Monday, March 31, 2014

लालकिला एक्सप्रेस-2014 में मचा है बवाल

लखनऊ। अब यह सच्चाई आम हो गयी है कि ‘लालकिला एक्सप्रेस-2014’ को साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की पटरियों पर दौड़ाकर देश बचाओं का जयकारा लगाते हुए दिल्ली के लालकिले की छाती पर अपना अंगदी पांव रखने को बेचैन हैं सभी सियासी दल और उनके महत्वाकांक्षी सरदार। इस शातिराना चाल के फंदे में युवा शक्ति और महिलाओं को लोभ की रस्सी से जकड़ने के तमाम तमाशाचारी जतन जारी हैं। इससे आगे गरियाऊ आतंक के बलबूते और छाती कूटकर तैयार किये गये झूठे तर्काें के सहारे जनशक्ति को बरगलाने का प्रयोग किया जा रहा है। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाये तो देश की युवाशक्ति अब ऐसे किसी नेतृत्व को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं रह गया है, जो किसी भी तरह की विशिष्ठता का जामा पहनकर सिर्फ सपने लेकर सामने आये। उसके कंधों का इस्तेमाल करते हुए इतिहास पुरूष बनकर उसे आतंकित करे। और महिलाएं जिन्हें एक सोंची समझी साजिश के तहत जोर-जुल्म का भय दिखाकर या गृहस्थी की जटिलताओं का महंगा मानचित्र उनके घर-आंगन में फैलाकर उन्हें बाजार के हवाले करने की कलाकारी को बखूबी समझ रही हैं। इन तर्काें की गवाही में मतदान के गिरते हुए प्रतिशत के आंकड़े रखे जा सकते हैं।
    इसके अलावा देश के मौजूदा निजाम की बेईमानों, धन्नासेठों की सरपरस्ती और राजनैतिक सभ्यता का गिरता हुआ चरित्र न केवल सामान्य जनजीवन को प्रभावित कर रहा है, बल्कि पुलिस के एक अदना सिपाही से लेकर प्रशासनिक सेवा के बड़े अधिकारी तक परेशान हैं। अपने सर पर बैठे अयोग्यों के तुगलकी फरमानों से उनकी नाक में दम हो गया है। नतीजा यह कि समूचे राष्ट्र की जनशक्ति एक ऐसे नेतृत्व की तलाश में बेचैन है जो उनकी योग्यता का मूल्य समझे और देश को वैज्ञानिक सोंच के आधार पर दुनिया के सामने पूरी जिम्मेदारी से उभार सके।
    हाल-फिलहाल तो यह सपना पूरा होता दिखाई नहीं देता। ‘लालकिला एक्सप्रेस-2014’ में सवार प्रतीक्षारत प्रद्दानमंत्री पद के ग्यारह दावेदारों में क्षेत्रीयता का प्रभाव इस कदर गहरा है कि नई सरकार की भावी शक्ल तक द्दंुद्दली दिखाई दे रही है। इससे इस बात की ताईद नहीं होती कि ‘अमूल बेबी’ और ‘मौत के सौदागर’ का कोई विकल्प नहीं होगा। देश की बेहतरी के लिए वैकल्पिक तौर पर सक्रिय ताकतों को जनसमर्थन जुटाने के लिए जूझते हुए देखकर लगता है कि एक अघोषित पृष्ठभूमि तैयार हो रही है।
