Sunday, November 6, 2011

अखिल भारतीय गीता -धर्म-सम्मेलन

स्वागताध्यक्ष-दुलारे लाल का भाषण
(कुंभ मेला संवत् 1992, को पूज्यपाद ब्रह्मनिष्ठ स्वामी विद्यानंद जी महराज ने अखिल भारतीय गीता-सम्मेलन का श्रीगणेश, पवित्र त्रिवेणी तट पर किया था। इस प्रथम अधिवेशन के सभापति रचनामधन्य डा0 गंगानाथ झा थे। एक दिन प्रातः स्मरणीय महामना मदनमोहन जी मालवीय महाराज ने भी सभापतित्व का शुभासन सुशोभित किया था। स्वागत-भार ‘सुधा’-सम्पादक एवं हिन्दी साहित्य-युग-प्रर्वतक दुलारे लाल भार्गव को सांैपा गया था, उसी पद से उन्होंने जो संक्षिप्त भाषण दिया था, उसे यहां पुनः प्रकाशित कर रहे हैं। अंत में प्रार्थना (गीत) परम पठनीय है।)
    श्री राधा-बाधा हरनि
        नेह अगाधा-साथ
    निहचल नैन-निकुंज में
        नाचै निरंतर-नाथ।
    नंद-नदं सुख कदं कौ
        मंद हंसत मुख-चंद,
    नसत दंद-छलछदं तम
        जगत जगत आंनद।

