Sunday, November 6, 2011

भारतीय प्रकाशन-व्यवसाय के कीर्ति-स्तम्भ दुलारे लाल भार्गव

श्री क्षेमचन्द्र ‘सुमन’
प्रथम ‘देव पुरस्कार-विजेता’ एवं हिन्दी के मूर्धन्य प्रकाशक श्री दुलारे लाल भार्गव हमको छोड़कर 6 सितम्बर 75 को चले गए, विश्वास नहीं होता। हिन्दी साहित्य में इतना बड़ी दुर्घटना हो गई और कहीं भी कोई हलचल या चहल-पहल नहीं। न तो कहीं कोई शोक सभा हुई और न किसी हिन्दी पत्र-पत्रिका में यह समाचार ही छपा। कितनें कृतघ्न हैं हम कि जिस व्यकित ने ‘हिन्दी साहित्य’ को विश्व साहित्य के मंच पर प्रतिष्ठित करने का गौरव और यश प्रदान किया, उसके चले जाने पर भी ज्यों-के-त्यों अपने कार्य-व्यापार में इस प्रकार संलग्न रहे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
    सरस्वती के पावन मन्दिर में इतनी बड़ी दुर्घटना से कहीं तो कोई हलचल हुई होती। जिस व्यक्ति ने ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का नया मानदंड स्थापित किया, जिसने ‘गंगा पुस्तक-माला’ की स्थापना करके हिन्दी-प्रकाशन की दिशा में एक अभूतपूर्व क्रांति की, जिसने हिन्दी मुद्रण क्षेत्र में अपने, गंगा-फाइन आर्ट प्रेस’ से ऐसी-ऐसी मुद्रित पुस्तकें निकाली, जिन्हें देखकर आज भी आश्चर्य तथा कौतूहल होता है; उस दिवंगत आत्मा की स्मृति में दो आँसू भी न बहा सके, विडम्बना ही तो है। जब हिन्दी के लेखक स्वयं पैसा लगाकर अपनी रचनाओं का मुद्रण और प्रकाशन करवाने के लिए लालयित घूमा करते थे, तब श्री दुलारे लाल भार्गव ने उनमें यह चेतना जागृत की थी कि लेखन से भी मनुष्य अपनी आजीविका चला सकता है।
    आज यह कल्पनातीत लगेगा कि सन् 1928 में भी कोई प्रकाशक किसी लेखक को 2100 रु0 की राशि उसकी एक रचना पर दे सकता था। आज इस राशि का मूल्य आँकें तो वह एक लाख से अधिक का बैठेगा। श्री भार्गव जी ने यह साहसिक पहल करके उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का ‘रंगभूमि’ नामक विशालकाय (लगभग 900 पृष्ठ) उपन्यास दो भागों में प्रकाशित किया और प्रत्येक भाग का मूल्य केवल 2.50 रु0 रखा। प्रेमचन्द जी का हिन्दी में मूलतः लिखा हुआ कदाचित यह पहला ही उपन्यास था।
    हिन्दी-जगत को श्री भार्गव जी का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने उसे प्रेमचन्द्र जैसा उपन्यासकार दिया। प्रेमचन्द्र ही क्या, यदि भागर्व जी ‘गंगा-पुस्तक-माला’ द्वारा प्रकाशन का यह साहसिक अभियान न छेड़ते, तो आज हिन्दी को श्री वृन्दावन-लाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा, विश्वम्भर नाथ शर्मा, चतुरसेन शास्त्री, गोविन्द बल्लभ पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, रूप नारायण पांडेय, बेचन शर्मा ‘उग्र’, बदरी नाथ भट्ट, प्रताप नारायण श्रीवास्तव और चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’ जैसे उपन्यासकार, नाटककार, कवि और कथाकार  कैसे प्राप्त होते? यहां तक कि पुराने साहित्यकारों में बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, कृष्ण बिहारी मिश्र और ज्वालादत्त शर्मा प्रभूति की अनेक रचनाएं प्रकाशित करने के साथ-साथ उन्होंने समस्त प्राचीन काव्य-साहित्य को सुमुद्रित करके हिन्दी में उपलब्ध करवाया। उस समय की उनके द्वारा प्रकाशित ‘मिश्र बंधु विनोद’, ‘हिन्दी-नवरत्न’, और ‘सुकिव-संकीर्तन’, आदि पुस्तकें पाठकों की साहित्यिक जानकारी बढ़ाने में ‘संदर्भ’ का कार्य करती है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा लिखित ‘आरोग्य-शास्त्र’ नामक विशालकाय ग्रंथ को प्रकाशित करना भार्गव जी जैसे उत्साही व्यक्ति के ही बूते की बात थी। वह ग्रंथ मुद्रण, साज-सज्जा और सामग्री की दृष्टि से आज भी अपना सानी नहीं रखता।
