Thursday, April 18, 2013

हिन्दी के स्वर्णाक्षर ‘सुधा’

राम प्रकाश वरमा
‘सुधा’ यानी अमृत अर्थात अमरत्व पाने का रस। इसी अमृत के लिए देव-दानव, ऋषि-राजर्षि में भयंकर युद्ध से लेकर समंदर को मथने तक की भारी मशक्कत हुई। अमृत कुंभ के छलकने से उसकी कुछ बूंदें पृथ्वी पर जहां-जहां गिरीं वहां आज भी मानवीय आपाधापी जारी हैं। हिन्दू और हिन्दी साहित्य अमृत कथाओं से भरा पड़ा है। शायद इसी से प्रेरणां पाकर पं0 दुलारे लाल भार्गव ने ‘सुधा’ और ‘गंगा’ (गंगा पुस्तकमाला) को सर्वसुलभ कराया। हालांकि हिन्दी की ‘सरस्वती’ का कल-कल नाद पहले से ही गूंज रहा था, लेकिन हर किसी को कालीदास की तरह ‘सरस्वती’ में डुबकी लगाने का पुण्य नहीं प्राप्त होता।
    ‘सुधा’ पत्रिका का प्रकाशन लखनऊ से ऐसे समय शुरू हुआ था जब उर्दू भाषा को अंग्रेजी खदेड़ने का षड़यंत्र कर रही थी। 1857 के आजादी युद्ध के बाद भारतीयों से उनकी भाषा, भूषा और भाष्य जबरन छीने जा रहे थे। हिंदुत्व और मुस्लिम की चोटी-दाढ़ी जड़ से सफाचट करने और द्दोती-पैजामा, टोपी-पगड़ी उतरवाने के साथ जीवन के अमृत जल (पानी) को बांट दिया गया था। नया लखनऊ हजरतगंज की शक्ल में करवट ले रहा था। नई पूंजी, नये बाजार, नए फैशन की बुनियाद रखी जा रही थी। ललमुंहों के साथ कलमुंहे भी कोट-पैंट-नेकटाई में फंसे मंुह टेढ़ा कर गुड़ मार्निंग... गुड इवनिंग बोलने की कसरत करने लग गए थे। ऐसे समय में शहरी जीवन की उत्तेजना, उसकी बेचैनी और अजनबियत को पहचानकर भार्गव जी ने ‘माधुरी’ हिन्दी मासिक पत्रिका की रसधार बहाई, जिसने सहजभाव से लोगों को आकर्षित किया। समय और सियासत के शामियाने तले सिक्कों की अदावत में सफलता ने बंदी बनने से इनकार कर दिया।
    ‘सुधा’ हिन्दी मासिक पत्रिका ने इसी सफलता की कोख से श्रावण, 1984 संवत् (सन् 1927) में जन्म लिया। उसकी कीर्ति के खाते में सबसे बड़ी उपलब्धी जमा हुई कि उसे पढ़ने के लिए सैकड़ों लखनउवों ने हिन्दी पढ़ना सीखी। उसकी ग्राहक संख्या पहली छमाही में 6000 से ऊपर निकल गई। यह हिन्दी के क्षेत्र में अभूतपूर्व था। आज भी यह दुर्लभ हैं। एक-दो अंकों को तो दो-तीन बार छापना पड़ा था। ‘सुधा’ साहित्यिक से अधिक परिवारिक पत्रिका बन गई थी। उसमें नियमित रूप से संगीत साधना, सहित्य संसार, स्त्री-समाज, समाज-सुधार, विज्ञान-वैचि×य, व्यंग्य-विनोद, ललित कला, कुसुम कंुज, पुस्तक-परीक्षा जैसे स्तम्भों के साथ कविता, कहानी, उपन्यास (क्रमशः), आलोचना, राजनीति, स्तम्भों के साथ देश-विदेश की पठनीय सामग्री छपती थी। उसकी छपाई, लेआउट और सामग्री ही सर्वश्रेष्ठ नहीं थी वरन् उसमें छपे रंगीन चित्र कला व मुद्रण कला में उच्चकोटि के थे। आज की उन्नत तकनीक से किसी भी मायने में उन्हें उन्नीस नहीं ठहराया जा सकता। भाषा की शुद्धता और गलतियों को पकड़ने के लिए ख्याति प्राप्त विद्धान नियुक्त थे। निराल, इलाचंद जोशी, जगन्नाथ प्रसाद खत्री, श्रीधर पाठक, जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’, पं0 जगंदबा प्रसाद ‘हितैषी’, जयशंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, वृन्दावन लाल वर्मा, रायकृष्ण दास, पं0 रामचंद्र शुक्ला, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, श्रीरत्न शुक्ल, शिवपूजन सहाय, विनोद शंकर ब्यास, सुमित्रा देवी, बदरीनाथ भट्ट, परिपूर्णानन्द वर्मा, गुलाब रत्न ‘गुलाब’, प्रेमचंद, पं0 भगवती प्रसाद वाजपेयी, आचार्य चतुरसेन, मैथिलीशरण गुप्त, गोविन्द बल्लभ पंत, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, मिश्रबंधु, विद्यालंकार और न जाने कितने नामों के स्वर्णाक्षर ‘सुधा’ में छपकर अमर हो गये।
