Sunday, November 6, 2011

श्री दुलारे लाल भार्गव

श्री श्रीनाथ सिंह
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिन्दी के पितामह कहे जाते हैं। उनके पश्चात हिन्दी में प्रगति का युग प्रारम्भ हुआ। उसके मूल स्रोत पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। आधुनिक हिन्दी के सृजन, प्रकाशन, विस्तार के उस युग को द्विवेदी-युग कह सकते है। द्विवेदी जी ने आधुनिक हिन्दी को पद्य रचना के क्षेत्र में भी समर्थ बनाया। कविवर मैथलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय जैसे ख्याति-प्राप्त कवियों को सामने लाने का श्रेय स्वर्गीय द्विवेदी जी को ही है।
    द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी में और भी बड़े पैमाने पर जिस युग का प्रारम्भ हुआ, उसे ‘दुलारेलाल युग’ कहा जा सकता है।
    श्री दुलारेलाल भार्गव ने हिन्दी रचना के क्षेत्र में गद्य-पद्य दोनों के लिए आधुनिक हिन्दी को सक्षम बनाया, परन्तु स्वयं अपनी पद्य रचना में ब्रज भाषा का ही सहारा लिया। उनकी यह पद्य रचना ‘दुलारे दोहावली’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस पर उन्हें ‘देव-पुरस्कार’ और ‘मंगलाप्रसाद पारितोषिक’ मिला; यह पुरस्कार उस समय के सर्वोत्तम पुरस्कार थे।
    ‘दुलारे दोहावली’ को प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर डाक्टर गंगानाथ झा ने उत्तम काव्य घोषित किया। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में इसकी बड़ी चर्चा हुई। समालोचकों ने इस पर बड़े-बड़े लेख लिखे। इसे ‘गागार में सागर’ कहा। महाकवि निराला ने, जो समझते थे कि ब्रजभाषा युग बीत गया है, इसे ब्रजभाषा की सर्वोत्तम कृति कहा अनेक समालोचकों ने स्वीकार किया, कि ‘दुलारे दोहावली’ बिहारी सत्सई से टक्कर ले सकती है।
    यह सब होते हुए भी, यह समझ में नहीं आता कि आधुनिक हिन्दी के लेखन और प्रकाशन के अपने समय के सबसे बड़े प्रेरक श्री दुलारे लाल भार्गव नेे पद्य रचना में दोहे ही क्यों चुने? और उन्हें भी ब्रज भाषा में क्यों लिखा? शायद इसलिए कि आधुनिक हिन्दी में गद्य-पद्य के सृजन, सम्पादन और वितरण में इतने व्यस्त रहते थे कि अपने कवि हृदय की तृप्ति के लिए बहुत थोड़ा समय निकाल पाते थे।
    कविवर दुलारे लाल के व्यक्तिगत परिचय का सौभाग्य मुझे सन 1926 में कानपुर में अखिल भारतीय कांग्रेस महाअधिवेशन के अवसर पर होने वाले अखिल भारतीय हिन्दी कवि सम्मेलन में प्राप्त हुआ। कवि सम्मेलन शाम को सात बजे ही प्रारम्भ हो गया था परन्तु बड़ी रात तक चला। उस समय के प्रायः सभी लब्ध-प्रतिष्ठ कवि इसमें पधारे थे। दर्शक मण्डली भी बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित थी। सुप्रसिद्ध हिन्दी कवि ‘सनेही’ कविता पाठ करने वाले कवियों के नाम की घोषणा कर रहे थे और बीच-बीच मे दुलारे लाल अपनी पसन्द के कवियों को स्वर्ण पदक प्रदान करने की घोषणा कर रहे थे। उस समय मैंने इतना ही समझा कि श्री दुलारे लाल भार्गव कोई धन-सम्पन्न व्यक्ति है, जो इस