    स्वामी विवेकानन्द ने कभी कहा था, ‘भारतीय जनमानस में धर्म इतनी गहराई से पैठा हुआ है कि अगर आप उसे भौतिक या समाज विज्ञान भी पढ़ाना चाहते हैं और आप उसे धर्म की भाषा में पढ़ा सकते हैं, तो आपकी बात वह बेहतर ढंग से समझ सकेगा।’ इस कथन के मर्म का अक्षरशः पालन करने में पहले भारतीय जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी अगली कतार में खड़े दिखते हैं। दीनदयाल उपाध्याय की ‘पदयात्रा’, डाॅ0 मुरली मनोहर जोशी की ‘एकता यात्रा’, लालकृष्ण अडवाणी की ‘रथयात्रा’ और अब मोदी की ‘चाय चैपाल’ का उबाल सामने है। राममंदिर से विश्वनाथ मंदिर तक बोले जाने वाले लोक लुभावन नारे और देश में शौचालय कम देवालय ज्यादा पर मचा बवाल, उस पर भाजपा नेता सुशील मोदी की ढिठाई ‘भगवान ने हर-हर महादेव का कोई पेटेंट थोड़े ही कराया था’ साबित करता है कि मंदिर निर्माण के लिए ‘जय राम जय जय राम’ मंत्र जारी रहेगा, भले ही अयोध्या व गुजरात दंगों के बाद लगातार बम विस्फोट होते रहें, आतंकवादी हमले जारी रहें, हत्याएं होती रहें।
    नरेन्द्र मोदी गुजरात के विकास का चमकदार वृत्तचित्र दिखाकर महज शहरी 250 सीटों पर पूरा जोर लगा रहे हैं। इन्हीं सीटों पर टीवी, मोबाइल और इंटरनेट (सोशल मीडिया) का फैलाव है। इसी पर भाजपा के प्रचार का दारोमदार टिका है। इसके अलावा 293 सीटों पर वह दूसरे दलों पर भरोसा कर रही है। उप्र व बिहार की 120 सीटों में 100 पर ही उसके उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, उनमें भी के साठ-सत्तर सीटों पर ही वे जंगजू हैं। ऐसे में मोदी और उनकी भाजपा कैसे देश बनाएगी या देश बचाएगी? दूसरी ओर उनके सामने उप्र की देहाती मिट्टी में खेल खाकर बड़े हुए और दंगलों में कुश्ती लड़कर मजबूती हासिल करने वाले मुलायम सिंह यादव राजनीति के अखाड़े में भी गरीबों की हिमायत का अंगौछा अपने सर पर बांधे पूरी ताकत से अपनी साइकिल दौड़ा रहे हैं। उससे भी खतरनाक हालात भाजपा के अपने ही घर में है। जानकार बताते हैं कि बागवत का झंडा बुलंद करने वालों या बूढ़े नेताओं से बेपरवाह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की चाहत महज 150 सीटों पर विजय पाने की है, जिससे सरकार बनाते समय घटकदल उन्हें प्राथमिकता दें। इसी योजना को मूर्तरूप देने की गरज से पं0 अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सचिव रहे शिवकुमार को साथ लेकर लालजी टंडन (सांसद) के कंधे पर हाथ रखे पिछले हफ्ते लखनऊ के राजपथ पर टहल गये। इसकी गवाही में उन्हीं जानकारों का बड़ा वजनदार तर्क है, उप्र में कल्याण सिंह की सरकार बनावते हुए खुद मुख्यमंत्री बन बैठे थे, कांग्रेस के 22 बागियों की लोकतांत्रिक कांग्रेस का समर्थन हासिल करके। यहां मुझे ‘शोले’ फिल्म के जय-वीरू की याद आ रही है, जिसमें जय हर बात का फैसला एक सिक्का उछालकर करता है। वीरू हर बार उसे ही हेड लेने पर कोई एतराज नहीं करता मगर हर बार आता हेड ही था। डाकुओं से मुठभेड़ में जय की मौत के बाद खुलासा होता है कि सिक्के में दोनों ओर हेड ही था। कुछ ऐसा ही मोदी.... मोदी या नमो... नमो भी हैं?
