Tuesday, November 6, 2012

हिन्दी के स्वर्णयुग में भी था बाजार


आरोप और आलोचना के नामवर प्रेमचंद्र की फोटो पर अपने पंजों के बल खड़े होकर गुलाब के फूलों की माला पहनाते हुए हिन्दी के स्वर्णयुग को जातियों के खांचे में बांटने का अपराध जानबूझकर लगातार करते रहे हैं। उस पर जिद यह कि उसे शोध मान लिया जाए। ऐसा ही एक प्रयास ‘हिन्दुस्तान’ हिन्दी दैनिक समाचार-पत्र 26 जुलाई, 2000 के अंक में ‘लखनऊ की अदालत में प्रेमचंद के खिलाफ नालिशे दीवानी’ लेख के जरिये किया गया था। उसके उत्तर में मैंने स्वयं सुबूतों व प्रेमचंद की स्वीकारोक्ति के साथ लेख लिखा, जिसे ‘एक पहलू यह भी’ के शीर्षक से उसी पृष्ठ पर 30 अगस्त, 2000 के अंक में ‘हिन्दुस्तान’ ने छापा था। नई पीढ़ी के लिए एक बार फिर यहां छापा जा रहा हैं। -संपादक
    चिता की ठंडी राख से पवित्र भूमि पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचकर उसके पुण्य को, उसकी कीर्ति को, उसकी पवित्रता को कालंकित नहीं किया जा सकता। और न ही सच के मुंह में झूठ की जुबान डाली जा सकती है। जब-जब ऐसे प्रयास होते हैं, तब-तब नई पीढ़ी को इतिहास के जंगलों में भटकना पड़ता है। हिन्दी के माथे की बिन्दी प्रेमचन्द अकेले ‘मोटे रामजी शास्त्री’ या ‘सोजेवतन’ के लिए ही नहीं विवादों में फंसे थे, वरन ‘रंगभूमि’ थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ व ‘कायाकल्प’ हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित होने के विवाद में भी फंसे थे। यह दोनों विवाद उस समय की ख्याति प्राप्त पत्रिका ‘सरस्वती’ व ‘सुधा’ में छपे थे। प्रेमचन्द के स्पष्टीकरण भी छपे थे। बावजूद इसके पं. दुलारेलाल भार्गव ने अपने प्रकाशन ‘गंगा पुस्तक माला’ से ‘रंगभूमि’ को 1924 में प्रकाशित किया। ‘रंगभूमि’ के लिए पं. दुलारेलाल भार्गव ने आठारह सौ रूपया उस समय दिया था।
    प्रेमचन्द की रंगभूमि तथा थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ के साम्य को श्री अवध उपाध्याय ने सरस्वती के सन् 26 की अंकों में ‘गणित के समीकरणों’ द्वारा प्रमाणित करने की चेष्ठा की थी। प्रेमचन्द ने ‘अपनी सफाई’ में इसका स्पष्टीकरण स्वयं कर दिया था। फिर भी वह लेखमाला निकलती ही रही थी। बाद में श्री रूद्र नरायण अग्रवाल ने एक विस्तृत लेख द्वारा श्री उपाध्याय के आरोपों का पूर्णतः खंडन किया था।
उपाध्याय जी के आरोप
1- एक से अधिक नायक-नायिकाओं का समावेश।
2-वैनिटी फेयर की अमेलिया, रंगभूमि की सोफिया से, जिसमें कुछ भाग ‘वैनिटी फेयर’ के दूसरे नारी पात्र रेबेका का भी है, काफी मिलती-जुलती है।
3-रेबेका का, संभवतः सोफिया के साम्य से बचे हुए अंश का, इंदु का साथ साम्य है।
4- जार्ज आसवर्न का विनय से साम्य है।
    श्रीमती गीतालाल एम.ए., पी.एच.डी. रंगभूमि पर थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ का प्रभाव उसके नाम के चुनाव अथवा विस्तृत पट की दृष्टि से पड़ा है। पर नारी पात्रों पर तो अवश्य नही है।
    इसी प्रकार एक लेख में शिलीमुख ने प्रेमचन्द की ‘विश्वास’ कहानी को हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर पूर्णतः अवलम्बित बताया था (सुधा 10/27) यह कहानी पहले ‘चांद’ में छपवायी थी। फिर ‘प्रेम प्रमोद’ नाम कहानी संग्रह में उसने पहली कहानी का स्थान पाया, शिलीमुख का कहना था कि ‘एटर्नल सिटी’ एक उपान्यास है और ‘विश्वास’ एक कहानी, इसलिए प्रेमचन्द की रचना उस पर अवलम्बित होने पर भी तर्कयुक्त और संगत नहीं हो सकी है, बल्कि विकृत और अविश्वसनीय हो गयी है। इस लेख के साथ ही प्रेमचन्द जी का प्रतिवाद शीर्षक से सुधार सम्पादक श्री दुलारे लाल भार्गव के नाम प्रेमचन्द का पत्र भी छपा था। उन्होंने ‘शिलीमुख’ के आरोपों को इन शब्दों में स्वीकार किया था।
    प्रिय दुलारे लाल जी!
