Thursday, April 18, 2013

एक मेला था छैल छबीला

रईसी की शौकीन तबीयत के हजार-हजार रंगीले किस्से बनारस की गलियों में आज भी सिर पर रंगीन अंगौछा बांधे शान से टहल रहे हैं। साहित्य हो, संगीत हो, महफिल हो, मौज-मस्ती हो, तवायफों की रंगीनियत हो या फिर मेले-ठेले सबमें बम बम। बाबा भोलेनाथ की जय। गंगा मइया की जय। हर-हर महादेव.... हर- हर गंगे का जयघोष और इत्र-फुलेल, जूही -चंपा के गजरों की महक से मह मह करता बनारस भले ही अपना भूगोल बदल रहा हो मगर उसका इतिहास नहीं बदला, चरित्र नहीं बदला। शिवरात्रि पर्व गया, होली आ गई फिर नवसम्वत्.... नया साल यानी नवरात्रें... माता का पूजन, नई फसल, नये अनाज का पूजन गो कि हर दिन पर्व, हर शाम मेला। सम्वतसर के पहले महीने चैत में बनारस में बुढ़वा मंगल का मेला अदभुद तो होता ही था साथ ही नववर्ष के स्वागत का शानदार आयोजन भी हुआ करता था। आज सिर्फ उसकी यादें भर हैं। यह मेला चैत्र के पहले मंगल से शुरू होता था। चार मेले लगते थे जिन्हें मंगल, दंगल, जंगल और झिलंगा कहा जाता था।
    बुढ़वा मंगल का मेला गंगा मां की गोद में लगता था। घाटों पर शामियाने लगते जिनमें रंगीन सजावट होती। नावों और बजरों से घाट पाट दिये जाते। इन पर तरह-तरह की दुकानें लगती थीं। इन्हीं में तवायफों के डेरे भी सजते थे। मेला अलग दिन, अलग घाट पर लगता था। बनारसी बाबू धोती, कुत्र्ता, दुपल्ली टोपी में इत्र से महकते मेले का लुफ्त उठाते।
    रात का नजारा तो स्वार्गिक होता। तवायफों की महफिलों से राजेश्वरी, शिवकंुआरी, मैना रानी (बड़ी/छोटी) बड़ी मोती जैसी नामवर गायिकाओं की स्वरलहरियों के साथ उनकी पायलों के घुंघरूओं का मादक संगीत गंगा की लहरों के साथ तैरता समूचे वातावरण को मदमस्त कर देता था। मेले में नावों की दौड़ और बनारसी रंगबाजों, गहरेबाजों में डोंगियां बांधने की होड़ का मजा ही अलग था।
    ये रंगबाज अपने पट्ठों के साथ बा आवाजें बुलन्द ‘काट दे लहा सी.... का नारा दे किसी बजरे से बंधी डांेगी काट देते। फिर वह डांेगी गंगा की धारा में किसी अल्हड़ यौवना की तरह बेफिक्र बलखाती, तैरती दूसरे-तीसरे लोक ले जाती। बजरों की सजावट ऐसी दमकती कि छैल-छबीली भी शर्मा के गश खा जाय। तिस पर काशी नरेश की मोरपंखी और घुड़दौड़ की शान ही निराली होती थी। काशी-नरेश महाराज ईश्वरी नारायण सिंह के समय नावों की दौड़ और बजरों का यौवन देखते बनता था। उनके प्रतिद्वंदी महाराज कुमार विजयनगरम के बजरे और नावों का रागरंग भी निराला होता था। इन दोनों की शान को दोबाला करते बनारस के रईस राजा मोतीचंद, शापुरी माधोलाल संड, मुंशी माधोलाल, गोसाईं रामपुरी, साह व राय परिवार के सजे-धजे रंगीन बजरे। इनमें नामी गिरामी तवायफों की महफिलें सजती तो भाटों-चारणों के कोविद करतब दम भरते। सचमुच बुढ़वा मंगल का बेढब मेला ऐसा ही शानदार होता था।
    बुढ़वा मंगल मेले की समाप्ति पर दुर्गा मन्दिर के पास एक अखाड़े में दंगल मेला लगता था। जंगल मेला यानी मेला शहर के बाहरी इलाकों में फैल जाता जहां लोग घूमते-फिरते बाटी-चोखा खाते। थाके मांदे लोगों के सुस्ताने (आराम करने) के लिए रईसों के घरों में बैठकें लगतीं, महफिलें सजतीं, खाना-पीना होता, इसे ही झिलंगा मेला कहा जाता था।
    बुढ़वा मंगल का मेला अपने समय का छैला कहा जाता था। सो इस मायने में भी कि ऐसी चारित्रिक सम्पन्नता, साहित्यिक सभ्यता और राग रंग से भरा पुरा संगीत अन्यत्र दुर्लभ था। बनारासी पान, रबड़ी के क्या कहने, मेले में हर आंठवीं दुकान पर इनकी ठसक देखते बनती थी। अब तो सिर्फ नाम रह गया है, बुढ़वा मंगल।
(प्रियंका एलकेओ ब्लाग से)

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