Sunday, November 6, 2011

साहित्य का देवता दुलारे लाल भार्गव

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
जब जीवन के मुक्त आकाश में अविराम अलक्ष्य बहते हुए देह के किसी मेघ-खंड से सूर्य की एक उज्जवल किरण बंध जाती, वह भी अपने आलोक-पथ को किसी अलक्ष्य शक्ति के प्रभाव से छोड़कर मेघ के स्नेह-सजल हृदय में शांति लेती-विश्राम करती है, उसी समय कल्पना का इंद्रजाल इंद्रधनुष के रंगों में प्रत्यक्ष होता है। रंगों की एक दूसरी ही सृष्टि संसार के रंग-मंच के लोग मनोहर यवनिका के रूप में खुली हुई देखते हैं। हमारे मित्र, ‘माधुरी’ के भूतपूर्व तथा ‘सुधा’ के वर्तमान प्रधान सम्पादक और गंगा-पुस्तकमाला के संपादक और अध्यक्ष पं0 दुलारे लाल जी के जीवन में ऐसा ही शुभ संयोग हुआ था। आज उनके यश के प्रभात-काल का पद्म मध्यान्ह की मरीचियों से प्रखर, पूर्ण-विकसित, हिन्दी की दसों दिशाओं को अपनी अमंद सुगंध से परिप्लावित कर रहा है।
    मित्रवर पं0 दुलारे लाल जी के जीवन की धारा की, उनके परिवार में प्रचलित प्रथा के प्रतिकूल उर्दू से हिंदी की तरफ बहाने का श्रेय एकमात्र उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीया श्रीमती गंगादेवी को है। इन विदुषी साध्वी महिला को ईश्वर-प्रदत्त जैसा अपार सौंदर्य मिला था, वैसे ही अनेक गुण भी इनकी प्रकृति के मृदुल सूत्र में पिरो दिए गए थे। तिरोधान के पश्चात् अपने पति की आभा में मिलित होकर यह हिन्दी का इतना बड़ा उपकार करंेगी, यह किसी को पहले स्वप्न में भी मालूम न था। ‘गंगा-पुस्तक माला’ इन्हीं के नाम से संस्थापित की गई है। अतः इनकी जीवनी का संक्षिप्त अंश दे देना हम यहां आवश्यक समझते है।
    इनका जन्म श्रीमान् फूलचंद जी भार्गव ई0ए0सी0 के यहां हुआ था। यह हिन्दी बहुत अच्छी जानती थीं, और संस्कृत तथा अंग्रेजी का भी इन्हें ज्ञान था। शिक्षा के साथ ही साथ गृह-कार्यो में भी यह अत्यंत कुशल थीं सीना-पिरोना आदि नारियों के लिए उपयोगी ललित कलाएं भी वह जानती थीं। इन्हें संगीत का भी ज्ञान था। सबसे बढ़कर ईश्वरी उपहार जो इन्हें मिला था, वह इनकी सुकुमार प्रकृति थी। छोटी अवस्था में ही श्रीयुत् दुलारे लाल जी के साथ इनका शुभ विवाह विपुल आयोजन तथा उत्साह के साथ हुआ। लखनऊ में भार्गव कुल के सुप्रसिद्ध स्वर्गीय पं0 प्यारे लाल जी के ज्येष्ठ पुत्र होने कारण श्रीयुत् दुलारे लाल जी के विवाह में खासतौर पर कुल योजनाएं की गई थीं। स्वर्गीया सौभाग्यवती श्रीमती गंगा देवी ने यहां, इस उर्दू के अजेय दुर्ग में आकर देखा, लखनऊ हिन्दी के प्रवेश से रहित है। विशेष रूप से उनका परिवार तो उर्दू की प्रतिष्ठा के पीछे और भी बुरी तरह से पड़ा हुआ है- नवलकिशोर प्रेस की पुस्तकों