हमारे मित्र पं. अवध उपाध्याय तो ‘काया कल्प’ को ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित बता रहे थे। मि. शिलीमुख ने उनको बहुत अच्छा जवाब दे दिया। मैं अपने सभी मित्रों से कहा चुका हूं कि ‘विश्वास’ केवल हालकेन रचित ‘एटर्नल सिटी’ के उस अंक की छाया है। जो वह पुस्तक पढ़ने के बाद मेरे हृदय पर अंकित हो गया।.... छिपाने की जरूरत न थी और न है। मेरे प्लाट में ‘एटर्नल सिटी’ से बहुत कुछ परिवर्तन हो गया, इसलिए मैंने अपनी भूलों और कोताहियों को हालकेन जैसे संसार प्रसिद्ध लेखक के गले मढ़ना उचित न समझा। अगर मेरी कहानी ‘एटर्नल सिटी’ का अनुवाद, रूपांतर या संक्षेप होती, तो मैं बड़े गर्व से हालकेन को अपना प्रेरक स्वीकार करता। पर ‘एटर्नल सिटी’ का प्लान मेरे मस्तिष्क में आकर न जाने कितना विकृत हो गया। ऐसी दशा में मेरे लिए हालकेन को कलंकित करना क्या श्रेयकर होता?... फिर भी मेरी कहानी में बहुत कुछ अंश मेरा है, चाहे वह रेशम में टाट का जोड़ ही क्यों न हों?
-‘प्रेमचन्द’।
    प्रेमचन्द जी की ‘मोटेरामजी शास्त्री’ कहानी ‘माधुरी’ में छपने के बाद सवर्णवादी लेखकों-सम्पादकों के बीच कोई गदर नहीं मची थी। यह सब उस युग के बाजारवादी और उपभोक्तावादी संस्कृति का तमाशा भर था। इसे उसी दौरान प्रेमचन्द जी ने भी स्वीकार किया है, ‘इस होड़ के युग में अन्य व्यवसायों की भांति पत्र-पत्रिकाओं को अपने स्वामियों या संचालकों को नफा देने या अपने अस्तित्व बनाये रखने के लिए तरह-तरह की चालें चलनी पड़ती हैं। यूरोप वाले तो शब्दजाल या पहेलियों या लाटरियों का लटका निकालते हैं... हिन्दी में धन के अभाव से और ढंग से चालें चली जाती हैं। पत्र में किसी तरह का विवाद छेड़ दिया जाता है या कला के नाम पर अर्द्धनग्न चित्र दिये जाते हैं। (उत्तर प्रदेश: प्रेमचन्दविशेषांक जुलाई, 1980 पृष्ठ 106 सू. एवं ज.सं.वि.)। इसके अलावा प्रेमचन्द स्वयं भी सवर्ण ही थे। रही ब्राह्मणवादी लेखकों की घबराहट या हिन्दी के महारथी साहित्यकारों के गोलबंद आक्रमण की बात, तो इन्हीं ब्राह्मणवादियों ने प्रेमचन्द को सशक्त कथाकार बनने में सहयोग दिया। हिन्दी पुस्तक एजेंसी, गंगा पुस्तक माला जैसे प्रकाशन संस्थाओं के मालिक और ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’, ‘सुद्दा’ के सम्पादकगण ब्राह्मण व सवर्ण ही थे। पं. दुलारे लाल भार्गव ने ही 1924 में उन्हें सबसे पहले लखनऊ बुलाया और अपनी बाल पत्रिका ‘बाल विनोद वाटिका’ का सम्पादक सौ रूपये मासिक पर नियुक्त किया तथा रहने हेतु मैक्सवेल प्रेस, लाटूश रोड (डाॅ. पाठक के सामने) की इमारत के पिछले हिस्से, जिसे गंगा फाइन आर्ट प्रेस हेतु किराये पर ले रखा था। अस्थाई रूप से साठ रूपये मासिक पर प्रबंध कर दिया। काफी समय वे वहीं रहे, फिर गणेशगंज चले गये। 