Sunday, November 6, 2011

और वह हीरामन तोता उड़ गया...

प्रियंका पंचायत (संपादकीय)
किसी भी कालजयी रचनाकार का सम्यक् मूल्यांकन उसके जीवन-काल में नहीं होता-तुलसी, निराला और प्रेमचंद का कृतित्व इसका गवाह है। स्वर्गीय दुलारे लाल भार्गव जी की ‘दुलारे दोहावाली’ पर यद्यपि सर्व प्रथम ‘देव पुरस्कार’ दिया गया, परन्तु उनका विरोध भी उनके जमाने में खूब किया गया। किसी ने उन्हें लेखकों का शोषक कहा, (वैसे सही अर्थाें में वे लेखकों के पोषक थे) किसी ने यहां तक कह दिया कि उनके दोहे ‘निराला’ जी लिखा करते थे। परन्तु असलियत यह है कि भार्गव जी में जनम जात काव्य-प्रतिभा थी, जिसे न कोई छीन सका और न छीन सकता है। निराला जी के सम्बन्ध में भार्गव जी कहा करते थे कि लखनऊ-प्रवास काल में न केवल वे उनकी रचनाओं पर उचित राॅयल्टी देते थे, अपितु जैसा खादी का रेशमी कुर्ता वे स्वयं पहनते थे, वैसा ही निराला जी के लिए बनवाते थे। भार्गव जी ने केवल सोलह वर्ष की अल्पायु में ‘भार्गव’ जातीय पत्रिका का सम्पादन किया था, जिसमें उस युग के सुपरिचित रचनाकार मैथिलीशरण गुप्त, अनूप शर्मा और रूपनारायण पाण्डेय की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। इससे स्पष्ट है कि भार्गव जी में पत्रिका-सम्पादन की अद्भुत क्षमता थी। ‘सुधा’, ‘माधुरी’ अब भी उनकी कीर्ति की पताकाएं बनी हुई हैं। मुझे यह कहने में किंचित भी संकोच नहीं है कि भार्गव जी ने जिस स्तर की ये पत्रिकाएं निकाली, अब भी दुर्लभ हैं।

    उनके हिन्दी प्रेम का इससे बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है कि उन्होंने ब्रिटिश शासन-काल में हिन्दी पत्रिकाओं का सम्पादन किया, पुस्तकें प्रकाशित कीं और नयी पत्रिकाओं को हिन्दी-जगत् के सम्मुख पेश किया। यदि भार्गव जी न होते तो आधुनिक साहित्य न होता। उन्होंने स्वयं ब्रजभाषा-प्रेमी होने के बावजूद छायावाद के प्रमुख कवियों प्रसाद, निराला और पंत की रचनाओं को प्रकाशित किया। लखनऊ में उपन्यास के दो दुर्ग निर्मित करने वाले भार्गव जी ही थे- उन्होंने भगवती चरण वर्मा और नागर जी के प्रथम उपन्यासों को छापा। लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग को खुलावाने का श्रेय भी उन्हीं को था। उन्होंने हिन्दी-विभाग में पं0 बदरी नाथ भट्ट की नियुक्ति कराई और डाॅ0 दीन दयाल गुप्त के शोध-प्रबन्ध के टंकण के लिए ‘टाइप राइटर’ तक का प्रबंध किया। यह बात स्वयं स्वर्गीय डाॅ0 गुप्ता जी स्वीकारते थे।

    भार्गव जी कवि-सम्मेलनों की परम्परा के जनक थे। हिन्दी के प्रसार-प्रचार के लिए अपने जीवन के अन्तिम काल तक में वे कवि-सम्मेलनों का आयोजन कराया करते थे। अखिल भारतीय स्तर का अन्तिम कवि-सम्मेलन और मुशायरा उन्होंने श्रीमती इन्दिरा गांधी के स्वागतार्थ रवीन्द्रालय, लखनऊ में आयोजित कराया था। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे नई पीढ़ी को आगे बढ़ने का निरन्त प्रोत्साहन दिया करते थे। इस कवि सम्मेलन में वे अध्यक्ष तो बने परंतु सम्पूर्ण आयोजन का प्रबन्ध और संचालन दायित्व शंभूनाथ चतुर्वेदी, राम प्रकाश वरमा, ‘स्वतंत्र’ और संतोष भार्गव आदि को दे दिया। ‘प्रियंका’ सम्पादक के वे ही प्रेरक थे। उन्होंने ही युवा पीढ़ी को अग्रसर किया।
    मुझे याद है कि एक बार जब वे तत्कालीन उप मुख्यमंत्री (अब विधानसभा के स्पीकर) पं0 श्रीपति मिश्र से मिलने गये, तो उन्होंने हाथ जोड़कर कहा, कहिए भार्गव जी क्या काम है?’ भार्गव जी ने उन्हें अपना नाम बताया। उत्तर  में श्रीपति मिश्र जी हंसे और बोले, ‘आपका नाम मैं बचपन से सुनता आया हूं’। जब वे तत्कालीन एडवोकेट जनरल पं0 कन्हैया लाल मिश्र से मिलने गये तो उन्होंने मेरे सामने स्वीकारा, मैं तो आपका क्रिएशन हूं। मिश्र जी का पहला लेख ‘माधुरी’ में भार्गव जी ने छापा था। भार्गव जी बताते थे कि पं0 गोविन्द बल्लभ पंत का मंत्रिमण्डल जब बना तो अपने घर की छत पर उनके सम्मान में उन्होंने आयोजन किया था। भार्गव जी काली मिर्च के समान थे जो चरफरी होती है, परन्तु अत्यन्त गुणकारी। जब वे कहते थे कि स्व0 लालबहादुर शास्त्री उनके परिवार के सदस्य बनकर रहे, तो लोग हंसते थे, परन्तु थी यह वास्तविकता। इसी प्रकार मुंशी प्रेमचन्द्र के वे सही अर्थाें में पोषक थे।

