Monday, September 17, 2012

हिन्दी के श्राद्धपर्व पर हिन्दी पत्रकारिता का पिण्डदान


हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता के कर्मकांडी श्राद्धपर्व के माहौल में हिन्दी बोलने पर जुर्माने की सजा! हिन्दी का पिण्डदान करने सरकारी अय्याशों के साथ ‘कामसू़़त्र’ की नई विधा तलाशने का सपना संजोए हिंदी पुत्रों के विदेश जाने का शुल्क बस पांच हजार! देश में रोमन लिपि में लिखी हुई हिंदी का पाठ करके या फेसबुक पर हिन्दी के पुरखों का तर्पण करते हुए अंग्रेजी को एक आंख दबाकर सच्चे प्रेमी होने का दावा मुफ्त में बरकरार। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के शंकराचार्यों की पालकियां भी अपने-अपने मठों से निकल कर प्रेमचंद, निराला, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की परिक्रमा कर चंदे-धंधे जुगाड़ लेंगी और श्राद्ध पर्व का समापन हो जाएगा बगैर यह जाने, बांचे कि अरबी-फारसी, उर्दू, अंग्रेजी के मजबूत किलों को हिन्दी के किन महारथियों की क़लम ने ध्वस्त किया था? हिन्दी पत्रकारिता के किस पितामह ने अपना सर्वस्व होम किया था। चंदनामों के आगे घंटा-घडि़याल बजा उनकी आरती का सस्वर पाठ शायद रोजी-रोटी का इंतजाम कर देता हो, लेकिन नई पीढ़ी को तो अज्ञानता के प्रदूषण का शिकार बना रहा है। तभी तो ताजादम पत्रकारों की पीढ़ी ‘माधुरी’ पत्रिका का प्रकाशक ‘गंगा-पुस्तक माला’ और प्रेमचंद को ‘माधुरी’ का सम्पादन करने लखनऊ आने को लिखने की भूल कर बैठती हैं।
    लखनऊ में हिन्दी पत्रकारिता के भीष्म पितामह आचार्य पं. दुलारेलाल भार्गव ने हिन्दी की कीर्ति पताका तब फहराई जब फारसी, उर्दू और अंग्रेजी आम भाषा थी। सबसे पहले उन्होंने सन् 1923 में ‘माधुरी’ का प्रकाशन अपने चाचा विष्णु नारायण भार्गव के साथ किया। इसके साथ ही लाटूश रोड स्थित अपने निवास से गंगा-पुस्तक माला प्रकाशन संस्था की शुरूआत की थी। इस संस्था में लाल बहादुर शास्त्री, निराला, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, गोपाल सिंह नेपाली, इलाचन्द्र जोशी, प्रेमचन्द, मिश्रबंधु जैसे दिग्गज भार्गव जी के सहयोगी रहे। सन् 1927 में ‘सुधा’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, इसमें उनके सहयोगी थे पं0 रूप नारायण पाण्डेय, इसके सह सम्पादक रहे प्रेमचन्द। एक सौ बीस पृष्ठ की पत्रिका में तीन-चार रंगीन चित्र छपते थे। उन्होंने तुलसी संवत् की शुरूआत की। प्रेमचन्द ‘गंगा-पुस्तक माला’ से प्रकाशित ‘बाल-विनोद वाटिका’ पत्रिका के सम्पादन से भी जुड़े रहे। उनका यादगार उपन्यास ‘रंगभूमि’ भार्गव जी के सम्पादकत्व में ही छपा। यह वह समय था जब आजादी के दीवाने फंासी पर झूल रहे थे और अंग्रेज भारत की तस्वीर अपने अनुरूप काफी कुछ बदल चुके थे। शहरों में अंग्रेजियत पूरी तरह पसर गई थी। लखनऊ में ठंडी सड़क हजरतगंज लंदन की डाउनिंग स्ट्रीट का आकार लें रही थी। तांगे-इक्कों का उस सड़क से गुजरना तक अपराध की श्रेणी में आता था। नवाबियत की कब्र पुख्ता हो चुकी थी। लोटे से चुल्लू (दोनों हथेलियों को जोड़कर अंजुरी) में पानी पिलाने वाले पंडित हजरतगंज में पांव नहीं घर सकते थे। ग्रामोफोन से लेकर अंग्रेजी अखबार, थिएटर, कैफे, बिलियर्ड पूल तक की धूम थी। अमीनाबाद जैसे इलाकों में सराय की जगह होटलों ने ले ली थी। ऐसे दौर में पं0 दुलारे लाल भार्गव ने उस नए बनते लखनउवा समाज के आदमी की तबीयत को समझा और उसे ‘सुधा’ से जोड़ा भर नहीं बल्कि उसे कथात्मक साहित्य के जरिए हिन्दी प्रेमी बनाया। उन्होंने भगवती चरण वर्मा, विश्वम्भर नाथ शर्मा ‘कौशिक’, डाॅ0 राम कुमार वर्मा, निराला, प्रेमचंद, अमृतलाल नागर, पंत, को छापा ही नहीं उन्हें समाज में प्रतिष्ठापित भी किया। लखनऊ में कवि सम्मेलनों की परम्परा को उन्होंने ही शुरू किया था। उनके जीवन का अंतिम कवि सम्मेलन चारबाग के रवीन्द्रालय सभागार में बांग्लादेश जन्म के तत्काल बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौजूदगी में हुआ था। उनका घर ‘कवि कुटीर’ के नाम से जाना जाता रहा। गंगा-पुस्तका माला भवन के अवशेष आज भी लाटूश रोड (गौतम बुद्ध मार्ग) पर मौजूद हैं। उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ में हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू की, तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया और पहला प्राध्यापक बद्रीनाथ भट्ट को नियुक्त कराया।
