बसन्त लाल ‘विशेष’
‘जाने बिनु न होय परतीती, बिन परतीति होय नहिं प्रीती’
बिना प्रदर्शन (परिचय) के प्रभाव नहीं होता, लोग मजाक बनाते हैं। हमारी बातों को अतिश्योक्ति मान लेते हैं। इसीलिए कहना ही पड़ता है-
ललकत ललचत लाल की, लखन लालिमा लाल।
गंगा पुस्तक माल, सुधा-माधुरी, चाकरी करी दुलारे लाल।
भार्गव जी विशिष्ट साहित्यकारों की नजर में -
बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’
‘माधुरी’ तथा ‘गंगा’ पुस्तक माला’ के संपादक, हमारे मित्र श्री दुलारे लाल जी भार्गव ने ‘बिहारी रत्नाकर’ को प्रकाशित करने में बड़ा उत्साह प्रदर्शित किया और इसके संशोधन में बहुत बड़ी सहायता दी।
पं0 कृष्ण बिहारी मिश्र -मिश्रबंधु’
आपसे हिन्दी का उपकार हुआ और हो रहा है। वैसा भारतेन्दु हरिश्चंद्र के पश्चात केवल इने-गिने महानुभावों द्वारा हो सका है। आशा है कि आगे चलकर आप हिंदी का विशेष हित कर सकेंगे। ‘दुलारे-दोहावली’ आपकी उत्तम तथा श्रेष्ठ कृति है।
आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी
बहुत-सी महत्वपूर्ण तथा मनोरंजक पुस्तकें ‘गंगा पुस्तक माला’ के माध्यम से प्रकाशित कर हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि में विशेष सहायक हुए। उनके पुस्तक प्रकाशन का यह क्रम यदि इसी तरह चलता रहा तो निश्चय ही भविष्य में यह अभिवृद्धि अधिकाधिक होगी।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
लखनऊ जैसे उर्दू के गढ़ में हिंदी का विशाल स्वरूप समक्ष रखकर जन-जागरण की रूचि बदलने में दुलारे लाल जी अग्रणी है। उनकी हिंदी सेवाओं का मूल्य निर्धारित करना मेरी शक्ति से परे है। यह कोई साधारण बात नहीं है।
शेक्सपियर की शैली में कोई जन्मजात महान होते हैं और महत्ता के भारवाहक बना दिए जाते हैं।
ैवउम ंतम इवतद हतमंजए ैवउम ंबीपअम हतमंजदमेे ंदक ैवउम ींअम हतमंजदमेे जीतनेज नचवद जीमउण्श्
भार्गव जी कुशल, कुशाग्र कलाकार तुल्य उन आलोचकों से प्रंशसा पाने को अधीर हो उठते थे, जो हर किसी की रचना पर श्लाधा के पुल नहीं बांधता। जैसे- डाॅ. रामचन्द्र शुल्क, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मिश्रबंधु, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, पं0 अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, डाॅ. राम शंकर शुक्ल ‘रसाल’, पं0 नाथू राम शंकर शर्मा ‘शंकर’, डाॅ0 गंगानाथ झाॅ, डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा, फिराक गोरखपुरी आदि।
नीति काय कला के क्षेत्र में स्वस्थ विचारों को भार्गव जी विशेष महत्व देते थे। उन्हीं के शब्दों में -Highest quality not in quantity
‘अधिक चले जो बीर न होई’
महाकवि निराला ने लिखा है- आप थोड़ा, किंतु अच्छा लिखने की नीति के कायल हैं।
‘पर-हित सरिस धर्म नाहिं’
विचारों से भार्गव जी हिन्दी तथा जनमानस की सेवा निरन्तर 68 वर्षों तक अटूट मनोबल के संग करते रहे। कहते थें यह हमारा कत्र्तव्य है, इससे हमें आनन्द मिलता है कि लोग हमसे फायदा उठाकर लाभ लें। हमारे नाम सम्बन्धों, सम्पर्काें से उपयुक्त लाभान्वित हो सके।
‘बिना अध्ययन जीवन शून्य है’
काम कम हो या न हो, तो मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर, उनके उच्च विचारों व आदर्शो को अर्जित करो।
वे अपनी बातों को जोरदार शब्दों में बार-बार कहते थे। उनका कहना था- ‘सुन लो, समझ लो समझाने की पद्धति यदि पक्ष में हो, हितकर हो। अवश्य ग्रहण करो अन्यथा विचार कर त्याग दो अवश्य कुछ न कुछ शिक्षात्मक या प्रेरणाप्रद रहेगी।
‘सादा जीवन उच्च विचार’
जीवन का परम लक्ष्य था, जो उनकी दिनचर्याओं से सहज ही मिलता है। 78 वर्ष की आयु में 8-10 घण्टे नित्य साइकिल चलाना, बिना ऐनक अध्यवसाय करना तथा निरोगी रहना आदि। जीवन के अंतिम दौर में वे एक पुष्ट साहित्य ‘ब्रजभाषा रामायण’ जनमानस को भेंट करना चाहते थे। हार्दिक अभिलाषा साधनों की तंगी, मानसिक परेशानी तथा पारिवारिक गृह-विवाद के मध्य उलझ कर अपूर्ण रह गई।
