Sunday, November 6, 2011

मेरे अग्रज

-ज्योति लाल भार्गव
ज्येष्ठवर दुलारेलाल भार्गव जी का जन्म माघ शुक्ल 5, संवत 1956 को, बसंत पंचमी के दिन, लखनऊ में हुआ था। पूज्य पिता प्यारेलाल की प्रथम संतान होने के नाते संपूर्ण  नवल किशोर रेजिडेंस, जहां हमारा एक प्रकार से संयुक्त परिवार में निवास था, प्रफुल्लित हो उठा। पूज्य पितामह मुंशी प्रयाग नारायण व नवल किशोर रायबहादुर वंशोद्धव सभी शाखाओं के अभिभावक एवं प्रद्राय प्रश्रय थे। लक्ष्मी उन पर कृपालु थी, जिसका वरद्हस्त किंचित हम पर भी था। उन्होंने बड़े लाड़ से नाम रखा ‘दुलारे’ हो गया दुलारे लाल। पूज्य पिता एक प्रकार से इंजीनियर थे। उनकी क्षमता एवं कार्य कुशलता से लखनऊ में सर्वप्रथम, निजी प्रयास से नवल किशोर रेजीडेंस विद्युत प्रकाश से जगमगा उठा। पुरानी ‘फोर्ड’ मोटर के मालिक भी प्रथमतः वही थे।
    दुलारे लाल जी की शिक्षा-दीक्षा सर्व सुलभ सुविधाओं के मध्य राजसी ठाठ से हुई। वे अत्यन्त मेधावी छात्र थे। मैट्रिक में, अंग्रेजी में प्रांतभर में सर्वप्रथम आने के कारण, उन्हें ‘नेस्फील्ड स्कालरशिप’ मिली। इस रूपये को वह अपने निर्धन सहपाठियों को सहायतार्थ वितरित कर देते थे। उस समय हमारे बाबा, पिता, चाचा आदि सब उर्दू-फारसी में शिक्षा प्राप्त थे। परिवार में प्रथम बार दुलारे लाल जी, मुंशी विशन नारायन आदि की पीढ़ी में हिन्दी का प्रवेश एवं पठन पाठन हुआ। इस सन्दर्भ में पितामह प्रयाग नारायण एवं मातेश्वरी श्रीमती रामप्यारी की विशेष प्रेरणा थी। भाभी गंगा देवी ने कुछ ही समय साथ रहकर हिन्दी की पौध दुलारे लाल जी के हृदय में रोपित की और, वह आई0सी0एस0 की परीक्षा भूल कर पत्नी के दिवंगत होने पर, तन-मन से हिन्दी सेवा में लग गए।

गंगा पुस्तकमाला का प्रारम्भ
सन् 1917 में दुलारे लाल जी ने अपनी सहधर्मिणी गंगादेवी के नाम पर ‘गंगा पुस्तक माला’ को स्थापित करके अपनी प्रथम कृति ‘हृदय-तरंग’ प्रकाशित की। प्रथमतः ‘भार्गव’ पत्र निकालकर, बाद में ‘भार्गव’ पत्रिका का सम्पादन-भर सम्भालकर उन्होंने परम-पिता परमेश्वर से प्रार्थना की।
घनश्याम, गुणधाम हरे,
करें हमें सुखधाम हरे।
मन में भव्य भक्ति भर दें,
तन में भव्य शक्ति कर दें।

