Sunday, November 6, 2011

स्मृति के सुमन

(पद्मभूषण)  डाॅ0 रामकुमार वर्मा
श्री दुलारे लाल भार्गव- जब इस नाम का स्मरण आता है तो आधुनिक हिन्दी साहित्य का एक सम्पूर्ण युग साकार हो उठता है। स्वामी कार्तिकेय केवल रण-कुशल ही नहीं, देवताओं की सेना का संचालन करने में भी प्रवीण थे, उसी प्रकार श्री दुलारे लाल स्वयं कवि और पत्रकार ही नहीं थे, अनेक कवियों और लेखकों को साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर करने की क्षमता भी रखते थे। मुझे ज्ञात है, उनकी ‘कवि-कुटीर’ में कितने ही कवि और लेखक उनके समीप रह कर प्रेरणा और स्फूर्ति ग्रहण करके यशस्वी हुए है।
    श्री दुलारे लाल के प्रथम दर्शन मुझे आज से 55 वर्ष पूर्व सन् 1925 में कानपुर में हुए थे। वहां श्रीमती सरोजनी नायडू के सभापतित्व में इंडियन नेशनल कांग्रेस का अधिवेशन होने जा रहा था। तभी श्री दुलारे लाल भार्गव ने वहां अखिल भारतीय हिन्दी कवि सम्मेलन का आयोजन किया। उस समय मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी0ए0 का विद्यार्थी था। कविताएं लिखने लगा था और कवि-सम्मेलनों में उत्साह से कविताएं पढ़ता भी था। दारागंज के पं0 लक्ष्मीधर बाजपेयी के अनुरोध से मैं भी श्री भार्गव द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में भाग लेने के लिए कानुपर गया। देखा कि एक वृहत् पंडाल में दूर-दूर से आये हुए कवि एकत्र हुए हैं। श्री दुलारे लाल भार्गव के दर्शन हुए, मध्यम कद के सुदृढ़ व्यक्तित्व के पुरुष (जिनके तेजस्वी मुखमंडल से साहित्यिक गरिमा की किरणें विकीर्णित हो रही हैं) कवि-सम्मेलन का संचालन कर रहे हैं। सभापति के आसन पर पं0 अयोध्या सिंह उपाध्याय-समीप ही श्री जगन्नाथदास रत्नाकर, श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन और कितने ही लब्ध प्रतिष्ठ कवि थे जिनसे पं0 लक्ष्मीधर बाजपेयी ने मरा परिचय कराया। मैंने भी बड़े उत्साह से काव्य-पाठ किया। श्रोताओं से प्रशंसा प्राप्त हुई। दुलारे लाल जी बहुत प्रसन्न हुए। इसी क्षण से मैं उनका कृपा-पात्र हो गया। समय बीतता गया और हिन्दी पत्रकारिता का युग समुन्नत होता गया। श्री दुलारे लाल भार्गव ने लखनऊ से ‘सुधा’ मासिक पत्रिका का सम्पादन आरंभ किया और उसका साहित्यिक स्तर इतना शिष्ट, कलापूर्ण और मर्यादित रखा कि हिन्दी साहित्य का बड़े से बड़ा लेखक और कवि उसमें अपनी रचना के प्रकाशन से गर्व का अनुभव करता था। अपने स्नेह के कारण दुलारे लाल जी ने मुझसे भी ‘सुधा’ में कविताएं भेजने का आग्रह किया और मैंने बड़े उत्साह से उनके आग्रह की पूर्ति करते हुए अनेक रचनाएं ‘सुधा’ में प्रकाशनार्थ भेजी। परिणाम यह हुआ कि आधुनिक छायावादी कवियों में उन्होंने मेरा नाम सम्मान के साथ सम्मिलित कर ‘सुधा’ में प्रकाशित किया।