    वे महज 16 वर्ष की आयु में ही हिन्दी लेखन, सम्पादन और प्रकाशन से जुड़ गये थे और 20-22 वर्ष की आयु में लखनऊ व आस-पास के इलाकों में प्रतिष्ठित हो चुके थे। ब्रजभाषा के कवियों में उनकी गिनती प्रथम पक्ति में थी। अयोध्या सिंह ‘हरिऔध’ की ‘प्रिय प्रवास’ के मुकाबले उनकी ‘दुलारे दोहावली’ को तब का प्रतिष्ठित पहला ‘देव पुरस्कार’ मिला था। उन्हें आधुनिक बिहारी कहा जाता रहा हैं। वे उस समय हिन्दी जगत की नहीं वरन सभ्य शहरियों की प्रतिष्ठित जमात में शुमार किए जाते थे। उनकी ख्याति उनसे पहले लोगों तक पहुंच जाती थी। साधारण चूड़ीदार पैजामा, अचकन और टोपी में सजा लम्बा-गोरा शरीर सामनेवाले के आकर्षण का केन्द्र यूं ही नहीं रहा। उनकी हिन्दी भक्ति, हिन्दू शाक्ति के प्रति निष्ठा का आदर गोरे साहब भी करते थे। उन्होंने ही ‘लखनवी भाषा’ (उर्दू-हिन्दी मिश्रित) को जन्म दिया था। उनके समय को ‘दुलारे युग’ कहा जाता है। उनकी बेचैनी अंतिम समय तक साइकिल के पहियों पर उनके साथ घूमती रही। वे ‘ब्रजभाषा रामायण’ की रचना में लगे-लगे ही 6 सितंबर 1975 को अचानक हृदय गति रूक जाने से स्वर्गवासी हुए थे।
    हिन्दी पत्रकारिता तब से अब तक तमाम करवटें बदल चुकी हैं, लेकिन लखनऊ में ही किसी पत्रकार को साठ लाख की आबादी में शायद ही छह लाख के बीच भी प्रतिष्ठा प्राप्त हो। अखबार हर गली-नुक्कड़ से छप रहे हैं, हजारों-लाखों की प्रसार संख्या के प्रमाण-पत्र थामे विज्ञापन के बाजार में हाथ पसारे खड़े हैं। इन अखबारों के पत्रकारों की क्या हैसियत हैं? कभी आशाराम बापू जैसे ढोंगी थप्पड़ मार देते हैं, तो कभी बाबा रामदेव दुत्कार देते हैं। कभी मामूली डाॅक्टर इंजीनियर लतिया देते हैं। सरकार का अदना सा मंत्री जो कल पहचानों के जंगल में गुम हो जाएगा वो भी हवालात में बंद करा देने की धमकी देकर भगा देता है। आरोप और उद्दंडता के हालात ऐसे कि प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष से लेकर चाट के ठेले पर खड़ा शहरी भी मीडिया पर नियंत्रण की आवश्यकता पर जोर दे रहा है। मीडिया लोगों की निजता में अतिक्रमण का दोषी माना जा रहा है, तभी ममता बनर्जी उस पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाती हैं, तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री मीडिया (खासकर टीवी चैनल्स के संवाददाताओं) से कहते हैं, ‘मैं आपसे क्यों बात करूं जब आप मेरे व मेरी नीतियों के बारे में नकारात्मक खबरें देतें हैं। यदि मैं जिलों में जाकर वहां के पत्रकारों से बात करूंगा तो मुझे व मेरे कामों को घर-घर जाना जाएगा।
    गो कि हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता की दुर्गति का यह दौर हमारा गढ़ा है। हम हैं उद्दंड और लोभी पत्रकारों की जमात। क्या कोई दुलारे लाल भार्गव फिर जन्म लेकर हमें दिशा देने आएगा? या हमें ही अपने हिन्दी पत्रकारिता के पुरखों के लिखे को पढ़कर योगीन्द्र पति त्रिपाठी, अखिलेश मिश्र को तलाशना होगा? कुछ तो करना ही होगा वरना आदमी की पैरोकारी का दम भरने वाली पत्रकारों की जमात ‘काॅरपोरेट गैलरी’ की दलाली करने भर के लिए जानी जाएगी। तो फिर हिन्दी और हिन्दी पत्रकारिता के ‘श्राद्धपर्व’ पर संकल्प लें कि हिन्दी के पुरखों को पढ़ेंगे और उन्हीं के रास्तों को गढ़ेंगे।

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