Sunday, November 6, 2011

साहित्यिक कतरनें

मार्ग दर्शक दुलारे लाल
सन् 1921 की बात होगी। उन दिनों मैं बम्बई में प्रैक्टिस करता था, तभी  मैंने सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारे लाल भार्गव को लखनऊ  भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था- आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही है। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।   
अतः कार्ड का मैने तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाये तो मुझे किसी हालत में उसको भेजा जाना नागवार न गुजरेंगा।’’ कुछ दिन बाद ही 5/- रु0 का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपनिक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रुपयों का हम लोगों को नशा-सा रहा।
    उसके बाद ही श्री सहगल ने पहले 2/- फिर 4/- रु0 पृष्ठ का निख मुकर्रिर कर दिया और मेरी कहानियां, मेरी एक आंशिक कमाई का जरिया बन गई। मैंने भी अब कहानी ही लिखने की ओर अपना ध्यान दिया। कुछ वर्षाें में श्री सहगल ने सबसे प्रथम ‘लौह लेखनी का धनी’ नाम से अलंकृत किया।
    (‘मुझे लेखक बनाया मेरे पाठकों ने’ -- आचार्य चर्तुसेन शास्त्री से सभार)
विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का अभिनन्दन
विश्व कवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर 5 मार्च, 1923 को ‘विश्व भारती’ की स्थापना के लिए आर्थिक सहयोग प्राप्त करने के लिये लखनऊ पद्दारे थे। पं0 दुलारे लाल उन दिनों लखनऊ की साहित्यिक गतिविधियों के सूत्रधार थे। गुरूदेव के प्रति उनके हृदय में असीम श्रद्धा थी। उन्होंने ‘विश्व भारती’ के लिए धन एकत्रित करने में सहयोग दिया। इस सम्बन्ध में ‘माधुरी’ में प्रकाशित टिप्पणी के कुछ अंश यथावत् प्रस्तुत है:-
माधुरी-- वर्ष 1, खंड 2, संख्या 3, मार्च 1923
लखनऊ में डाॅ0 रवीन्द्र नाथ ठाकुर
सर्वमान्य साहित्यरथी स्वनामधन्य श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर महोदय 5 मार्च को लखनऊ पधारे। सायंकाल को आपका एक व्याख्यान हुआ। अपने ‘विश्व भारती’ (बोलपुर के शांति निकेतन में स्थापित संस्था) के लिये चंदे की अपील की। अवध के ताल्लुकेदारों की तरफ से राजा सर रामपाल सिंह जी ने आपको 1000/- की थैली अर्पण की।
    7 मार्च की शाम को श्रीयुत् ए.पी. सेन के बंगले पर कवि-सम्राट का अभिनंदन करने का प्रबंध किया गया। स्थानीय हिन्दी सभा के सदस्य, अनेक बंगाली सज्जन और दर्शक उपस्थित थे, प्रथम, बालिकाओं ने हार-चंदन से कवि-सम्राट की संबर्द्धना की। फिर बालक-बालिकाओं ने ‘स्वागतं, स्वागतं, स्वागतं, हे कवि’’। गान से स्वागत किया। ‘माधुरी’ के ‘हिन्दी सभा’ की ओर से अभिनन्दन पढ़ा। फिर कान्य कुब्ज हाई स्कूल के हेड मास्टर पं0 श्री नारायण चतुर्वेदी एम0ए0 ने एक स्वाग कविता पढ़ी। कवि-सम्राट पहले हिन्दी में और फिर बंगला में बोले ।’’
उर्दू के गढ़ लखनऊ में हिन्दी का प्रवेश
उर्दू साहित्य के गढ़ लखनऊ में हिन्दी साहित्य को प्रविष्ट कराने की ही नहीं, उसे अपनी गरिमा के अनुकूल स्थान दिलाने में दुलारे लाल भार्गव की अविस्मरणीय भूमिका रही है। इसके साथ ही उन्होंने उर्दू-हिन्दी का पूर्ण समन्वय भी रखा। यही कारण है कि ‘माधुरी’ में हिन्दी के साथ ही उर्दू साहित्य पर भी अनेक लेख छपते थे, श्री रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी सहित लखनऊ में भार्गव जी के इर्द-गिर्द युवा साहित्यिकों का जमघट रहता और बाहर से पधारने वाले साहित्यकार तथा साहित्य प्रेमियों का निवास-स्थान दुलारे लाल जी का कवि कुटरी ही था।
