Monday, March 31, 2014

अमां मियां... वोट डालने मंे भला कैसी कोताही

यकीनन वोट डालना राजनैतिक धर्म हैं। स्वाभिमान की रक्षा का ताकतवर शस्त्र है। दुखियारों का शास्त्र है। समाधान का सामथ्र्य है। और लोकतंत्र के मानचित्र पर जाति, धर्म, लिंग भेद, आर्थिक असमानता, असुरक्षा, लूट, हिंसा के लगातार फहराते परचम को उखाड़ फेंकने का संकल्प है। तो जनाब अपना वोट जरूर डालिये। बेशक लोकतंत्र को सत्य के राजमार्ग पर सरपट दौड़ते रहने के लिए आपका वोट डालना जरूरी है। इससे भी अधिक जानना जरूरी है जलती हुई मोमबत्ती के पिघलने से पहले ही ‘ओह... गाॅड...’ कहकर गूंगे इंकलाब के साझीदारों की हकीकत।
    आंकड़े उठाकर देख लीजिए 2009 के लोकसभा चुनाव में विजयी 543 सांसदों में केवल 120 सांसदों के ही चुनाव क्षेत्रों के पचास फीसदी मतदाताओं ने अपने मत का इस्तेमाल किया था। गो कि 423 सीटों पर जीते सांसदों को आधे से भी कम मतदाताओं की मान्यता प्राप्त थी। चुनाव में जितने वोट पड़ते हैं, उनमें सर्वाधिक वोट पाने वाला ही विजयी घोषित होता है। लेकिन संसदीय क्षेत्र में कितना वोट था, उसमें कितना डाला गया कोई नहीं देखता? और विजयी प्रत्याशी को कितना वोट मिला? आमतौर से एक संसदीय क्षेत्र में कितना मतदाता है, उसमें कितना पुरूष, कितना महिला है कि जानकारी सार्वजनिक रहती हैं। इस साल 84 करोड़ से अधिक मतदाता 543 सांसद चुनेंगे यानी एक सांसद 15.5 लाख मतदाताओं का संसद में प्रतिनिधित्व करेगा। सच में ऐसा होगा? आमतौर से आम चुनावों में औसतन 35-40 फीसदी ही मतदाना हो पाता है। उसमें भी 11-12 फीसदी का ही वोट विजयी प्रत्याशी को मिलता है। यह हालात 1951-52 से अब तक जस के तस हैं। खासकर शहरी क्षेत्रों में मतदान को अवकाश का दिन मान लिया जाता है। पढ़ा-लिखा समाज उस दिन मनोरंजन के साधन तलाशता है या बिस्तर पर निरोध पर शोध करने में अपनी ऊर्जा खर्च करता है। कमोबेश गांवों में भी यही हालात हैं। इसके पीछे कई वजहें हैं।
    पहली और सबसे अहम वजह है, चुनाव कराने के तरीके की जिसमें पैसा, पौरूष और प्रपंच का तमाशा या दुरूपयोग खुलकर होता है। फिर भी 15.5 लाख मतदाताओं में आधे से अधिक मतदाता उदासीन रहेंगे। इनमें भी पचास फीसदी वोट देने के मायने जानते ही नहीं या उन्हें चुनाव का अर्थ ही नहीं पता होता। इन्हीं में सत्तर फीसदी मतदाताओं को प्रत्याशियों व राजनैतिक दलों की जानकारी तक नहीं होती। कहने को मोबाइल और टीवी की पहुंच आम है लेकिन जिससे इन्हें चलना है, वह बिजली लापता रहती है। जब आती है तो सास-बहू, महादेव, नाच-गाने, सिनेमा का वर्चस्व हो जाता है।
    दूसरा कारण है, चुनाव आयोग ने एक संसदीय क्षेत्र में खर्च की सीमा बढ़ाकर 70 लाख कर दी लेकिन प्रत्याशियों के मतदाताओं तक पहुंचने के तमाम रास्तों पर अवरोध खड़े कर दिये। अनुशासन के नाम पर अवैज्ञानिक फैसले थोप दिये गये। नौ चरणों में चुनाव होने हैं, अधिकतर उम्मीदवारों को नामंकन करने के बाद अपना प्रचार करने के लिए लगभग पन्द्रह दिन ही मिल पायेंगे। इतने कम समय में एक आदमी 15.5 लाख लोगों तक अपनी पहुंच कैसे बना पायेगा? वह भी सीमित पोस्टर, बैनर, मोटर गाडि़यों, समर्थकों, चुनाव सभाओं व अन्य संसाधनों के बगैर, अखबार, टीवी, मोबाइल का प्रचार भी उसके खर्चाें की जद में होता है।
