Wednesday, August 7, 2013

मंझली बहू

रेशमी कपड़ों में लिपटी एक गठरी जब घर के दरवाजे पर आकर रूकी तो मां ने बड़े ही उत्साह से स्वागत किया। मंगलगीत गाते हुए अपनी बाहों में लिपटाकर पलकों की छांव तले देशी घी के चिराग जलाकर घर में प्रवेश दिलाया। वो रेशमी कपड़ों की गठरी परिवारजनों, संबंधियों और पड़ोसियों के बीच सिमटी-सिकुड़ी सी एक कोने में रखी थी। कभी-कभी जब वह हिलती तो चूडि़यों की खनक से वातावरण संगीतमय हो उठता। लेकिन उस गठरी के खुलने के आसार नजर नहीं आ रहे थे। तभी मां की नजर अचानक मुझ पर पड़ी और वे एकदम बोल पड़ीं, ‘‘बड़े तुम आराम कर लो, अब औरतों का काम तो रात भर चलता रहेगा।’’ मैं इंतजार में था, तुरन्त तीसरी मंजिल की ओर बढ़ गया।    ?
    ऊपर आकर भी भाभियों, बहनों और अनेक रिश्ते की औरतों की खिल-खिलाहट के खनकते स्वरों से पीछा न छुड़ा सका। थका हुआ शरीर आराम चाहता था लेकिन आराम शायद नसीब में नहीं था। बार-बार मुझे अपने मंझले भाई का चेहरा याद आ जाता, जो आज्ञाकारी और सहृदय था। तभी तो बारात जब लड़की वालों के दरवाजे पहुंची तो मात्र औपचारिकताओं को लेकर विवाद हो गया, जिसने तूल भी पकड़ा और मैंने गरजदार आवाज में बारात वापसी की घोषणा कर दी। मंझला चुपचाप अपनी उमंगों की हत्या करके सर झुकाकर मेरे पीछे हो लिया। इस विवाद से पहले जयमाल पड़ चुका था, मंझले ने लजाई-शर्माई जेवरों से लदी-फंदी, औरतों और नाजुक बदनवाली गोरियों के बीच घिरी बनारसी साड़ी में लिपटी झुकी-दबी गठरी को एक नजर देख लिया था। फिर भी उसके चेहरे पर कोई हलचल नहीं थी, न कोई निराशा या कुण्ठा का ही भाव उजागर हो रहा था। मुझे उस पर गर्व हो आया था। मैं भूखा भी था और गुस्से ने कुछ ज्यादा ही भूख बढ़ा दी थी, परन्तु मंझले के धर्य ने मुझे बड़ी शक्ति दी। विवाद के निपटते ही मंझला चहकने लगा था। हंसी-ठिठोली के बीच मंझले को घर के अन्दर विवाह वेदी पर जाना पड़ा। मैं अपने संबंधियों व छोटे भाई के साथ बाहर गपशप करने में व्यस्त हो गया।
    मुझे कई रस्मों को अदा करने के लिए अन्दर बुलाया गया, तब मैंने देखा मंझला, एक रेशम की गठरी के करीब बैठा है। पंडित मंत्रोचार के साथ फेरे की तैयारी करा रहा था। फेरे पूरे हुए फिर शर्ताें और नियमांे का सिलसिला शुरू हुआ। पहले की छः शर्ताें को मंझले ने दोहराया और पाबंदी से पालन करने का वचन दिया। सातर्वी शर्त वधू के लिए थी कि मैं जीवन भर किसी दूसरे पुरूष को नहीं देखूंगी। हालाकि इस ‘‘न देखने’’ की शर्त की व्याख्या पंडित जी ने नहीं की थी, फिर भी मंझला बहुत खुश था।
    ‘‘अरे तुम अभी जाग रहे हो।’’ अचानक मेरी पत्नी के शब्दवाण ने विचारों का घेरा तोड़ा।
    ‘‘हां आवो। मंझली बहू कैसी लगी।’’
    ‘‘ठीक है, सुन्दर तो है ही, इतनी ही सुशील भी हो तो ठीक ही ठीक है।’’
    ‘‘क्यों क्या तुम्हें कुछ शक है?’’
