Sunday, November 6, 2011

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के पथ-प्रदर्शक

बंसतलाल
    हिन्दी जगत् में लोगों का प्रलाप है कि भार्गव जी ने साहित्यकारों का शोषण किया तथा परिवारी जनों के साथ अत्याचार किया। कुछ प्रमाण इन अनर्गल आरोपों को असत्य सिद्ध करेंगे तथा भार्गव जी के साहित्यकारों के पोषक होने का प्रमाण देंगे।
उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद के पत्रों के संग्रह सन् 1930 द्वारा प्रमाणित होता है -
1.    रंगभूमि के लिए 1800/ रु0 दुलारे लाल जी ने दिये और संग्रहों के लिए सौ दो सौ मिल गये।
2. ‘काया-कल्प’, ‘आजाद-कथा’, ‘प्रेमतीर्थ, ‘प्रेम-प्रतिमा’, ‘प्रतिज्ञा’ मैने खुद छापी पर अभी तक मुश्किल से 600/ रु0 वसूल हुए हैं और प्रतियाँ पड़ी हुई हैं।
3.    फुटकल आमदनी लेखों से शायद 25/ रु0 माहवार हो जाती है; मगर कभी इतनी भी नहीं होती। मैं अब इस ओर ‘माधुरी’ के सिवा कहीं लिखता ही नहीं।
4. 800/रु0 में रंगभूमि और प्रेमाश्रम का अनुवाद दे दिया था। कोई छापनेवाला न मिलता था।
प्रेमचन्द पर किये गये आक्षेपों का निराकरण

मुंशी जी की रंगभूमि तथा थैंकरे के ‘वैनिटी फेयर’ के साम्य को श्री अवध उपाध्याय ने सरस्वती के सन् 26 के अंकों में ‘गणित के समीकरणों, द्वारा प्रमाणित करने की चेष्ट की थी। प्रेमचन्द्र ने ‘अपनी सफाई’ में इसका स्पष्टीकरण स्वयं कर दिया था। फिर भी वह लेखमाला निकलती ही रही थी। बाद में, श्री रुद नारायण अग्रवाल ने एक विस्तृत लेख द्वारा श्री उपाध्याय के आरोपों का पूर्णतः खंडन किया था।
    उपाध्याय जी के आरोप
1.    एक से अधिक नायक-नायिकाओं का समावेश।
2.    वैनिटी-फेयर की अमेलिया, रंगभूमि की सोफिया से, जिसमें कुछ भाग ‘वैनिटी फेयर’ के दूसरे नारी पात्र रेबेका का भी है, काफी मिलती-जुलती है।
3.    रेबेका का, संभवतः सोफिया के साम्य से बचे हुए अंश का, इंदु के साथ साम्य है।
4.    जार्ज आसवर्न का विनय से साम्य है।
श्रीमती गीतालाल एम0ए0पी0एच0डी0:
रंगभूमि पर थैकरे के ‘वैनिटी फेयर’ का प्रभाव उसके नाम के चुनाव अथवा विस्तृत पट की दृष्टि से पड़ा है। पर नारी पात्र्रों पर तो अवश्य नहीं है।
    इसी प्रकार एक लेख से शिलीमुख ने प्रेमचन्द्र की ‘विश्वास’ कहानी को हालकेन के ‘एटर्नल सिटी’ पर पूर्णतः अवलम्बित बताया था (सुद्दा 10/27), यह कहानी पहले ‘चांद’ में छपवायी थी। फिर ‘प्रेम-प्रमोद’ नाम कहानी-संग्रह में उसने पहली कहानी का स्थान पाया, शिलीमुख का कहना था कि ‘एटर्नल सिटी’ एक उपान्यास है और ‘विश्वास’ एक कहानी, इसलिए प्रेमचंद की रचना उस पर अवलम्बित होने पर भी तर्कयुक्त और संगत नहीं हो सकी है, बल्कि विकृत और अविश्वास हो गई है। इस लेख के साथ ही ‘प्रेमचंद जी का प्रतिवाद’ शीर्षक से, सुधा-संपादक श्री दुलारे लाल भार्गव के नाम, प्रेमचंद का पत्र भी छपा था। उन्होंने ‘शिलीमुख’ के आरोपों को इन शब्दों में स्वीकार किया था।
    ‘‘प्रिय दुलारे लाल जी!
    हमारे मित्र पं0 अवध उपाध्याय तो ‘कायाकल्प’ को ‘एटर्नल सिटी’ पर आधारित बता रहे थे। मि0 शिलीमुख ने उनको बहुत अच्छा जवाब दे दिया। मैं अपने सभी मित्रों से कह चुका हूं कि ‘विश्वास’ केवल हालकेन रचित ‘एटर्नल सिटी’ के उस अंक की छाया है। जो वह पुस्तक पढ़ने के बाद मेरे हृदय पर अंकित हो गया।... छिपाने की जरूरत न थी और न है। मेरे प्लाट में ‘एटर्नल सिटी’ से बहुत कुछ परिवर्तन हो गया, इसलिए मैंने अपनी भूलों और कोताहियों को हालकेन जैसे संसार-प्रसिद्ध लेखक के गले मढ़ना उचित न समझा। अगर मेरी कहानी ‘एटर्नल सिटी’ का अनुवाद, रुपांतर या संक्षेप होती, तो मैं बड़े गर्व से हालकेन को अपना प्रेरक स्वीकार करता। पर ‘एटर्नल सिटी’ का प्लाट मेरे मस्तिष्क में आकर न जाने कितना विकृत हो गया है। ऐसी दशा में मेरे लिए हालकेन को कलंकित करना क्या श्रेयकर होता?.... फिर भी मेरी कहानी में बहुत कुछ अंश मेरा है, चाहे वह रेशम में टाट का जोड़ ही क्यों न हो?- ‘प्रेमचंद’