    इस आरंभकालीन पद ने उनका पग-पग पर समर्थन किया।
    दुलारे लाल जी जब 21 वर्ष के नवयुवक थे तब ‘गंगा पुस्तक माला’ से लगभग एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित कर चुके थे। इन सुसम्पादित, सुसज्जित प्रारंभिक प्रकाशनों ने हिन्दी को नया आयाम देना शुरू कर दिया था। फलतः श्रावण शुक्ल 77, शुभ तुलसी-संवत् (1979 वि0) ता0 30 जनवरी, 1922 ई0 को ‘माधुरी’ का जन्म हुआ। दुलारे लाल जी भार्गव और रूप नारायण पाण्डेय इसके संयुक्त सम्पादक थे।
    निःसंदेह ‘माधुरी’ को सर्वश्रेष्ठ लेखकों व कवियों का जो सहयोग मिला, वह दुलारे लाल जी के सानुरोध निरंतर आग्रह का ही चमत्कार था। उन्हें सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध और देवीदत्त शुक्ल से आशीर्वाद भी प्राप्त होता रहा।
प्रतिभाओं की पहचान: उस समय के साहित्यकार साधक थे; निर्धन रहकर भी वे लगन से लेखन-कार्य करते थे। ‘माधुरी’ की यह विशेषता रही है कि उसने नवयुवक लेखकों को भरपूर प्रश्रय दिया, उनको प्रोत्साहित किया। इस वर्ग में नवयुवक ‘निराला’, ‘पंत’, भगवतीचरण, गोविन्द बल्लभ पंत, इलाचन्द्र जोशी आदि आते हैं। निराला जी की कविता ‘जूही की कली’ आचार्य द्विवेदी ने वापस कर दी थी। श्री बख्शी जी ने एक अन्य कविता को, समझ में न आने के कारण, छापने से इनकार कर दिया था। तब आचार्य शिव पूजन सहाय ने दुलारे लाल जी को लिखा कि वह निराला जी की सहायता करें। फलस्वरूप ‘माधुरी’ के अप्रैल 1923 के अंक में निराला जी की कविता ‘अधिदास’ प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुई। इस प्रकार दुलारे लाल जी ने उन्हें उच्च साहित्यिक महाराथियों के समकक्ष विराजमान कर दिया।
    इन प्रतिभाओं की पहचान में आज के वे अधिकांश मूर्द्धन्य साहित्यकार आते हैं, जिनकी तरूण भाषा को सुधारकर, ‘माधुरी’-‘सुधा’ में प्रकाशित किया गया तथा उनके चित्र छाप कर उन्हें हिन्दी जगत के समक्ष समुपस्थित किया। आज ये ही साहित्यकार अपने प्रथम प्रदाता को भूलें बैठे हैं; वे जान-बूझकर उस युग के प्रवर्तक की सेवाओं को विस्मृति के गढ़ में डालने का प्रयास कर रहे हैं। विधि की विडम्बना।
मुक्त हस्त व्यय: दुलारे लाल जी स्वभावतः दयालु, सहृदय और दूसरों के दुःखों से द्रवित हो जाने वाले व्यक्ति थे। वे सब की सहायता को सदा तत्पर रहते थे। जिस किसी साहित्य-सृजन में लगे लेखक या कवि ने आर्थिक सहायता की याचना की, उसकी उन्होंने (यदाकदा धनाभाव होने पर भी) मदद की। अनेक नवोदित साहित्यकार वृति की तलाश में आए और ‘माधुरी’, ‘सुधा’ के सम्पादकीय विभाग में सहकारी नियुक्त कर लिए गए, चाहे आवश्यकता हो चाहे न हो। कदाचित् ही कोई कथाकार, उपन्यासकार अथवा कवि हो, जिसकी प्रथम कृति या पुस्तक को गंगा पुस्तक माला में न गूंथा गया हो। पारिश्रमिक भी उस समय के अनुरूप यथेष्ठ दिया गया। आज भी किसी एक ग्रंथ पर 2,000/- रु0 का पुरस्कार प्राप्त करना दुर्भभ है; उस काल में 2000/- रु0 वाला धनी समझा जाता था। यह वह समय था जब हिन्दी पुस्तकों की बिक्री नगण्य थी। फिर भी ‘माला’ की प्रकाशन गति निरंतर बढ़ती गई; परिवार का निजी धन व्यय करके भी वस्तुतः यह पोषण था; शोषण नहीं।
‘सुधा’ का प्रकाशन: दुलारे लाल जी घोर राष्ट्रवादी थे। टण्डन जी, लाल बहादुर शास्त्री जी, रफी साहब आदि का उनसे प्रगाढ़ नित्य का सम्पर्क था। ‘माधुरी’के माध्यम से उन्होंने कांग्रेस का खुलकर समर्थन किया था; यह भी एक कारण था। फलस्वरूप दुलारे लाल जी और रूपनारायण पाण्डये ‘माथुरी’ से अलग हो गए। उन्होंने पुनः संयुक्त सम्पादकत्व में ‘सुधा’ को श्रावण 305 तुलसी संवत (1984 वि0) के दिवस जन्म दिया। प्रथम अंक में दुलारे लाल जी ने लिखा: ‘‘अब हम ‘सुधा’ को भी हिन्दी-संसार की सबसे उत्कृष्ट, उपयोगी और लोकप्रिय पत्रिका बनाने की चेष्टा करेंगे। हमने अपना निजी प्रंस-गंगा फाइन आर्ट प्रेस भी कर लिया है। चित्रकला के विशेषज्ञ चित्रकार तो हमारे यहां पहले ही से थे।’’
