Thursday, April 18, 2013

कहानी आधी सड़क


-राम प्रकाश वरमा
सर्दियों की बदचलन हवाओं ने छेड़छाड़ की तमाम हदें पार कर मौसम से समलैंगिक रिश्ते बना लिये थे। बादल शर्मसार तो सूर्यदेव हैरान। चांद-तारों की बारात सहम गई। मंगल से लेकर शनिदेव तक के चेहरे एकदम सियाह। राहु और केतु ने इन्द्रदेव का हाथ थाम एक गाढ़ी सलेटी सफेद कोहरे की चादर तान दी थी। समूची पृथ्वी लजाई सिमटी सिकुड़ी सिहरी सी कांप रही थी। शहर, गांव, कस्बे, नदी, तालाब, नाले बरफ का गोला थामे किसी अनाथ आश्रम में पलने वाले बच्चों की तरह सहमे से सिर्फ हिल-डुल रहे थे। वाहनों की आवाजाही के बीच राजधानी के हृदय में खड़े गांधी, अम्बेडकर, पंत, पटेल के पुतलों के साथ ट्रैफिक सिपाहियों के दांत बजने का संगीत साफ-साफ सुनाई दे रहा था। नेशनल हाइवे नंबर पच्चीस की शहरी, सड़क के चैराहे हुसैनगंज पर भाला ताने घोड़े पर सवार खड़े महाराणाप्रताप और काले पड़ गये थे। उनके घोड़े के आगे-पीछे आने-जाने वालों की हलचल न के बराबर थी। इक्का-दुक्का वाहन भी खांसते-खंखारते गुजर रहे थे। हां, चैराहे की दुकानों में अभी भी जगमगाहट थीं, लेकिन हलचल नहीं। शराब के ठेके के सामने शायद प्रेमचंद के जमाने का घीसू और उसका बेटा माधव मौजूद थे। बीयर की दुकान पर कथाकार मणि मधुकर की औरतों से मिलती-जुलती दो लड़कियां खड़ी थीं।
    इन सबसे हटकर बिजली के जगमगाते खंभे के नीचे बने गोल चबूतरे पर इलाके के महाराजा का दरबार लगा था। कोई तीस-चालीस अदद आवारा कुत्तों की भीड़ के सामने चबूतरे की सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर वह अद्दलेटा सा दो कुत्तों की पीठ के गावतकिये के सहारे पसरा था। सिर पर बेतरतीब छोटे-छोटे बाल, दाढ़ी शहरी यातायात की तरह गुत्थमगुत्था। लम्बा-मैला सा कोट जिसमे ंकेवल एक बटन जिसे उसने बंद कर रखा हैं। नीचे पैंट भी है काली चीकट, आधी टांगों में फंसी-फंसी। बीच-बीच में किसी कुत्ते को हिदायत देता, किसी को अपने पास बुलाता और किसी को कोई काम सौंपता। सारे कुत्ते उसकी आज्ञा का पालन करते अनुशासित मंत्री परिषद की तरह, पूंछ हिलाते उसके आस-पास मंडराते रहते। इस बीच कोई उधर से गुजरा तो महाराजा ने आवाज लगाई, ‘ओए... डोंगे सामने से एक बड़ी वाली ब्रेड पकड़ लेना’। मना करने की गुंजाइश नहीं थी। क्योंकि उसके मंत्रीगण उस दानदाता को चैदह इंजेक्शन के लायक भी नहीं छोड़ते थे। सो आमतौर पर लोगबाग महाराजा की आज्ञा का पालन करते। महाराजा ब्रेड के टुकड़े सामने खड़े-बैठे कुत्तों की ओर उछालता जिसने लपक लिया उसकी क्षुधा शान्त। कोई झगड़ा नहीं, छीना झपटी नहीं सब अनुशासित। ‘ए... चमकी ले तू दो खा...।’ उस भीड़ से एक गबरू कुतिया उछलकर उसके पास पहुंच जाती है। वह उसे दुलराते हुए बड़े प्यार से ब्रेड खिलाता हैं सारी भीड़ चुपचाप दुम हिलाती खड़ी रहती।