    नहीं। नहीं! मैंने तो साधारण सी बात कही है। फिर वही मौन छा गया। अंधेरे ने नींद की चादर ओड़ने को मजबूर कर दिया।
    प्रातः की जाग में शोर के साथ कहकहे और ढोलक की थाप पर सुरीले गीत के बोल हवा में तैर रहे थे। आज मेहमानों की गहमागहमी कुछ अधिक हो गई थी। पूरा दिन दौड़ धूप में यूं बीत गया, जैसे हवाई सफर बीत जाता है। शाम की आमद मंे रंगीन बल्बों और टयूब की रोशनी में पंडाल नहाया हुआ था। पंडाल के एक कोने में मंझला उसी रेशमी गठरी के साथ ऊंची कुर्सी पर बैठा था। आज गठरी कुछ खुली सी लग रही थी। प्रीतिभोज कैसे और कब निपट गया, पता नहीं लग सका। दूसरे दिन मैं ऊपर की मंजिल पर खाना खा रहा था कि अचानक छत की ओर नजर उठ गई, एक सिल्क का आंचल हवा में लहरा रहा था, मैं एक दम चीख उठा, ‘‘ऊपर कौन है।’’
    ‘‘मंझली बहू।’’
    ‘‘क्यों अभी चैबीस घंटे भी नहीं बीते और शर्म की चादर में आग लग गई।’’ और न जाने क्या-क्या कह गया। मंझली बहू रोने लगी। लोगों ने ढांढस बंधाया, इस बीच मंझला खामोश व निर्विकार रहा।
    मगर मुझे लगा कि रेशमी गठरी खुल गई है। मुझे हैरत भी हो रही थी और डर भी लग रहा था कि गठरी की गांठें शीघ्र ही खुल जाएंगी और रेशमी गठरी बिखर जाएगी, पसर जाएगी तब... तब क्या होगा? दूसरे दिन मेहमानों से भरा घर खाली हो गया था और मंझली बहू मेरी आवाज सुनकर किसी पत्थर के बुत की तरह स्थिर हो जाती तब मां या भाभियां उसका मजाक उड़ाती और वह बुत भयभीत हो उठता, मानो उसे शंका हो कि कहीं महमूद गजनवी की तरह मैं भी पत्थर के बुत को तोड़ने वाला न बन जाऊ।
    इसी तरह आठ दिन बीत गए मंझले ने दुकान से नजरें फरे ली। मुझे लगा कि रेशमी गठरी खुलकर मंझले की बिछावन बन गई है। परन्तु शायद मैं गलत था। दूसरे दिन ही मंझला दुकान पर आया, लेकिन उसने मात्र ‘‘कैशबाक्स’’ को ही खाली किया और बगल में एक छोटा-सा पैकेट दबाए घर की ओर वापस हो लिया।
    समय कितनी तेजी से गतिमान है, अन्दाज लगा पाना बड़ा ही कठिन है। इन्हीं बदली हुई परिस्थितियों में मंझला भूखे मांसाहारी कुत्ते की तरह जिन्दा गोश्त के आसपास मंडराया करता। अगर किसी ने जरा भी छेड़छाड़ की तो फौरन गुर्रा उठता या एकदम काटने की मुद्रा में हमला कर बैठता। हालात यहां तक बदल गए थे कि मंझली बहू की कीर्ति पताका के नीचे खानदान की इज्जत दब गई।
    अब मंछली बहू के पांवों के नीचे सास की छाती थी और शरीर के नीचे मंझला। उसके पास मात्र मेकअप, जेवर और साडि़यों को अपने बदन पर सजाकर, किसी शो रूम की गुडि़या या बाजार की जीनत... बनने का काम रह गया था।
    मेरी निगाहों के सामने का वो खामोश बुत और दुनिया जहान की नजरों में मेरे परिवार की मंझली बहू मंझले के लिए खुदा का स्वरूप हो गई थी। खुदा की इबादत में भी आदमी स्वार्थी हो जाता हैं, लेकिन मंझला उस बुत की इबादत में कहीं से भी स्वार्थी नहीं दिखता था। उसने बुत के शरीर से रेशमी लिबास उतार कर खानदान की इज्जत पर कफन की तरह लपेट दिया।
    कफन में लिपटी खानदानी आबरू की अर्थी पर मंझला उस बुत की लेनाई और चिकनाई की बूंद-बूंद वात्सायन के ‘कामसूत्र’ की अग्नि में डालने में मशगूल था और परिवार एक भयानक तूफान के दहाने पर खड़ा था। जिसका मुझे डर था आखिर वही हुआ। छोटे ने बगावत का झंडा गाड़ दिया, बागी छोटे ने घर की चहार-दिवारी को त्याग दिया और सड़कों पर निकाल गया।
