Wednesday, August 7, 2013

संघर्ष को विराम कहां...

संघर्ष की परिभाषा में विराम के लिए कोई जगह नहीं होती। उसका व्याकरण त्याग और तप की मुस्कान से भरा पुरा होता है। शायद इसी वजह से सच का दर्द सहनेवाले स्वाभिमान का हाथ थामे अपमानों से तपती पगडंडियों को बेखौफ पार कर जाते हैं। मगर ऐसे लोग भावुक अधिक होते हैं और भावुकता अनुशासन कहां मानती है। बस यहीं वे अपने लिए दुश्वारियां पैदा कर लेते हैं। फिर भी जलते हुए रौशनी बिखेरते हैं। उसी रौशनी की ऊर्जा से स्वार्थियों का जमघट भरपूर मस्ती करता है। इस हकीकत से वे वाकिफ भी होते हैं। ऐसी ही शख्सियत पं0 हरिशंकर तिवारी का बखान उनके 74वें जन्मदिवस पर करना लोगों को भले ही बेमौसम लगे, लेकिन चंद लाइनों में उनकी जिंदगी के सावन-भादों का गीलापन, रीतापन तमाम सपनों के लिए प्रेरक होगा।
    ऊँची दुनिया से लड़ने के कारण पंडित जी के आस-पास बहुत सारे लोगों का जमघट लगा रहा। वे अपने जीवन का पहला चुनाव विधान परिषद का लड़े तब कांग्रेस के महारथी हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ गोरखपुर के स्थानीय मठाधीशों की साजिश का शिकार होकर महज एक वोट से हार गये। पिछला चुनाव अपनों की साजिश से हारे। इस बीच उनके जीवन में बहुत कुछ घटा। वे उप्र मंत्रिमंडल के वरिष्ठ सदस्य भी रहे। स्वार्थियों ने ‘हाते’ से लेकर ए-4 पार्क रोड तक फूल ही फूल बिखरा दिये। हरिशंकर तिवारी जिन्दाबाद की गूंज से आसमान को झुकाने का परिहास भी कर दिया। ईमान को अहंकार की खाई में पटकने के ऐसे ही सैकड़ों जतन कर डाले।
    लाभ की चैखट पर खड़े लोगों ने शुभत्व के स्वास्तिक के भीतर धकेलकर पंडित जी को सम्पन्न मुग्ध करने का षड़यंत्र कर डाला। उनसे कई गलत फैसले करा दिये, नतीजा वही हुआ जो होना था। आज कहीं कोई नारा नहीं है, कोई स्वागत द्वार नहीं है, कोई महाभारत नहीं है, सारे शकुनी विदा हो गये। न कृष्ण हैं, न अर्जुन अगर कोई है तो ‘सुदामा’ सरीखे मित्र जो उन्हें कर्ण के रूप में भी स्वीकारते हैं। यह कोरी बकवास नहीं बल्कि फुंफकारता हुआ सच है। हजारों-हजार लोग आज सोने की थाली में चांदी की रोटी उनके नाम के पाटे पर रखकर आराम से खा रहे हैं। उनका जिक्र आने पर उन्हें महज परिचित बताकर छुट्टी पा लेते हैं। इसके सैकड़ों उदाहरण हैं। एक छोटा सा वाकया उनकी कानपुर यात्रा का याद आ रहा है। मैं इस यात्रा में उनके साथ था। पूरा दिन कई कार्यक्रमों में बीता गया, साथ चलनेवालों को भोजन का अवसर कहीं न मिल पाया। पंडित जी की इच्छा थी कि वापसी में किसी ढाबे पर रूका जाएगा। इसी दौरान अन्तिम कार्यक्रम में एक कर्मचारी नेता ने अपने यहां भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया।
    पंडित जी ने मेरी ओर देखते हुए.... चुप्पी साध ली। चुप्पी को उसने ‘हां’ समझा और साधिकार अपने निवास की ओर गाडि़यां मुड़वा दीं। मैंने कुछ दूर चलने के बाद पंडित जी से उस नेता के कई कारनामें बताते हुए उसके यहां न चलने को कहा तो बोले, उसका भाग्य है, हम बदल नहीं देंगे। उसका वो जाने हम तो अपना कर्म कर रहे हैं। सब भूखे भी हैं उनकी भूख मिटेंगी।’ वहां गये भोजन किया। उसके बाद वो नेता सच में भाग्यशाली हुआ और करोड़पति भी लेकिन पंडित जी की याद उसे फिर नहीं ही आई।
    चिल्लूपार से लेकर तमाम शहरों तक ऐसे हजारों उदाहरण हैं और सैकड़ों रिश्तेदार। चिल्लूपार ही नहीं पूर्वीं उप्र का तमाम हिस्सा मामूली वर्षा और नेपाल से नदियों में पानी छोड़े जाने से हर साल बाढ़ से पीडि़त रहता है। चिल्लूपार का काफी कुछ हिस्सा (नदियों के किनारे का क्षेत्र) ‘कछार’ कहलाता है। पंडित जी का गांव भी कछार में पड़ता है। वहां कभी जाना बेहद मुश्किल था, आज पक्की सड़क है। मजबूत बांध है। आषाढ़-सावन की एक बाढ़ में पंडित जी बाढ़ पीडि़तों के बीच मौजूद थे, उन्हंे बचाते हुए वे खुद नाव से हरहराती नदी में गिर पड़े थे। ऐसी ही सेवाओं के साथ संघर्ष आज भी जारी है। यह लाइने संताप से ग्रसित नहीं बल्कि जन्मदिन के बहाने याद आ जाती हैं और शायद किसी की प्रेरणां बन सके। इसलिए लिख जाती हैं। और अन्त में, उन्हें मेरा सलाम कह देना/गरीबी मुफलिसी में कौन सा तोहफा उन्हें दंू/ताकि उनमें हैसियत मेरी ढंकी हो क्या उन्हें दूं भेंट जिसमें/ कैफियत सारी टंकी हो इसलिए कुछ शब्द ले जाओ/इन्हें लिख लो इन्हीं अल्फाज को मेरा कलाम कह देना।

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