Sunday, October 14, 2012

सुन लो सुनाता हूँ एक कहानी...

एक थी लोकतांत्रिक राज की राजधानी। वहां था एक राजा। राजा हो गया था बूढ़ा, सो युवराज का राजतिलक कर दिया गया। युवा राजा पाकर प्रजा हो गई खुश। इधर प्रजा प्रसन्नता के सपने में थी, उधर युवा राजा और बूढ़ा पिता अपने राज को और बढ़ाने के लिए शराब कारोबारी के साथ चाय, पैसा बेचने वाले के साथ नाश्ता और वोट के ठेकेदारों के साथ भोजन करने में मस्त थे। घोषणा करने, आश्वासन देने व धन-भत्ता की खैरात बांटने में व्यस्त थे। देश की दूसरी राजधानियों के राजाओं से मेल-मुलाकात करके देश पर राज करने के मंसूबे बनाने में बूढ़े राजा और उनके चट्टे-बट्टे जी जान से लगे थे। इधर सूबे की राजद्दानी में युवा राजा अंकल, आंटी, मम्मी, बुआ और बहू के चोंचलों से घिरे। उधर राजधानी में आइएएस तक शोहदई पर अमादा। साथ के सूबेदार बलात्कार से लगाकर जमीनों का कब्जे के फेर में। कानून का राज.. कानून का राज.. का हल्ला मचाने के साथ ‘बोले यूपी’ का सिनेमाई ‘दयावान’ वाला अंदाज भी घर-घर दरवाजा खटखटाने लगा।
    अब सुनिए आगे का हाल-हवाल। पहले पिटे, होने वाले शिक्षक फिर प्रधान जी लोग। अब शायद पिटने की बारी है साठ हजार शिक्षकों की जो हड़ताल के चक्कर में हैं। खुली सड़क पर लड़के-लड़कियां शोहदई पर बजिद, तो सांड़ व कुत्ते बाकायदा बलात्कार के दुष्कर्म में लिप्त। शहर की हर सड़क पर प्रातःदर्शन में प्यारे-प्यारे कुत्तों को शौच करते, नालियों-नालों किनारे आदमी को हाजत से फारिग होते देखना हरिदर्शन है? मेयर साहब कहते हैं, साड़ों को पकड़कर मध्य प्रदेश भेज देंगे। तो जनाब आदमियों, कुत्तों और बन्दरों के लिए क्या इंतजाम होंगे ? शरीफ शहरी नागरिक जो गृहकर, जलकर समय से नकद जमा करते हैं उनका पानी बाकायदा चोरी करके बेचने वालों के लिए क्या करेंगे? और जो पार्षद इस कारोबार में साझीदार हैं उनसे कैसे निबटेंगे? यानी पीने का पानी शुद्ध रूप से नागरिकों को उपलब्ध नहीं ही है। इसके बाद भी जलकर तीन गुना बढ़ाने की कवायद जारी है? सफाई का हाल बेहाल है? इससे भी बुरी हालत बिजली की है। राजधानी के साठ फीसदी इलाके अंधेरे में हैं, इनका काम वैकल्पिक व्यवस्था से चलता है। लोग बाग सड़कों पर उतरकर रेल-बस रोककर विरोध प्रकट करते हुए पुलिस से पिट रहे हैं, फिर भी पूरी निर्लज्जता से बिजली की दरें बढ़ाई जा रही हैं। सड़क किनारे बेहाल मरीजों को ग्लूकोज चढ़ाया जा रहा है। एम्बुलेन्स व अस्पताल गेट/हाते में प्रसव कराये जा रहे हैं। दवा के नाम पर, प्राइवेट प्रैक्टिस के नाम पर लूट जारी है। यही हाल शिक्षा का है, वहां भी खुले हाथों लूट का आतंक है। फिर भी नारा है मुफ्त चिकित्सा/शिक्षा का? रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल महंगा। टी.वी. देखने वालों के लिए सेट टाॅप बाॅक्स या डीटीएच लगवाना अनिवार्य। या सारा केन्द्र सरकार ने थोपा है, लेकिन सूबे की सरकार अपना कर छोड़कर नागरिकों को राहत क्यों नहीं पहुंचा सकती? साफगो बात यह कि आप अपने हिस्से का पूरा कर वसूलेंगे और केंन्द्र सरकार पर आरोप मढ़ देंगे?
    महारानी साहिबा (पूर्व) और उनके दरबारियों की कारें पिछले बरस दो अरब से अधिक का पेट्रोल पी गईं। इस साल राजा साहब और उनके मंत्रिगण की कारें लगभग तीन अरब का पेट्रोल पिएंगी। यह खर्च नौकरशाहों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली कारों से अलग है। गरीब आदमी की थाली 16 रूपए की तो राजा साहब की सुबह की चाय ही 160 रुपए की? और थाली बेशकीमती? राजा साहब छुट्टी मनाने सपरिवार जाते हैं, विदेश और आदमी टी.वी. के सामने अपनी बीवी से रिमोट छीनते और रूठने पर उसे मनाने के जेहाद में जूझकर अपनी छुट्टियां मनाता है? ऐसे सैकड़ों किस्से बयान किये जा सकते हैं। मगर 2014 में होने वाले चुनावों की समाजवादी तैयारी के बगैर राजा-प्रजा की यह कहानी अधूरी रह जाएगी। भारत बंद में 13 हजार करोड़ के नुकासान में शामिल होकर राजा साहब और उनके पिता ने किसका भला किया? बिचैलियों का, व्यापारियों का या आम नागरिकों का? या फिर अपनी संभावित गोलबंदी का? इस गोलबंदी की मार बंगाल से चेन्नई तक जारी है। अंदरखाने नागपुरवालों से भी खुसर-पुसर की तरंगे सियासी हवा में तैर रही हैं। सूबे में खैरात (कई योजनाओं के जरिए) बांटने के साथ छः महीने की उपलब्धियों के प्रचार में राजकोष के धन को खुले हाथों लुटाकर कार्यकर्ताओं तक को ठगा जा रहा है? संसाद/विधायक/पार्षद/प्रद्दान तक बीस-बीस लाख की गाडि़यों के काफिले में सड़कें रौद रहे हैं? मरीज ढोने वाली एम्बुलेन्स वोटरों के थोक व्यापारियों के दरवाजे खड़ीं हैं? इससे भी दो कदम आगे अल्पसंख्यक वोटर कहाने वाले खुले हाथों दंगा करते हैं, भगवान की मूर्ति तोड़ देते हैं और पुलिस सिर्फ तमाशाई रहती है। बाद में बयानों के जरिये नागरिकों को गुमराह किया जाता है? यह किस किस्म की चुनावी तैयारी है?
    मैं यहां एक सवाल पूंछना चाहता हूँ। हालांकि यह सवाल कई बार पूंछ चुका हूं कि यह सूबा उत्तर प्रदेश किसका है? भाजपाइयों का, सपाइयों का, कांग्रेसियों का, बसपाइयों का या फिर अल्पसंख्यक मोर्चाे का है? ठाकुरों, बाभनों, बनियों, लालाओं, यादवों, कुर्मियों या हरिजनों का है? या अपराधियों शोहदों का है? या लुटी-पिटी रोती औरतों का है? या फिर वोटर कार्डधारक वोटरों का हैं? आखिर यह सूबा किसका हैं? कौन जवाब देगा? तो किस्सा कोताह ये कि मेरी किस्सागोई शायद आपको थका रही होगी, लेकिन युवा राजा की इस कहानी पर सोंचिए फिर फैसला आपके हक में हो सकता है।

No comments:

Post a Comment