Monday, September 17, 2012

मीडिया की सनसनी हैं रामदेव!

जून, अगस्त और अब अक्टूबर से फिर रामलीला मैदान में बाबा रामदेव देश को ‘आन्दोलन’ का तमाशा दिखाएंगे? यह सवाल देश के हर पढ़े-लिखे मानस के दिमाग में खदबदा रहा है। पिछले दो आन्दोलनों में बाबा के योग और भोग को देख चुके लोगों के मन में और भी कई सवाल हैं? बाबा जिस कालेधन के वापसी की बात कर रहे हैं, वह क्या विदेश से अधिक देश में नहीं हैं? बाबा हर विषय की ठेकेदारी स्वयं क्यों लेने का प्रयास करते हैं? बाबा के आन्दोलनों में खर्च होनेवाली रकम क्या सफेद है? उनके ट्रस्टों की संपत्ति में यदि कालाधन नहीं है तो उसकी जांच पर इतनी हाय-तौबा? वे कहते हैं 9वें योगी हैं, सन्यासी हैं और जनहितार्थ संघर्ष कर रहे हैं। यहीं सवाल उठता है कि क्या सन्यासी चार्टड हवाई जहाज/हेलीकाफ्टर व कारों के काफिले में चलने का हकदार हैं? उनके संस्थान द्वारा बेचे जाने वाले उत्पाद इतने महंगे हैं कि हर शख्स उन्हंे खरीद नहीं सकता। डाॅबर और वैद्यनाथ जैसी ख्याति प्राप्त और भरोसे वाली कम्पनियों के उत्पादों से पतंजलि के उत्पाद 20-25 फीसदी महंगे हैं। उनके ‘लौकी के जूस’ का हश्र देश देख चुका है। वे मामूली बुखार से लेकर कैंसर तक के इलाज का दावा करते हैं और स्वयं का इलाज इलौपैथिक पद्धति के नर्सिंग होम में कराते हैं?
    विपक्षी राजनीतिज्ञों की तरह सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगा कर सनसनी तो पैदा करते हैं उनमें से एक का भी सुबूत नहीं देते। उनका सवाल है, ‘सरकार योग सिखाने पर टैक्स क्यों लगा रही है? तो कोई सनसनी सिद्ध पत्रकार पलट कर बाबा से यह क्यों नहीं पूंछता, क्या वे मुफ्त में योग सिखाते हैं या अपने शिविरों में मोटी फीस वसूलते हैं? इसी तरह वे महंगे उत्पाद बेंचकर जनता की जेबंे नहीं हल्की कर रहे? मोटी सी बात है कि व्यापारियों पर जब भी सरकार टैक्स लगाएगी तो व्यापार मण्डल हल्ला मचाता है। उसी तर्ज पर बाबा के आरोप नहीं हैं? योग से स्वास्थ बनेगा लेकिन गरीब का पेट कैसे भरेगा? या योग अमीरों के लिए ही है? रही फकीर और वजीर की लड़ाई तो वे कतई फकीर नहीं हैं, सिर्फ गेरूआ धारण कर लेने से, दाढ़ी बढा लेने से और कुछ करतब दिखाने भर से सन्यास का नाम बदनाम करना तो कहा जा सकता है, सन्यासी नहीं। वे बात राजनैतिक करते हैं, ढोल सामाजिकता का पीटते हैं? उनका हर हल्ला केवल और केवल कांग्रेस के मुखालिफ होता है? जिसे टीआरपी बढ़ाने वाले चैनल अपने दर्शकों को दिखाकर उनका मनोरंजन करते हैं। उनके बीच ‘बाबा’ ब्रांड की सनसनी पैदा करते हैं? वे यदि वास्तव में संत हैं तो ‘ब्रांडेड’ महत्वाकांक्षा छोड़कर सन्यासियों जैसा आचरण करें, जनसेवा कर जनता के बीच जाकर वह भी पूर्णरूप से निःशुल्क। किराए के पंडाल के नीचे देशी कालेधन के दान की पूड़ी-कचैड़ी खा-खिलाकर आन्दोलनों का तमाशा दिखाकर नहीं।

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