प्रकार स्वर्ण पदकों की वर्षा कर रहे हैं। यद्यपि मैं कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में कानपुर गया था, तथापि इस कवि सम्मेलन मंे भी अपनी छोटी सी रचना सुनाई। मुझे बड़ा हस्तोत्साह हुआ जब श्रोताओं की गगनभेदी वाह-वाह के बावजूद श्री दुलारे लाल भार्गव ने मेरे लिए एक रजत पदक की भी घोषणा नहीं की। खैर, कवि सम्मेलन के अन्त में श्री दुलारे लाल जी मुझसे मिले और मुझे लखनऊ आने का निमंत्रण दिया।
    श्री दुलारे लाल जी के निकट सम्पर्क में आने का अवसर मैं गंवाना नहीं चाहता था, इसलिए शीघ्र ही समय निकालकर मैंने लखनऊ जाकर उनके दर्शन किए। उनसे मुझे इतना स्नेह और आतिथ्य मिला कि मैं भी अपने आपको कुछ समझने लगा और जब मैं ‘सरस्वती’ का सम्पादक बना तब श्री दुलारे लाल जी से बधाई का पत्र पाकर और भी गर्वित हुआ। उन दिनों श्री दुलारे लाल भार्गव ‘सरस्वती’ के जोड़ की पत्रिका ‘माद्दुरी’ के सम्पादक थे और अपने गिर्द हिन्दी के प्रायः सभी स्वनामधन्य कवियों और लेखकों को इस सीमा तक जमाकर लिया था कि स्वयं मुझे ही ‘सरस्वती’, ‘माधुरी’ के मुकाबले में पिछड़ी हुई सी प्रतीत होने लगी और मुझे अच्छी तरह याद है, इस अभाव को दूर करने के लिए मैंने ‘सरस्वती’ को राजनैतिक मंच पर उतारा।
    पता नहीं क्यों श्री दुलारे लाल भार्गव ने एकाएक ‘माधुरी’ से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया और अपनी ‘गंगा पुस्तक माला’ से ‘सुधा’ नाम की स्वतंत्र साहित्यिक पत्रिका निकाली और हिन्दी जगत में वे अत्यन्त दीप्तिमान नक्षत्र के रूप में चमक उठे। भारत की कृषि और औद्योगिक प्रगति कैसे हो सकती है, इस बारे में मुझे उन्होंने एक बड़ा सा उपन्यास लिखने के लिए कहा, उसके ‘प्लाॅट’ के बारे में उनसे काफी वाद-विवाद के बाद मैंने उसे लिख डाला। हिन्दी में मेरा यह तीसरा उपन्यास था, जो ‘जागरण’ के नाम से ‘गंगा पुस्तक-माला’ से श्री दुलारे लाल जी ने प्रकाशित किया था। छपने के बाद अपने उस उपन्यास को जब मैंने पुनः पढ़ा तब मुझे लगा कि श्री दुलारे लाल भार्गव कोरे प्रकाशक ही नहीं, हिन्दी के  उच्च कोटि के रचनाकार, लेखक और सम्पादक है। मुझे यह भी लगा कि श्री दुलारे लाल पुस्तकों का प्रकाशन व्यवसाय की दृष्टि से नहीं, हिन्दी जगत में घाटा सहकर भी श्रेष्ठ ग्रन्थ प्रस्तुत करने की दृष्टि से करते हैं।
    कानपुर कांग्रेस के अवसर पर मैंने बृहत् कवि सम्मेलन देखा था, उससे भी बड़े कवि सम्मेलन का लखनऊ में श्री दुलारे लाल जी ने एक आयोजन किया था। यह कवि सम्मेलन यद्यपि लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रांगण में हुआ था तथापि आगन्तुक कवियों में अधिकांश श्री दुलारे लाल भार्गव के निवास-‘कवि कुटीर’ में ही ठहरे थे। श्री दुलारे लाल जी की यह ‘कवि कुटीर’ दो प्रांगणों वाला भव्य भवन था जिसमें बड़े-बड़े बरामदे, कमरे, खुली छतें थीं और आधुनिकतम निवास की सभी सुविधायें प्राप्त थीं। इस कवि सम्मेलन के महिला विभाग को संगठित करने के लिए श्री दुलारे लाल भार्गव ने हिन्दी की तत्कालीन कवियत्री सावित्री एम.