Thursday, September 19, 2013

इतिहास के घूरे पर हिन्दी पुत्र पं. दुलारे लाल भार्गव


अपनी मां को अम्मा और अपने पिता को बप्पा कहने में हम हिन्दी भाषियों को बड़ी शर्म आती हैं। फिर हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधाओं का स्मरण या हिन्दी साहित्य के युग निर्माताओं को प्रणाम करने की सुध हमें कहां रहेगी? आज जिस हिन्दी की समृद्धि का बखान करते हम नहीं थकते या हिन्दी पत्रकार के कन्धे से झोला उतारकर ‘अमिताभ’ बना देने के ‘होर्डिंग’ लगा रहे हैं, उसी हिन्दी को लखनऊ में ‘गणपति बप्पा’ की तरह स्थापित करने वाले हिन्दी पुत्र पं0 दुलारेलाल भागर्व को इतिहास के घूरे में डाल दिया है।
    6 सितम्बर, 1975 को उनकी देह ने लखनऊ के मेडिकल कालेज मंे विश्राम लिया था। तबसे लेकर आज तक हिन्दी जगत में उनकों लेकर कोई सुनगुन नहीं हुई। वे प्रथम ‘देव पुरस्कार’ विजेता थे जो उनकी कृति ‘दुलारे दोहावली’ पर उन्हें ओरछा नरेश ने दिया था। ‘माधुरी’, ‘सुद्दा’ जैसी स्तरीय पत्रिकाओं के सम्पादक थे। हिन्दी के प्रथम प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता तथा कवि सम्मेलनों के माध्यम से हिन्दी के प्रचारक थे। वे अपने जीवन के अंतिम समय तक हिन्दी की सेवा में लगे रहें। 8 जनवरी 1972 को भारत की प्रधानमंत्री रहीं श्रीमती इंदिरा गांधी के सम्मान में उन्होंने लखनऊ के रवीन्द्रालय सभागार में एक कवि सम्मेलन व मुशायरे का आयोजन किया था। इस कवि सम्मेलन मंे स्व. इंदिरा गांधी के साथ पं. कमलापति त्रिपाठी, डाॅ0 राजेन्द्री कुमारी बाजपेई के अलावा मंच पर भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नागर, सिरस जी, शिव सिंह ‘सरोज’ जैसे हिन्दी पुत्रों की एक बड़ी जमात मौजूद थी।
    उन्होंने गंगा-पुस्तकमाला के माध्यम से सैकड़ों लेखक, कथाकार, कवि हिन्दी जगत को दिये। उनमें निराला, प्रेमचन्द, आचार्य चतुरसेन, श्री गुलाब रत्न, ब्रदीनाथ भट्ट, रामकुमार वर्मा, क्षेमचन्द्र सुमन, श्रीनाथ सिंह जैसे नामों की भरमार है। लखनऊ को भगवती चरण वर्मा व अमृतलाल नागर जैसे उपन्यासकार दिये। मुझे कलम पकड़ना उन्होंने ही सिखाया। ‘नवजीवन’ दैनिक समाचार-पत्र में उनके प्रयासों से ही मुझे प्रशिक्षण का अवसर मिला। वे अपनी गंगा-पुस्तकमाला और कवि कुटरी में आये दिन गोष्ठियों का आयोजन किया करते थे। इन गोष्ठियों में हिन्दी जगत के मूर्घन्यों के साथ तबकी राजनैतिक हस्तियां भी होती थी। हिन्दी पत्रकारिता के उस विश्वविद्यालय में मेरा प्रशिक्षण तब चाय-समोसा लाने से शुरू हुआ था। उसी प्रांगण में मैंने प्रतिष्ठा और सम्मान देने पाने का पहला पाठ पढ़ा। वहीं मैंने जाना ब्रजभाषा काब्य की पुनप्र्रतिष्ठापना और ‘तुलसी संवत्’ का प्रचलन सबसे पहले ‘माधुरी’ पत्रिका के माध्यम से उन्होंने ही किया। उनकी प्रयोगवादी लाइनें हैं।
सत-इसटिक-जग फील्ड लै जीवन-हाकी खेलि
वा अनंत के गोल में आतम बालहिं मेल।
उर्दू साहित्य के गढ़ लखनऊ में हिन्दी साहित्य को प्रवष्टि कराने की ही नहीं, उसे अपनी गरिमा के अनुकूल स्थान दिलाने में दुलारे लाला भार्गव की अविस्मरणीय भूमिका रही हैं। इसके साथ ही उन्होंने उर्दू-हिन्दी का पूर्ण समन्वय भी रखा। यही कारण है कि ‘माधुरी’ में हिन्दी के साथ ही उर्दू साहित्य पर भी अनेक लेख छपते थे। लखनऊ में भार्गव जी के इर्द-गिर्द युवा साहित्यकारों को जमघट रहता और बाहर से पधारने वाले साहित्यकार तथा साहित्य प्रेमियों का निवास स्थान दुलारे लाला जी का कवि कुटीर ही था।
    आज कदाचित् यह आश्चर्यजनक लगे कि आकाशवाणी जब लखनऊ में संस्थापित हुई, तो उसमें हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना के लिए दुलारे लाल जी ने अथक सक्रिय एवं सफल प्रयास किया। व्यक्तिगत स्तर पर ‘माधुरी’ में तर्कपूर्ण लेख प्रकाशित करके उन्होंने इस जनोपयोगी कार्य को पूर्ण किया। ये सारे लेख एक स्थान पर एकत्रित किए जाएं। तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का इतिहास स्वतः स्पष्ट हो जायेंगा किस प्रकार भार्गव जी के सुतर्काें के समक्ष विश्वविद्यालय प्रशासन को झुकना पड़ा। फिलहाल एक समाचार ‘माधुरी’ के वर्ष 3 खंड 1 संख्या 4 से प्रस्तुत किया जा रहा है:-