    भाजपा अध्यक्ष के मंसूबे के सामने राम मनोहर लोहिया के परमभक्त समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्द्दियों, हजारों करोड़ की भावी योजनाओं, सफल कुंभ स्नान आयोजन, युवाओं को बांटे गये 15 लाख लैपटाॅप, कर्नाटक में जीती एक सीट, किसानों, बुनकरों और मुसलमानों की हिमायत के साथ भारतीय राजनीति के शीर्ष पर पांव रखने को बेताब पूरी शिद्दत से चुनाव मैदान में है। जिनका जीवन और चिंतन विवादास्पद होने के साथ-साथ समाजवादी जनतंत्र का कायल रहा है। यह बात दूसरी है कि उनके मर्म-कथन की व्याख्या हर कोई अपने-अपने ढंग से करता रहा है। मैनपुरी के साथ आजमगढ़ की सीट पर उनका चुनाव लड़ना उनकी कथनी से अधिक अंतिम महत्वाकांक्षा की परिणीति है। यह सच है कि आजमगढ़ मुस्लिम, यादव बाहुल्य सीट है। उसी तरह बनारस हिन्दू बाहुल्य सीट है। जो लोग देश की आम जनता के सीधे संपर्क में हैं वे इस लड़ाई का नक्शा साफ-साफ देख पा रहे हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि वोट को हिन्दू-मुसलमान के खाने में बांटा जा रहा है। इससे यह साफ जाहिर है कि दोनों दलों के नेताओं को सिर्फ राज करने की चाहत है। देश के फैसले या उसकी समस्याओं को सुलझाने में उनकी कोई रूचि नहीं है।
    कांग्रेस एक खानदानी कारोबार की तरह बंद होने की राह पर चल रही है। राहुल गांधी दलितों की झोपड़ी को अपनी राजनैतिक प्रयोगशाला बनाने में जहां नाकाम रहे, वहीं युवाओं, महिलाओं बड़े-बूढ़ों की कसौटी पर भी खरे नहीं उतरे। उनके अपने दल में ही कई अंधेरी गुफाएं खुल गई हैैं। इनमें से जो आवाजें निकल रही हैं उनमे ंबगावत से अधिक अस्तित्व बचाने की हैं। उनकी पार्टी के सहयोगी दल कई तरह से बेइज्जत करने के बाद भी उनकी पीठ पर लदे हैं और आगे भी लदे रहने को बजिद हैं। यही उनकी ताकत साबित हो सकते हैं। सरकारी लूट, महंगाई और प्लास्टिक बेबी की चीख-चिल्लाहट के बावजूद, शालीनता, शिष्टता भरी मुस्कराहट और बहन प्रियंका की सलाह के साथ मां सोनिया के त्याग-तपस्या की चाणक्य नीति यह साबित करती है कि नेता भले ही सड़क पर बनते हों लेकिन नीतियां सड़कों पर नहीं बन सकतीं। पिछले करीब 150 दिनों में उनके कदमों की आवाज राजनीति की संकरी गलियों में फंस गयी है। इन्हीं गलियों में तास्सुब की नालियों से दुर्गंध उठती है। यह एक खतरनाक संकेत है।
    अखबारी दुनिया और टीवी न्यूज चैनलों के ‘हुल्लड़ दस्ते’ अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, अरविंद केजरीवाल और मोदी के प्रचार का तामझाम फैलाकर देशवासियों को जहां गुमराह करने का काम करते रहे, वहीं ‘निर्भया’ जैसी चटखारेदार खबरों से लोगों को गरम करने का खेल भी खेलते रहे। इसी दस्ते ने ‘आसाराम बापू’ को भगवान बना दिया था। यही ‘हुल्लड़ दस्ता’ आज भी एक बड़े जमघटे का अगुआ है, जो यह बताने में एड़ी से चोटी का जोर लगाए है कि मोदी की छत्रछाया मे ंदेश के 80 करोड़ वोटर खड़े हैं और ‘लालकिला एक्सप्रेस-2014’ में 10 जनपथ की महाबली विधवा सोनिया गांधी, 12-13 माल एवेन्यू में मौजूद काशीराम की तेजस्विनी शिष्या मायावती के लिए कोई जगह नहीं बची है। जबकि हकीकत इसके बिल्कुल उलट है। यादव वीर मुलायम की रणनीति, मायावती की अपने वोट बैंक पर पकड़ और सोनिया गांधी की अपनी छवि का जादुई आकर्षण अभी चुका हुआ दिखाई नहीं देता।

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