ए. को आमंत्रित किया था और इस तरह दोनों की साधन-सम्पन्नता, सम्मिलित छवि से यह कवि सम्मेलन-‘छवि-गृह दीप-शिखा जय बरइ’ के समान जगमगा उठा था। इस कवि सम्मेलन ने, सावित्री देवी और दुलारे लाल को इतना करीब ला दिया था कि अन्त में दोनों का अन्तर्जातीय विवाह हो गया। इस विवाह की रोक-थाम में दोनों तरफ के कट्टर परिवार असफल रहे। उसके बाद तो हिन्दी के सभी प्रकार के उल्लेखनीय समारोह में मुझे श्री दुलारे लाल और श्रीमती सावित्री दुलारे लाल के एक साथ दर्शन होने लगे। मैंने देखा कि श्री दुलारे लाल जी ने जहां श्रीमती सावित्री दुलारे लाल के ठाठ-बाट से रहने के लिए समस्त साधन जुटाये थे, वहां स्वयं एक साधारण लेखक और पत्रकार के रूप में रहते थे। दिल्ली में जब भी मैं जाता था दोनों ही मेरा बड़ा स्वागत सत्कार करते थे और उनकी बदौलत मैं नई दिल्ली की सड़कों पर ठाट-बाट से चाहे जहां उनकी मोटर-कार से आ जा सकता था।
    श्री दुलारे लाल भार्गव अब नहीं है तो लगता है कि हिन्दी लेखकों और कवियों का सबसे बड़ा मित्र खो गया है, कदाचित  ही कोई हिन्दी का लेखक अथवा कवि हो जिसे श्री दुलारे लाल जी से मुंह मांगी धन राशि न मिली हो। जो कोई भी लेखक या कवि श्री दुलारे लाल जी से मनचाही रकम नहीं पाता था वह श्री दुलारे लाल जी को अपशब्द तक कह बैठता था, परन्तु उसका जरा भी बुरा न मानकर वे उसको सब प्रकार से तृप्त करने की चेष्टा करते रहते थे। कांग्रेस के क्षेत्र में जहां वे पं0 जवाहर लाल नेहरू, राजर्षि टंडन जी, लाल बहादुर शास्त्री  आदि के निकट सम्पर्क में रहते थे, और वहीं हिन्दी में मैथलीशरण गुप्त, प्रेमचन्द्र, निराला आदि के अच्छे सहकर्मी थे, वहीं धन कुबेरों में सेठ रामकृष्ण डालमिया आदि के निकटतम सम्बन्धी भी थे। परन्तु वे जितने धन सम्पन्न थे उतने ही बड़े निराभिमानी थे, और एक साधारण लेखक और पत्रकार का जीवन उन्हें प्रिय था। दिल्ली-लखनऊ की सड़कों पर वे अपने सम-कालीन लेखकों को सुविधा प्रदान करते थे कि वे मोटर पर ठाट बाट से चलें परन्तु स्वयं बाइसिकिल पर अथवा कभी-कभी तो पैदल ही बहुत दूर तक आते-जाते थे; किंतु जहां भी वे बाईसिकिल पर या पैदल दिखाई पड़ जाते थे वहीं लेखकों, कवियों, विद्यार्थियों आदि का समूह उनके साथ लग जाता था और बिना किसी भेदभाव के सबको अच्छे से अच्छे होटल या रेस्टरां में ले जाकर खिलाते-पिलाते थे। एक बार हम लोग कोई आठ-दस साहित्यकार दिल्ली में दुलारे लाल जी के साथ चल पड़े। वे सबको एक प्रसिद्ध होटल में ले गए। पकवानों की सूची मांगी और सबको दिखलाते हुए कहा-‘‘गाओ जिसको जो पसन्द आए।’’ एक-एक करके अनेक डिशें आने लगी और उनकी समाप्ति पर बैरा जब बिल लेकर आया, दुलारे लाल जी ने बिल हाथ में लेते हुए हम सबसे पूछा-‘‘और कुछ’’ मैंने कहा-‘‘काफी है’’ बैरा बजाए दुलारे लाल जी से पैसे लेने के उल्टे पावों भागा और सबके सामने लाकर काफी भरे प्याले उपस्थित कर दिये। दुलारे लाल जी बहुत जोर से हंसे, बोले ‘‘श्री नाथ सिंह यह तुमने कभी सोचा भी न होगा कि इस होटल वाले हिन्दी साहित्यकारों को ‘काफी’ का श्लेष सिखा रहे हैं।’’