    ‘सुधा’ में ही भार्गव जी ने तुलसी सम्वत् की शुरूआत की थी जो आज बाजार में खो गया। निराला ने पहले अंक के बाद ही ‘सुधा’ को प्रथम श्रेणी की पत्रिका माना, तो विश्व प्रसिद्ध डाॅ0 सर जार्ज ग्रियर्सन ने उत्तर भारत की उच्चकोटि की पत्रिका का दर्जा ‘सुधा’ को दिया था। इसी ख्याति ने हजारों परिवार और नए लेखक/लेखिकाओं को ‘सुधा’ से जोड़ा। यही नहीं काफी समय तक प्रेमचंद जी भी गंगा-पुस्तक माला में साहित्यिक सलाहकार के पद पर कार्यरत थे व इसके सम्पादकीय विभाग से जुड़े रहे। प्रेमचंद जी की पहली कहानी ‘स्वत्व रक्षा’ ‘माधुरी’ में जुलाई 1922 के अंक में सबसे पहले भागर्व जी ने ही छापी थी। पं0 रूपनारायण पांडेय तो ‘सुधा’ सम्पादक थे ही। पं0 अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा का प्रथम परिचय ‘सुधा’ में छपकर ही हुआ। राय कृष्णदास जी ने ‘सुधा’ में छपे चित्रों से प्रभावित होकर जहां प्रशंसा व बधाई पत्र लिखे वहीं तमाम चित्र छपने के लिए भी भेजें। उनकी रचनाएं तो लगातार छपती ही रहती थीं। श्री क्षेमचन्द सुमन ने लिखा है, ‘हिन्दी जगत को श्री भार्गव जी का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने केवल निराला, प्रेमचंद ही नहीं चण्डी प्रसाद ‘हृदयेश’, बेचन शर्मा ‘उग्र’, गोपाल सिंह नेपाली और चतुरसेन शास्त्री को भी हिन्दी के मोहल्ले में स्थापित किया। वे कोरे प्रकाशक नहीं वरन् उच्चकोटि के सम्पादक और कवि थे।’ भार्गव जी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद ‘प्रियंका’ में लिखे एक लेख में सुमन जी ने बेहद व्यथित होते हुए लिखा था, ‘कितने कृतघ्न हैं हम कि जिस व्यक्ति ने ‘हिंदी साहित्य’ को विश्व साहित्य के मंच पर प्रतिष्ठित करने का गौरव और यश प्रदान किया, उसके चले जाने पर भी ज्यों के त्यों अपने कार्य-व्यापार में इस प्रकार संलग्न रहे, मानों कुछ हुआ ही नहीं। सरस्वती के पावन मन्दिर में इतनी बड़ी दुर्घटना से कहीं तो कोई हलचल हुई होती। जिस व्यक्ति ने ‘माधुरी’ और ‘सुधा’ पत्रिकाओं के माध्यम से हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादन का नया मानदंड स्थापित किया, उस दिवंगत आत्मा की स्मृति में दो आंसू भी न बहा सके, विडम्बना ही तो है।’
    ‘मुझे लेखक बनाया मेरे पाठकों ने’ में आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने स्वीकार किया है कि, ‘सम्भवतः पहली कहानी लिखकर दुलारेलाल भार्गव को लखनऊ भेजी। ‘सुधा’ उन्होंने तब निकाली ही थी, एक दिन मुझे उनका पोस्टकार्ड मिला। लिखा था- आपको यदि नागवार न गुजरे तो हम कहानी का पुरस्कार आपको देना चाहते हैं। पाठक मेरी खुशी का अनुमान न लगा सकेंगे। यह एक ऐसी आमदनी का सीधा रास्ता खुल रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अब तक तो मैं इसी में खुश था कि मेरी रचनाएं छप रही हैं। तब तक मैं ‘प्रताप’ कानपुर में ही लेख भेजता था, पर उसने कभी एक धेला भी पारिश्रमिक नहीं दिया था।
    अतः मैंने कार्ड का तुरन्त उत्तर दिया कि- ‘पुरस्कार यदि काट न खाय तो मुझे किसी हालत में उसका भेजा जाना नागवार न गुजरेगा।’ कुछ दिन बाद ही 5 रूपये का मनीआर्डर मिला। उस दिन मैंने सपत्नीक जश्न मनाया और कई दिन तक उन पांच रूपयों का हम लोगों को नशा सा रहा।’
    सचमुच ‘सुधा’ अर्थात अमृत यानी जल जिसमें समाहित है आक्सीजन, उसका अभाव केवल हिन्दी और हिन्दू को ही भ्रष्ट-ध्रष्ट नहीं कर रहा है वरन् समूचे हिन्दुस्तान की सामाजिक, साहित्यिक समरसता को अधमरा कर बाजार के नाम पर दानवों की काॅलोनी में धकेलने का नित नया प्रयास कर रहा है।

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