    आज कदचित् यह आश्चर्यजनक लगे कि आकाशवाणी जब लखनऊ में संस्थापित हुई, तो उसमंे हिन्दी के साहित्यिक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यलाय में हिन्दी संस्थापित हुई, तो उसमें हिन्दी के साहित्यक कार्यक्रमों की श्रृंखला भार्गव जी ने प्रारंभ की। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना के लिए दुलारे लाल जी ने अथक सक्रिय एवं सफल प्रयास किया। व्यक्तिगत स्तर पर ‘माधुरी’ में तर्कपूर्ण लेख प्रकाशित करके उन्होंने इस जनपयोगी कार्य को पूर्ण किया। ये सारे लेख एक स्थान पर एकत्रित किए जाएं। तो लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग का इतिहास स्वतः स्पष्ट हो जायगा किस प्रकार भार्गव जी के सुतर्काें के समक्ष विश्वविद्यालय-प्रशासन को झुकना पड़ा। फिलहाल एक समाचार ‘माधुरी’ के वर्ष 3 खंड 1 संख्या 4 मंे छपा प्रस्तुत किया जा रहा है:-
    ‘‘जब से यह विश्वविद्यालय खुला है तभी से बी0ए0 परीक्षा के लिए हिन्दी, उर्दू, बंगला या मराठी में एक परीक्षा पास कर लेना प्रत्येक विद्यार्थी के लिए अनिवार्य है, परन्तु भारत के अन्य प्रधान विश्वविद्यालयों के समान बी0ए0 की परीक्षा में इतिहास, अर्थशास्त्र, अंग्रेजी, गणित, संस्कृति इत्यादि के समान हिन्दी या उर्दू को एक स्वतंत्र विषय के रूप में अभी तक नहीं रखा गया। कलकत्ता, बनारस, और प्रयाग के विश्वविद्यालयों में तो हिन्दी में एम0ए0 की डिग्री तक प्राप्त की जा सकती है। लखनऊ विश्वविद्यालय की यह कमी यहां के हिन्दी प्रेमी सज्जनों को पहले ही से खटकती थी। इस वर्ष मार्च में इस विश्वविद्यालय के कोर्ट के अधिवेशन में पं0 ब्रजनाथ जी शर्मा ने यह प्रस्ताव उपस्थित किया कि बी0ए0 में हिन्दी और उर्दू भी स्वतंत्र विषय के रूप में हो। इसके समर्थन में उन्होंने एक सारगर्भित, भाषण दिया। कुछ सज्जनों के भाषणों के बाद एक पादरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े जोरदार शब्दों में समर्थन किया। उसका इतना असर हुआ कि शर्मा जी का प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत हुआ। यह प्रस्ताव एक सिफारिश के तौर पर था। उसका यहां के आर्ट्स फैकल्टी और एकेडेमिक कौंसिल में पास होना आवश्यक था। इस वर्ष वह इन दोनों सभाओं में भी पास हो गया और आगामी वर्ष से बी0ए0 की परीक्षा के लिए हिन्दी और उर्दू भी ‘स्वतंत्र विषय होंगे। इस सम्बन्ध में एक उल्लेखनीय बात है यह प्रस्ताव पास कराने में सुदूर मद्रास-प्रांत के रहने वाले प्रोफेसर शेषाद्री और डाॅ0 बी0एस0 राम ने बड़ा परिश्रम किया। इनका हिन्दी-प्रेम सराहने योग्य है। हमें लज्जा के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि इन्हीं सभाओं के कुछ अन्य भारतीय सदस्य ऐसे भी थे, जिन्होंने इस प्रस्ताव के समर्थन में भाषण देना तो दूर रहा, उसके पक्ष में आपना मत तक नहीं दिया। क्या हम आशा कर सकते हैं कि शीघ्र ही लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी एम0ए0 की परीक्षा के लिए भी एक स्वतंत्र विषय के रूप में रखी जायेगी।’’
    इस संदर्भ में यह भी लिखना समीचीन और उपयुक्त होगा कि दुलारे लाल जी के पश्चातवर्ती परिश्रम से तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष (बाद में उपकुलपति) डाॅ0 सुबzहमण्यम् ने विषय को स्वतंत्र रूपेण संस्कृत विभाग का ही एक अंग बनाना स्वीकार किया। इस प्रकार हिंदी का लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश हुआ और भार्गव जी के अनन्य मित्र श्री बद्रीनाथ भट्ट सर्वप्रथम हिन्दी के प्रथम प्राध्यापक नियुक्त हुए।

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