Tuesday, November 12, 2013

वाह! वाह! क्या बात है मैं रूपया तुम डाॅलर हो!


राम प्रकाश वरमा
‘गुनगुनाना चाहिए और मुस्कराना चाहिए। जिंदगी है चार दिन हंसना-हंसाना चाहिए।’ उम्मीद और ऊर्जा से भरपूर अंबर की ये लाइने महज कोरी कल्पना नहीं हैं। आज के माहौल में तमाम बेचारगियों, मजबूरियों और आदमी को हर क्षण यथार्थ से जूझने के बावजूद उसकी बेहतरी के पक्ष में इससे सार्थक व सकारात्मक आवाज शायद नहीं हो सकती और यह कविता में ही संभव है।
    कविता, कल्पना और विज्ञान का तालमेल है। इसी कारण सच को जितनी जोरदार आवाज में भावलोक में ले जाती है उतनी ही संजीदगी से पीड़ा की गली में भी खड़ा कर देती है। व्यथा-कथा-व्यंग्य ही नहीं वरन वर्तमान को हास्य के मेघों में संजोकर कहकहों से भरपूर बरखा में आदमी को तरबतर कर देती है। गौर फर्माइए सूर्य कुमार पाण्डेय की लव इकोनाॅमी पर, ‘मैं एक अनुभवी बैट्समैंन और तुम नई बाॅलर हो... मैं रूपया तुम डाॅलर हों’।
    कविता को एक मंच सब टीवी चैनल ने ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ के नाम से दिया है। इसका प्रसारण हर शनिवार व रविवार रात नौ बजे होता हैं जहां कवियों की नई-पुरानी पीढ़ी एक साथ मंच पर होती है। हास्य-व्यंग्य की रचनाओं के बीच उबलते कहकहे और तालियां बजाते हर्षित श्रोताओं का जीवन के प्रति उल्लास और विश्वास नृत्य करता है। इस मंच के सौ एपीसोड की धूम में पढ़ी गईं तमाम लाइने हसंने-हंसाने के साथ आज के हालात पर गंभीरतापूर्वक सोंचने को मजबूर करती हैं। बानगी देखिए।
    लखनऊ के सूर्य कुमार पाण्डेय कहते हैं, ‘फैमिली का बोझ ढोते-ढोते कंधे थक गये’ तो अनामिका अंबर गा उठती हैं, ‘‘आपके जैसी छवि हो वर तो मेरा कवि हो...’ हाथ जोड़ते हुए संजय झाला संुदर सी हरियाणवी में सरकार की कार्यशैली पर तंज भरी उंगली उठाते हैं, ‘सरकार क्या है। वो जो सर पर कार चलाती है। जो सरका सरका कर काम चलाती है।’ वहीं डाॅ0 कुंवर बेचैन की प्रेम में पगी और सकारात्मकता से भरपूर लाइने मुलाहिजा हों, ‘सबकी बात न मानाकर/ खुद को भी पहचाना कर.... दर्द मिले तो गीत बना/दुनिया बहुत सुहानी है। इसे और सुहाना कर।’’
    ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ के मंच पर एक पुरानी परम्परा को नए सिरे से जीवंत किया गया हैं। हर एपीसोड में एक नए कवि को अवसर दिया जाता है। जिसे छुपा रूस्तम की संज्ञा से नवाजा गया है। उसकी पीठ ठोंकने के साथ एक ट्राॅफी देकर उसका उत्साह भी बढ़ाया जाता है। अब तक के सौ एपीसोड में एक से बढ़कर एक नई सोंच वाले कवियों का काव्य-पाठ समूचे भारत ने सुना हैं। सौवें एपीसोड में छुपा रूस्तम के तौर पर आये फिरोज सागर ने जब पढ़ा, ‘खुशी-खुशी बन जा नेता/भाई मेरे राज करेगा/ फिर तेरे आगे कोई न आवाज करेगा...’ तो श्रोता झूम उठे और होस्ट शैलेष लोढ़ा ने एक और गीत की फर्माइश कर डाली तो फिर सागर में लहरें उठीं, ‘भइया-भइया रे मेरे भइया रे/ हमको झगड़ता देख रो रही भारत मइया रे...’। इन कविताओं में चारो और व्याप्त विसंगतियों के प्रति व्यंग्य का स्वर अपनी उदग्रता के साथ दिखा।
    मंचीय कविता का सूत्रपात तो दिनकर, निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के समय में ही हो गया था। लखनऊ में ‘माधुरी’, ‘सुधा’ सम्पादक आचार्य पं0 दुलारेलाल भार्गव ने कवि सम्मेलनों की परम्परा डाली। 1922  से 1975 तक वे मंच पर कवियों को जहां बढ़ावा देने के लिए चांदी/सोने के सिक्के पुरस्कार स्वरूप देते रहे वहीं उनकी कविताओं को अपनी मासिक पत्रिका में व अपने प्रकाशन ‘गंगा पुस्तक माला’ में छापते रहे। ब्रजभाषा के वे स्वयं प्रतिष्ठित कवि थे। उनका कविता प्रेम मात्र इतने से ही जाहिर हो जाता है कि उन्होंने अपने घर का नाम ‘कवि कुटीर’’ रखा था। इतना ही नहीं  उन्होंने ‘कवि-कोविद क्लब’ भी बना रखा था जिसके तहत साप्ताहिक/मासिक कवि गोष्ठियां उनके ‘कवि कुटीर’ में हुआ करती थीं। उनके जीवनकाल का अंतिम कवि सम्मेलन 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में लखनऊ के रवीन्द्रालय सभागार में हुआ था, जिसमें स्वर्गीय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री होते हुए भी काफी देर तक मौजूद रही थीं। दरअसल वे हिंदी के विशाल वट वृक्ष थे। इसके बाद मंचीय कविता को बच्चन, नीरज, रमानाथ अवस्थी आदि ने और स्वस्थ व मजबूत किया।
    ‘वाह! वाह! क्या बात है!’ की बात करते हुए पुरखों की याद इसलिए करनी पड़ी कि किराये के मंचों, ठेके के पंडालों पर लड़ते-झगड़ते भोंड़े कवियों के सस्ते मनबहलाव से उकताये श्रोता कविता से किनारा करने लगे। हालांकि इसका एक कारण टीवी की नई मनोरंजक दुनिया भी है। ऐसे माहौल में कवियों/गीतकारों का ताजा स्वर टीवी पर ही लोकप्रिय हो सकता था। भले ही इसकी टीआरपी का पायदान बहुत ऊँचा न हो या कुछ कवियों का अंदाज न भाये लेकिन ‘गीत के यह हंस तुम तक आ रहे हैं/ और मेरा हाल इनसे जान लेना...’ गुनगुनाता है इसका हर एपीसोड। इसके होस्ट शैलेष लोढ़ा खुद कवि हैं और बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे अतिशय कुशल वक्ता और सुकंठी होने के साथ अपने युवा मन से मंच पर कवियों को मुखरित होने का भरपूर अवसर देते हैं। कई बार तो उन्हें हर्षातिरेक नृत्य करते और साथी होस्ट नेहा के मेहता के साथ मनोरंजक वार्तालाप में आकंठ डूबे हुए देखा जाता है और अंत पंत इतना ही ‘लेकिन धारा की लहर-लहर है कर्मशील।’’

No comments:

Post a Comment