं बताता कि पेटी बगल में दबाए हुए नाई की एक दिन की आमदनी क्या हैं? जबकि केवल शमशानघाट पर एक सिर मूंडने का सौ रूपया तक वसूला जा रहा है, बाकी कर्मकांडों की बात ही बेमानी है। सरकारी मुलाजिमों से अधिक वेतन प्राइवेट कम्पनियों के कर्मचारी पाते हैं। व्यापार में लगे लोग एक रूपये को तीन रूपये के मुनाफे में कैसे बदल रहे हैं, यह खुली आंखों से हर कोई देख रहा है। शिक्षा की दुकानों की आमदनी में किस वर्ग की साझेदारी है और कौन वर्ग लूट रहा है, लुट रहा है? पेट्रोल की खपत कौन बढ़ा रहा है? आबादी बढ़ाने की मशक्कत में कौन दिन-रात एक किये दे रहा हैं? देश में 90 करोड़ मोबाइल आपस में बातचीत के लिए सक्रिय हैं। इन मोबाइल कंपनियों को अरबों का मुनाफा कमाने की दावत कौन दे रहा है? यदि महंगाई सौ से सोलह सौ फीसदी बढ़ी है तो आमदनी में भी सौ से दो हजार फीसदी तक बढ़ोतरी हुई है। अमीरों की गिनती में काफी बड़ा इजाफा हुआ है। उप्र जैसे पिछड़े सूबे के सबसे पिछड़े इलाके सोनभद्र के राबर्ट्सगंज, चोपन, ओबरा, डाला, दुद्धी जैसे इलाकों में जाकर देखिए बाजार चमक रहे हैं, वहां के छुटभइये पत्रकार तक चार पहिया वाहन के मालिक हैं। मजदूरी करने वालों की झोपड़ी तक में रंगीन टीवी बैटरी से चल रहे हैं।
    कांशीराम आवास योजना या हरिजन काॅलोनियों में जाकर झांकिये हर घर रंगीन, टी.वी., फ्रिज, बाइक से गुलजार है। जिन मुसलमानों के लिए हल्ला है कि उन्हें इस मुल्क में गरीबी के अलावा कुछ नहीं मिला। उन्हीं मुसलमानों ने देश भर के रियल स्टेट कारोबार में आग लगा दी है। जिन इलाकों में आज से महज दस साल पहले तक तीन-चार लाख में छोटे रिहाइशी मकान मिल जाया करते थे आज वहां 30-35 लाख कीमत हो गई है। सच इससे भी अधिक नंगा है। सांतवां वेतन आयोग गठित होते ही उसे 2011 से लागू करने की मांग उठ गईं? गोया सारे जहां की दौलत का मालिक ‘मैं’ होऊंगा? एक तरफा तमाशा, चिल्लापों वोट की राजनीति के लिए समझ में आता है, लेकिन मध्यवर्ग अपनी बेईमानी पर गौर क्यों नहीं करता? कोई जवाब देगा कि दरोगा कौन है? सिपाही कौन है? इंजीनियर कौन हैं? डाॅक्टर कौन हैं? बाबू कौन हैं? बिजली-पानी कर्मी कौन हैं? दवा-दुआ विक्रेता कौन है? गोकि सब तो मध्यमवर्ग के लोग ही ‘हम-आप’ हैं। फिर बेईमान कौन है? भ्रष्टाचारी कौन है? मामूली रिक्शावाला दो रूपए की ठगी करके, तो सब्जी विक्रेता सौ ग्राम कम तौलकर भ्रष्टों की जमात में शामिल है। शहर से लेकर गांव तक कवाब-पराठे-चाउमीन से लेकर ‘डव’ साबुन, लोरियाल लिपिस्टिक की बिक्री की धूम है। और सरकार की नीतियों को हम बेइमान कोसने से पीछे नहीं हटते? जब सौ बेईमान एक बड़े बेईमान/अपराधी को राजा बना देंगे तो उससे ईमानदारी की उम्मीद कैसे की जा सकती है? गिनती के जो 10 करोड़ लोग बचते हैं वे ‘संतोषं परम सुखम्’ के खामोश अनुयाई हैं। सच का आइना इससे भी अधिक खतरनाक है। आंकड़ों की बाजीगरी और उधार की संस्कृति का खामियाजा जिन्दा कौमों को ही भुगतना होगा। चुनाचे महंगाई के अनुष्ठान में लक्ष्मी को बख्श दो लक्ष्मीपुत्रों!

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