जीवन का स्वर्णिम शिखरः भार्गव जी के जीवन में 22 से 44 वर्ष की अवस्था की अवधि स्वर्णिम थी। इसी मध्य उन्होंने सभी ऐतिहासिक महत्वपूर्ण कार्य किए तथा साहित्य की विशिष्ट सेवा कर जनमानस को असमंजस में डाल दिया। जिससे वह समकक्ष साहित्यिकों, व्यवसायिकों में प्रतिस्पर्धा के स्रोत बने। यही नहीं छिद्रान्वेषी लोगों ने तरह-तरह के आरोप उन पर लगाये।
प्रकाशन के दौरान लेखकों, कवियों को प्रोत्साहन: प्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर ‘धर्मयुग’ के एक लेख में लिखते हैं कि निराला के खर्चों की कोई सीमा न थी। वे बहुत ही उदार प्रकृति थे, अपने खर्चों की चिन्ता न करते थे।
अंतिम जीवन के दौर, सामिप्य का एक संक्षिप्त परिचय: उन्हीं की मधुर वाणी में ‘जाने क्या बात है? सुबह 9 से 11 के मध्य नींद काफी आती है। सुस्ती आती है। ऐसा ही चतुरसेन शास्त्री के साथ भी होता था, उन्हें भी इसी वक्त नींद आती थी यद्यपि वे काफी जल्द कम उम्र 68 वर्षों में परलोक सिधारे।
महात्मा गांधी भी बीच-बीच काम करते-करते जब थक जाते, सो जाया करते थे। ऐसा शयद थकान की वजह से होता था। ठीक उसी तरह 77-78 वर्षों में हमे भी जब थकान अनुभव होती है, या बढ़ जाती है। तो अक्सर बैठे-बैठे नींद आ जाती है। 5 मिनट (थोड़ी देर) के लिए सो लिया करता हूँ। जिससे काफी शिथिलता भी दूर होती है।
क्या पता था? उनकी वाणी में अटूट सत्यता है, यद्यपि वे 22 वर्ष, और जीना चाहते थे। निश्चय ही वे जीवन की कलह से विक्षिप्त हो थककर टूट गए। एक युग को अपने साथ ले गए वह था- ‘दुलारे-युग’
डाॅ0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के शब्दों में-- ‘आप सचमुच बाग्देवी के दुलारे लाल है। ऐसे मानीषी युगप्रवर्तक के चरणांें में श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं।
‘जाने बिनु न होय परतीती, बिन परतीति होय नहिं प्रीती’
बिना प्रदर्शन (परिचय) के प्रभाव नहीं होता, लोग मजाक बनाते हैं। हमारी बातों को अतिश्योक्ति मान लेते हैं। इसीलिए कहना ही पड़ता है-
ललकत ललचत लाल की, लखन लालिमा लाल।
गंगा पुस्तक माल, सुधा-माधुरी, चाकरी करी दुलारे लाल।
भार्गव जी विशिष्ट साहित्यकारों की नजर में -
बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’
‘माधुरी’ तथा ‘गंगा’ पुस्तक माला’ के संपादक, हमारे मित्र श्री दुलारे लाल जी भार्गव ने ‘बिहारी रत्नाकर’ को प्रकाशित करने में बड़ा उत्साह प्रदर्शित किया और इसके संशोधन में बहुत बड़ी सहायता दी।
पं0 कृष्ण बिहारी मिश्र -मिश्रबंधु’
आपसे हिन्दी का उपकार हुआ और हो रहा है। वैसा भारतेन्दु हरिश्चंद्र के पश्चात केवल इने-गिने महानुभावों द्वारा हो सका है। आशा है कि आगे चलकर आप हिंदी का विशेष हित कर सकेंगे। ‘दुलारे-दोहावली’ आपकी उत्तम तथा श्रेष्ठ कृति है।
आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी
बहुत-सी महत्वपूर्ण तथा मनोरंजक पुस्तकें ‘गंगा पुस्तक माला’ के माध्यम से प्रकाशित कर हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि में विशेष सहायक हुए। उनके पुस्तक प्रकाशन का यह क्रम यदि इसी तरह चलता रहा तो निश्चय ही भविष्य में यह अभिवृद्धि अधिकाधिक होगी।
महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
लखनऊ जैसे उर्दू के गढ़ में हिंदी का विशाल स्वरूप समक्ष रखकर जन-जागरण की रूचि बदलने में दुलारे लाल जी अग्रणी है। उनकी हिंदी सेवाओं का मूल्य निर्धारित करना मेरी शक्ति से परे है। यह कोई साधारण बात नहीं है।
शेक्सपियर की शैली में कोई जन्मजात महान होते हैं और महत्ता के भारवाहक बना दिए जाते हैं।
ैवउम ंतम इवतद हतमंजए ैवउम ंबीपअम हतमंजदमेे ंदक ैवउम ींअम हतमंजदमेे जीतनेज नचवद जीमउण्श्