    साहित्यकाराों के आरोप-प्रत्यारोप को साहित्य का कीचड़ करार कर वास्तविकता को भार्गव जी ने सन् 1924-25 में परखा उचित दाम व गर्व के साथ सम्मानित कर ‘रंगभूमि’ ‘काया-कल्प’ जैसे सशक्त उपन्यासों को हिन्दी जगत की अमूल्य निधि बनाया। इतना ही नहीं मुंशी जी के अन्य उपन्यासों का भी यथावत् महत्वपूर्ण प्रकाशन व सम्पादन, गंगा पुस्तक माला के माध्यम से किया तथा ‘सुधा’, ‘माधुरी’ मासिकों में महत्वपूर्ण स्थान देकर उच्चतम कोटि ‘उपन्यास सम्राट’ घोषित कराने की प्रमुख पहल की, इसे नकारा नहीं जा सकता-

प्रेमचन्द से मेरी पहली भेंट - दुलारे लाल जी भार्गव
प्रेमचन्द्र ने हमें लिखा ‘हमारे पास जरिया मास नहीं है।’
    यद्यपि इससे पूर्व वे उर्दू तथा गल्प लिखा करते थे। उनका प्रारम्भ में एक ‘सोजेवतन’ विद्रोहात्मक उपन्यास छप चुका था। जमाना-सम्पादक दयानारायन निगम से निकटस्थ थे, परन्तु 1923 के मध्य काफी अस्त-व्यस्त थे।
    हमने उन्हें लखनऊ आने तथा गंगा पुस्तक माला के सम्पादक-मंडल में शामिल होने का आमंत्रण दे दिया। अतिशीघ्र वे लखनऊ आकर मुझसे मिले। मैंने उन्हें कुछ काम देने हेतु ‘बाल-विनोद-वाटिका’ का सम्पादक नियुक्त किया तथा रहने हेतु मेक्सवेल प्रेस, लाटूश रोड की इमारत के पीछे हिस्से, जिसे अपने प्रेस हेतु ले रक्खा था। अस्थाई रूप से 60 रु0 मासिक पर प्रबंध कर दिया। काफी समय प्रारंभ में वे वहीं रहे, फिर गणेशगंज चले गये।
    ‘बाल विनोद वाटिका’ के अन्तर्गत काफी उच्चकोटि का बालोपयोगी साहित्य निकलता था। इसके अतिरिक्त भी प्रसिद्व काव्य मर्मज्ञों विद्वानों के साहित्य का सम्पादन तथा ‘सुधा’ सम्पादन कार्य में भी हमें सहयोग दिया। वे केवल हमसे 100/- मासिक लिया करते थे। सन् 24-25 में करीब दो वर्ष हमारे साथ रहे। सन् 24 में ही हमने उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति रंगभूमि भी छापी। वे लिखते तो अच्छा थे, भाषा गलत होती थी। हिन्दी-उर्दू मिश्रित, उसे शुद्ध कर देता था। हर बात की काफी इतिवृत्तात्मक और शुलभ शैली में लिखते थे, जिनका जन-साधारण पर प्रभाव पड़ा।
    इसके बाद वे सन् 25 के अंत में बनारस चले गये थे। अधिक पैसा मिलने से फिर सन् 27 में ‘माधुरी’ में आ गये। 3-4 वर्ष, सन 30 तक वहां कार्यरत रहे। अधिक पैसे का सदुपयोग न कर सके। बाद में उन्हें मदिरा आदि का शौक हो गया था, यद्यपि वे कभी मेरे सामने न पीते थे। जबकि निराला, सामने ही खोलकर पीने में मशगूल हो जाते थे। वे आदर के पात्र थे। ‘माधुरी’ कार्यालय में तो वे समय पर नित्य 10 बजे प्रातः आ जाते थे। यही स्थिति पं0 कृष्ण बिहारी की भी थी कि वे कार्यालय काम पर 10 बजे नित्य ही आ जाते थे। जबकि पं. रूपनारायण पाण्डेय जी का कोई समय निश्चित न था। कभी 12 बजे आते थे, तो कभी 1-2 बजे।
    मैंने सुना है कि प्रेमचन्द फिल्म में 700) रु0 मासिक कमाते थे। सन् 37 सितम्बर में हमारे पास आए थे। जैसा उन्होंने हमारे चित्रकार हकीम मोहम्मद खां को बताया- भार्गव जी के पास मैं यहां इलाज कराने आया था। पर वे नहीं हैं, नहीं तो कुछ सहूलियत मिलती।’ अतएव वे 32 नं0 में चित्रकार महोदय के साथ ही ठहरे। फिर मोहन लाल सक्सेना, जो उस समय प्रमुख राजनीतिक थे, से मिले। उन्होंने मदद से इन्कार कर दिया, कहा- मैं इस तरह की उलझन में पड़ना नहीं चाहता। बाद में यहां से जाकर 8 जुलाई को उनका स्वर्गवास हो गया- जिसका निश्चय ही हमको मालूम पड़ने पर बेहद सदमा सा रहा कि हमारा एक महकता सितारा हमसे दूर हो गया। हम मदद कर भी सहयोगी न बन सके।
    उन्हें शिखर पर पहुंचाने का श्रेय ‘सुधा’, ‘माधुरी’ परिवार तथा उर्दू में जमाना-सम्पादक दयानरायन निगम को है। प्रेमचन्द ने यह स्वीकारा है कि ‘हंस’ और ‘जागरण’ के प्रकाशन से हमें दो-सौ मासिक का घाटा होता रहा है।

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