    ‘सुधा’ को प्रथम अंकसे ही समस्त मुर्द्रन्य साहित्यकारों का सहयोग मिला। विविध विषयों से विभूषित ‘सुधा’ न केवल साहित्यिक, वरन् पारिवारिक पत्रिका बन गई। उसकी ग्राहक संख्या 6000 से ऊपर हो गई। हिन्दी मासिक साहित्य में यह अभूतपूर्व था। एक अंक की तो, अत्याधिक मांग होने के कारण, पुनः मुद्रण कराना पड़ा है। प्रशस्त्रियों एवं सराहनाओं का ढेरा लग गया। विश्व प्रसिद्ध डाॅ0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा:- ‘दुलारे लाल जी उत्तरीय भारत में ‘सुधा’ जैसे उच्च कोटि की पत्रिका के सम्पादक की हैसियत से सुप्रसिद्ध है’’
सम्पादकाचार्य दुलारे लाल भार्गव: ‘सुधा’ छपाई-सफाई ले-आउट एवं अभिकाव्य में सर्वश्रेष्ठ थी। उस समय जो तिरंगे चित्र उसमें प्रतिमास छपे, वे न केवल कला की दृष्टि से, बल्कि मुद्रण-कला के दृष्टिकोण से भी अनुपम थे। ‘सुधा’ में प्रफरीडिं़ग और भाषा के गठन पर विशेष ध्यान दिया जाता था। आचार्य शिवपूजन सहाय हेड प्रूफ-रीडर थे और ख्याति-प्राप्त पं0 गौरीशंकर द्विवेदी उनके सहयोगी। अन्तिम प्रूफ व भाषा संशोधन दुलारे लाल जी की कुशलता लेखनी से होता था। क्या मजला कि एक भी अशुद्धि या भूल रह जाए। फार्म के छपते-छपते भी, भूल पकड़ी जाने पर, मशीन रूकवा कर संशोधन करा दिया जाता था। पं0 रूपनारायण पाण्डेय भाशा की शुद्धता एवं प्रांजलता के तथा, दुलारे लाल जी शैली, वर्तनी एवं विराम-चिन्हांकल के लिये उत्तरदायी थे। निराला जी ने लिखा था: - ‘‘माधुरी के सम्पादन से सम्मानित आप लोगों की योग्यता ‘सुद्दा’ में और चमकी है, मैं निस्संदेह कहंूगा ‘सुधा’ प्रथम संख्या से ही प्रथम श्रेणी की पत्रिका बन गई। आपका अध्यवासाय संचालन शक्ति तत्परता और सौदर्य ग्राहिक आदि प्रशंसनीय हैं।
आचार्य शिव पुजन सहाय जी ने लिखाः
सुस्वर लहरी प्लावित वह पुण्य प्रदेशः सुधा वहां लहरा रही है।
सद् गं्रथो का सम्पादन - प्रकाशनः  
अपने जीवन काल में दुलारे लाल जी ने लगभग 700 गं्रथों का सम्पादन प्रकाशन किया। हिन्दी में यह एक मानक है। उन्होने कतिपय गं्रथों के सम्पादन में अभूतपूर्व परिश्रम किया। और अपनी अनन्य क्षमता प्रतिभा का प्रदर्शन किया। ‘रंगभूमि’ के लेखन प्रकाशन में उन्होने विशेष रूचि ली।
दुलारे लाल जी का सर्वश्रेष्ठ सम्मानित ग्रंथ ‘‘बिहारी रत्नाकर’’ है। जिसमें एक वर्ष से भी अधिक समय लगा। नेस्फील्ड स्कालरशिप प्राप्त दुलारे लाल जी ने अपने  व्याकरण ज्ञान का ‘बिहारी रत्नाकर’ के सम्पादन में भरपूर उपयोग किया है। इस सुसम्पादित ग्रंथ में कामा, कोलन, सेमीकोलन, कोष्टक, बड़ा कोष्टक डैश आदि के इस्तेमाल की अद्भुत छटा है। हिन्दी के किसी ग्रंथ में आज तक इतना कौशल पूर्ण सम्पादन नही हुआ। 700 दोहों के शुद्ध रूपांकन में वह और रत्नाकर जी घण्टों विचार विमर्श करते रहते थे तभी ग्रंथ शुद्ध छप सका। रत्नाकर जी सदैव दुलारे लाल जी को इस क्षमता की दाद देते थे। इस सुसम्पादित ग्रंथ के बारे में डा0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा हैः
‘‘माला (सुकवि माधुरी माला) की इस शुभ पुस्तक के प्रारंभ के लिये प्रकाशक तथा प्रधान सम्पादक (दुलारे लाल) बधाई के पात्र है। आशा है, और ग्रंथ भी, जो इस माला में गूंथे जायेगें, विद्धता में इसी दर्जें के होेंगे।
    संक्षेप मे हम निस्संदेह कह सकते है कि सर्वश्री प्रेमचन्द्र, निराला, मिश्रबधु, वृन्दावन लाल वर्मा, गोविंद वल्लभ पंत, कौशिक आदि सैकडो़ लेखकों व कवियों एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी सरीखे सम्पादकों की कृतियों पर दुलारेलाल जी की अनुभवी सम्पादन-कला की दृढ़ छाप हैं। अशुद्धियों से रहित ‘माधुरी-सुधा’ एवं सैकड़ो पुस्तकांे की छपाई-सफाई-मुद्रण में अनन्य, हिन्दी साहित्य को दुलारे लाल जी की अनुपम भेंट है। वस्तुतः दुलारे लाल जी हिन्दी के सर्वकालीन सम्पादकाचार्य कहे जा सकते है।