    छोटे के पांव इधर घर से बाहर हुए उधर मंझली बहू के ‘पावं भारी’ हो गए। उसने सास को जिन्दा ही तस्वीर के फ्रेम में जड़ दिया और जेठ को अपनी थाली की जूठन समझकर परे खिसका दिया। अब परिवार फूट का शिकार हो गया जिसका भरपूर फायदा मंझले ने उठाया और अकेला ही पारिवारिक संपत्ति का मालिक बन बैठा। मालिकाना हालात और मंझली बहू के दीवानेपन ने मंझले को कर्ज की कब्र में उतार दिया मगर मंझला सच्चाई को अपने सीने से न लगा सका।
    बाजार में मंझले की इज्जत, दो पैसों की नहीं रह गई, कर्जदारों ने जिन्दगी हराम कर दी और मंझला खानदानी निशानियांे को नीलाम करने पर उतर आया। कर्ज निपटाने के लिए सबसे पहले उसने मंझली बहू के गहनों से दूसरे घरानों की बहुओं की शोभा बढ़ा दी और अब दुकान की बोलिया लग रही थीं।
    इतना कुछ हो जाने पर भी मां मंझले
को बुरा न कहती थीं। उसी के गुण गाती। मुझे भरे समाज में अपमानित कर छोटे को कोसकर समाज में अपना और मंझले को गौरव बढ़ाती, इसके साथ ही स्वयं भी अपमानित होतीं। अपमान की पीड़ा घर की नालियों से बहकर सड़कों तक फैल गई थी।
    अपमान की ज्वाला मंे मेरा शरीर झुलस रहा है, मुझे अच्छी तरह याद है कि मंझले की शादी से पहले मां और मंझले ने मेरे चारों तरफ स्नेह तथा वात्सल्यता की चहारदीवारी खड़ी कर दी थी। उसी चहारदीवारी के अन्दर मैंने जी खोलकर खर्च किया था। बारात जाने के समय बहू के शरीर पर जो जेवर पहनाए जाते थे, उनका भी इंतजाम घर में नहीं था। यहां तक कि बारात घर के दरवाजे से चल पड़ी और जेवरों का कहीं दूर-दूर तक पता नहीं था, तब मामाजी, एक अदना कुंजडि़न और मैं मां की चूडि़यां और गले की जंजीर लेकर सर्राफा बाजार गए उसकी एवज मंे चढ़ावे के जेवर अपनी जमानत पर उधार लाकर बारात जाने के बाद बारात स्थल पर पहुंचा। वहां भी मेरे लिए अपमान और तिरस्कार का द्वार पहले से ही खुला हुआ था।
    बारात जब लड़की वालों के द्वार पर पहुंची थी और तमाम रस्मों की समाप्ति के बाद जिस भोज का आयोजन था, वह भी मेरी पसन्द का न था जिसको लेकर विवाद बढ़ गया था और मैं अपमान के कड़वे घूंट पीकर रह गया था। यहां तक कि पूरी बारात में अपमान और अपमान के सिवा कुछ भी न हासिल हुआ था।
    प्यार और वात्साल्य का झूठा आवरण एक मां भी ओढ़ सकती है क्या? मुझे तो यकीन ही नहीं आता, लेकिन जो इन आंखों ने देखा है और हृदय ने भोगा है, उसे झूठलाया नहीं जा सकता। यह सच है कि नारी हत्यारिणी, व्यभिचारिणी, और आंसू बहाने वाली प्रतिमा हो सकती है, लेकिन अपने दूध की एक बूंद में जहर नहीं मिला सकती। ममता का गला नहीं घोंट सकती और न ही ममतत्व की झूंठी झीनी चादर ओढ़ सकती है। मैं तो मां के प्यार और वात्सल्य की परिभाषा से पूर्णतया अनभिज्ञ रहा हूं। इस गहरे और पीड़ादायक जख्म पर नकली ममता के मरहम के अहसास ने मुझे सीमा से ज्यादा ऊंची छलांग लगाने को मजबूर कर दिया। जब गिरा तो एहसासा हुआ कि जो मेरे दूध की हत्यारिनी हो सकती है, उसे मां कहना कितना गलत है।
