Sunday, February 6, 2011

रोटी को पत्थर में मत बदलो...यारों...!

सियासत के मोहल्लांे मंे जो घमासान इन दिनों मचा है, उससे भारतीय लोकतंत्र बेहद आतंकित है। और नागरिकों को अपने वोट देने पर शार्मिन्दगी महसूस हो रही है। घपले-घोटालों की आड़ में जिस ‘रारनीति’ का नाटक देशभर में हो रहा है, वह निंदनीय ही नहीं अपराध है। देश की महापंचायत का मानसून सत्र बगैर किसी कामकाज के हंगामे की भेंट चढ़ गया। जनता की गाढ़ी कमाई के 6 सौ करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। इसकी भरपाई कौन करेगा? कायादा तो यह कहता है कि इसे सभी सांसदों से वसूल किया जाये।
    देश में महंगाई पर हो-हल्ला मचाने के अलावा कहीं कुछ नहीं हुआ। सरकार ‘प्रयासरत’ होने के दावे करती रही, तो विपक्षी ‘टीवी स्क्रीन’ पर आरोप लगाते रहे। बोफोर्स तोप को पकड़कर रोने वाले, जेपीसी की जिद पर अड़े महासंग्राम रैली करने वाले और लालचैक पर तिरंगा फहरा कर राष्ट्रप्रेम दर्शाने वाले अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगे? उनकी पार्टी ने भी कई बरस भारत में राजकाज सम्हाला है। उन्हें भी अपने किये हुये फैसले और कारनामे अच्छी तरह याद होंगे। उन पर गौर करना होगा। वे अपना एक भी वायदा पूरा नहीं कर सके। हिन्दुओं की भावनाओं से लगातार खेलने का अपराध अलग कर बैठे। साथ ही भगवान श्रीराम के भी अपराधी हैं। महज भगवा टोपी के नीचे लंबी चोटी में गांठ बांधकर और पीले रंग का जनेऊ कान पर चढ़कार हिंदुत्व के नाम की लघुशंका करते रहने से क्या होगा? आज की पीढ़ी आपसे सच की जमीन पर खड़े होने की आशा रखती है। अपने ही झूठ को सच करने के लिए हलक फाड़ने से ज्यादा जरूरी है नई पीढ़ी में ‘कर्मण्ये व धिकारस्ते..’ की ऊर्जा भरने की, उनमें राष्ट्र के प्रति ईमानदार सोंच जगाने की और आजादी को बचाए रखने की प्रेरणा देने की।
    गांधी को गरियाने से या सारे देश को ‘अयोध्या’ बनाने की जिद से कुछ नहीं होने वाला। जरा गौर से देखिए विदेशी पूंजी आपके देश में लगातार बढ़ रही है। महान राष्ट्रों के महान राज्याधीश आपके देश में व्यापार करने की, बढ़ाने की मांग करने आ रहे हैं। यानी एक बार फिर ईस्ट इंडिया कंपनी की बदली हुई शक्ल में विदेशी ताकतें देश में सक्रिय होने को बेताब हैं और आप हैं कि मीरजाफर व जगत सेठ का इतिहास बांचने में समय बर्बाद कर रहे हैं। हम एक बार फिर पं0 जवाहर लाल नेहरू के शब्दों को दोहरा रहे हैं, ‘आजादी खतरे में है इसे हमें पूरी ताकत से बचाना होगा।’
    बेहद तकलीफ और हैरत के साथ लिखना पड़ता है, रोटी को पत्थर में बदलने से तरक्की नहीं होती। सूबा उप्र की समूची सियासत में 16वंे चुनाव कुंभ की हाय तौबा मची है। हर राजनैतिक दल उम्मीदवारों के चुनाव से लेकर आदमी को झूठे सपने दिखाने में मसरूफ है। सूबे में क्या हो रहा है? आदमी किन तकलीफों से गुजर रहा है? ये कौन सोंचेगा? वह भी तब जब इस वित्तीय वर्ष के दस महीनों में विकास योजनाओं पर बजट का महज 45 फीसदी ही खर्च किया गया है। इसी तरह पिछले साल आई बाढ़ से निपटने व बाढ़ग्रस्तों की सहायता