तथा अखबारों के प्रकाशन का भारत वर्ष में प्राधान्य हो रहा है। श्रीमती गंगा देवी की आंखें यह सब देखकर हिन्दी की दुर्दशा पर चुपचाप कुछ अमूल्य मोती गिराकर रह जाती थी। वह हताश नहीं हुईं। अपने पति के हृदय में हिन्दी की आशा की किरण अपने-सुकुमार प्रयत्नों से उन्होंने रोपित कर दी। श्रीयुत् दूलारे लाल जी ने उस छोटी सी 16 वर्ष की अवस्था में ही अपनी जातीय सभा की मुख-पत्रिका ‘भार्गव पत्रिका’ का सम्पादन-भार उठाया और इस प्रकार हिन्दी की सेवा के लिए दत्त-चित्त हो गए। पर गंगादेवी को अपने उपदेशों के सुफल देखने का अवकाश न मिला। वह स्वर्गीय ज्योति जिस कार्य के लिए पृथ्वी पर उतरी, उसका श्री गणेश कर 2-3 वर्ष ही पति के साथ रहकर इस संसार को त्यागकर अपने पति की आत्मा में लीन हो गई।
    ‘‘गंगा-पुस्तकमाला’ में आज हिन्दी की सेवा के जो सुफल प्रत्यक्ष हुए हैं, इसकी लता उन्हीं गंगादेवी के स्नेह के जल से सींची हुई है। उनकी कल्पना से निकली हुई श्रीयुत् दुलारे लाल जी के सतत परिश्रम से बढ़ती हुई इस ‘गंगा-पुस्तकमाला’ में आज 108वां पुष्प पिरोया जा  चुका है।  जिसके आनन्द का उत्सव मानाने के लिए हिन्दी के प्रमुख साहित्यिक आज यहां-गंगा फाइन आर्ट-प्रेस में एकत्रित हैं। इस माला का पहला पुष्प था माला के अध्यक्ष मालाकार श्री दुलारे लाल जी की लिखी हुई ‘हृदय-तरंग’ पुस्तक, जिसका समर्पण उन्होंने अपनी प्राणाधिक स्वर्गीया सहधर्मिणी को, उनकी उस प्रेरणा की याद दिलाते हुए, किया है। ‘गढ़-कुंडार’ इसका 108 वां पुष्प है। इस माला में हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ बड़े-बड़े प्रायः सभी महान, लेखक आ गए हैं। आचार्य पं0 महावीर प्रसाद जी द्विवेदी की लिखी हुई ‘सुकवि-संकीर्तन’, ‘अद्भुत-आलाप’, ‘साहित्य-संदर्भ, कवि सम्राट पं0 श्रीधर पाठक का ‘भारत-गीत’, समालोचक-प्रवर ‘मिश्रबंधु’-लिखित ‘हिन्दी नवरत्न’, ‘पूर्व-भारत’, ‘मिश्रबन्धु-विनोद’, आदि, कवविर श्रीयुत् जगन्नाथदास रत्नाकर’, बी0ए0 का लिखा हुआ ‘बिहारी-रत्नाकर’ उपन्यास-सम्राट श्रीयुत् प्रेमचन्द जी की लिखी हुई ‘रंगभूमि’, ‘कर्बला’, ‘प्रेम-द्वादशी’, ‘प्रेम-पंचमी’, ‘प्रेम-प्रसून’ आदि, समालोचक-प्रवर पं0 कृष्ण बिहारी जी मिश्र बी0ए0, एल0एल0बी0 की लिखी हुई ‘देव-बिहारी’, प्रसिद्ध औपन्यासिक आयुर्वेदाचार्य श्रीयुत् चतुरसेन जी शास्त्री की लिखी हुई ‘हृदय की परख’ ‘हृदय की प्यास’, लोकप्रिय औपन्यासिक पं0 विश्वम्भर नाथ जी शर्मा कौशिक की लिखी हुई ‘माँ’ और ‘चित्रशाला’, कविवर पं0 सत्यनारायण जी पांडेय की कविताओं का संग्रह ‘पराग’, नवीन सुन्दर साहित्यिक पं0 विनोद शंकर जी व्यास की लिखी हुई ‘तूलिका’, पुरस्कृत कवि श्रीयुत् गुलाबरत्न जी बाजपेयी ‘गुलाब’ की ‘लतिका’ आदि, डाॅ0 प्राणनाथ विद्यालंकार का ‘इंग्लैण्ड का इतिहास’, बद्रीनाथ जी भट्ट की ‘दुर्गावती’ ‘हिन्दी’, पं0 गोविन्द बल्लभ पंत जी की ‘राजमुकुट’, ‘वरमाला’, श्रीयुत् भगवान दास केला का ‘भारतीय अर्थशास्त्र’, प्रो0 दयाशंकर दुबे का ‘विदेशी विनिमय’ तथा और-और सुप्रसिद्ध साहित्यिकों की लिखी हुई उत्तमोत्तम रचनाएं इस माला में पिरोई गई है। इतना बड़ा हिन्दी का प्रकाशन, इतने थोड़े समय में, आज तक किसी भी कार्यालय से नहीं हुआ। इन अमूल्य पुस्तकों के द्वारा श्रीमान दुलारे लाल जी ने हिन्दी की जो सेवा की है, उसका मूल्य निर्धारित करना मेरी शक्ति से बिल्कुल बाहर है। पहले ‘माधुरी’ का अपने योग्यतापूर्वक सम्पादन किया, अब उसी के जोड़ की अपनी पत्रिका ‘सुधा’ का सम्पादन- प्रकाशन कर रहे हैं। ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ में बराबर आप नवीन लेखकों को प्रोत्साहित करते रहे हैं। कितनी ही महिला लेखिकाएं तैयार की। बराबर नवीन लेखकों के चित्र छाप कर उनका उत्साह बढ़ाते गए। यह काम हिन्दी की किसी भी पत्रिका में नहीं रहा। ‘सुधा’ में जिन-जिन लेखकों के चित्र निकले हैं, दूसरी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं अब भी उनके चित्र निकालना अपनी मर्यादा की प्रतिकूलता समझती है। दूसरे प्रांतों के उनसे भी गए-बहे लोगों का बड़ी श्रद्धा से वहां परिचय दिया जाता रहा है। पर अपने प्रांत के प्रतिष्ठित लोगों का सम्मान करते हुए उनका दम ही रूक जाता है। इस प्रोत्साहन - कार्य में दुलारे लाल जी का स्थान सबसे पहले है। अन्यत्र सभाओं में निमंत्रित होकर प्रतिवर्ष हिन्दी के नवीन साथियों को पदक पुरस्कार आदि दे-देकर आप बढ़ावा देते रहते है। यह सब आपके हिन्दी प्रेम का ही पवित्र परिणाम है। लखनऊ जैसे उर्दू के किले में इस तरह का हिन्दी का विशाल प्रसाद खड़ा कर देना कोई साधारण-सी बात नहीं थीं। इसके लिए कितना परिश्रम तथा कितना अध्यवसाय चाहिए, यह मर्मज्ञ मनुष्य अच्छी ही तरह समझ लेंगे।
    श्री दुलारे लाल जी का जन्म हुआ था, बसंत पंचमी को, उनका विवाह भी बसंत पंचमी की रात को हुआ। ‘गंगा-पुस्तक-माला’ का प्रकाशन भी बसंत पंचमी के दिन आरम्भ हुआ और आज इस माला के 108 वंे जय-पुष्प की पूर्णता भी होती है बसंत पंचमी के दिन, ईश्वर से प्रार्थना है कि वह माला को 1008 पुष्पों से सजाकर हिन्दी के ऐसे उदार सक्षम कार्यकर्ता की कीर्ति को अन्य देशों में भी सादर समम्यपर्ति करें- श्रम तथा साधना अपना पुरस्कार प्राप्त करें। (सन् 1928 की बसंत पंचमी पर श्री भार्गव जी के जन्मदिन व ‘गढ़कुंडार’ के विमोचन समारोह में श्री निराला जी द्वारा दिया गया भाषण)

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