    भार्गव जी कवि थे, सम्पादक थे, प्रकाशक थे और थे हिन्दी के कीर्तिमान पुस्तक-विक्रेता। वे एक ‘मिशन’ को लेकर हिन्दी सेवा में लगे रहे। ‘कवि कुटीर’ उनकी याद में बिलखता है, कवि-कोविद-क्लब का करुण कन्दन आज भी सुनाई पड़ता है तथा ‘गंगा-पुस्तक-माला’ का सूनसान वातावरण उनकी याद में गमगीन नजर आता है। जिस शमा पर अनेक परवाने मंडराते थे, वह बुझ गई। पर क्या वास्तव में? उनकी आत्मा अब भी हमारे पास मंडराती है और हमें उनके अधूरे स्वप्नों को पूरा करने की प्रेरणा देती है। उनकी आंखे मुंदते ही न जाने कितने छात्र-छात्राओं का अध्ययन रुक गया, कितनों को बेरोजगारी का मुंह जोहना पड़ा, गुलजार रहने वाली बैठक बेचैन हो गई। शेरवानी और चूड़ीदार पैजामा पहने, बस्ता बगल में दबाये भार्गव जी कई बार मेरे सिरहाने स्वप्न में ओये हैं- ‘तुमने मेरा कोई काम नहीं किया।’ वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों मे ंएक संस्था की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे। इंस्टीट्यूट आॅफ प्रिंटिंग एण्ड टेक्नोलाॅजी की संस्थापना के लिए दिन-रात साइकिल पर दौड़ा करते थे। यह वही भार्गव जी थे जिनकी ‘दुलारी मोटर’ पर कभी कविता लिखी गई थी। वे हमेशा अपने जमाने से आगे की बात सोचते थे, उसे क्रियान्वित करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते थे। काश! हम उनका अधूरा स्वप्न पूरा कर पाते। एक बार पद्म भूषण पं0 अमृत लाल नागर जी ने कहा था, - ‘‘भार्गव जी के नाम पर म्यूजियम बन जाता तो आधुनिक साहित्य का बिखरा हुआ इतिहास शायद एकत्र हो जाता।’

    अपने जीवन की सांध्य-बेला में वे जितने अधिक खान-पान के प्रति आग्रहशील थे, उतने ही अभावग्रस्त। सुबह की चाय वे तथाकथित ‘बाहरी लोगों’ के यहां पीते थे। वैसे उन्होंने नीबू की चाय पीने की आदत मेरी डाली, जिससे मैं सर्दी-जुकाम से पीडि़त नहीं रहता। दोपहर का उनका ठंढा और रूखा-सूखा खाना देखकर नेत्रों में अश्रु भर-भर आते थे। घरवालों को पसन्द नहीं था कि ‘बाहर वाले’ आयें। परन्तु सम्बन्ध आन्तरिक होता है। वे बाहर वालों को ही अपने दुख-सुख का भागीदार बनाते थे। घर से वह इस कदर संत्रस्त थे कि जेठ की तपती दोपहरी में भी बाहर घूमा करते थे किसने की उनके स्वास्थ्य की चिन्ता? जिन यातानाओं को उन्हें झेलना पड़ा, उनका उल्लेख न करना ही उचित होगा। लेकिन यह सत्य है कि यदि परिवार वालों ने उन्हें इतनी अधिक पीड़ा न दी होती तो वे संसार से अभी न जाते।
    पत्नी के प्रेम से वंचित, भाइयों के पारस्परिक कलह से त्रस्त भार्गव जी का असामयिक निधन हो गया। जो परिवार के सदस्य उनके शव को कैश कराना चाहते हैं, उनकी उपलब्धियों का श्रेय लूटना चाहते हैं, उन्हीं ने उन्हें प्रताडि़त किया। उस हीरामन तोते के प्रांण उड़ गये। पारिवारिक विरोध उनके लिए बहुत बड़ा ‘टेंसन’ बन गया था। वे अपनी बात समझाने के लिए जोर-जोर से बोलने लगते थे। आज उस गुमशुदा आवाज की हमें तलाश, नयी पीढ़ को उसकी जरूरत है। तुलसी की ये पंक्तियां उनके संदर्भ में बरबस याद आती हैं -
परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
(डाॅ0 शम्भूनाथ चतुर्वेदी, अतिथि सम्पादक)

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