लखनऊ। धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन और गांद्दार नरेश शकुनी के षड़यंत्र ने हस्तिनापुर से दूर वार्णाव्रत में पाण्डवों को माता कुन्ती समेत जीवित जला देने के लिए लाक्षागृह का निर्माण कराया था। हम अपने ही जीवित शरीर को जलाने के लिए बहुमंजिली इमारतों व सघन बाजारों का निर्माण बेखौफ कर रहे हैं। कहीं कोई हिचक नहीं जबकि हर साल गरमी के दिनों में अग्निकांडों से होने वाली दुर्घटनाओं में तमाम जानमाल का नुकसान होता है। फिर भी आग से बचाव के साधनों का इस्तेमाल करने से परहेज किया जाता है।
राजधानी लखनऊ में धड़ाघड़ बन रही बहुमंजिली इमारतों में हर दूसरी इमारत और इनमें बने बाजार सरासर अग्नि का ईंधन हैं। इन इमारतों व बाजारों में अग्निरोधी संयंत्र व स्मोक सेंसर नहीं लगाये जा रहे हैं। यही हाल अमीनाबाद, यहियागंज, चैक, नक्खास, चारबाग, आलमबाग जैसे बाजारों व गल्ला मंडियों का भी है। गरमी की आमद के साथ ही पिछले महीने अलीगंज की नवीन गल्लामण्डी में भीषण आग लगी थी, जिसमें करोड़ंो का माल स्वाहा हो गया। हादसे के खौफ से एक व्यापारी मोहम्मद खलील को दिल का दौरा पड़ गया। आग पर बारह घंटे जूझने के बाद काबू पाया जा सका। हालात बताते हैं कि मंडियों में आमतौर पर आग से सुरक्षा के प्राथमिक उपकरण तक नहीं होते। ऐसे ही बिजली के तारों व उपकरणों से बाकायदा ठिठोली की जाती है। तारों का उलझा हुआ जाल तो सभी ने देखा होगा लेकिन कूलर, पंखे और एसी का दुरूपयोग जिस तरह होता है, वह यमराज की खिल्ली उड़ाने जैसा लगता है। खुले मैदान में, टीन शेड के नीचे, फुटपाथों पर लगी दुकानों में चलते पंखे/कूलर व सघन बाजारों की दुकानों में चलते एसी की गरम हवा की निकासी की बदइंतजामी के साथ इनकी काम चलाऊ वायरिंग/फिटिंग अग्निकांडों के लिए काफी होती है।
बहुमंजिली भवनों में तो इससे भी बदतर हालात हैं। बिजली के तारों का उलझा जाल, हवा-गैस की निकासी का पर्याप्त इंतजाम नही। अग्निरोधी यंत्रों का कोई नामोंनिशान नहीं। उचित सेवादार भी नहीं। इमारत के बेसमेंट गैस चैंबर की शक्ल में बनाये जाते हैं। फिर भी अग्निशमन, नगर निगम, विकास प्राधिकरण, जलकल विभागों से अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी हो जाते हैं। सैकड़ों भवन ऐसे हैं जिनका नक्शा केवल तीन मंजिलों का स्वीकृत हुआ लेकिन उनका निर्माण हुआ है छः मंजिल तक और इन भवनों में बाकायदा बिजली के कनेक्शन स्वीकृत लोड से अधिक के मौजूद हैं। विद्युतकर्मी भी इन पर न कोई आपत्ति करते न ही जलकल विभाग इनसे पूछता है कि इमारत में पानी कहां से आता है? और तो और ये इमारतें नगर निगम को भवन कर तक नहीं देतीं, क्यांेकि उनका कर निर्धारण करने की दिलचस्पी मेयर, नगर आयुक्त से लेकर किसी पार्षद या कर्मचारी में नहीं है।
राजधानी के अधिकतर इलाकों में बिजली की बदइंतजामी, बिजली चोरी आम है। उनमें बहुखण्डी इमारतें सबसे आगे हैं और यह सब सरकारी कर्मचारियांे के बगैर मिलीभगत के संभव है? होटलों, रेस्टोरेन्ट व अन्य व्यावसायिक केन्द्रों में भी कमोबेश यही हालात हैं। इससे भी बदतर हालात घरों की चहारदीवारी के भीतर हैं। गरमी के दिनों में राजधानी का एक बड़ा इलाका बगैर बिजली के गुजारा करता है। जिससे उस इलाके के लोग पानी, हवा को जहां तरसते हैं, वहीं सूर्यदेव के प्रकोप से लोहे व सीमेंट से निर्मित घरों में अधजले से रहने को मजबूर होते हैं।
उस पर मच्छरों, चूहों, बन्दरों का हमला उन्हें बीमार बना देता है। डायरिया, मलेरिया, डेंगू जैसे रोगों का फैलाव अच्छी खासी आबादी में कहर बन जाता है। गो कि समूची राजद्दानी ही लाक्षागृह साबित हो रही है चुनांचे खुदा न खास्ता कोई भीषण अग्निकांड का हादसा हो जाय तो बीस लाख पाण्डवों (मनवों) को कौन और किस तरह बचायेगा? इस सवाल की भयावहता को समझकर क्या लखनऊ का नागरिक प्रशासन कोई समझदारी भरा कदम उठाना पसन्द करेगी?