    औरत शरीर का व्यापार करती है, छल करती है, लेकिन ममता के साथ कोई सौदा नहीं करती। परन्तु आज मुझे एहसास होता है कि हम सब कहीं गलत अवश्य है। देखा जाए तो हम वैधानिक रूप से औरत के सामाजिक दलाल हैं। क्या फर्क है, वेश्याओं के दलालों में और सामाजिक रीति से वैवाहिक बंधनों में बांधने की अगुवई करने वालों में। मात्र इतना कि एक को समाज नैतिकता का लिबास पहनाकर मान्यता देता है और दूसरे को इन्द्रियों की प्यास बुझाने का अनैतिक साधन मानकर अवहेलना करता है।
    वैश्याओं के दलाल अपने ग्राहकों से कमीशन लेकर सुन्दर शरीर का सामना करा देते हैं, और ग्राहक उसके शरीर के एक-एक हिस्से से अपनी रकम वसूल करता है। यहां तक की स्वयं भी कभी-कभी बिक जाता है। ठीक उसी तरह सामाजिक दलाल वर को वधू तक पहुंचा देते हैं और वर, वधू के शरीर से गिन-गिन कर पूरे ब्याज सहित अपनी शान-ओ-शौकत से बढ़-चढ़कर कीमत वसूल करता है और उसके शरीर पर बिछ जाता है हालात यहां तक पहुंच जाते हैं जैसे वैश्या कंगले को अपने कोठे के जीने से नीचे ढकेल देती है, ठीक उसी तरह सामाजिक बन्धनों में बंधी औरत अपने शरीर की गर्मी में अपने पति को पिघलाकर खुली सड़कों पर संघर्ष के लिए छोड़ देती और खुद ऐश करती है। ठाठ से बनारसी, कांजीवरम साडि़यों से, मेकअप के महंगे सामानों से, कीमती हीरे-जवाहरातों और जेवरों से अपने को सजाती-संवारती है और पति को दुनियां के नर्क में झोंक देती है, और मूर्ख पति नर्क की आग में झुलसता हुआ उसके शरीर से जोंक की तरह चिपटा रहता है। औरत उसकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर उसके जमीर की हत्या तक कर बैठती है।
    मंझले की भी यही मनोदशा थी। मंझले के जमीर को मंझली बहू ने अपनी जुल्फों की छांव में ढककर समाप्तप्राय कर दिया था। अब वह मंझले पर शासन कर रही थी। और ठाठ से ऐश की जिन्दगी जी रही थी। मगर उसे शायद नहीं मालूम कि झूठ और छल की नींव पर बना ताश का महल हल्के से हल्के तूफान का सामना नहीं कर सकता। मंझले की मां और मंझले ने जिस फरेब और दुर्भाग्य के लहू से सने पाए के शाही पलंग पर मंझली बहू को लिटाया था, उसका एहसास भी शायद मंझली बहू को नहीं था।
    उसे नहीं पता था कि उसकी सास ने दुधमुहें बच्चों की मां की हत्या भी की है और बड़ी बहू को आग की लपटों में झुलसाने की साजिश। हालांकि ईश्वर सब पर मेहरबान है। देखने वाला है और न्याय करने वाला है। जवानी के आंगन में वैद्दव्यता का तख्त और उसके बाद आंसूओं के सैलाब में डुबी जिन्दगी। शायद यही ईश्वर का न्याय है। मंझली बहू को तो खानदानी किस्सों की फहेरिस्त का एक सफा भी नहीं मालूम था। वास्तव में उसकी सास ने अपनी सास के कफन को अपनी ओढ़नी और जिठानी की अर्थी की नींव पर अपनी खुशियों का महल खड़ा किया था। आज वह महल कहां?
    हे ईश्वर आज मुझे भी एहसास हो रहा है, तूने शायद मुझे भी दलालों की कतार में खड़ा कर दिया। मैं मंझली बहू और मंझले को आबाद करने के तिलिस्म में इन दुनियाबी और समाजी कारकुनों से कमीशन के रूप में अपमान, तिरस्कार और दुत्कार पा गया था।

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