Tuesday, November 6, 2012

उल्लू देवो भवः

लक्ष्मी की पूजा और उल्लू को प्रणाम। पुण्य लक्ष्मी का पूजन शुभ मुहूर्त देखकर, तो पाप लक्ष्मी और उल्लू को नित प्रणाम। उल्लू देवता है। उल्लू हमारा नेता है। उसी के नेतृत्व में हम आर्थिक विकास के ‘राम मंदिर’ का निर्माण करने का समाजवादी शंखनाद करके घोषणाओं के प्रसाद का जूठन आदमी के आगे फेंकने का पुण्य कमाते चले आ रहे हैं। पाप लक्ष्मी की इएमआई के जरिए समूचे बाजार पर उल्लू भक्तों का बोलबाला है। इसी वजह से गांधी, अम्बेडकर, लोहिया के फर्जी पुत्र और रामभक्त अमीरी के पहले पायदान पर पसरे हैं।
    65 बरसों में देश में मौजूद (1947 में) 1600 करोड़ की संपदा भंडार की जगह 345.8 अरब डाॅलर का विदेशी कर्ज आ गया। महज 35 साल पहले देश के 20 बड़े घरानों की कुल संपत्ति 5 हजार करोड़ थी। आज अकेले मुकेश अंबानी 1050 अरब रूपयों (21 अरब डाॅलर) के मालिक हैं। 10 बड़ों की कुल संपत्ति 109.3 अरब डाॅलर है। 1950 में प्रति व्यक्ति आय 247 रुपए थी तो आज 5 हजार रूपए है। आजादी के तुरन्त बाद गरीबी की रेखा के नीचे आधी से अधिक आबादी यानी 19 करोड़ लोग थे, तो आज 36 करोड़ लोग हैं। देश में गरीबी-अमीरी का मौसम काफी बदल गया है। आज उम्मीदों के दीपक दप-दप करते इंडिया गेट से लेकर गांव के बाजारों तक उजियारा फैलाने को बेचैन हैं। पूर्णमासी और अमावस्या की रातों को एक साथ पूजने वाले देश में माटी और मुद्रा की लड़ाई और तेज हुई है। भले ही फुलझडि़यों की हंसी ठहाकों में बदल रही है, लेकिन माटी के श्रीगणेश-लक्ष्मी की जगह पूजा की अलमारी में जस की तस है। अम्मा जरूर घर-गांव के कुंए की तरह बिला गईं हैं, मगर मम्मी जी... माॅम.. वाॅटर पार्कों में अनार दगा रही हैं। बेबी-बाबा के साथ उनका हर दिन धनतेरस और हाय.. हसबेंड के साथ हर रात दिवाली।
जीभ और जांघ के उद्दंड बाजार की तेजी ने पर्वों और मेलों का संेसेक्स काफी नीचे ला दिया है। एक तू... एक मैं ही ‘जिहाद’ है, बाकी सारा परिवार ‘आतंकवाद’ के इंकलाबी परचम तले शहरी फ्लैट, कालोनियां आबाद हैं, तो अलाय-बलाय गांव-खेत में डाल हरऊ-घुरऊ शहर में मोबाइल थामे साहब अस बतियाए रहें...। कहां हैं इंतजार करती कहावत ‘करवा हैं करवारी है, तेहिके बरहें रोज देवारी...? यहां तो हर दिन दीवाली हैं। हर रात दीवाली है। जभी देश में चार पहिया वाहनों की वेटिंग 8 लाख के आस-पास है, तो गए साल 2520421 वाहन बिके थे। इस धनतेरस अकेले लखनऊ में डेढ़-दो अरब के दो-चार पहिया वाहनों के बिक जाने का अन्दाजा है। फिर भी पेट्रोल के महंगा होने की चीख-पुकार? महलों में 18 गैस सिलेंडरों पर सिर्फ चाय उबल रही है और मंझोली रसोइ में एक का भी जुगाड़ नहीं? अजब उलट-पुलट है, गई अक्षय तृतीया के दिन लखनऊ वालों ने 25 करोड़ का सोना खरीदा था। गई दिवाली में 1 अरब 6 करोड़ का सोना-चांदी, 80 करोड़ के वाहन, 40 करोड़ की मिठाई, 35 करोड़ का इलेक्ट्रानिक, 3 करोड़ के बर्तन, 7 करोड़ के पटाखे, 15 करोड़ की पतंगे खरीदे गये, तो 10 करोड़ एसएमएस मंे खर्चे और 60 करोड़ का स्टाक कारोबार महज पौने दो घंटों में कर डाला। कुल 3.56 अरब की दीवाली 2011 में लखनउवों ने अकेले मना डाली। देश भर मंे काले पैसे सहित क्या खर्च हुआ होगा? वह भी तब, जब एक महीने पहले ही महंगाई 7 फीसदी ऊँची छलांग लगा चुकी थी और सब्जियों के भाव आसमान पर थे। आटा 16 रू0 किलो बिक रहा था।