भार्गव जी कुशल, कुशाग्र कलाकार तुल्य उन आलोचकों से प्रंशसा पाने को अधीर हो उठते थे, जो हर किसी की रचना पर श्लाधा के पुल नहीं बांधता। जैसे- डाॅ. रामचन्द्र शुल्क, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मिश्रबंधु, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाबू जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, पं0 अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, डाॅ. राम शंकर शुक्ल ‘रसाल’, पं0 नाथू राम शंकर शर्मा ‘शंकर’, डाॅ0 गंगानाथ झाॅ, डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा, फिराक गोरखपुरी आदि।
नीति काय कला के क्षेत्र में स्वस्थ विचारों को भार्गव जी विशेष महत्व देते थे। उन्हीं के शब्दों में -Highest quality not in quantity
‘अधिक चले जो बीर न होई’
महाकवि निराला ने लिखा है- आप थोड़ा, किंतु अच्छा लिखने की नीति के कायल हैं।
‘पर-हित सरिस धर्म नाहिं’
विचारों से भार्गव जी हिन्दी तथा जनमानस की सेवा निरन्तर 68 वर्षों तक अटूट मनोबल के संग करते रहे। कहते थें यह हमारा कत्र्तव्य है, इससे हमें आनन्द मिलता है कि लोग हमसे फायदा उठाकर लाभ लें। हमारे नाम सम्बन्धों, सम्पर्काें से उपयुक्त लाभान्वित हो सके।
‘बिना अध्ययन जीवन शून्य है’
काम कम हो या न हो, तो मनोवैज्ञानिक या आध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर, उनके उच्च विचारों व आदर्शो को अर्जित करो।
वे अपनी बातों को जोरदार शब्दों में बार-बार कहते थे। उनका कहना था- ‘सुन लो, समझ लो समझाने की पद्धति यदि पक्ष में हो, हितकर हो। अवश्य ग्रहण करो अन्यथा विचार कर त्याग दो अवश्य कुछ न कुछ शिक्षात्मक या प्रेरणाप्रद रहेगी।
‘सादा जीवन उच्च विचार’
जीवन का परम लक्ष्य था, जो उनकी दिनचर्याओं से सहज ही मिलता है। 78 वर्ष की आयु में 8-10 घण्टे नित्य साइकिल चलाना, बिना ऐनक अध्यवसाय करना तथा निरोगी रहना आदि। जीवन के अंतिम दौर में वे एक पुष्ट साहित्य ‘ब्रजभाषा रामायण’ जनमानस को भेंट करना चाहते थे। हार्दिक अभिलाषा साधनों की तंगी, मानसिक परेशानी तथा पारिवारिक गृह-विवाद के मध्य उलझ कर अपूर्ण रह गई।
जीवन का स्वर्णिम शिखरः भार्गव जी के जीवन में 22 से 44 वर्ष की अवस्था की अवधि स्वर्णिम थी। इसी मध्य उन्होंने सभी ऐतिहासिक महत्वपूर्ण कार्य किए तथा साहित्य की विशिष्ट सेवा कर जनमानस को असमंजस में डाल दिया। जिससे वह समकक्ष साहित्यिकों, व्यवसायिकों में प्रतिस्पर्धा के स्रोत बने। यही नहीं छिद्रान्वेषी लोगों ने तरह-तरह के आरोप उन पर लगाये।
प्रकाशन के दौरान लेखकों, कवियों को प्रोत्साहन: प्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर ‘धर्मयुग’ के एक लेख में लिखते हैं कि निराला के खर्चों की कोई सीमा न थी। वे बहुत ही उदार प्रकृति थे, अपने खर्चों की चिन्ता न करते थे।
अंतिम जीवन के दौर, सामिप्य का एक संक्षिप्त परिचय: उन्हीं की मधुर वाणी में ‘जाने क्या बात है? सुबह 9 से 11 के मध्य नींद काफी आती है। सुस्ती आती है। ऐसा ही चतुरसेन शास्त्री के साथ भी होता था, उन्हें भी इसी वक्त नींद आती थी यद्यपि वे काफी जल्द कम उम्र 68 वर्षों में परलोक सिधारे।
महात्मा गांधी भी बीच-बीच काम करते-करते जब थक जाते, सो जाया करते थे। ऐसा शयद थकान की वजह से होता था। ठीक उसी तरह 77-78 वर्षों में हमे भी जब थकान अनुभव होती है, या बढ़ जाती है। तो अक्सर बैठे-बैठे नींद आ जाती है। 5 मिनट (थोड़ी देर) के लिए सो लिया करता हूँ। जिससे काफी शिथिलता भी दूर होती है।
क्या पता था? उनकी वाणी में अटूट सत्यता है, यद्यपि वे 22 वर्ष, और जीना चाहते थे। निश्चय ही वे जीवन की कलह से विक्षिप्त हो थककर टूट गए। एक युग को अपने साथ ले गए वह था- ‘दुलारे-युग’
डाॅ0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के शब्दों में-- ‘आप सचमुच बाग्देवी के दुलारे लाल है। ऐसे मानीषी युगप्रवर्तक के चरणांें में श्रद्धा-सुमन अर्पित हैं।
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