Sunday, June 30, 2013

मेरी गली

मैं एक गली में रहता हूं। गली में कुल पच्चीस घर हैं। बीस कम दो सौ की आबादी है। न एक कम, न एक ज्यादा। शुरू से लेकर आखिर तक एक सवालिया निशान सी पसरी है। मानो कोई उल्कापिण्ड प्रश्नवाचक चिन्ह की शक्ल में आकाश से टूट कर गिर गया और उस पर आदमी की औलादें काबिज हो गईं।
    तो गली की कथा शुरू करने से पहले आपको बता दूं कि अंकगणितीय ज्योतिष के मुताबिक इसकी राशि तुला है और मूलांक सात। तुला का अर्थ और असंतुलन से बड़ा गहरा संबंध है। इन दोनों का पूरा-पूरा असर समूची गली में है। गली की सरहद पर बाएं तरफ एक सिपाही का नाजायज घर, दूसरी ओर एक स्कूल है। इसी स्कूल में मालिक अपने परिवार के साथ रहते हैं। तीसरा घर एक रिटायर्ड बंगाली अध्यापक का है। इनको एक बेटा, एक बहू और एक पोती है। सब एक है। पत्नी रही नहीं। अल सुबह से रात तक अखबार पढ़ते और बीच-बीच में अपनी नौजवान नौकरानी से बतियाते दिख जाते हैं। बेटा-बहू दोनों कमाऊ हैं। पोती जवान होती चमकदार पानी की बूंद की तरह टपकने को है। चैथा घर ठीक इनके सामने निगम साहब का है। महाशय सरकारी कर्मचारी हैं। दो बेटियों के बाप हैं। एक बेटी को हाल ही में ब्याह कर जल संस्थान के पीले और गंदे पानी में हरिद्वार से लाया गया गंगाजल मिलाकर गंगा नहाय हैं। इसी मकान में एक जवान जोड़ा किराए पर रहता है, नौकरी पेशा है। पांचवां घर सरमा जी का है, दो बेटे, एक बेटी और एक अदद तरहदार पत्नी। मिसेज निगम और सरमाइन में सपा-बसपा जैसी दुर्दांत रंजिश है। छठे घर के नाम पर उखड़ी ईंटों, लोना खाई दीवारों पर गिरने को बेचैन छत के नीचे उन्नीसवीं शताब्दी के एक बुढ़ऊं रेंट कंट्रोल के बसाए हैं। सासें कभी भी उखड़ सकती हैं, लेकिन हैंडपंप के पानी में खालिस देशी दारू मिलाकर अभी भी खींच जाते हैं। उनके दरवाजे पर घिसी, टूटी, चिटकी और चेचक के बड़े-बड़े दाग जैसी गड्ढेदार खालिस पांच सेर वाली ईंटों का बड़ा सा फर्श है। यहां कुतिया बच्चे पैदा कर सकती हैं। सुअरिया आराम से पसर कर अपनी जचगी करा सकती है। गली का मेहतर अपने औजार भी एक कोने में रख सकता है। गली के आवारा छोकरों का क्लब भी यही है। यहां बैठकर लौंडे लफाड़ी पत्ती खेल सकते हैं और हारने पर एक दूसरे की मां-बहन से बेहूदा रिश्तेदारी भी कायम कर सकते हैं। कुल मिलाकर ये है गली का पक्का समाजवादी चबूतरा। इसके ठीक सामने बिना टोटी वाला सरकारी नल लगा है, जिसमें से तीज-त्योहार पानी रिसता है। इसका भी अपना अलग इतिहास है। इसे स्वर्गीय पं. मुकुट बिहारी मिश्र जी ने एक पउवा भर देशी चढ़ाकर अपने हाथेां से लगाया था। पंडित जी नगर निगम के ‘बंबावाले’ थे। बंबावाले पंडित कहे जाते थे और ‘तमन्ना तबर्रूक है...’ गाते लड़खड़ाते - चलते स्वर्गवासी भये।
