Sunday, November 6, 2011

बसंत की दस्तक

-नरेन्द्र मिश्र
आज जब बसंत ने
फिर दरवाजे पर दस्तक दी है
हरे हरे खेत और पीले पीले फूल
रेशमी हो उठे हैं
तब जानी पहचानी
कोयल की सुधा सिंचित लय के साथ
स्मृतियों के सागर से उभर आया है
अपने बनाये हुये खिलौनों से बिसराया हुआ
टूटा, नीलकंठी, अनथका एक आदमी
तमतमाया परशुराम
साइकिल पर सवार
शेरवानी, चूड़ीदार पायजामा
और टोपी पहने
अपराजित भीष्म
काव्य माधुरी को संवारता हुआ
एक अभिनव तुलसी
एक अभिनव बिहारी
भरत, शकुन्तला से दूर खड़ा दुष्यन्त
कभी एक शिशु, कभी एक संत
आदि से बिल्कुल विलोम
नगराज का अन्त
फिर भी कितना जीवन्त था वह व्यक्ति
तभी सागर के ऊपर से गुजरता है
हवा का तीव्र बहाव
कपोतों की भांति फड़फड़ा उठते हैं
एक पुस्तक के पृष्ठ
प्रथम पृष्ठ पर अंकित है
‘दुलारे दोहावली’ कवि - ‘दुलारे लाल भार्गव’
यकायक ट्यूब लाइट से लिखे गये बोर्ड की भांति
वार बार आंखों के सामने आ जाती हैं पंक्तियां
‘‘राधा गगनांगन मिलै, धारापति सौं धाय।
पलटि आपनो पंथ पुनि, धारा ही ह्नै जाय।।’’


No comments:

Post a Comment