Friday, November 15, 2013

यह झगड़े वोट बैंकों के दरवाजे हैं...

डाॅ. राही मासूम रज़ा
अभी कुछ दिनों के लिए अमरीका जाना पड़ा। पतझड़ का मौसम था और जितना अमरीका मैंने देखा वह पतझड़ के रंगों में डूबा हुआ था।
    राष्ट्रपति रीगन का पतझड़ भी मेरे सामने ही शुरू हो गया था... साहब यह अमरीकी राजनीति भी गजब की चीज है। यह डाॅलर के सिवा और किसी की वफादार नहीं- इसकी बेहयाई देखिए कि सद्र रीगन चंद अमरीकी नागरिकों को लेबनान के शीया आतंकवादियों के कब्जे से निकालने के लिए खुमैनी सरकार से बातचीत करने पर तैयार हुए। यह बात बिल्ली के गुह की तरह छिपाई गयी। उस पर इंगलैंड की मिट्टी डाली गयी.. मोल-तोल हुआ। अमरीकी नागरिक छूट गये और इस सौदे में अमरीका ने सैकड़ों मिलियन डाॅलर कमा लिये!... और यह कमाई निकारागुआ में आतंकवादियों की मदद के लिए खर्च की गयी! ऐसी दोगली, ऐसी झूठी, ऐसी बेईमान राजनीति! यह मैली राजनीति दुनिया की किसी लाडरी में धुल कर साफ नहीं हो सकती... इसलिए इतिहास को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी उस दिन की, जब अमरीकी जनता यह फैसला करेगी कि यह राजनीति उसका अपमान है। उस दिन वह इसे उतार फेंकेगी और डाॅलर की गुलामी से आजाद होकर अपनी क्रांति को पूरा कर लेगी।
    परंतु मैं आज राष्ट्रपति रीगन की बात करना नहीं चाहता था, पर वह जब भी ध्यान में आते हैं मेरी जुबान में खुजली होने लगती है; क्योंकि सच पूछिए तो हमारी राजनीति का हाल भी वैसा ही है। स्वतंत्रता जो आयी वह मेड इन इंगलैण्ड थी। स्वतंत्रता मेड इन इंगलैंड इसलिए आई कि जो पार्टी स्वतंत्रता संघर्ष की अगुवाई कर रही थी, अर्थात इंडियन नेशनल कांग्रेस, वह भी मेड इन इंगलैड ही थी.. इसलिए जब खुद ब्रिटेन डाॅलर की छत्रछाया में जा बैठा है तो भारतीय राजनीति भला डाॅलर की पाठशाला में कैसे न जा बैठती। और जनाब हमारी राजनीति ने भी डाॅलर के सबक फर-फर याद कर लिये। डाॅलर की सभ्यता यह है कि राजनीति देश के लिए नहीं है, देश राजनीति के लिए है और राजनीति उस ‘व्यक्ति’ के लिए है जिसकी स्वतंत्रता का ढिंढोरा डाॅलर सरकार पीटती रहती हैं। परंतु अमरीका दूसरे देशों के व्यक्तियों की स्वतंत्रता बरदाश्त नहीं कर सकता। अमरीका में दूसरों की स्वतंत्रता की परिभाषा डाॅलर की गुलामी है; और जो देश डाॅलर के गुलाम नहीं हैं, उन्हें यह ‘मेड इन अमरीका’ स्वतंत्रता देने के लिए अमरीकी सरकार करोड़ों डाॅलर खर्च करती रहती है। हमारा रूपया सींकिया पहलवान है। डाॅलर की तरह मुंहजोरी तो नहीं कर सकता.... परंतु जीवित है और डाॅलर के कदम चूमकर आत्महत्या करने पर तैयार नहीं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मैदान में वह डाॅलरबाजी का विरोध करता है और दुनिया के सारे कमजोर देशों का साथ देता है। पर देश के अंदर वह डाॅलर ही का खेल-खेल रहा है। जो आतंकवाद उसके दुश्मन का दुश्मन है, वह आतंकवाद नहीं; जैसे गोरखालैंड की मांग करने वाले। दिल्ली सरकार उनके खिलाफ नहीं क्योंकि वह बंगाल सरकार का तख्ता उलटने की कोशिश में दिल्ली सरकार के काम आ सकते हैं। यह मत कहिए कि भारत एक लोकतंत्र है और यहां ऐसा नहीं हो सकता। केरल में नम्बूदरीपाद सरकार कैसे उलटी थी? कश्मीर में अब्दुल्लाह सरकार कैसे उलटी थी? आंद्द्र में एन.टी.आर. की तेलुगूदेशम की सरकार कैसे उलटी थी? भारतीय लोकतंत्र इस खेल का उस्ताद है। लोकतंत्र का मतलब यह थोडे़ है कि यहां सचमुच का लोकतंत्र है।