    सातवां मकान आज की तारीख में एक बनिये का हैं। पहले इसमे ंभरा-पूरा बंगाली परिवार रहता था। कुछ मर-खप गए, कुछ बंगले-कोठियों में समा गए। बनिये ने पुलिस थाने का हवालातनुमा कठघरा लगाकर दसियों किराएदार बसा लिए हैं। खुद भी सपरिवार ऊपरवाली मंजिल में रहता हैं। आठवां मकान इसी का आधा हिस्सा है। इसमें दो भाई-बहन परिवार सहित रहते हैं। ‘बहिन जी’ मायावती जैसी महात्वाकांक्षा पाले ‘कायनेटिक’ पर रोज दफ्तर जाती हैं। भाई जी निठल्ले आधा दर्जन बच्चों के बाप एम.ए. पास बीवी के पति, साला पुलिस सेवा में है। दारू पीना और जुंआ खेलना शौक में शुमार है। जिस दिन नाप-जोख कर न पी या जुंए में हार गए उस दिन पत्नी की शामत आ जाती है। नौवें घर का दरवाजा इस घर के ठीक मुंह पर है। तीन प्राणियों का छोटा कुनबा। परिवार कल्याण वालों का छोटा परिवार, सुखी परिवार। बिटिया पइंया-पइंयां चलती है, मां-बाप दोनों कुर्बान। दसवां घर इससे सटा हुआ है। इसके मालिकान खुद किराए पर शहर के बाहर नई बसी कालोनियों में रहकर अमीरजादों की कतार में लग गए हैं। तीन किरायेदार दड़बेनुमा तीन कमरों में कठपुतलियों जैसे डोलते ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रूपइया’ जैसे किरदार अपनी-अपनी गृहस्थी जमाए हैं। ग्यारहवां घर इसके बगल में इंजीनियर साहब का है। एक बेटा, दो बेटियाँ, पत्नी स्वर्गवासी हो गई पति प्रभु राम की तरह संत है। बारहवां घर ऐन इन्हीं के दरवाजे के सामने एक सौ अस्सी डिग्री का कोण बनाता हुआ शहर के एक इंटर काॅलेज से रिटायर्ड प्रधानाध्यापक का है। दो बेटे, दो बहुएं, तीन पोते, एक पोती और एक बीमार पत्नी के साथ प्रसन्न हैं। दोनों बेटे काम धंधे में मगन, एक बहू डाॅक्टरनी, दूसरी मोहल्ला स्तर की पंचायत अध्यक्ष, पोते-पोती शिक्षारत हैं। तेरहवें घर को पूरी गली ने भुतहा घोषित कर रखा है। चैदहवें घर में दो बेटों, दो बहुओं, एक पोती और अपनी पत्नी के साथ मैं रहता हूं। अब अपनी तारीफ में क्या कहूं, बहुओं से सुन लीजिएगा। पंद्रहवां घर बेटियोंवाला है, कुल का अकेला दीपक उनके बीच अपने जन्म से अपने होने के लिए जूझता, खौखियाता पांच जनों के साथ दर्जन भर बहनों के चिल्लर ढोता खप रहा है। इसी के आधे हिस्से को सोलहवें घर का नंबर हासिल है। मां-बेटा रहते हैं। मां स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की विधवा, बेटा सरकारी नौकर दो प्राणियों की गृहस्थी। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर, बस अपनी खैर ही खैर। सत्रहवां घर कभी पंडित जी बंबेवाले का था, उनकी औलाद ने एक उद्यमी महिला को बेचकर छुट्टी पाई। इस मकाननुमा ढाबली में एक जोड़ा किराएदार, दो बेटों के साथ महिला रहती है। अठारहवां घर दही वालों का हाता कहा जाता है। मंगाला भउजी और भोलइ दही वाले की जोड़ी एक तिहाई शहर में गली की पहचान बनाए रही। इसी जोड़ी ने शहर में सैंकड़ों दही-दूद्द वाले पैदा कर दिए। मंगाला भउजी के भतीजे अपने परिवार के साथ आज भी मुस्तैदी से दही में जमे हैं। उन्नीसवे नंबर पर बंबावाले पंडित के मकान का एक हिस्सा आता है जिसे टुन्नू दादा ने पंडित जी की जिंदगी में किराए पर लिया था, अब उनका पूरा कब्जा है। अपने आधा दर्जन बच्चों व मोटी-थुलथुल अधेड़ हो चली बीवी के साथ पंडित जी की आत्मा तक को रौशन किए हैं।