    ‘अबे... तुम लोगों को मालूम है यह सारी दुकानें, यह मार्केट और वो सामने वाला होटल सब खुशहाल पंडित का है। अपने लिए साली ‘नूर मंजिल’ में भी जगह नहीं हैं। सारे पागलांे को आगरे के ताजमहल ले जाएंगे? तुम सबके लिए वो बैंकवाला कूड़ाघर, एलडीए ने एलाट किया है। फिर सड़क पर क्यों सोते हो? इसी बीच मुर्गाें से लदा एक ट्रक गुजरा। दो-तीन कुत्ते दौड़े... आदेश गूंजा ‘मुर्गी पकड़ ला।’ सबके सब ट्रक पर हमलावार। ट्रक चालक के हाथ पैर फूल गये। ट्रक बेतहाशा भागा। खबू दौड़ लगाई लेकिन हासिल कुछ न हुआ थक हार कर पड़ोसी मुल्क के फौजियों की तरह हांफते हुए वापस अपने महाराजा के पास। महाराजा मुस्कराया और चीखा, ‘अबे सुन बे आसमानी बाप इनको खाना देना पड़ेगा तुझे... मेरा क्या...? मैंने तो घर फूंक दिया है अपना बस राख उठानी बाकी है।’ इसी बीच कुत्तों में एक अदद नर-मादा जोड़े ने मैथुनक्रिया का शुभारम्भ कर दिया था। कई गुर्रा रहे थे, कई आॅखें घूर रही थीं। महाराजा बड़े गौर से उन दोनों की क्रिया को देख रहा था। फिर खुलकर हंस पड़ा। रात गहरी हो रही थी, ठंड का कहर बढ़ रहा था। वह उठकर सामने वाली गली में समा गया। चमकी समेत कई कुत्ते उसके साथ चले गये और कई वहीं रह गये।
    सूरज का चमकदार केसरिया गोला आज फिर जाम में फंस गया था। वरूण, इन्द्र के वाहनों की भीड़ के आगे भवानी का रथ बीच आसमान में तिरछा हो गया था, शायद। भोलेबाबा के कैलाश की बरफ सारे रास्तों पर फैली थी। द्दुंध में लिपटा कांपता उजाला, धड़ी की सुइयां और सामने वाली मस्जिद से गूंजती ‘अजान अल्लाहु अक्बर... अल्लाहु अकबर.... अश्हद अल-ला इ ला-ह इल्लल्लाह...’ बता रहे थे कि दोपहर हो रही है। लोग बाग यूं भाग रहे थे जैसे सड़क के दूसरे छोर पर मंगल के मेले में लगे लंगर में बंटनेवाली पूड़ी-सब्जी लूटने की जल्दी में हो। सामने वाली फुटपाथ पर महाराजा अपने सुरक्षादस्ते के साथ दोनों हाथों से अपनी पैंट सम्भाले चला आ रहा था। फर्नीचर की दुकान पर रूक गया, दुकान के मालिक इस्लाम ने कुछ रूपये उसके कोट की ऊपरवाली जेब में रख दिये। काफिला आगे बढ़ गया। सामने से तीन-चार जवान हो गईं लड़कियों का छोटा सा झुंड अपने मुंह से भाप छोड़ता खिलखिलाता चला आ रहा था। महाराजा के दोनों हाथ अपनी पैंट से हटकर ऊपर की ओर उठ गये। पैंट नीचे सरक गई। लड़कियां जोर से हंसते हुए आगे को भागीं जैसे नदी में किसी ने डुबकी लगई हो और उससे उठनेवाली लहरें दूर तक उठती-गिरती चली जा रही हों। महाराजा खुलकर हंसा, कुत्तों ने भी भौंक कर साथ दिया। चमकी नामवाली कुतिया कुछ रूठी सी उन लड़कियों की तरफ मुंह उठाए जोर-जोर से भौंकने लगी। महाराजा ने तब तक पैंट अपने पांवों में ऊपर तक फंसा ली थी। गणेश के होटल पर पूरा काफिला रूक गया मगर चमकी अभी भी वहीं खड़ी बेतहाशा भौंक रही थी। होटल के मरियल से नौकर गामा ने रात के बचे हुए खाने का ढेर उनके सामने डाल दिया। महाराजा और उसकी प्रजा एक साथ लंच पर टूट पड़ी। ‘चमकी...