Sunday, June 30, 2013

वेश्या नहीं बनने दिया अपनी पीड़ा को.... उम्र भर


मैं, मेरा मन और मेरी माटी स्वाभिमान के राजपथ पर लगातार चलते हुए उम्र के 65वें साल के ठीक पास आ गये हैं। तो क्या मैं थक रहा हूँ? मेरा मन निराश हो गया है? मेरी माटी श्मशान के सच से भयभीत है या फिर बेचैन है? जी नहीं! थका तो मैं तब नहीं, जब जीवन समर में जूझने के लिए लगातार मुफलिसी से मल्लयुद्ध करता रहा। निराशा ने तो उसी समय मेरी प्रेमिका बनने से इन्कार कर दिया था, जब सेठाश्रित पत्रकारिता के भव्य ड्राइंगरूम से धकियाया गया। रही माटी के भयभीत होने की या बेचैन होने की, तो क्या सरयू के गहरे पानी में उतरने से पहले डरे थे ‘राम’? बेचैनी तो बदलाव का फैशन भर है, बस। यकीन मानिए, मैं अयोध्यापति न सही लेकिन अयोध्यापुत्र तो हूंँ, मर्यादाओं ने ‘आदर्श’ ही नहीं ‘आनन्द’ भी दिया। शायद यही कारण था कि हर-हर महादेव... का जयकारा भर नहीं लगाया बल्कि सच की तलवार थामे कर्म के रण की चरित्रकथा बांचता रहा। हां, एक सच और साझा करूंगा, अम्मा और बाबू शब्द के न बोल पाने का अनर्थ अब भी नहीं समझ सका। भले ही दोनों ‘ऊँ नमः शिवाय’ हों या ईश्वर के पर्यावाची। उनसे मेरा हाथ, साथ कब छूटा था, याद नहीं। उन्हें बहुत बाद में लगभग जवानी के अखाड़े में दंड-बैठक लगाते हुए दीवार पर टंगी हुई तस्वीर में देखा। तस्वीरों से अलग कई बार ईश्वर से मुलाकात हुई। शक्ल बयान करूंगा या नाम लूंगा तो शायद मेरी धर्मचेतना पर शंका होगी, लेकिन सैकड़ों, हजारों की संख्या है मेरे मित्रों की, धुर दक्षिण से उत्तर तक, पूरब से पश्चिम तक सबके सब देवाधि देव महाकाल। हर एक की अपनी अलग सामथ्र्य, अपनी अलग पहचान। तभी तो नारद के मोहल्ले में ‘प्रियंका’ के साथ पूरी जिद से मौजूद हूँ।
    नहीं जानता सीता के साथ रावण ने क्या किया होगा, उनकी सच्चरित्रता को एक धोबी ने लांछित करने का सहास दिखाया था। आज तो गांधी के सीता-राम को राजघाट से लेकर खादी आश्रमों तक में कैद कर दिया गया है। रावण के करोड़ों ‘प्रिंट आउट’ हर दीवार पर चस्पा हैं। लांछन के पत्थर थामे समूची दीवार सीता पर हमलावर है। ऐसे में लव-कुश को बदअमनी के अश्वमेघ यज्ञ के दौड़ते घोड़े की लगाम पकड़नी ही होगी। प्रियंका का दामन थामे यही करने का सहास किया है, मैैंने। भले ही अर्थ नहीं है जेब में, मगर आस्था है और अस्थि भी। अषाढ़ में ही जन्मा था, जब घनघोर बारिश से धरा तर-बतर थी, पता नहीं तब कोई केदारनाथ, ‘तालिबानी’ हुआ था या नहीं। मैं तो चवालीस साल के पत्रकारिता पथ पर हिन्दी के तालिबानों से युद्धरत हूँ। जन्मदिवस (7 जुलाई) पर ‘रामकथा’ लिखने की धृष्टता नहीं कर रहा हूूँ, वरन् सच के भूगोल में उन जंगलांे की तलाश में भटक रहा हूँ, जहां राम ने चैद्रह बरस काटे थे।
    भटकाव का हाल यह रहा कि मैंने जब अपने पिता के बनवाए हुए घर में पहला कदम रखा तो देहरी के ठीक ऊपर आले पर बैठे कबूतर के एक जोड़े की गुटर... गूं.. गुटर.. गूं सुनाई दी। अन्दर की दीवारों पर हाथ रखा तो मिट्टी भरभरा कर झरने लगी, आगे बढ़ा तो आंगन की चैखट से टकरा कर गिरने को हुआ तभी दरवाजे का पल्ला सामने आ गया और उसने मुझे थाम लिया। मैं मूरख जान भी न सका कि कबूतर का जोड़ा मुझे आशीष रहा है, दीवारें अपने वारिस पुत्र को देखकर रो दीं थी और दरवाजे का पल्ला मानों पिता का मजबूत हाथ हाथों में आ गया था और अम्मा तो घर की ईंट-ईंट से निकली आ रहीं थीं। शायद यही वजह थी कि आंगन की पहली मंजिल पर पड़े लोहे के जाल में कइयों का पांव फंसा, नहीं फंसा ते मेरा, मेरे भाई का और हमारे बच्चों का। उम्र की सीढ़ी के पैंसठवें डंडे पर कदम रखते हुए समझ आ रहा है, अम्मा-बाबू तो हमेशा साथ रहे, उनका आशीर्वाद साथ रहा। मैं ही नालायक समझ नहीं सका।
    आज मैं सिर्फ अपनी और अपनी ही बात करना चाहता हूँ, भले ही इसे आप मुगालते के ‘बर्थ डे केक’ का काटना मान लें। जब पूरी उमर अपनी पीड़ा को वेश्या नहीं बनने दिया और आँसुओं को आवारा, तो आज भला उज्जर धोती, कड़क कमीज में सजा-द्दजा अक्षरों के लड्डू क्यों नहीं बांट सकता? विचारों के दस्तरख्वान पर क्यों नहीं आमंत्रित कर सकता? कह लीजिएगा, ‘वरमा जी के कपड़ों की क्रीज नहीं टूटती’, उड़ा लीजिएगा खिल्ली मेरे मुंह पर मेरी। आपको हक है मेरे सहोदर। न खुशी, न गम से कोई राय-मश्विरा किया, न खिलखिलाया, सिर्फ आपकी सोहबत में रहते हुए हर नुकीले पत्थर पर अपनी कलम के निशान छोड़े हैं। झूठ-मूठ का कोई गीत नहीं लिखा, नहीं ढोई कोई पालकी। हाथ भी पसारा तो आपके सामने। क्योंकि आप ही तो मेरे देव हो, फिर कहां जाता अपना जन्मदिन मनाने।
    और अन्त में इतना ही कि मैं अयोध्या पुत्र राम, नाम भर से प्रतिष्ठा की चाहत नहीं रखता, लेकिन राम नाम सत्य है। इसी को सार्थक करते हुए वनवास से लौटने की इजाजत अब तो मिलेगी? प्रणाम।

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