Wednesday, August 7, 2013

बबुआ धीरे-धीरे आई समाजवाद

देखिए एगो बात हमारा भी बूझ लिया जाय, साइकिली में बैटरी फिट कहकै हवा की माफिक ओकर रफ्तार बढ़ाई जा सकै, मगर टिरैफिक-विरैफिक भी कोई चीज है कि नहीं। सड़क का कायदा कानून तो मानना ही पड़ेगा। फिर खुली सड़का पर सरकारी सांड और महादेव के नंदी की बिरादरी वालों की धरपटक से भी सावधानी बरतनी है। सावधानी हटी दुर्घटना घटी। ठीक है समाजवादी एम्बुलेंस सेवा उपलब्ध है, मगर ट्रामा सेन्टर के डागडर साहब तो कैंडिल लाइट रोमांस की कक्षा में यौनवर्द्धक दवा के परीक्षण में व्यस्त हैं। फिर लाल-हरी बत्ती के बाजू में लगे चोर कैमरे से बचकर चैराहा पार करना है कि नहीं। उस पर तुर्रा यह कि सड़कों पर सीवर के बदबूदार पानी की नई बनी झीलों के किनारे-किनारे से ही गुजरना है। कहीं कूड़े का ढेर, कहीं सड़क टूटी, कहीं गढडे में झूलती सड़क। इससे बच भी गए तो जाम की ठसक औ रोना-धोना तम्बू ताने गली-गली में जारी ‘मैं तो छोड़ चली बाबुल की गली...’। भरी-पुरी सड़क पर गाती-बजाती, नाचती, भीड़ में ठाड़े रहियो बांके यार... या सब कुछ छोड़-छाड़ के चली अपने...’’ की द्दुन पर करीना, कैटरीना का मरम पाले मम्मियां अपने घर की रसोई या बाथरूम में की गई मशक्कत से बनाई गई अपनी बेडौल ‘बाॅडी’ के भूकम्प से सड़क का उत्पीड़न और शोहदों का मनोरंजन कर रही हों तो क्या सइकिल फर्राटा भर सकती है? तिस पर समूचा समाजवादी कुनबा भी साइकिल पर सवार हो!
    तो भइया, यूं समझों कि पंडित-मुल्ला ठडि़याए दिए गए सड़कन ते मैदान तलक, दलित-पिछड़े लोकसभा चुनाव ‘हाइवे’ घेरे खड़े हैं और जय श्रीराम.... जय द्वारकाधीश का नारा ‘इम्पोर्टेड नेता’ लगा रहे हैं। ऐसे में आप ही बताइए कि ससुरी साइकिल कितनी तेज चल सकती हैं? वह भी तब जब उस पर ‘लैपटाॅप’ का बोझ लदा हो! फिर लालबत्ती का हाल भी बेहाल, बिजली अलग से गुल। घुप्प अंधेरे में कोठी विक्रमादित्य का रास्ता कैसे तलाशा जाय? वहां भी कौन किसका ‘हौसला’ बढ़ाए पता नहीं। पहले ही हाथी से उतरकर आये ‘कुनबे’ को समाजवादी अक्षरज्ञान कराया जा चुका है। अब परिवार नियोजन के भी कोई मायने हैं या नहीं? आखिर एक साइकिल पर किस -किस को बैठाया जाये? आप ही बताईए ऐसे में साइकिल धीरे-धीरे नहीं चलेगी तो क्या दौड़ेगी?
    हर-हर महादेव...! सावन का महीना है तो भोले बाबा का जयकारा लगेगा ही। गाँव से गंगा तक बम..बम.. बम भोले सो हर की पैड़ी के शिवाले से काशी के बाबा विश्वनाथ वाली गली तक भंग भवानी के नाच का जायज हक है। जहां नाच, वहां हुड़दंग। जहां बूटी की हो महिमा वहां क्या बेनी के बोल... क्या पुलिसवालांे की मारकुटाई... क्या शोहदई और क्या दुराचार? भगत ‘जय-जय शिवशंकर न कांटा लगे न कंकर...’ गाते हुए समाजवादी साइकिल पर सवार होकर विदेश तो जायेगा नहीं जो उसकी बेइज्जती हो, वह तो ‘नेताजी’ के चरणों की धूल लेने पार्टी दफ्तर ही जाएगा। पानी महंगा हो जाय कोई बात नहीं, बिजली के दाम बढ़ गये कोई बात नहीं, बाढ़-पीडि़तों को तो फांकाकशी की आदत हो गई है। समाजवादी गांव-गांव जाकर बताएगा ‘भइयाजी’ साइकिल पर आ रहे हैं। अब उसको तो पता नहीं कि मांसाहारी कुत्ते एथलीट हो गये हैं और शाकाहारी बंदर जिमनास्ट। तभी तो सड़क से लेकर संडास तक जिस-तिस को काट ले रहे हैं। अब उन्हें तो बस अपना समाजवादी धर्म निभाना है। ऐसे में साइकिल की रफ्तार सुस्त तो होगी ही न, बोलो?
    आपको शायद न पता हो, समाजवादी छप्पर तले शौचालय बनाने की योजना अभी केन्द्र की मोहताज है। भले ही एलडीए के शौचालय टच-स्क्रीन मशीनों और सीसी टीवी कैमरों से कीमती हों। उधर बेरोजगारी भत्ता और टेबलेट बांटने का गतिण अफसरान पढ़ रहे हैं। इद्दर राशन, साड़ी वाले सिनेमा की स्क्रिप्ट अभी ‘पार्टी प्रेस’ लिख रहा है। चुनाव-14 के भौगोलिक नक्शे पर सच्चे समाजसेवकों के हाथों में लोहिया के बड़े वाले फोटो देकर तैनात कर दिया गया है। कार्य प्रगति पर है, धैर्य रखिए। राजनीति मनोरंजन के बाथरूम में नहा- धोकर तैयार हो रही है। तो बबुआ कुछ समझे, धीरे-धीरे आई समाजवाद।

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