1925 के आखिर में प्रेमचन्द्र बनारस वापस चले गये। अपनी आर्थिक दशा में सुधार न होते देखा फिर 1927 में ‘माधुरी’ में आ गये जहां 1930 तक रहे। पं. दुलारे लाल भागर्व सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक, कवि, लेखक और दुर्लभ हिन्दी सेवक थे। उन्होंने केवल प्रकाशन व्यवसाय नहीं किया वरन सैकड़ों लेखकों का परिचय हिन्दी जगत में कराया। जब निराला जी की ‘जूही की कली’, ‘सरस्वती’ से वापस हो गयी तो उसे ‘माधुरी’ में भार्गव जी ने ही छापा। निराला जी का पहला कहानी संग्रह ‘लिली’ से लेकर पं. अमृतलाल नागर तक का पहला उपन्यास भार्गव जी ने ही छापा था। उस समय लखनऊ में हिन्दी का परचम लहराने वालों के अग्रज थे पं. दुलारेलाल भार्गव। साहित्यकारों, पत्रकारों, नौकरशाहों और हिन्दी के दुलारों ने ही उस समय को हिन्दी का ‘स्वर्ण युग’, ‘दुलारे युग’ तक कहा है। पं. दुलारेलाल भार्गव ‘सुधा’, ‘माधुरी’ के अलावा ‘भार्गव पत्रिका’ के सम्पादक भी रहे। उनकी अनुपम कृति दुलारे दोहावली’ पर ओरछा नरेश की ओर से प्रथम देव पुरस्कार (अयोध्या सिंह जी उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा रचित ‘प्रिय प्रवास’ के मुकाबले) दिया गया था। सच यह है कि पं. दुलारेलाल भार्गव हिन्दी जगत के देदप्यिमान नक्षत्र हैं। इसे उस समय सभी ने मुक्त कंठ स्वीकार किया। बाद में हिन्दी का साफ और विशाल आकाश हिन्दी भाषियों ने ही अपने दंभ के बादलों से ढंक दिया। इससे भी आगे कहा जा सकता है कि अपनी मां को गाली देने वालों की जमात का बोलबाला हो गया।
    और अन्त में दो बातें। आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास बगैर पं. दुलारे लाल भार्गव के पढ़ाने वाले, हिन्दी साहित्य के साथ, नई पीढ़ी के साथ लगातार विश्वासघात कर रहे हैं। इन विश्वासघातियों को पहले पूरी ईमानदारी के साथ पं. दुलारेलाल भार्गव के बारे में पढ़ना, जानना चाहिए। यह भी देखना और समझना चाहिए कि सत्तर-अस्सी बरस पहले लखनऊ में हिन्दी जिस भव्य भवन में विराजमान थी आज उसे जर्जर किसने किया है? प्रेमचन्दजी अपने पारिवारिक मामलों में भी विवादित रहे। जबकि सच केवल इतना था कि यही उनकी शेहरत का कारण बनता। श्रीमती शिवरानी देवी से विवाह को लेकर भी तमाम हल्ला मचा।
    वास्तव में प्रेमचन्दजी विधुर थे और शिवरानी देवी विधवा। उस समय ऐसे विवाहों का चलन नहीं था। लेकिन यह विवाह आदर्श तो था ही। चुनांचे प्रेमचन्द अपमान के मित्र इसलिए रहे कि वे गरीबों, दलितों और तिरस्कृतों की जुबान थे।

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