Wednesday, March 12, 2014

लेकिन अखबार पहले पढ़ेंगे हम!


    हम सुबह उठते हैं। अखबार पढ़ते हैं, हालांकि कोई नियम नहीं है, और न ही समाज के प्रति, साहित्य के प्रति बेहद संवेदना है। यह तो एक प्याली चाय के साथ एक पूरा दिन काटने, सौदेबाजी के लिए कच्चेमाल की तलाश और दुर्घटनाओं पर चटखारे लेने भर का ‘काउंटर’ है। सच कहा जाय तो अधिकतर लोगों की ‘क्राइम डायरी’ है। और ‘क्राइम’ उधार की जमीन पर तेजी से फलता-फूलता है। अखबार के साथ ‘क्राइम’ शब्द जोड़ने का मतलब? दरअसल अखबार, पत्रिका या पुस्तक मांगकर पढ़ने वाले को मैं अपराधी मानता आया हूं। क्योंकि यहीं मंगते व्यवस्था में होते हैं। सच कहूं तो नपुंसक।
    अखबार मांगकर पढ़ने वाले पूरे देश में और हर वेश में पाए जाते हैं। उनका नारा है, ‘अखबार तुम्हारा, अधिकार हमारा।’ यानी पैसे तुम खर्च करो लेकिन अखबार पहले पढ़ेंगे हम।
    सबसे पहले अखबार पढ़ने वालों की बात करते हैं। ये पाठक, आपसे पहले बिस्तर त्याग देते हैं और आपके घर के आगे चहल-कदमी करते रहते हैं। अखबार वाले के आते ही वे बड़ी बेहयाई से आपकी घंटी बजाते हैं ओर ‘दो मिनट’ के लिए अखबार मांग लेते है। उनके ‘दो मिनट’ खत्म होते-होते दो-एक घंटे तो बीत ही जाते हैं। यदि इस बीच आपकी अखबार पढ़ने की इच्छा जोर मारती है और आप अपना अखबार उनके घर से मंगवा लेते हैं तो वे सारे मुहल्ले को यह बताने से नहीं चूकते कि पड़ोंसियों के प्रति आपका आचरण कितना अशोभन है। ऐसे पाठकों को अखबार देते रहना, आपके धैर्य की चरम परीक्षा है, क्योंकि जब तक आपका अखबार वापस आता है, उसकी वर्ग पहेली भरी जा चुकी होती है, खिलाडि़यों और अभिनेत्रियों के चित्र काटे जा चुके होते हैं और अक्सर अखबार के दो-एक पन्ने भी गायब हो चुके होते हैं।
    कुछ अति बुद्धिमान लोग, अखबार ले जाने की जगह, उसे आपके घर में ही बैठकर पढ़ना पसंद करते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि उन्हें मुफ्त के अखबार के साथ-साथ मुफ्त की चाय भी प्राप्त होती रहती है। वे इस बात को जानते हुए भी अन्जान बने रहते हैं कि उनके जाने के बाद घर में कैसा कोहराम मचता है। अखबार मांगने वालों का दूसरा वर्ग ट्रेनों तथा बसों में उपस्थित रहता है। आपने अखबार खरीद कर सीट पर रखा नहीं कि मांगने वाले हाजिर। अगर एक बार अखबार इनके हाथ में चला गया तो उसका भगवान ही मालिक है। पहले आपका अखबार कई हिस्सों में बंटेगा और कई मांगने वाले एक-दूसरे से अपना हिस्सा प्राप्त करते रहेंगे। फिर पूरे डिब्बे में या बस में फैल जाएगा। अगर आप खुद अपना अखबार पढ़ना चाहते हैं, तो दौड़-दौड़कर उसके पन्ने एकत्रित करने का प्रयास करते रहिए। इसकी कोई गारंटी नहीं है कि दौड़-भाग के बाद  आपको अखबार के सभी पन्ने मिल जाएंगे। उनमें से कुछ से बच्चों की नाक साफ हो चुकी होगी, कुछ पर खाना खाया जा चुका होगा और कुछ हवाई जहाज के रूप में इधर से उधर तैरते नजर आएंगे।
    सबसे आनंददायी स्थित तब आती है जब आप ही का अखबार पढ़ने के बाद, आपको वापस करते समय पढ़ने वाला नसीहत देता है कि जब पैसा खर्च किया जा रहा है, तो केाई बेहतर अखबार खरीदा जाना चाहिए। ऐसे में मन तो करता है कि सलाह देने वाले से कहा जाए कि पंसद-नापसंद का इतना ही ख्याल है तो अपना अखबार खुद क्यों नहीं खरीद लेते, लेकिन आप कुछ कहंे इससे पहले ही वे किसी दूसरे सज्जन से लिए हुए अखबार के पन्नों मंे डूब चुके होते हैं।
    अखबार पढ़ने की तरह ही एक शौक है, पत्रिकाएं पढ़ने का। जो लोग पैसे खर्च कर पत्रिकाएं खरीदते हैं, वे अपनी पत्रिकाएं पढ़ने में कम और उन्हें पड़ोसियों से वापस प्राप्त करने में ज्यादा समय व्यतीत करते हैं। नयी पत्रिका के घर में आते ही पड़ोसियों का पे्रम भाव अचानक बढ़ जाता है और हम असहाय देखते रहते हैं। पे्रम के मुखालिफ कोई तर्क आज तक गढ़ा नहीं जा सका है।                                                            ’1996 में छपा संपादकीय एक बार फिर पढ़े

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