Sunday, November 6, 2011

श्री दुलारे लाल भार्गव

 - ठाकुर प्रसाद सिंह
हिन्दी के नवीन साहित्य से परिचित होने के क्रम में मेरा परिचय ‘गंगा पुस्तक माला’ तथा उसके यशस्वी व्यवस्थापक श्री दुलारे लाल भार्गव से बचपन में ही हो गया था। दुलारे लाल जी के सम्बन्ध में कितने ही कहानियां और प्रवाद तभी सुनने को मिले थे फिर भी हिन्दी के प्रकाशन क्षेत्र में उनकी सेवाओं की विशिष्टता का जादू मेरे ऊपर बना हुआ था, वैसे ही उस समय हिन्दी के प्रसिद्ध रचनाकारों की रचनाओं के प्रकाशन का श्रेय भी श्री दुलारे लाल भार्गव को ही था।
    लखनऊ के विषय में मेरे मन में कई तरह के सपने थे लेकिन मैंने अपने प्रारभिंक जीवन में सोचा तक नहीं था कि मुझे अपनी जिन्दगी का लगभग आधा हिस्सा लखनऊ में बिताना पड़ेगा। लखनऊ मेरे लिए उस समय तक श्री दुलारे लाल भार्गव, श्री यशपाल, श्री अमृत लाल नागर और श्री भगवती चरण वर्मा का नगर था तथा जहां नये लेखकों का एक बड़ा समुदाय निवास करता था। एकाएक लखनऊ आने का निश्चय किया और एक दिन दो कमरों के एक मकान में आकर लखनऊ का निवासी हो गया। प्रारंभिक व्यस्तता कम होने पर धीरे-धीरे लखनऊ से परिचय बनने लगा और तभी अमीनाबाद पार्क में हनुमान जी के मंदिर के निकट फुहारे के पास में नए सिरे से श्री दुलारे लाल भार्गव के परिचय में आया। तब तक उनका प्रकाशन उखड़ चुका था और स्वयं भार्गव जी प्रकाशन के व्यस्त जीवन से विश्राम ले चुके थे। 1937-38 में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के समय जिस दुलारे लाल भार्गव को देखा था, यह भार्गव जी उसकी छाया मात्र थे फिर भी उनकी आंखों में पुरानी चमक कुछ हद तक बनी हुई थी। समय और परिस्थितियां आदमी को क्या से क्या बना देती हैं, भार्गव जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण थे। मेरे साथ वे वहीं घास पर बैठ गए और धीरे-धीरे उनका आत्म विश्वास लौट आया। वे संस्मरण की दुनिया में खो गए और फिर काफी देर तक वहीं रहे। मैंने जानबूझ कर उन्हें छेड़ा नहीं। मुझे उनको सुख से वंचित करने का साहस नहीं हुआ। उनके पास कुल मिलाकर सुखद संस्मरण ही बचे थे, मुझे उनके स्वप्नलोक से खींच लाने का कोई अधिकार नहीं था।
    ‘दुलारे दोहावली’ के कितने ही दोहे उन्होंने सुनाये तथा रस लेकर उनके संदर्भ से मुझे परिचित करवाया। फिर वे देव और बिहारी को लेकर उठानेवाली स्पर्धा पर आ गये। बहुत सी बातें मुझे पहले से ही मालूम थीं पर उनके मुंह से उन्हें सुनने का सुख कुछ और ही था।
    लखनऊ उर्दू का गढ़ था पर श्री दुलारे लाल जी ने लखनऊ में ही हिन्दी प्रकाशन की मार्यादा स्थापित करके हिन्दी की ऐतिहासिक सेवा की थी। यह बात उन्हें बताने पर वे चुप हो जाते थे तथा उनकी आखें स्वप्न देखने लगती थीं। लेखकों के प्रति उनके व्यवहार को लेकर तरह-तरह की रचनाएं होती हैं पर सच तो यह है कि उनके कारण ही लेखकों की एक बड़ी संख्या प्रकाश में आयी। श्री वृन्दावन लाल वर्मा, श्री निराला तथा प्रेमचन्द उनकी लेखक मण्डली के महत्वपूर्ण सदस्य थे, जिनकी कितनी ही महत्वपूर्ण रचनायें श्री दुलारे लाल जी ने प्रकाशित की। प्रेमचन्द जी उनके साहित्यिक सलाहकार भी थे। उनके अतिरिक्त कितने नये लेखक उनके सम्पर्क में आये, जिनकी प्रारम्भिक कृतियां श्री भार्गव ने साहस के साथ प्रकाशित की। उदय शंकर भट्ट, कृष्णानन्द गुप्त, प्रताप नारायण श्रीवास्तव, चतुरसेन शास्त्री, सहित यह सूची बहुत लम्बी हो सकती है।
    उस समय सरकारी खरीद का कोई प्रश्न ही नहीं था। भार्गव जी ने अपने  अध्यवसाय से अपना प्रकाशन विकसित किया था तथा पूरे देश में स्थायी ग्राहकों की एक बड़ी संख्या खड़ी की थी। सच पूछिए तो ब्रिटिश प्रकाशनों की पद्धति का अनुसरण करके उन्होंने बिल्कुल अपनी तरह से ‘गंगा पुस्तक माला’ का गठन किया था। बड़े ही आत्म-विश्वास से उन्होंने कितने ही साहसपूर्ण प्रयोग किये थे और उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली थी।
    आज हिन्दी पूरे देश की राजभाषा है, तथा उत्तर प्रदेश की तो यह भाषा है ही। हर प्रकार के राजकीय संरक्षण की घोषणा के बाद भी लखनऊ में हिन्दी प्रकाशक नाम की कोई चीज कहीं दिखायी नहीं पड़ती। पाठ्य पुस्तकों की छपाई का बाजार गर्म है। पर अच्छी साहित्यिक पुस्तकें छपनी कब ही बन्द हो चुकी हैं। लखनऊ ही क्यों, इलाहाबाद, वाराणसी और आगरा की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है। सारे प्रकाशक दिल्ली में केन्द्रित हो गये है, सारे साहित्यकार दिल्ली में एकत्र होकर धन्य हो रहे हैं, ऐसी हालत में श्री दुलारे लाल जी के कार्य का महत्व और उभर कर सामने आता है।
    श्री दुलारे लाल जी को उनकी स्थिति का लाभ भी कम नहीं मिला। ‘दुलारे दोहावली’ को ‘देव पुरस्कार’ मिलने पर हिन्दी जगत में विरोद्द प्रतिक्रियाएं हुईं तथा लेखक दो खेमों में बंट गये, पर जानने वाले जानते हैं कि उन्होंने यह पुरस्कार साहित्यिक महारथियों के विरोध के बावजूद प्राप्त करके दिखा दिया था। हरिऔध जी की प्रसिद्ध रचना ‘प्रिय प्रवास’ की तुलना में प्राप्त इस पुरस्कार का महत्व और भी बढ़ जाता है।
    श्री दुलारे लाल जी के प्रयत्न से लखनऊ में जो साहित्यिक वातावरण बना था वह बाद में बना नहीं रह सका। आज लखनऊ मासिक पत्रिकाओं, प्रकाशनों तथा साहित्यिक संस्थाओं की दृष्टि से जैसा सूना है उसे देखकर श्री दुलारे लाल जी का युग हिन्दी का स्वर्ण युग ही लगता है।
    लखनऊ में रहते समय श्री भार्गव जी के साथ कितनी ही बार देर तक बातें करने का अवसर मिला। कभी-कभी वे मेरे कार्यालय में मुझसे मिलने आते और न मिलने पर चिट पर एक दोहा लिखकर चले जाते, ऐसी चिटें खोजने पर अभी भी मेरे पास मिल जायेंगी। बाद के वर्षों में एक साइकिल लिए सड़कों पर चलते उन्हें देखकर क्लेश होता था। वे किसी न किसी के साथ अक्सर रास्ते में मिल जाते और रास्ते पर ही खड़े-खड़े वर्तमान से सरक कर भूत की गोद में चले जाते थे।
    श्री दुलारे लाल जी के कृतित्व का सही मूल्यांकन होना अभी शेष है। लखनऊ की नयी पीढ़ी ने यह उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाया, यह शुभ संकेत है।
(लेखक साहित्यकार व सूचना निदेशक उ.प्र. हैं)

