Wednesday, August 7, 2013

सावन और ईद की मुस्कराहट है समाजवादी

सावन आता है भर मन। हर एक चेहरा मुस्कराता है। यहां तक कड़वी नीम भी खिलखिलाने लगती है। हर उम्र की महिलाएं बगैर झूले के हिलोरें लेती हैं, तो मर्दानगी अखाड़ों में छाती फाड़कर श्रीराम के दर्शनों को आतुर दिखती। जीन्स-शार्ट या टाॅपलेस भी चूड़ी...बिंदी... मेहंदी की दीवानगी से बच नहीं पाते। माॅल... की भीड़ भी मेलों में मस्ती की छेड़छाड़ और बरखा रानी की अठखेलियों से अपने को बचा नहीं पाती। भले ही ढीठ यौवन... शिट.. ‘सा..वन’... कहकर मुंह बिचकाए और आधुनिक गुसलखाने में लगे फुहारे के नीचे खड़े हो गुनगुनाए ‘आग लगे सावन में...।’ बरखा रानी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो दुलारी बिटिया की तरह अपने मायके आकर आपनी धरती मां के गले से लिपटकर जार-जार आँसू बहाती हैं और खूब प्रसन्न होती हंै। उसकी खुशी गांव-शहर, हिन्दू-मुसलमान, गोरा-काला, बाभन-दलित, सावन और ईद में कोई फर्क नहीं करती।
    इस बरस भरपूर उफनाये सावन में ईद का इस्तकबाल त्योहार के हुस्न को दोबाला करने को बेताब है। समूचा मंजर गले मिलकर जय हिन्द... जय भारत के नाद की गंूज सुनने का ख्वाहिशमंद है। बाजार तक इससे अछूते नहीं है। नवाबों का शहर लखनऊ सावन और ईद की रौनक से भरपूर चहक रहा है। मस्जिदों से गूंजती आयतें, तो मन्दिरों से हर-हर महादेव की भाई-बन्दगी लखनऊ की हर गली में आबाद है। चैक, नक्खास, अमीनाबाद, मौलवीगंज के बाजार रातों में मुगलिया खाने की सोंधी महक से गुलजार हैं। दिन फूलों, फलों, दूध, सिवइंयों सूतफेनियों व अनरसे की मीठी गोलियांे-पूरियों से बरौनक हैं। आलमबाग हो या गोमतीनगर या कस्बा काकोरी, बंथरा, निगोहा या फिर बालागंज, गोसाईगंज सब जगह सावन झूम रहा है, रमजान इबादत में नतमष्तक।
    गुडि़या-रक्षाबंधन को तैयार, तो ईद की नमाज के लिए नन्ही-मुन्नी टोपियों से सजा लखनऊ अदब से आदाब बजा रहा है। औरतों की खरीदारी से बाजार के कहकहे बेतरह बुलंद हैं। सावन और ईद की सेवाइंयों के गले मिलने का हाल बयान करने का नहीं देखने का गजब मंजर है। हुसैनगंज, सआदतगंज में गुडि़यों का मेला जहां दोनों फिरकों की औरतों की चूडि़यां खनकती हैं, बच्चों की जिदभरी चिल्लापों से समूचा माहौल मुस्कराता है। बुद्वेश्वरन से मनकामेश्वर मन्दिर तक भोलेबाबा का जयकारा गूंज रहा है। टीले वाली मस्जिद से लेकर ईदगाह तक सहरी की इत्तिला और तरावीह (कुअऱ्ान के पाठ) की पाकीजगी से रूबरू है, लखनऊ। गो कि गोमती के पानी मिले दूध में पकी सेवेइयों में हिन्दू-मुसलमान की तलाश बेमानी है।
    सियासत के मुहल्लों में बाढ़ और शहरिया सीवर के बदबूदार पानी से पैदा डेंगू, मलेरिया, वायरल से पीडि़तों की कराहटों से बड़ी चर्चा दिल्ली की गद्दी हथियाने की जारी है। वह भी यह भूलकर कि इसी सावन में देश आजाद हुआ था और आजाद देश का बचपन आज भी अधनंगा है, यौवन हाथ पसारे है, तो बुढ़ापे के खण्डहर बस दफ्न होने को हैं। लैपटाॅप, खाद्य सुरक्षा कानून, नमो और सर्व समाज के दंगल से आदमी पहलवान का खिताब हासिल कर पायेगा? सवाल इससे भी अधिक हैं मगर बहरे कौओं की कांय-कांय में दोहरा कर होगा क्या? जब आदमी के जलने के लिए चिता की लकड़ी तक कीमती हो जाये तब सावन का रूदन बढ़ेगा नहीं? जब ईद की सेवइयां सरे बाजार लुट जाएं और भाई-बहनों से शोहदई करने लग जाएं तब बरखा के वेग से आदमी को कौन बचाएंगा? खुद आदमी, और कौन? सच यही है, इस साल जश्न-ए-आजादी के दिन घर में घुसे घरेलू लुटेरों से छुटकारा पाने की कसम खानी होगी। भोलेबाबा को दूध से नहलाने की जगह हर बच्चे को दूध उपलब्ध कराने का संकल्प लेना होगा। ईद की नमाज के वक्त मुल्क की हिफाजत की हलफ उठानी होगी और अम्मा के हाथ की बनी मीठी सेवइयों का लुत्फ उठाने के लिए सावन और ईद को गले मिल कर आजाद उद्ंदडों को सबक सिखाना होगा। चुनाचे प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ से लौटे हमीद के हाथों में लोहे का चिमटा देखकर दादी की आँखों में उमड़ आये सावन का दुलार पूरे मुल्क को भिगो दे और सच्ची व मासूम खिलखिलाहटें समाजवादी हो जाएं। तभी तो सावन और ईद की सेवइयों की मिठास एक रस होगी और अन्त में-
अगर मिलकर बरस जाएं यही बिखरे हुए बादल।
तो फिर सहराओं को सैलाब में तब्दील करते हैं।।

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