    यह तो मेरे काव्य जीवन का मंगलाचरण था। इसके बाद का इतिहास और भी रोचक है। हिज हाइनेस श्रीमान सवाई महेन्द्र महाराजा वीर सिंह देव (ओरछा नरेश) ने सन 1934 में दो हजार मुद्रा वार्षिक का ‘देव पुरस्कार’ स्थापित किया था जो वर्षा काल से ब्रज भाषा और खड़ी बोली काव्य के सर्वश्रेष्ठ नवीन ग्रन्थ पर दिया जाता था। सन् 1935 में यह पुरस्कार ‘‘निर्णायकों’’ द्वारा लखनऊ निवासी श्रीयुत् पंडित दुलारे लाल भागर्व जी को उनके ‘‘दुलारे दोहावली’ नामक उत्तम ग्रंथ के कारण समर्पित किया गया।’’
    मैंने जब दुलारे लाल जी को इस पुरस्कार पर बधाई दी तो उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि अगले वर्ष सन् 1936 में यह पुरस्कार खड़ी बोली काव्य पर दिया जाने वाला है, इसलिए मैं अपनी कविता की कोई नयी पुस्तक पुरस्कारार्थ केशव साहित्य परिषद ओरछा राज्य को भेज दूं। उसी वर्ष मैं कश्मीर यात्रा पर गया था और अपने कश्मीर -प्रवास में मैंने प्रकृति सौन्दर्य पर 44 कविताएं लिखी थीं। भार्गव जी का परामर्श पाकर मैंने उन 44 कविताओं का संग्रह ‘चित्रेरखा’ नाम से चांद प्रेस, इलाहाबाद से प्रकाशित कराकर पुरस्कार के लिए भिजवा दिया। चार महीने बाद सूचना मिली की खड़ी बोली का दो हजार रुपयों बाला ‘देव पुरस्कार’ निर्णायकों द्वारा ‘चित्ररेखा’ पर घोघित किया गया हैं, श्री दुलारे लाल भार्गव ने तुरन्त ‘द्वितीय देव पुरस्कार विजेता’ शीर्षक देकर मेरा ‘चित्र सुधा’ में प्रकाशित किया। काव्य-क्षेत्र में उनके उत्साह-दान का यह फल था।
    मेरे हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डाॅ0 धीरेन्द्र वर्मा श्री दुलारे लाल जी के सहपाठी थे। उनसे मिलने के लिए दुलारे लाल जी प्रायः इलाहाबाद आया करते थे। एक बार सन् 1936 में वे इलाहाबाद आये और डाॅ0 धीरेन्द्र जी से मेरे सम्बन्ध में पूछा। धीरेन्द्र जी ने एक विद्यार्थी को साथ कर दिया और वे मेरे निवास स्थान साकेत पर चले आये। उनके आने से ही हर्ष-विभोर हो गया। मैंने उनका यथोचित स्वागत सत्कार किया और उनका कार्यक्रम जानना चाहा। उन्होंने कहा कि सिर्फ तुमसे मिलने आया हूं। मैं तुम्हारी एक पुस्तक ‘गंगा-पुस्तक माला’ में छापना चाहता हूं। कोई काव्य-संग्रह या लेख संग्रह हो तो उसे मुझे दो। मैं तुरन्त छापूंगा।’
    उस समय मैं अपना एकांकी संग्रह ‘पृथ्वीराज की आंखे’ तैयार कर रहा था। उसकी पाण्डुलिपि उन्होंने देखी और देखकर कहा कि ‘‘हिन्दी साहित्य की यह एक नयी विधा है। इसे मैं ले जा रहा हूं। फौरन छाप दूंगा ‘ऐसा कहकर उन्होंने मेरे एकांकियों की पाण्डुलिपि अपने बैग में रख ली।’ एक महीने बाद उन्होंने ‘पृृथ्वीराज की आंखे’ का प्रकाशन किया और पुस्तक के आरंभ में स्वयं एक ‘वक्तव्य’ लिख -........ ‘एकांकी नाटकों का हिन्दी में यही सर्वश्रेष्ठ संग्रह है। इनमें से किसी भी नाटक में अश्लीलता नहीं है, इसलिए यह संग्रह सरलता से विद्यार्थियों के लिए पाठ्य पुस्तक के रूप में रखा जा सकता है। कहना न होगा कि साहित्यिक दृष्टि से सुन्दर एकांकी नाटकों का निर्माण सबसे पहले रामकुमार जी ही ने किया है। इस क्षेत्र में पथ प्रदर्शक का पद आप ही का है।’’ आदि।
