Sunday, November 6, 2011

अभिनव बिहारी श्री दुलारे लाल भार्गव

राम प्रकाश वरमा
    ब्रजभाषा सैकड़ों वर्षों तक अधिकांश भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा और काव्य भाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ रही है। इस भाषा में सूर, बिहारी, देव आदि अनेक कवियों ने अपनी रचनाएं लिखकर इसे इतना परिपूर्ण बना दिया है कि इसे शिक्षित वर्ग द्वारा बहिष्कृत करने पर अपमान का बोध होता है। आधुनिक काल में हमने खड़ी बोली को (स्टैन्डर्ड) मर्यादित भाषा मान लिया है, और इसका विस्तार हरिऔध, पंत, गुप्त आदि अनन्य कवियों ने किया है। परन्तु ब्रजभाषा का सर्वथा परित्याग प्राचीन हिन्दी काव्य-ग्रन्थों का परित्याग होगा। आधुनिक काव्य में सनेही जी, रत्नाकर जी, सिरसजी, उमेश जी तथा पं0 दुलारे लाल जी आदि कवियों ने अपनी रचनाओं से अलंकृत करके ब्रजभाषा को मृतप्राय होने से उबार लिया है। परन्तु खेद के साथ यह कहना पड़ता है कि आज अनेक व्यक्ति हिन्दी साहित्य से ही विमुख होते जा रहे हैं। अश्लील साहित्य का प्रचार-प्रसार बढ़ता जा रहा है। ऐसे ही कुछ व्यक्तियों ने धारणा बना ली है कि हिन्दी भाषा अन्य भाषाओं से तुच्छ है। ये लोग न तो हिन्दी साहित्य का अध्ययन करना चाहते हैं और न हिन्दी साहित्य विशारदों और विद्वानों से उसके विषय में जानकारी प्राप्त करते हैं। आज अधिकांश व्यक्ति पढ़ लिखकर उच्च पद पर आसीन होना चाहते हैं। अपना देश क्या है? अपनी भाषा क्या है? इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं।
    किसी देश या जाति को जीवित रखने में भाषा और साहित्य कहां तक सहायक है, इसे जानने के लिए हिन्दी के प्राचीन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। हिन्दी के समान विशाल साहित्य अन्य प्रान्तीय भाषाओं में होना दुर्लभ हैं क्योंकि इसमें ही तो हिन्दू-जाति के गत 900 वर्षों के उत्थान तथा पतन का भावनामय वर्णन अंकित है।
    ब्रजभाषा हिन्दी की प्रधान शाखा है, और इसी में हिन्दी का गौरवपूर्ण साहित्य है। इसी भाषा में अनेकानेक महाकाव्य हैं, जो सर्वथा प्रसंशनीय हैं। इनमें सैकड़ों विद्वान और प्रतिभाशाली महाकवि हुए हैं, मीरा, सूर, केशव, मतिराम, बिहारी, रहीमदास, सेनापति और हरिश्चन्द्र आदि। कवि बिहारी लाल हिन्दी संसार के सर्वश्रेष्ठ कलाकार हैं, ‘बिहारी सत्सई’ लिखकर अटल कीर्ति उपलब्ध की है।
    दोहा हिन्दी जगत में इतना प्रचलित रहा है कि कभी-कभी अपढ़ स्त्रियों, निरक्षर कृषकों के मुख से सुना गया है। सतसई के दोहों तथा तुलसी कृत रामायण के विषय में कहा जाता रहा है कि ऐसी कृति आगे सम्भव न होगी। परन्तु आधुनिक हिन्दी काव्य सर्जक ‘माधुरी’, ‘सुधा’ के सम्पादक स्व0 आचार्य पं0 दुलारे लाल जी भार्गव द्वारा रचित ‘दुलारे दोहावली’ बिहारी सतसई के टक्कर की 1932 में बताई जा चुकी हैं। लोगों की द्दारणा मिथ्या साबित हो चुकी है। उसकी कुछ बानगी यहां प्रस्तुत है:-
तिय-रतननि हीरा यहै, यह सांचै ही सौर।
जेती उज्जल देहि-दुति, तेतो हियो कठोर।।
हरी-हरी प्रिय बंसरी, बहरावति बर-बैन।
हामी भरि नाहीं करति, हंसति तरेरति नैन।।

    उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है, दोहावली में श्रेष्ठ और गम्भीर वर्णनों का आगार है। ‘दुलारे-दोहावली’ के कुछ दोहे तो ‘बिहारी-सतसई’ से भी बढ़कर हैं। इसका ज्ञान, ओरछा नरेश की ओर से प्रदान किये गये प्रथम देव-पुरस्कार (अयोध्या सिंह जी उपाध्याय ‘हरि-औद्य’ द्वारा रचित ‘प्रिय-प्रवास’ के टक्कर में) से होता है।
    काव्य-मर्मज्ञों एवं हिन्दी विद्वानों ने आपको अभिनव बिहारी तक की पदवी दे डाली है। कुछ एक ने तो ‘बिहारी लाल’ तथा ‘दुलारे लाल’ नामों की मात्रा तथा अक्षर की समता को देखकर कह डाला कि सम्भवतः बिहारी का ही पुर्नजन्म श्री दुलारे लाल जी हों।
    राजघराने में पैदा हुए इस लाडले लाल को विज्ञान का बड़ा शौक था। दादा की अभिलाषा थी कि पौत्र आई0सी0एस0 होकर बड़ा अधिकारी बने। पिता की इच्छा थी पुत्र विलायत जाकर विज्ञान का स्नातक होकर लौटे। पर हिन्दी के इस सपूत से तो हिन्दी की सेवा सुनिश्चित थी।
    पं0 दुलारे लाल जी भार्गव का जन्म सम्वत् 1956, नवल किशोर रेजीडेन्स, महात्मा गांधी रोड, लखनऊ में बसंत पंचमी के शुभ-दिन हुआ था। आप स्व0 श्रीमान प्यारे लाल जी भार्गव के ज्येष्ठ पुत्र थे। आपका लालन-पालन धनी-मानी स्व0 मुशी नवल किशोर जी सी0आई0ई0 के यहाँ ही हुआ था। आप प्रतिभाशाली विद्यार्थी रहे। अंग्रेजी में प्रान्त भर में प्रथम आने पर नेस्फील्ड स्कालरशिप मिला। आपका विवाह श्री फूलचन्द जी भार्गव, एक्स्ट्रा असिस्टेन्ट कमिश्नर की सुपुत्री श्रीमती गंगा देवी से 15 वर्ष की अल्प आयु में ही हो गया था। पत्नी का साथ अल्प समय ही रहा था।
    हिन्दी सेवा व्रतधारी सरस्वती पुत्र ने अपने प्रिय मित्र और चाचा श्री विष्णु नारायण जी भार्गव के सहयोग से ‘माधुरी’ निकाली। उसी समय से हिन्दी साहित्य में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। जिसका श्रेय आचार्य पं0 दुलारे लाल जी भार्गव को है। ‘माधुरी’ को योग्य हाथों में सौंप कर हिन्दी के इस महारथी ने ‘सुधा’ मासिक पत्रिका को जन्म दिया। यह पत्रिका हिन्दी संसार में अग्रगण्य रही। उस समय ‘सरस्वती’ की हालत नाजुक हो चुकी थी। इसे श्री पदुमलाल पुन्नालाल  जी बख्शी (1920-21 ई0 के ‘सरस्वती’ सम्पादक) ने स्वयं स्वीकार किया। ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ के माध्यम से आप महिला लेखिकाओं को प्रोत्साहन देते रहे। नये लेखकों को प्रोत्साहन देकर बढ़ावा देते रहे। जहां स्वयं हिन्दी की सेवा की वहां दूसरों को भी प्रेरित करते रहे, इतनी सेवा अन्यत्र दुर्लभ है। आपका ही एक दोहा सेवा के विषय में उदाहरणार्थ प्रस्तुत है:...
सेवा ही संसार में सब सुख, स्रोत-सुजान, सेइ भानुकुल-भानु-पद भे हनुमान महान।
सेवा ही उनके जीवन का एक अभिन्न अंग बन गई, आखिरी सांसों तक वे हिन्दी की सेवा तथा जन-मानस की सेवा में लीन रहे। हिन्दी साहित्य का ऐसा सच्चा हितैषी बिरले लोगों में ही मिलेगा।
    हिन्दी पुत्र के चरणों में हमारे श्रद्धा-सुमन अर्पित है।

No comments:

Post a Comment