    हमारे संविधान में तो और भी बहुत सारी खूबसूरत बातें लिखी हुई हैं। उसमें लिखा हुआ है कि भारत एक सेक्युलर डिमोक्रोसी है। लेकिन यहां न तो सेक्युलर ही है और न ही डिमोक्रेसी। यहां शिवसेना के नेता सर्वश्री बाल ठाकरे शिवाजी पार्क में माइक्रोफोन लगाकर भारतीय मुसलमानों को विदेशी बताते हैं और उन्हंे सीधा करने की बात करते हैं, और मुख्यमंत्री यह बयान देकर चुप हो जाते हैं कि मैं उन्हें ऐसा कहने पर छोडुंगा नहीं! गालिब का कोई माशूक अवश्य श्री चव्हाण जैसा रहा होगा; जभी तो उन्होंने यह लिखा है:
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान छूट जाता
कि खुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।
    और भारतीय राजनीति की सबसे मजेदार बात यहां 8 दिसम्बर के समाचार पत्रों में छपी। म्युनिसिपल बाई इलेक्शन में एक शिव सैनिक भारतीय जनता पार्टी के आदमी (?) को हराकर चुनाव जीत गया तो उसने यह बयान दिया कि उसकी जीत हिंदूइजम की जीत है। यह तो रोमनों से भी ज्यादा रोमन होने की बात हो गयी। जहां दो ईंटों के बीच में जरा सी भी जगह नहीं है, वहां भी मज़हब का भूत धुँआ बनकर घुसने की कोशिश कर रहा है और दुर्भाग्य से सफल भी हो रहा है।
    हर धर्म कभी न कभी मनुष्य को रास्ता दिखने आया था। परंतु, आज हर धर्म अपने मानने वालों को कुछ लोगों के फायदे के लिए राह से भटकाने का काम कर रहा हैं। लोग वोटो के दरबे पर धर्म का ताला लगाना चाहते हैं कि बस चुनाव के दिन वोटर दरबे से निकाले जायें, वोट दें और फिर पांच बरस के लिए बंद कर दिये जाएं। यदि आज अस्सी प्रतिशत हिंदुओं को यह समझाने का काम किया जा सकता है तो उनका धर्म खतरे में है, तब तो फिर 12 प्रतिशत मुसलमानों और 2) प्रतिशत सिखों को यह समझाना बहुत ही आसान है।
    इस बात पर याद आया कि 8 दिसम्बर को एक सभा बुलायी गयी थी। डाॅ. भ.दी. फड़के ने मराठी भाषा में एक किताब लिखी है- ‘‘स्वतंत्र आंदोलनातील मुसलमान’’ यह सभा इसी किताब के सिलसिले में थी और एक भारतीय मुसलमान के नाते मैं वहां बुलाया गया था। जब मैं भाषण देने के लिए उठा तो पहली बार यह सोचकर दुःख हुआ कि मैं मराठी नहीं जानता।
    जब मैं मराठी जानता होता तो शायद ज्यादा खुल के बात कर पाता। पर हम हिंदीवालों का दिल इस बात में बहुत छोटा है। हम यह तो चाहते हैं कि हिंदी देश भर में स्वीकार कर ली जाए, पर हम देश की दूसरी भाषाओं की न इज्जत करते हैं और न ही उनकी जरूरत समझते हैं। शायद यही कारण है कि अहिंदी भाषियों के लिए हिंदी का स्वीकार करना मुश्किल हो रहा है। परंतु यह बात फिर कभी।
    डाॅ. फड़के ने यह किताब बड़ी मेहनत
और गम्भीर सच्चाई से लिखी हैं। यह साबित भी कर  दिया है कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े काम किये हैं। पर मुझे इन मौकों पर हमेशा यह लगता है कि मैं मुलजिमों के कटघरे में खड़ा हूं और मेरी सफाई का गवाह अपना बयान दे रहा हैं। मुझे ऐसे में बड़े अपमान का अनुभव होता है। इसलिए मैंने उस सभा में कहा कि मुसलमानों ने स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ नहीं किया, पर हिंदुओं ने भी कुछ नहीं किया; और अगर कुछ किया हो तो बताइए। सिखों और ईसाइयों का भी कोई योगदान नहीं.... स्वतंत्रता आंदोलन में तो हिस्सा लिया था किसानों-मजदूरों ने; विद्यार्थियों और अध्यापकों ने; क्लर्काें और दुकानदारों ने... रामप्रसाद बिसमिल हिंदू नहीं हिंदुस्तानी क्रांतिकारी थे; भगत सिंह सिख नहीं थे; भारतीय इंकिलाबी थे; धर्म तो स्वतंत्रता के रास्ते का रोड़ा था, जैसे आज प्रगति के रास्ते का रोड़ है... वह कहीं सर्वश्री बाल ठाकरे को नेता बना देता है, कहीं मौलाना बुखारी को। इनके हाथों से धर्म छीन लीजिए तो इन फुकनों की हवा निकल जाएगी।
