Sunday, November 6, 2011

हिन्दी अनुरक्त दुलारे लाल

-मुंशी विजय कुमार सक्सेना

‘गंगा-पुस्तक-माला’ शाला,
कवि-कोविद क्लब’ जीवट वाला,
तिमिर-ग्रस्त को किए प्रकाशित
‘ब्रजभाषी-कवि’ कहें निराला
सूर्य-चन्द्र नित करे परिक्रमा, ‘तारक’ नहीं बदलते चाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
‘हृदय-तरंग’, ‘सुधा’-रस सरसा,
कर माधुर्य ‘माधुरी’ वर्षा,
अगणित कवि-कोविद को स्वर दे-
स्वयं चल दिए हर्षा-तरसा;
उनके ‘फूल’ मिले ‘गंगा’ में, जो थे स्वयं भावना-ज्वाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
‘सद्-व्यय’, ‘सकल-प्राप्ति’ का करिए
‘साहित-सत्यालोक’ न तजिए,
‘सुसम्परक’ ऐसा अपनाएं-
स्वस्थ रहें ईश्वर को भजिए;
‘पंच-सुजीवन’ अंग यही बस, हरते सारा जग-जंजाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
शब्द-शब्द में कथा पिरोए,
नयी-उमर का अणु-अणु रोए,
कहां समस्या समाधान हो।
साहित्यिक - जग जन मुंह जोए;
‘साहित’ के सत्यं-शिवं-सुन्दरं, वंदनीय स्वप्नों - से लाल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।
‘कवि-सम्राट’, ‘देव-यश’ मंडित,
वंदनीय चिर - चिर अभिनंदित,
परिजन - स्वजन समान इकाई
‘दोहों के कवि सदा प्रशंसित;
‘मातृ-स्नेह में ‘मातृभूमि’ का, रहा हृदय में अद्भुत ख्याल।
संस्कृतिमय भावना-भक्त, हिन्दी-अनुरक्त दुलारे लाल।।

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