    माटी के दिये के आंकड़ों पर अभी श्वेत पत्र जारी होना है। डिजाइनर दिये और फैशनेबल मोमबत्तियों के साथ चाइनीज इलेक्ट्रानिक नूडल्स (बिजली की झालर) का बिग बाजार रौशनी बेच रहा है। गजब विरोधाभास है, अकेले अपने यूपी में 63 फीसदी घरों में ढिबरी/लालटेन रौशन हैं। 37 फीसदी बिजली जलाने वालों की जगमगाहट के बयान उपभोक्ता परिषद में दर्ज हैं। उपभोक्ता क्रांति के नाम पर देशवासी 31.9 फीसदी कपड़ों, जूतों पर व 36.3 फीसदी नई तकनीकी पर खर्च कर रहे हैं। लगातार अमीरों की संख्या में इजाफा हो रहा है। 2011 में 2,10,000 करोड़पति थे, अगले लोकसभा चुनावों तक 4 लाख की गिनती हो जाएगी। रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़े बताते हैं कि देश में पैसा बचाने में मुंबई नंबर एक है तो लखनऊ नंबर नौ और पटना नंबर ग्यारह के पायदान पर है। वहीं खर्च करने में भी आगे हैं। शहर में प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च लगभग 21 सौ रूपए तो ग्रामीण क्षेत्र में 12 सौ रूपए है। रही नकद पैसे के जेब में होने की बात तो हम दुनिया में चैथे नंबर पर हैं। शहरों की चमक-दमक में 38 करोड़ लोग मस्त हैं, तो गांवों में साढ़े तिरासी करोड़ लोग सुविधा-असुविधा, महाजनी व्यवस्था और नवपूंजीवादी नखरों के बीच जी रहे हैं। इन्हीं गांवों में रोज दो-तीन किसानों के आत्महत्या करने के भी आंकड़े हैं। आटे का घोल पीकर जीने-मरने वालों की संख्या भी कम नहीं है। भूख के आंकड़े बताते हैं कि 79 देशों में भारत 65वें सथान पर तड़प रहा है। आंकड़ों के आग की आँच बहुत तकलीफदेह है। फिर भी दिवाली हर साल आती है। इस साल भी आई है। अमावस्या की रात के अंधेरे को मुंह चिढ़ाती इठलाती रौशनी आयेगी। आयेगी ही नहीं नाचेगी, गाएगी और चिरागों का समाजवादी हल्ला भी रहेगा। पटाखों के जागरण का जयकारा भी गूंजेगा।
    गो कि दीवाली में ‘शगुन’ का मरद भले ही गांव न पहुंचे, लेकिन ‘मैडम’ की दीवाली का सूरज रात भर बांटेगा सौगतें। ‘लक्ष्मी’ के डांस के साथ ‘विष्णु’ उपहारों के पैकेट अतिथिदेवों को पकड़ाता रहेगा उत्सव की चैखट पर खड़ा होकर। आसमान पटाखों की रोशनी की अगवानी में थोड़ा और झुकेगा, तो नीचे ‘ओम जय लक्ष्मी मइया...’ की आरती के बोलों के साथ ‘सब कुछ छोड़-छाड़ के अनारकली चली अपने सलीम की गली...’ का टंटा भी सुनाई देगा। रोशनी की जगर-मगर में इक्का...बादशाह...गुलाम सबके सब उल्लुओं की सेवा में जगराता करते रहेंगे। और बचीं अकेली अम्मा, वो अपनी ममता के घाव खारे आँसुओं से सेंकती अतीत की वापसी की प्रतीक्षा में गुमसुम बैठी रह जाएंगी। शुभकामना और मुबारक.. की शहनाई इस दीवाली ‘अयोध्या’ में तो नहीं ही बजेगी। और कहां बजेगी...?

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