राजधानी लखनऊ में धड़ाघड़ बन रही बहुमंजिली इमारतों में हर दूसरी इमारत और इनमें बने बाजार सरासर अग्नि का ईंधन हैं। इन इमारतों व बाजारों में अग्निरोधी संयंत्र व स्मोक सेंसर नहीं लगाये जा रहे हैं। यही हाल अमीनाबाद, यहियागंज, चैक, नक्खास, चारबाग, आलमबाग जैसे बाजारों व गल्ला मंडियों का भी है। गरमी की आमद के साथ ही पिछले महीने अलीगंज की नवीन गल्लामण्डी में भीषण आग लगी थी, जिसमें करोड़ंो का माल स्वाहा हो गया। हादसे के खौफ से एक व्यापारी मोहम्मद खलील को दिल का दौरा पड़ गया। आग पर बारह घंटे जूझने के बाद काबू पाया जा सका। हालात बताते हैं कि मंडियों में आमतौर पर आग से सुरक्षा के प्राथमिक उपकरण तक नहीं होते। ऐसे ही बिजली के तारों व उपकरणों से बाकायदा ठिठोली की जाती है। तारों का उलझा हुआ जाल तो सभी ने देखा होगा लेकिन कूलर, पंखे और एसी का दुरूपयोग जिस तरह होता है, वह यमराज की खिल्ली उड़ाने जैसा लगता है। खुले मैदान में, टीन शेड के नीचे, फुटपाथों पर लगी दुकानों में चलते पंखे/कूलर व सघन बाजारों की दुकानों में चलते एसी की गरम हवा की निकासी की बदइंतजामी के साथ इनकी काम चलाऊ वायरिंग/फिटिंग अग्निकांडों के लिए काफी होती है।
बहुमंजिली भवनों में तो इससे भी बदतर हालात हैं। बिजली के तारों का उलझा जाल, हवा-गैस की निकासी का पर्याप्त इंतजाम नही। अग्निरोधी यंत्रों का कोई नामोंनिशान नहीं। उचित सेवादार भी नहीं। इमारत के बेसमेंट गैस चैंबर की शक्ल में बनाये जाते हैं। फिर भी अग्निशमन, नगर निगम, विकास प्राधिकरण, जलकल विभागों से अनापत्ति प्रमाण-पत्र जारी हो जाते हैं। सैकड़ों भवन ऐसे हैं जिनका नक्शा केवल तीन मंजिलों का स्वीकृत हुआ लेकिन उनका निर्माण हुआ है छः मंजिल तक और इन भवनों में बाकायदा बिजली के कनेक्शन स्वीकृत लोड से अधिक के मौजूद हैं। विद्युतकर्मी भी इन पर न कोई आपत्ति करते न ही जलकल विभाग इनसे पूछता है कि इमारत में पानी कहां से आता है? और तो और ये इमारतें नगर निगम को भवन कर तक नहीं देतीं, क्यांेकि उनका कर निर्धारण करने की दिलचस्पी मेयर, नगर आयुक्त से लेकर किसी पार्षद या कर्मचारी में नहीं है।
राजधानी के अधिकतर इलाकों में बिजली की बदइंतजामी, बिजली चोरी आम है। उनमें बहुखण्डी इमारतें सबसे आगे हैं और यह सब सरकारी कर्मचारियांे के बगैर मिलीभगत के संभव है? होटलों, रेस्टोरेन्ट व अन्य व्यावसायिक केन्द्रों में भी कमोबेश यही हालात हैं। इससे भी बदतर हालात घरों की चहारदीवारी के भीतर हैं। गरमी के दिनों में राजधानी का एक बड़ा इलाका बगैर बिजली के गुजारा करता है। जिससे उस इलाके के लोग पानी, हवा को जहां तरसते हैं, वहीं सूर्यदेव के प्रकोप से लोहे व सीमेंट से निर्मित घरों में अधजले से रहने को मजबूर होते हैं।
उस पर मच्छरों, चूहों, बन्दरों का हमला उन्हें बीमार बना देता है। डायरिया, मलेरिया, डेंगू जैसे रोगों का फैलाव अच्छी खासी आबादी में कहर बन जाता है। गो कि समूची राजद्दानी ही लाक्षागृह साबित हो रही है चुनांचे खुदा न खास्ता कोई भीषण अग्निकांड का हादसा हो जाय तो बीस लाख पाण्डवों (मनवों) को कौन और किस तरह बचायेगा? इस सवाल की भयावहता को समझकर क्या लखनऊ का नागरिक प्रशासन कोई समझदारी भरा कदम उठाना पसन्द करेगी?
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