    ‘‘जबसे यह विश्वविद्यालय खुला है तभी से बी.ए. परीक्षा के लिए हिन्दी, उर्दू, बंग्ला या मराठी में एक परीक्षा पास कर लेना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अनिवार्य हैं। परन्तु भारत के अन्य प्राचीन विश्वविद्यालयों के समान बी.ए. की परीक्षा में इतिहास, अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, गणित, संस्कृति इत्यादि के समान हिन्दी या उर्दू को एक स्वतंत्र विषय के रूप में अभी तक नहीं रखा गया। कलकत्ता, बनारस और प्रयाग के विश्वविद्यालयों में तो हिन्दी में एम.ए. की डिग्री तक प्राप्त की जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय की यह कमी यहां के हिन्दी प्रेमी सज्जनों को पहले ही से खटकती थी। इस वर्ष मार्च में इस विश्वविद्यालय के कोर्ट के अद्दिवेशन में पं0 ब्रजनाथ जी शर्मा ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि बी.ए. में हिन्दी और उर्दू भी स्वतत्र विषय के रूप में हों। इसके समर्थन में उन्होंने एक सारगर्भित, भाषण दिया। कुछ सज्जनों के भाषणों के बाद एक पादरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े जोरदार शब्दों में समर्थन किया। उसका इतना असर हुआ कि शर्मा जी का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ। यह प्रस्ताव एक सिफारिश के तौर पर था। उसका यहां के आर्ट्स फैक्ल्टी और एकेडेमिक कौंसिल में पास होना आवश्यक था। इस वर्ष वह इन दोनों सभाओं में भी पास हो गया और आगामी वर्ष से बी0ए0 की परीक्षा के लिए हिन्दी और उर्दू भी स्वतंत्र विषय होंगे। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात है, यह प्रस्ताव पास कराने में सुदूर मद्रास प्रांत के रहने वाले प्रोफेसर शेषाद्री और डाॅ0 बी.एस. राम ने बड़ा परिश्रम किया। इनका हिन्दी प्रेम सराहने योग्य है। हमें लज्जा के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि इन्हीं सभाओं के कुछ अन्य भारतीय सदस्य ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रस्ताव के समर्थन में भाषण देना तो दूर रहा, उसके पक्ष में अपना मत तक नहीं दिया। क्या हम आशा कर सकते हैं कि शीघ्र ही लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी एम.ए. की परीक्षा के लिए भी एक स्वतंत्र विषय के रूप में रखी जायेगी।
    इस संदर्भ में यह भी लिखना समीचीन और उपयुक्त होगा कि दुलारे लाल जी के पश्चात्वर्ती परिश्रम से तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष (बाद में उपकुलपति) डाॅ0 सुब्रहमण्यम ने हिन्दी विषय को स्वतंत्र रूपेण संस्कृत विभाग का ही एक अंग बनाना स्वीकार किया। इस प्रकार हिन्दी का लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ और भार्गव जी के अनन्य मित्र श्री ब्रदीनाथ भट्ट सर्वप्रथम हिन्दी के प्रथम प्राध्यापक नियुक्त हुए।’’
    अफसोस हिन्दी पत्रकारिता व हिन्दी साहित्य के पुरोधा को पाखण्डी पितृपक्ष (हिन्दी पखवारा/हिन्दी दिवस) के हिमायती भी भूले गये। आज महज बाजार के मूल्यों पर सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लिए अपने ही मित्रों साथियों का तर्पण करने का चलन है। तभी तो हमबिस्तरी और अनैतिक सम्बन्धों को लिखकर चटखारेदार चाट बेचने से भी मन नहीं भरता तो ‘छिनाल’ कारतूस दाग कर नामवर हो जाते हैं। फिर भला आद्दुनिक हिन्दी के युग निर्माता के चित्र के नीचे अगरबत्ती जलाकर दो फूल रखने की फुर्सत किसे हैं।
हिन्दी-द्रोही उचित ही तुव अंग्रेजी नेह;
दई निरदई पै दई नाहक हिन्दी देह।
आदरणीय गुरूवर की इन्हीं लाइनों का स्मरण करते हुए उन्हें शत्-शत् नमन। चरणवंदना!

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