Sunday, November 6, 2011

बृज भाषा की सर्च लाइट

डा. शम्भुनाथ चतुर्वेदी
साहित्य-देवता! वीणापाणि के अर्चन के फूल!
तुम्हारी जन्म - तिथि, हिन्दी की रूपरेखा है
तुमने जो रचा-रचाया वही इतिहास का लेखा है।
तुम थे कलश निष्ठा के, साधना की सरिता थे
टिमटिमाते तारों बीच, तुम भास्वर सविता थे।
ए मनु- पुत्र!
श्रद्धा और इड़ा को अन्विति के सेतु थे
नाज, ‘माधुरी’ को स्वयं ऐसे तुम केतु थे
आधुनिकता और भारतीयता के मिलन-बिन्दु!
संशय के अजगर की गुंजक से दूर
अनास्था की गलियांे में तुम नहीं भटके
हिन्दी की हर्डिंल-रेस की अनवधि गति
अटके, अटके ही रहे, तुम नहीं अटके।
पीड़ा और क्लेश के अगत्स्य!
रोग-जरा, जरा से थे, तुम अथाह सागर थे
बूंद जिसकी चुके नहीं, कविता की गागर थे।
अभिनव बिहारी, दोहावली के रचनाकर
शब्दों से किन गढं़ू तुम्हारी मूर्ति मूर्तिकार।
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बिहारी के कुंजों में गुंजन करने वाले अलि
पकड़कर उंगली तुम्हारी खिली राधा-कलि।
कन्हैया बांसुरी को दिये कुछ ऐसे स्वर
गति-विहग उड़ गये पाकर रंगीन पर
हिन्दी के ठेले को ढोने वाले भीम!
‘वादों’ को दोहों का बनाया नित नया थीम।
हिन्दी-स्कूटर का घुमाते रहे हैण्डिल
इसी में घिस गये अवस्था के सैण्डिल।
युवा पीढ़ी की मशाल।
तुमसे कहे कोई कुछ किसकी इतनी मजाल।
तुम आत्महत्या के विरूद्ध बने पुल थे
परकीय स्वजन बने, बाहर वाले कुल थे।
कितने युवजनों के घर कर नित उजाला
दिया मतवाला तुमने बना हर निराला।
प्रेम की थालियां लगाई थीं तुमने चन्द
परिमल भर उनमें फिर खोल दिये बन्ध छन्द।
अब न रहे कोष किसी मधुबन का खाली।
वृक्ष को संवार गये, कविता के माली।


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