श्री दुलारे लाल भार्गव- कैलाश नाथ कौल
श्री दुलारे लाल भार्गव 1920-30 ई0 में हिन्दी के सम्पादकों और प्रकाशकों की अगली लाइन में थे। उन्होंने पहले लखनऊ के नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ का सम्पादन किया और फिर खुद ही अपनी मासिक पत्रिका ‘सुधा’ का प्रकाशन और सम्पादन किया। उनकी ब्रज भाषा में लिखी ‘दुलारे दोहावली’ पर देव पुरस्कार दिया गया था। श्री भार्गव जी से मेरे सम्बन्ध उस समय कायम हुए,जब 1929 ई0 में मैंने लखनऊ जिले में ग्राम सुधार के लिए गंगा प्रसाद मेमोरियल हाल में चरखा प्रचारक संघ कायम किया था। उसी मौके पर, प्रेमचन्द जी और उनके खानदान वालों से भी मेरा सम्बन्ध कायम हुआ। कुछ ऐसा हुआ कि श्री भार्गव से  मेरा सम्पर्क बढ़ता ही गया और हम लोग भिन्न-भिन्न कामांे में लगे थे। लेकिन ऐसा लगता था कि हम दोनों एक ही काम कर रहे हैं। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि हम दोनों ने जो काम लिया था, उसको दिलोजान से कामयाब बनाने की लगन थी। मैं मुख्तलिफ काम करता हुआ देश से बाहर चला गया और जब वापिस आया तो ऐसा लगा कि हम जैसे कभी अलग न हुए हों। उन्होंने सिर्फ हिन्दी साहित्य की सेवा ही नहीं की, बल्कि ऐसे बहुत से हिन्दी प्रेमियों को भी पनाह दी जो हिन्दी साहित्य की सेवा के दौरान अपनी जीविका चलाने के लिए मुसीबत में फंसे हुए थे। उनका मुस्कराता हुआ चेहरा अभी तक मुझको याद हैं।
(लेखक भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू की पत्नी के सहोदर हैं व राष्ट्रीय वनस्पतिउद्यान के निदेशक रहे हैं)

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