    ‘पृथ्वीराज की आंखे’ के प्रकाशन के बाद मेरी रूचि एकांकी लेखन में अधिकाधिक होती गयी और मैंने शताधिक एकांकियों की रचना कर डाली। एकांकी लेखन में भी श्री दुुलारे लाल भार्गव की प्रेरणा सर्वोपरि रही है।
    धीरे-धीरे दुलारे लाल जी से आत्मीयता बढ़ती गयी। जब कभी मैं लखनऊ जाता था तो उन्हीं के पास ठहरता था और उनका प्रेम-पूर्ण आग्रह ऐसा होता था कि हफ्ते, डेढ़ हफ्ते से पहले वे मुझे इलाहाबाद न आने देते। उनके परिवार से भी अपनापन बढ़ता गया और उनके भाई श्री मोती लाल, ज्योति लाल, आंेकार, सोहन मुझे अपने परिबार के स्वजन जैसे ही हो गये। दुलारे लाल जी के अनेक पत्र मेरे पास आते जिनमें वे मुझसे लखनऊ आने का आग्रह करते। मेरे साहित्य लेखन पर भी उनका विश्वास बहुत दृढ़ हो गया था।
    उनका 28.11.74 का एक पत्र है जिसमें अपने परिवार का समाचार लिखने के बाद वे लिखते हैं ...... मेरे भाई-भतीजे समझना नहीं चाहते या समझ नहीं पाते एक मासिक पत्र निकालना है, यदि आप अपना टेलीफोन नम्बर लिख देने की कृपा करें तो मैं आपसे आवश्यक बातें कर लूं।
    साहित्य का काम हम और आप कैसा कर सकते हैं, यह आप खूब जानते है। यह समझाना है किन्तु श्रीमान डालमिया जी और श्री शांति प्रसाद जैन और रमा जी जैन को भी मिलकर समझा देना है।
शुभचिंतक - दुलारे लाल
दुःख है कि उनकी यह आकांक्षापूरी नहीं हो सकी।
    इलाहाबाद के व्यवसायी श्री निरंजन लाल भार्गव उनके फूफा थे। वे एक बार यहां इलाहाबाद आये। निरंजन लाल भार्गव के चार सिनेमा भवन है। शायद उन्होंने दुलारे लाल जी से सिनेमा देखने के लिए कहा। लेकिन दुलारे लाल जी अकेले कैसे सिनेमा देखते। उन्होंने तुरन्त मुझे एक दोहा लिखकर भेजा:- प्रियवर रामकुमार जू, कब ऐहो मो पाहिं।
आवो तो हम आज मिलि, संग सिनेमा जांहि।। - दुलारे लाल
    मैं तुरन्त निरंजन लाल भार्गव जी के स्थान ‘गोविन्द भवन’ गया और दुलारे लाल जी के साथ सिनेमा देख कर उनके साथ खाना खाकर घर लौटा।
    मैंने ऊपर ‘दोहे’ की बात कही है, ‘गंगा पुस्तक माला’ के 151 वें पुष्प के रूप में जब ‘दुलारे दोहावली’ प्रकाशित हुई तो हिन्दी संसार में जैसे दुलारे-युग का प्रादुर्भाव हो गया। ‘सुधा’ में प्रकाशित होने वाले चित्रों के नीचे परिचायक पंक्तियां दोहों के रूप में लिखकर दुलारे लाल भार्गव ने विशेष ख्याति अर्जित कर ली थी। बाद में दोहों की निरन्तर रचना के रूप में ‘दुलारे दोहावली’ तैयार हो गयी जिसे अनेक निर्णायकों ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के मंगला प्रसाद परितोषिक के लिए भी संस्तुति किया। यह सर्वमान्य है कि ‘दुलारे दोहावली’ की मधुरता आधुनिक हिन्दी में ब्रज भाषा की धरोहर समझी जानी चाहिए।
    आज दुलारे लाल भार्गव नहीं है। मैं उनकी पवित्र स्मृति में अपनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं।
(लेखक वष्ठि साहित्यकार व इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष भी रहे)

No comments:

Post a Comment