इसी के पीछे एक कोठरी में जग्गी स्मैकिया अपनी मां के साथ रहता हैं। बीसवें धर में तीन प्राणियों का बंगाली कुनबा द्दीर -गंभीर अपनी ईंटों के भीतर बंद अपने सुख के गीत गाते, एक झबरैले कुत्ते के पीछे भागते-दौड़ते, छलांग लगाते ‘एक ही काफी दूजे की माफी’ का नारा बुलंद किये सच्चे भारतीय नागरिक हैं।
    इक्कीसवें मकान में पूरा अलग मोहल्ला बसा है। इसे पंडित जी का पुरवा या कटरा या फिर हाता कुछ भी पुकार सकते हैं। इसमें सात-आठ परिवार किराए पर बसे हैं। ऊपर की मंजिल में नगर निगम से सेवानिवृत्त मकान मालिक अपनी पत्नी के साथ उम्र के आखिरी पड़ाव पर खड़े अपनी बारी के इंतजार में प्रभु का नाम लेते हैं। नीचे आठों पहर पानी के डिब्बों से लेकर शौंच निबटाने तक के अहम मसले पर बहसें जारी रहतीं। कभी-कभार उलझे चिकने केश और काजल की मोटी रेखा वाले नैनों की ज्वाला से छूटती चिंनगारियों के खौफनाक हमले, हादसों या फौजदारी के मामलों में बदल जाते हैं। किस्सा कोताह ये कि यहां हर नस्ल के पालतू मानव रहते हैं। बाइसवां मकान स्वर्गीय ललई पांडे जी का है, उनकी दो बेटियां अपने परिवारों के साथ रहती हैं। छोटी बेटी भरी जवानी में सत्संगी है और बड़ी वाली परिवार परायण। तेइसवें में बलेसर चार बेटों, एक बेटी, नाती, बहू, पोते के साथ रहते हैं। बड़े बेटे का नाम घिस्सू और सबसे छोटा शायद छोटे... पूरी फौज अपनी गृहस्थी में व्यस्त बस एक लापता घिसुवा को छोड़कर। चैबीसवें में भवानी भइया अपने दो बेटों, एक बेटी और बीवी के साथ बीड़ी का धुआं उड़ाते बड़े ठाठ से साइकिल पर फर्राटे भरते जीवन की मौज में हैं। पचीस नंबर कभी बजरंग माली के नाम से जाना जाता था, बाद में दही वालों ने खरीद लिया। अब उनका बेटा अपने परिवार और अंगूर की बेटी के साथ रहता है। इस घर में बरगद का पेड़ा लगा था, जिसे इलाके भर की औरतें बरगदाही अमावस्या के पर्व पर पूजती थीं। बरगद का पेड़ लोहा सीमेंट की चपेट में बिला गया।
    पूरी गली की विशेषता है गंदगी, बजबजाती हुई नाली, हमारी बिष्ठा, हमारा मैला और हमारा कूड़ा लिये हवा में फैलती दुर्गंध। पचास पैसे वाले शैंपू पाउच से धुले लहराते बालों और टी.वी. विज्ञापनों से छांट कर खरीदें गए या मल्टीनेशनल कंपनियों से मिले गिफ्ट के पाउडर-क्रीम पुते चेहरे, एक अंगरखे जैसे मार्डन कपड़े में लिपटी द्दारावाहिक डींगे हांकती औरतें। और नाली किनारे हगते छोटे बच्चे, पेशाब करते मर्द। हां, गली का दूसरा छोर बंद है। गो कि सभ्यता एक बार घुस आये तो वापस न जा पाये। मेरी गली की सभ्यता का व्याकरण इसके भूगोल में खोजना संभव नहीं हैं, लेकिन सीता-सावित्री से लेकर डेमीमूर, ब्रिटनी स्पीयर्स और ऐश्वर्या हर दरवाजे, हर छज्जे पर अटकी हैं। गली के अंदर बड़े-बड़े गुल हैं।

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