मान्य सभापति जी, देश के भिन्न कोनों से आए हुए प्रतिनिध जन तथा उपस्थित सज्जन-वृंद।
    आपका हम स्वागत करते हंै। आप ही लोगों का यह सम्मेलन है। आप लोगों ने ही हमें यह कार्य करने का भार दिया है, अतः हमसे जो कुछ करते बन पड़ा है किया है, आप अब उसे संभालिए।
    अब हम सब मिलकर एक बार गीतापति श्री कृष्ण का आवाहन् और स्वागत करें। वह आवें और अपनी गीता के प्रचार का हमें उपाय बतावें।
    हमें तो अब कुछ कहना ही नहीं। आप लोग इस प्रकार कृपा करके जब यहां आ गए है। तब फिर चाहिए ही क्या हमारे ऋषिकल्प महामहोपाध्याय डा0 गंगानाथ जी झा अपनी इस पैसठ वर्ष की वृ़द्धा और रूग्ण अवस्था में भी हम लोगों को ‘उत्साह’ और ‘योग’ देने आए हुए है। आप गीता के सौम्य आदर्श जीवन के जीते-जागते उदाहरण हंै। आपको देखकर हम लोग अपना जीवन बना सकते हंै। आप जैसे सभापति को पाकर यह अखिल भारतीय गीता सम्मेलन अवश्य सफल होगा, और अपने निष्काम प्रचार और लोक संग्रह का कार्य कर सकेगा।
    हमने झा जी के उपदेशों तथा अनेक जीवन के कार्यो से दो प्रधान बातें सीखी है- पहली यह की गीता को कठिन समझ कर व्र्यथ डरना नहीं चाहिए। वह तो भगवान की मुरली  की ध्वनि के समान मधुर और मनोहर है। भगवान ने बात ही बात में अपने सखा को सर्वश्रेष्ठ ज्ञान सिखाया था। तब वह कठिन कैसे हो सकता है। कृष्णा ने वेद, उपनिषद् आदि की कठिन बातों को सरल भाषा में गाकर अर्जुन को समझाया था, इसी से तो इस शास्त्र को ‘गीता’ कहते है।
    हिन्दुओं के लिये वेद सर्वस्वभूत है; तथापि ज्ञान कांड के लिये उपनिषदों का भी सार रहस्य श्रीमद्भगवद्गीता में प्रतिपादन किया गया है। जैसा कहा जाता है-‘‘सर्वोय-निषदों गावो दोग्धा गोपालनन्दनः पार्थाें वन्सः सुयीभोक्ता दुग्धं गीतामृतः मह्त्।’’ इस उपनिषत्सारभूत गीतामृत पान करके जीवन मरण के द्वंद से विमुक्ति पाकर अमरत्व पद की प्राप्ति की अभिलाषा किसे न होगी? इस देव-दुलर्भ सुधा को वसुधा में सुलभ रूप से उचार करने वाले सज्जन क्यों न अभिनंदनीय समझें जायेगे? यद्यपि उपनिषदों के सारभूत होने के कारण गीता में ज्ञान काड की उत्कर्ष है, तथाति कर्म तथा भक्ति का विवेचन भी अत्यंत मार्मिक है।
    गीता को कठिन समझ कर डरना नहीं चाहिए। गीता का पाठ और प्रचार कठिन काम नहीं।
    दूसरी बात है लोक संग्रह का जीवन। हमारे महामहोपाध्याय जी ने जीवन भर शिक्षा विभाग में कार्य किया। अभी बुढ़ापे में भी विश्वविद्यालय के कुलपतित्व करते रहे, आज दिन भी आप एकेडमी आदि अनेक संस्थाओं में कार्य करते है, पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखते और पुस्तकों की रचना तथा सम्पादन करते है। आप अस्वस्थ है, तो भी हम लोगो के प्रार्थना करते ही गीता-सम्मेलन में योग देने के लिए तैयार हो गए। हम आपके इस लोक संग्रह की वृति पर मुग्ध है।
    हमें आपकी इन दोनो बातों को लेकर गीता-प्रचार के क्षेत्र में उतरना है। हम इसे भगवान की कृपा समझते है, जो ऐसा ऋषि हमें प्रथम अखिल भारतीय गीता-सम्मेलन का सभापति मिला।
    हमारे इस सम्मेलन के संयोजक है वीतराग, लोक संग्रही स्वामी विद्यानंद जी। आपका जीवन भी त्याग और निष्काम लोक संग्रह का जीवन है। आपने इस सम्मेलन द्वारा सभी संस्थाओं, विद्वानों, सन्तों और महात्माओं से प्रार्थना की है कि वे इस काम में सहायता करें, और गीता-प्रचार के काम में कोई किसी का विरोध न करे। आपने इसी उद्देश्य से काशी में ‘गीता-धर्म’ नाम का एक मासिक पत्र निकाला है, उसका उद्देश्य हैै गीता सम्बन्धी समस्त प्राचीन वाड्ंमय का और अपने धर्म तथा प्रकृति का प्रतिपादन और प्रचार। इस पत्र की सबसें बड़ी विशेषता है, किसी का विरोध न करना। हम आशा करते हैं, कि आप लोग अपनी-अपनी सम्मति और सहयोग देकर स्वामी जी के इस लोक संग्रह के काम में सहायता देंगे।
    हमारे लिए यह अपार आनन्द की बात है कि इस तीर्थराज में, त्रिवेणी-तट पर इस साधु-संतांे और विख्यात विद्वानों के विराट् गीता-सम्मेलन में हमें ऐसा स्वागत करने का कार्य मिला।
 युधिष्ठिर ने यज्ञ किया था, आप लोग सब जानते है, गीतापति भगवान कृष्ण ने सबका स्वागत करने और चरण धोने का भार अपने ऊपर लिया था। यह भी गीता ज्ञान यज्ञ है। इसका स्वागत अध्यक्ष तो गीता पति जैसा पुरूष ही होना चाहिए, पर यह माननीय संयोजक श्री स्वामी जी महाराज की, मंत्री श्री आचार्य जी की तथा कार्यकारिणी की कृपा है, और हमारा सौभाग्य है, जो हमें यह सेवा करने को मिली।
    हम तो यही कहकर चुप बैठ जाते है कि इस गीता-यज्ञ और सम्मेलन में स्वागताध्यक्ष श्री कृष्ण जी हैं। हम तो निमित मात्र बनकर यहां खड़े हंै, आइए अब हम सब मिलकर उन्हीं गीता-गायक, ज्योतिर्मय, घनश्याम, बंशीधर, दीनदयाल श्री कृष्ण भगवान का आवाहन् करें, जिसमें यह अपने ढंग का अभूतपूर्व सम्मेलन सुचारू रूप से सफल हो--

प्रार्थना गीत
स्वागत! स्वागत! सुज समामिलित सुरस सुधा सरसाए,
गुन-गाहक! गीता-गुन-गन की गौरव गुनि-गुनि गाए।
ज्योतिरमय! जगि जगन ज्योति में करू अंग जग-मग जगमग;
भगति-सकति मरू रग-रग पग-पग होत जनन डग-डगमग।
जन घनश्याम ! जु सरस दरस कौं पाप-ताप तपि तरसें;
धाॅय धाॅय धधकत, धरहरि-हित धाय  धरम-रस बरसें।
बंसीधर! धर अधर बांसुरी मंजु मधुरी सरसें;
‘रूनझुन-रूनझुन‘ धुनि-सुनि मन मुन उनमन जन-गन हरसें।
दीनदयाल! दया दीनन द्रवि दीजै, दीनन दरसें;
तन-मन-धन-जन-जीवन अरपन करि प्रिय प्रभु-पद परसें।

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