    दुलारे लाल जी साहित्यकारों की लम्बी यात्राएं आयोजित करते थे और कभी-कभी तो सबके लिए रेलगाड़ी का पूरा एक डिब्बा रिजर्व करा लेते थे। एक बार उन के मन में आया, हिन्दी के साहित्यकारों को राजस्थान की वीर भूमि देखनी चाहिये और फिर कोई 30-35 साहित्यकारों की एक बड़ी टोली को राजस्थान के समस्त ऐतिहासिक नगरों के भ्रमण करवाए। उदयपुर में हम सब लोग महाराणा के और कांकरोली में वहां के प्रसिद्ध महन्त के मेहमान हुए। हम सब लोगों ने दुलारे लाल जी की कृपा से नागद्वारा, चितौड़गढ़, हल्दी घाटी आदि इतिहास प्रसिद्ध स्थान देखें।
    श्री दुलारे लाल भार्गव के अनेक संस्मरण हैं जिनको यदि मैं लिखू तो इस लेख का कलेवर बहुत बढ़ेगा अतएव मैं लेख को समाप्त करने से पहले उनके दो-एक संस्मरण यहां सुनाता हूं। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जब विधानसभा के अध्यक्ष हुए तब श्री दुलारे लाल जी उनके निवास स्थान पर नित्य ही आने जाने लगे क्योंकि दुलारेलाल जी की तरह टण्डन जी भी हिन्दी वालों के लिए आकर्षण के केन्द्र थे। टण्डन जी के पास एक दिन एक आशु कवि ने दुलारे लाल जी पर व्यंग करते हुए एक दोहा सुनाया। दोहा लिखने की प्रेरणा उन्हें बुद्ध देव की मूर्ति से मिली थी, जो टण्डन जी के ड्राइंग रूम में एक मेज पर सजावट के तौर पर रखी थी। बुद्ध देव की मूर्ति के पास ही एक घडि़याल की मूर्ति सजा कर रखी गई थी। आशु कवि ने सुनाया - बुद्ध देव के पास यों, शोभित है घडि़याल, टण्डन जी के पास ज्यों बसे दुलारे लाल
इस पर टण्डन जी ने आपत्ति की तब उस आशु कवि ने अपने उस दोहे को तत्काल सुधारा और कहा - बुद्ध देव की मूर्ति ढिग रखी है बरमाल, टण्डन जी के पास ज्यों बसे दुलारे लाल।
    इस पर सभी लोग बहुत हंसे और दुलारे लाल जी तो और भी अधिक हंसे।
    एक कवि सम्मेलन में दुलारे लाल जी ने अपने दोहे सुनाए परन्तु किसी ने बाह-वाह की ध्वनि न की उसके बाद ही श्रमती सावित्री दुलारे लाल ने अपने कविता सुनाई और उस पर श्रोताओं ने बड़ी हर्षध्वनि की तब उन्हीं आशु कवि महोदय ने यह पद्य सुनाया - होड़ मर्दो में व औरतों में है भारी, मिनिस्टर तक बनने लगी है नारी, एक कविताई बची थी दुलारे लाल के लिए, उसमें भी सावित्री ने बाजी मारी।
    पाकिस्तान पर भारत की विजय के उपलक्ष्य में श्री दुलारे लाल द्वारा आयोजित अन्तिम कवि सम्मेलन मैंने रवीन्द्रालय में देखा। उसके सभापति श्री दुलारे लाल जी स्वयं थे और उसमें प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी उपस्थित थीं। इस कवि सम्मेलन का संचालन और दायित्व ‘प्रियंका परिवार’ ने ही निभाया था।
    दुलारे लाल जी की जन्म तिथि के इस अवसर पर हम श्रद्धा से उन्हें नमस्कार करते हैं और ‘प्रियंका’ का यह अंक निकालने वालों को हार्दिक बधाई देते हैं।
(लेखक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष व ‘सरस्वती’ के पूर्व सम्पादक हैं)

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