    भार्गव जी जैसे उदार, मिशनरी तथा सतर्क प्रकाशक यदि हिन्दी में दो-चार और भी होते तो आज हमारी भाषा और साहित्य की दशा कुछ और ही होती। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जैसे अभूतपूर्व प्रतिभा के धनी साहित्यकार को हिन्दी में प्रतिष्ठित करना भार्गव जी का ही काम है। ‘निराला’ जी की ‘तुम और मैं’ तथा ‘जूही की कली’ आदि रचनाएं ‘माधुरी’ के प्रथम पृष्ठ पर भार्गव जी ने ही छापी थीं। ‘निराला जी’ का पहला कहानी संग्रह ‘लिली’ और सबसे पहला उपन्यास ‘अप्सरा’ भी उन्होंने ही अपनी ‘गंगा पुस्तक माला’ की ओर से प्रकाशित किया था। उन्होने सर्वश्री वृन्दावन लाल वर्मा के ‘कुण्डली-चक्र’ और विश्वम्भर नाथ शर्मा कौशिक के ‘माँ’ उपन्यास को ‘सुधा’ में धारावाहिक रूप में प्रकाशित करके बाद में ‘गंगा-पुस्तक माला’ की ओर से छापा। श्री भगवती चरण वर्मा के ‘पतन’ तथा ‘एक दिन’ नामक पहले दो उपन्यासों को छापने का श्रेय भी उन्हीं को है। ‘माधुरी’ के सम्पादन के दिनों में उनके साथ जहां आचार्य शिवपूजन सहाय, प्रेमचन्द, रूप नारायण पांडेय और भगवती प्रसाद बाजपेयी प्रभूति साहित्यकारों ने कार्य किया था, वहां ‘सुधा’ के सम्पादन के दिनों में श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, इलाचन्द्र जोशी, और गोपाल सिंह नेपाली जैसे कवि और साहित्यकार भी उनके सहयोगी रहे थे।
    साहित्य की सेवा उन्हें विरासत में मिली थी। भार्गव परिवार के प्रतिष्ठित प्रकाशक एवं मुद्रक मुंशी नवलकिशोर ने अपने प्रेस के द्वारा हिन्दी तथा उर्दू की 4000 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित नहीं कीं, प्रत्युत वहां से ‘माधुरी’ का प्रकाशन करके हिन्दी साहित्य को दुलारे लाल भार्गव जैसा साहसी तथा उत्साही व्यक्तित्व प्रदान किया। वैसे तो छात्र जीवन से ही भार्गव जी में लेखन-सम्पादन की अभूतपूर्व प्रतिभा थी और वे अपने जीवन के सोलहवें वर्ष तक आते-आते ‘भार्गव पत्रिका’ का सम्पादन भी करने लगे थे। ‘माधुरी’ के प्रकाशन ने उनकी प्रतिभा को द्विगणित करने में प्रचुर प्रेरणा प्रदान की। ‘भार्गव पत्रिका’ पहले उर्दू में प्रकाशित होती थी, पर आपने सम्पादन भार ग्रहण करते ही उसे हिन्दी में कर दिया।
    अभी वे नवीं कक्षा में ही पढ़ते थे कि उनका विवाह अजमेर के सुप्रसिद्ध रईस श्री फूलचन्द जी जज की सुपुत्री गंगादेवी के साथ हो गया। वे कुछ समय ही अपने पति श्री दुलारे लाल भार्गव के साथ रह पाई थीं कि 1916 की 19 सितम्बर को अचनाक उनका देहावसन हो गया। इतने थोड़े से समय में ही गंगादेवी ने उर्दू संस्कारों से आक्रांत इस परिवार में हिन्दी के प्रति जो निष्ठा जागृत की, उसी के परिणामस्वरूप प्राणेश्वरी की इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने आजीवन हिन्दी की सेवा करने का महान ब्रत किया व उसे अक्षरशः सही चरितार्थ करके दिखा दिया। अपने इस संकल्प की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1922 में ‘माधुरी’ का सम्पादन प्रारम्भ किया। ‘माधुरी’ के सम्पादन-काल में उन्होंने जहां हिन्दी लेखकों, कवियों और साहित्यकारों का सहयोग लिया वहां अनेक कवि और साहित्यकार भी हिन्दी जगत को दिए। सर्व प्रथम ‘तुलसी संवत्’ का प्रचालन और ब्रज भाषा काव्य की पुर्नप्रतिष्ठा ‘माधुरी’ के द्वारा ही उन्होंने की। यही नहीं, अपितु अनेक कवियों को ब्रज भाषा की रचना करने की ओर उन्होंने प्रवृत किया।