कवि सम्मेलनांे व साहित्यिक गोष्ठियों की परम्परा के जनकः श्री दुलारे लाल जी कवि सम्मेलनों एवं काव्य गोष्ठियों के बेहद शौकीन थे। कराची से लेकर लाहौर तक, कलकत्ता से लेकर गुरूकुल कांगड़ी तक, उन्होने सैकड़ांे कवि सम्मेलनो एवं गोष्ठियों का सभापत्वि किया होगा। फरवरी 1937 में उन्होनें यू0पी0 इण्डस्ट्रियल एवं एग्रीकल्चर एक्जिवीशन में सर्वप्रथम अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें अनेक देशी नरेश एवं अवध के राजा तथा लगभग 67 मूर्द्धन्य कवि उपस्थित थे। 3000 से ऊपर भीड़ सुसज्जित पण्डाल में घंटों कवियों का काव्य-पाठ होता रहा। इतने विशाल स्तर पर कवि-सम्मेलन फिर कभी न हुआ। उत्तर प्रदेश शासन में दुलारे लाल जी भार्गव और मुझे (मंत्री, कवि-सम्मेलन) को एक-एक शासकीय ‘सनद’ प्रदान की। 1972 में दुलारे लाल जी प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी को रवीन्द्रालय में आयोजित कवि सम्मेलन में ले आये। वे आधा घंटे के लिए पधारी थीं, परन्तु उत्सुकता और दिलचस्पीवश लगभग डेढ़ घंटा बैठी रहीं।
वस्तुतः उस जमाने में ‘कवि कुटिर’ हिन्दी साहित्यकारों का तीर्थ-स्थल था, और दुलारे लाल जी उनके केन्द्र बिन्दु थे।
कला पारखी दुलारे लालः
दुलारे लाल जी कला -पारखी थे। ‘माधुरी’ के प्रकाशन में उन्होनें चित्रों के समावेश पर अधिक ध्यान दिया, सभी प्रदेशों से उच्चकोटि के चित्र मंगाकर प्रकाशित किये। ‘माधुरी’-‘सुधा‘ के प्रत्येक अंक में तीन-तीन रंगीन, चित्र छपते थे। हिन्दी पत्रिकाओं के लिए यह अभूतपूर्व था। राय कृष्णदास ने इस विषय में दुलारे लाल जी को अनेक बधाई पत्र लिखे अनेक चित्र भी मांग कर प्रकाशनार्थ भेजें। सुप्रसिद्ध चित्रकार मुहम्मद हकीम को रू0 150 मासिक पर रखा। वे नित्य नए चित्र बनवाते रहते थे। ‘सुधा’ में चित्रकला पर गंभीर लेख प्रकाशित होते थे, विशेषकर डा0 हेमचन्द्र जोशी (बर्लिन) द्वारा लिखित। उनके द्वारा लिखित फ्रेंच चित्र कला के गत 100 साल, ऐतिहासिक कृति है।
चित्रों पर कविताः
बिहारी लाल के दोहों पर बाद में अनेक चित्र बने हैं। परन्तु दुलारे लाल जी ने यह परंपरा सबसे पहले कायम की। चित्र बन जाने पर दोहे लिखे और खूब लिखे। बिना चित्र देखे इनके दोहों को पढ़कर समक्ष चित्र खिंच जाता है, हमारे सामने समां बंध जाता है।
काव्य प्रतिभा के धनीः
दुलारे लाल जी के काव्य पर अन्यत्र विश्लेषणात्मक लेख दिए गए है। वें आशु-कवि तो न थे, परन्तु चलते-फिरते कविता रचने में पटु थे। काशी में द्विवेदी मेला में उन्होंने जो कतिपय दोहे तुरन्त रचकर सुना दिए, उनकी सराहना उपस्थित साहित्यकारों ने तुरन्त ही की; वे खिल उठे। कलकत्ता में भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सुअवसर पर नाहर म्यूजियम के संस्थापक श्री पूरन चंद नाहर, दुलारे लाल जी और रत्नाकर को म्यूजियम अवलोकनार्थ ले गए थे। उस समय दुलारे लाल जी ने तत्काल एक दोहा रचकर सुनायाः
    सत साहित्य सुधांसु-सुधि,
        कलित कला कुमुदेस-
    उमगत ‘पूरन चंद’ लखि,
        ‘रत्नाकर‘ उर देस।