के लिए 220 करोड़ दिये गये थे, उसमें भी आधी ही रकम खर्च की गई है। ऐसे बहुत सारे आंकड़े हैं, जिनकी वजह से उत्तर प्रदेश को ‘बीमारू’ प्रदेश कहा जाता है। ह्यूमन डेवलपमेंट इन्डेक्स पर 2006-07 में उप्र 17वें स्थान पर था। इन तीन चार सालों में सूबे में शिक्षा, स्वास्थ्य,सड़क, पानी, बिजली, कृषि, उद्योग सभी क्षेत्रों में कोई आशाजनक कदम नहीं उठाए गए। आंकड़ों में उप्र की विकासदर 6.3 प्रतिशत है और प्रतिव्यक्ति आय 11 हजार रुपए और टेलीफोन व मोबाइल 11 करोड़ हैं।
    यहां गौर करने लायक है कि सूबे की जनसंख्या 16 करोड़ है, यानी महज चार करोड़ लोग फोन, मोबाइल फोन से महरूम है। इस बाजीगरी से अलग जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है। राजधानी के विधानसभा मार्ग के आसपास की बस्तियों को शौचालय तक नसीब नहीं है। जहां सरकार बैठी है उसके चारों ओर बंदरों, आवरा कुत्तों, सांडों, गायों का आतंक है। घरों में नल लगे हैं, उनमें पानी नहीं आता। बिजली के कनेक्शन हैं लेकिन बिजली जब-तब गायब रहती है। अस्पतालों में मरीज भर्ती नहीं किये जाते। प्रसूता को बगैर इलाज के मरने के लिए तड़पना पड़ता  है। स्कूल में पढ़ने  वाले बच्चों से मजदूरी कराई जा रही है। पुलिस पीड़ितों को ही जेल भेज कर अपनी पीठ थपथपा रही है। कानून-व्यवस्था संभाल रहे हाकिम ही कानून का मखौल उड़ाकर गौरान्वित हो रहे हैं। सारा लखनऊ शहर गंदगी से अटा पड़ा है। समूची राजधानी में कचरा सड़ रहा है। हां, हजरतगंज की सूरतेहाल बदलने की कवायद जारी है। नक्खास को कौन सुधारेगा? हैदरगंज में आदमी नहीं रहते? हाकिमों की ढिठाई इस कदर कि बीत गई ठंड में सूबे में मरनेवालों की संख्या हजारों में थी, मगर राहत आयुक्त/प्रमुख सचिव नहीं मानते कि एक भी आदमी ठंड से मरा। वहीं नगर निगम के रैन बसेरा बनाने व अलाव जलवाने के झूठ को उजागर करने के लिए उच्चतम न्यायालय को टीम गठित करनी पड़ी। फिर भी सरकार हर मोर्चें पर सफल है, ऐसा मुख्यमंत्री का कहना है।
    सूबे का थका हारा विपक्ष पार्को-स्मारकों पर हल्ला मचाने के बाद 16वें चुनाव कंुभ में स्नान करने की चिंता में पल-पल घुल रहा है। उसके पास न कोई नीति है, न नीयत। बस सत्ता पर कब्जा करने के मंसूबे और सपने हैं। यहां एक बात और कहनी होगी कि समूची राजनीतिक जमात गैरजिम्मेदाराना रेस में दौड़ रही है। इनमें भी एक बड़ी संख्या लव, सेक्स, धोखा, भ्रष्टाचार और अपराध के हैरतअंगेज सर्कस में शामिल होकर सूबे की जनता को हलकान करने में लगी है। रह जाती है हमारे सूबे की सर्वजन सरकार, तो उसके अपने एजेंडे हैं, अपनी सोंच है वह उसी पर अमल कर रही है। बहुमत की सरकारों का आचारण प्रायः ऐसा ही होता है। हमें सरकार से उम्मीद छोड़कर खुद आगे बढ़कर कदम उठाने होंगे। 16वें चुनाव कंुभ में शामिल होकर उम्मीद का नया चिराग रौशन करना होगा। कुछ करने वालों को तलाशना होगा ईमानदारों को छांटना होगा। गो कि अब भी समय है, वरना... न समझोगे तो तुम्हारी दास्तां तक न होगी दास्तानों में...!

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