    उन्होंने अपनी पहली पत्नी श्रीमती गंगा देवी की पावन स्मृति को चिरस्थायी रूप देने के लिए ‘गंगा-पुस्तक-माला’ प्रारम्भ कर अपनी पहली काव्य कृति ‘हृदय तरंग’ प्रकाशित की 1927 में इसी दिन ‘सुधा’ पत्रिका को जन्म दिया। ओरछा के हिन्दी प्रेमी अधिपति महाराजा श्री वीर सिंह देव की ओर से प्रारम्भ किया गया दो हाजर रूपये का ‘देव पुरस्कार’ भी आपको इसी दिन ‘दुलारे दोहावली’ पर मिला। इस पुरस्कार की प्राप्ति पर भार्गव जी ने अपने उद्गार एक दोहे में इस प्रकार प्रकट किये थे:-
मम कृति दोस-भरी खरी, निरी निरस जिय जोई;
है उदारता रावरी, करी पुरसकृत सोइ।

‘दुलारे-दोहावली’ पर पुरस्कार मिलने पर हिन्दी जगत में उन दिनों जो चहल-पहल मची थी, वह भी लोगों की मनोवृत्ति की द्योतक थी। किसी ने उन पर यह आरोप लगाया था कि यह कृति उनकी है ही नहीं, और किसी ने उसकी मौलिकता को प्रश्न चिन्हांकित किया था। इस संबंध में महाकवि निराला की ये पंक्तियां ही भार्गव जी की काव्य-प्रतिभा को परखने का सुपुष्ट प्रमाण है:-
    ‘‘विद्वान समालोचकों का मत है कि बिहारी लाल हिन्दी के सर्व प्रथम श्रेष्ठ कलाकार हैं। उनके बाद आज तक किसी ने भी वैसा चमत्कार पैदा नहीं किया? परन्तु अब यह कलंक दूर होने को है... ब्रज भाषा में अब पहले की सी कविता नहीं लिखी जाती, ‘दुलारे लाल दोहावली’ ने इस कथन को ‘बिल्कुल भ्रम साबित कर दिया।.. कविवर दुलारे लाल जी के दोहे महाकवि बिहारी लाल जी के दोहों की टक्कर के होते हैं, और बाज-बाज तो खूबसूरती में बढ़ भी गए हैं।’’
    श्री भार्गव जी ने जहां भारतेन्दु के बाद धीरे-धीरे सूखती जाने वाली ब्रजभाषा काव्य की माधवी लता को अपनी अभूतपूर्व प्रतिभा से सींच-सींचकर पल्लवित एवं पुष्पित किया वहां ‘सुधा’ ‘माधुरी’ और ‘गंगा-पुस्तक माला’ के द्वारा खड़ी बोली साहित्य की अभिवृद्धि में भी अभूतपूर्व योगदान दिया। हिन्दी-प्रकाशनों को सूरुचि पूर्वक बढि़या मोटी एंटिक पेपर पर कपड़े की जिल्द में छापकर हिन्दी- प्रकाशकों के सामने आदर्श प्रस्तुत करने वाले कदाचित वे पहले ही व्यक्ति थे। हिन्दी के अन्य व्यवसायी प्रकाशकों की भांति जैसी भी पांडुलिपि लेखक से उन्हें मिल गई वैसी ही छाप देने वाले भार्गव जी नहीं थे। उनकी भाषा का एक ऐसा सर्वथा नया मानदंड था कि अच्छे-अच्छे धाकड़ लेखक को भी उनके द्वारा प्रवर्तित ‘वर्तनी’ को मानने के लिए विवश होना पड़ता था। भाषा संबंधी उनकी जागरूकता का लोहा अन्तः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को भी मानना पड़ा। उसी बर्तनी के अनुसार उनकी ‘अद्भुत-अलाप’ तथा ‘सुकवि-संकीर्तन’ आदि पुस्तकें ‘गंगा पुस्तक माला’ से प्रकाशित हुई। हिन्दी-प्रकाशन के क्षेत्र में प्रत्येक पुस्तक का ‘राज-संस्करण’ और ‘साधारण संस्कारण’ अलग-अलग तैयार करने वाले कदाचित वे पहले ही व्यक्ति थे। उनका प्रत्येक प्रकाशन देश के कोने-कोने में फैलकर सभी पाठकों और पुस्तकालय तक सस्ते-से-सस्ते मूल्य में पहुंचे इसके लिए उन्होंने ‘पुस्तक-प्रचार’ की योजना भी चलाई थी। बच्चों के लिए सुरुचिपूर्ण साहित्य तैयार करने की दिशा में जहां वे प्रयत्नशील रहे वहां उन्होंने ‘बाल-विनोद’ नामक एक बालोपयोगी पत्र का प्रकाशन करके अनेक लेखक तैयार किये।
    हमारा हिन्दी साहित्य एवं भारतीय प्रकाशन व्यवसाय युगों-युगों तक भी दुलारे लाल भार्गव को न भुला सकेगा।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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