    तीसरा कारण है, राजनैतिक दलों की प्रतिस्पर्धा में जिताऊ प्रत्याशी की तलाश में अंतिम समय में प्रत्याशी का चयन। दलबदलुओं के इंतजार में भावी उम्मीदवारों के बीच असमंजस का महौल बनाये रखना। कई बार उम्मीदवारों का चयन हो जाना फिर उन्हें बदल कर दूसरे प्रत्याशी का एलान कर देना। ऐसे में दोनों ही अपना प्रचार नहीं कर पाते और मतदाता भी असमंजस में अपनी पसंद के नेता को न पाकर वोट नहीं करने जाता। या फिर जिसे परिवारवाले, गांववाले, दबंग कार्यकर्ता कहते हैं उसे अपना वोट दे आता है। अब सबसे अहम बात भ्रष्टाचार की कर ली जाय। सांसद के चुनाव में विजयी हो जाने के बाद भी एक सांसद अपने सभी मतदाताओं से रू-ब-रू नहीं हो पाता। यह संभव भी नहीं है। मतदाता उसके पास तक काफी तादाद में पहुंचते हैं। उनमें भी वर्गीकरण होता है। कुछ अपने सांसद का दर्शन भर कर पाते हैं, कुछ पैर छू पाते हैं। कई अपनी समस्या जबानी या प्रार्थना पत्र के जरिए बता पाते हैं, तो कई बाकायदा चाय, खाना आने-जाने का किराया तक के हकदार हो जाते हैं। जरा गौर करिये 15.5 लाख मतदाताओं में 150 मतदाता रोज चाय, नाश्ता, खाना और किराये के खर्च का बोझ सांसद की जेब पर डालेगा तो पांच साल में क्या खर्च आयेगा? यदि औसत सौ रूपया प्रति व्यक्ति खर्च माना जाय तो पांच साल में यह खर्च 2.70 करोड़ रूपया बैठता हैं। कार्यकर्ताओं पर खर्च अलग, चुनाव लड़ने का खर्च अलग और उसकी अपनी व अपने परिवार की आवश्यकताओं के खर्चे अलग हैं। इससे भी खतरनाक स्थिति तब होती है जब मतदाता कहता है, ‘सांसद जी आप चाह लेंगे तो कुछ भी हो सकता है।’ यानी लोग यह मानकर चलते हैं कि सांसद जी सभी समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हैं। वे लोग यह मानने या समझने को कतई तैयार नहीं कि समस्याओं के समाधान की प्राथमिकताएं हो सकती हैं या स्थानीय, प्रांतीय, केंद्रीय समस्याओं के निवारण के लिए अलग-अलग प्रतिनिधि होते हैं। ऐसे हालात में वायदों से मुकर जाने का आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? तो जनप्रतिनिधि को भ्रष्ट कौन बना रहा हैं?
    तो फिर इसे कौन बदलेगा? इस सवाल का जवाब है, आपका मतदान। आप अपने वोट का इस्तेमाल करिये और चुनी हुई सरकार पर दबाव बनाइये कि वह चुनाव कराने के तरीकों में बदलाव लाये। मतपत्र की जगह इलेक्ट्रानिक मशीन ने ले ली, तो उसकी जगह ‘एटीएम’ क्यों नहीं ले सकते? जगह-जगह पोलिंग बूथ, सुरक्षाबल, चुनाव अधिकारी-कर्मचारियों की फौज का खर्च? आपको भी सोंचना होगा कि हमारी भूमिका क्या है और हमारा लोभ क्या ठगों को नहीं पैदा करता? अपने अधिकार का सच और अपने कर्तव्य की हकीकत जाननी होगी। इस पर संजीदा होकर ईमानदारी से सोंचने की आवश्यकता है। बहरहाल खालिस लखनऊ की जुबान में यही कहूंगा, अमां मियां वोट डालने में भला कैसी कोताही!

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