पूरन चन्द और रत्नाकर जी बहुत हंसे। दुलारे लाल जी ने अपने बारे में लिखा है;
    चहत न धन, मान, सुख
        मुकति ध्यान हूं नाहि;
    उर उमंग जब-जब उठत,
        उकति उदित कहि जाहि।

अपने अंतिम 10 वर्षो में वे रामायण दोहों में लिखने की योजना साकार कर रहे थे। उन्होंने बहुत से दोहे लिख भी लिए थे, जिन्हें वे बड़े चाव से सुनाते थे। खेद है, अव्यवस्थित चित होने के कारण वे इस शुभ कार्य की पूर्ति न कर सके। उनके लिखे वे सुन्दर दोहे भी परिवार-जनों के अधिकार में पड़े विनिष्ट हो रहे है।
काश, इन्हें प्रकाश में लाया जाता। क्या सुयोग्य श्रीमती जी इस ओर ध्यान देंगी।
अंतिम कालावधिः
    दुलारे लाल जी का अंतिम समय कुण्ठा, निराशा, साहित्यकारों की अकृतज्ञता-जनित क्षुद्रता में व्यतीत हुआ। परिवार-जनों ने व्यापार को शिथिल कर दिया और उनकी योजनाओं को आगे न बढ़ाने दिया। वह भावुक और अततः धार्मिक हो उठे। संत कृपाल सिंह का उन पर प्रभाव पड़ा। वे अनहद नाद सुनने लगे। इन दस वर्षों का पूरा समय उन्होने परोपकार तथा बीसियों नवयुवकों को सहायता, सहारा एवं प्रोत्साहन में व्यतीत किया। उनके हित वे मीलों साइकिल पर अथवा पैदल चले जाते थे। उनके प्रभाव से अनेक नवयुवक आज भी सरकारी सेवाओं व अन्य धंधों में लगे हैं। उस समय उन्होने जो दार्शनिक व धार्मिक दोहे लिखे वे स्तुत्य है, यथा-
राधा गगनांगन मिलै धारापति सौं धाय,
पलट आपुनों पंथ पुनि धारा ही ह्नै जाय,
महान दुखः और पश्चाताप की बात है कि हम उस महान आत्मा का समादर न कर सके, आज भी परिवार के लोग, बंधु-बांधव एवं साहित्यकार उनके प्रति कर्तव्य से अचेत हैं। क्या इस घोर व्यथा का परिमार्जन होगा?
हमें उनके अन्तिम संदेश को साकार करना है, उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करना हैं
    समुझि धरम करि करन,धरि
        न फल-चाह मन माँह,
    दिवस-रात तरू देत ज्योै,
        प्रभा, अेधरी छाँह।

No comments:

Post a Comment