    पंजाब में संत भिंडरवाला उभरे। उन्हें खोज के निकाला किसने था? कांग्रेस के भीतरी झगड़े ने, सरदार जैल सिंह और सरदार दरबारा सिंह की अनबन ने। दरबारा सिंह का सूरज डूब गया। जैलसिंह जी राष्ट्रपति हो गये, और पंजाब जल रहा है। इसी तरह श्री ठाकरे का सूरज स्वर्गीय नायक की राजनीति के क्षितिज से निकला। वह डांगे को हराकर बम्बई के मजदूरों को कम्युनिस्टों के असर से निकालना चाहते थे।
    डांगे आखिरकार हार तो गये। कम्युनिस्टों का असर भी टूट गया। परंतु बम्बई भी कांग्रेस के हाथ से निकल गयी और जो वातावरण यही रहा, तो शरद पवार को मिलाने के बाद भी आने वाले चुनाव में कांग्रेस के हाथ से महाराष्ट्र के निकल जाने का बड़ा डर है। क्योंकि, शिवसेना के हाथ में धर्म और क्षेत्र दोनों की लाठी है और कांग्रेस या किसी और पार्टी के पास इस दोहरे जादू की कोई काट नहीं है। असम में चुनी हुई सरकार से त्यागपत्र दिलवा कर असम को आतंकवादियों के हवाले कर दिया गया। कांग्रेस का बस चला तो बंगाल में एक ‘गुरखिस्तान’ भी बन जाएगा।
    मुझे तो उत्तर प्रदेश और बिहार भी थोड़े ही दिनों के मेहमान दिखाई देते हैं। इन दोनों का बंटवारा भी होने ही वाला है क्योंकि दाल बांटने के लिए जूतियां कम पड़ रही हैं....
यह बात सही नहीं है कि 14 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन हो गया था। सही बात यह है कि 14 अगस्त सन 47 को देश का विभाजन शुरू हुआ था और विभाजन का काम खत्म नहीं हुआ है, जारी है।
    वहां अमरीका में मैंने हिंदुस्तानी- पाकिस्तानी दोस्तों से यह कहा कि-अपने घर की यादों को मत ताजा रखिए। भूल जाइए कि आप हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी हैं। आप अमरीकी हैं। डाॅ. अब्दुल्लाह वाशिंगनटनवी... डाॅ. सलमान अख्तर फिलेडलफियावी...
    परंतु यहां, अपने घर में यह कहना चाहता हूं कि घर की याद को ताजा रखिए। भाषा भी ठीक, धर्म भी ठीक, पर यह भी सोचिए कि देश भी ठीक है या नहीं! जरा सी बात पर धर्म का यूं सड़क पर निकल आना, धर्म और देश दोनों की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
    कल किसी ने शिवाजी की तस्वीर को जूते का हार पहना दिया, तो सजा मिली सैकड़ों बेगुनाहों को, जो कत्ल कर दिये गये। सजा मिली सैकड़ों  दुकानों को जो लूट ली गयीं, सजा मिली सैकड़ों घरों को जो जला दिये गये।
    आज किसी समाचार पत्र में इस्लाम के पैगम्बर के बारे में किसी ने कुछ अंट-शंट लिख दिया तो सजा मिली बाजारों को, सजा मिली सरकारी बसों को...
    सीधी बात यह थी कि उस समाचार पत्र पर मुकदमा चलाया जाता। उस कहानी के लेखक को सजा दिलावाने की कोशिश की गयी होती, क्योंकि पैगम्बर का अपमान बसों ने या दुकानों ने तो किया नहीं था!
    मगर कुर्सियों के आसमान से नीचे उतर कर कोई सोचने पर तैयार नहीं है.. यह झगड़े वोट बैंकों के दरवाजे हैं, लोग या डरके वोट दे रहे हैं या गुस्से में। और डर और गुस्से दोनों के लिए किसी न किसी फसाद की जरूरत पड़ती है।


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