ओ... चमकी... आ जा... बस हो गया।’ महाराजा की आवाज सुनते ही वो कुतिया उछलते हुए पास आ गई। रोटी का एक टुकड़ा उसे खिलाते हुए महाराजा ने दुलराया तो चमकी दुम हिलाते हुए नाचने लगी मानों प्यार के घुंघरू बोल उठे हों। लांच का नजारा देखने वालों के चेहरों पर जहां मुस्कराहट थी, वहीं दूर खड़ा गाय का एक बछड़ा किसी भटके हुए भूखे बच्चे की तरह मायूस था।
    ‘ए बाबू... ए... भूखा हूं... दे...दे.... न...।’ दो घुटनों पर उछलती सवा दो फुट, तीस किलो की मैली सी काया हर राहगीर के पैरों पर हाथ लगाते हुए भीख मांग रही थी। इस अपंग को इलाके के लोग झंझटी कहकर बुलाते थे। झंझटी का इलाका भी गणेश होटल से मियां जी कवाबवाले तक तकरीबन एक फर्लांग के बीच की आद्दी सड़क तक था। झंझटी अपनी कमाई मियां जी के पास ही जमा करता है। कहनेवाले कहते हैं, दस-पन्द्रह हजार महीने की कमाई है झंझटी की, सच तो कभी मियांजी ने भी किसी को नहीं बताया। ईद-बकरीद हफ्ता-दस दिन के लिए झंझटी गायब हो जाता, हां जब दिखता तो ऐसे साफ कपड़ों में जैसे द्दोबी के यहां से धुलकर आया रंगीन कपड़ा। बताते हैं अपने गांव जाता है, वहां झंझटी का भरापूरा परिवार हैं। झंझटी को औरतों खासकर जवान औरतों से मोटी कमाई होती है। कईयों को उससे बात करते और दोनों को हंसते हुए देखा जाता है। आॅटो, बस, रिक्शा के इंतजार में खड़े लोग भी दयावश या परलोक के लिए ‘फिक्सड डिपाजिट’ करने की गरज से उसे सिक्के कम नोट अधिक देते। अचानक कुत्तों के तेज-तेज भौंकने की आवाजें सामने होटल की पार्किंग से आने लगी। उधर चार-पांच कुत्ते सरेराह एक जवान हो चली कुतिया से ‘बलात्कार’ अंजाम दे रहे थे, बाकी शोर मचा रहे थे। मानो मदद की गुहार लगा रहे हों या पास न आने की धमकी दे रहे हों, खुदा जानें!
    सड़क पर ट्रैफिक बढ़ गया था। शाम के गुजर जाने की जल्दी में रात की सियाही सरपट दौड़ने लगी थी। बाजार किसी मटके में जमी हुई कुल्फी के छोटे-छोटे डिब्बों की तरह बरफ में दबा-ढंका सा दिखाई देने लगा था। सब्जी और मछली के ठेलों वाली खाली जगह पर खासा अंधेरा था। इसी अंधेरे में महाराजा और चमकी में प्रेमालाप जारी था, दसियों सुरक्षा प्रहरी मुस्तैद थे। नेशनल हाइवे नम्बर पच्चीस की विधानसभा की ओर जाने वाली आधी सड़क बगैर किसी सुरक्षा के तरह-तरह के बलात्कार से पीडि़त बिना चीखे-चिल्लायें मादरजात नंगी पसरी पड़ी थी और देश रोमांस के लिहाफ में दुबका जिस्मानी गरमाहट तलाश रहा था.... शायद!

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